Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
डिसेम्बर २००८
भगवान् महावीर का गर्भापहरण एक वास्तविक घटना
विजयशीलचन्द्रसूरि
भगवान् महावीर का जीवन अनेक विशिष्ट एवं विलक्षण घटनाओं से भरा जीवन था । उनके जीवन में अनेक घटनाएं ऐसी घटित हुई थी, जो या तो सनसनीखेज बनने की गुंजाइश रखती थी, या तो अपार्थिव लगती थी । ऐसी ही एक घटना थी 'गर्भापहार' की घटना |
जैन आगमों के अनुसार तीर्थङ्कर ब्राह्मण कुल में उत्पन्न नहीं होते, अतः माता देवानन्दानामक ब्राह्मणस्त्री की कोख में अवतरित हुए महावीर को, इन्द्र के निर्देशको पा कर, हरि - नैगमेषी नामक देवने, देवानन्दा की कोख में से लेकर, त्रिशला क्षत्रियाणी की कोख में स्थापित किये थे । इस घटना को जैन आगमों में 'गर्भापहार' या 'गर्भसंक्रमण' ऐसे नाम से पहचानी गई है। कई लोग, जो विद्वान् है एवं विज्ञान की वैज्ञानिक दृष्टि से सोचते हैं, इस घटना को अवास्तविक एवं काल्पनिक मानते हैं । उनकी राय में गर्भस्थ भ्रूण का इस प्रकार कुक्षि परिवर्तन हो, और वह भी २६०० साल पूर्व, यह नितान्त अशक्य है और अवैज्ञानिक भी । उन्होंने इस घटना का हल अपनी बुद्धि से ढूंढ निकाला भी है । जैसे कि पण्डित सुखलालजीने माना है कि " त्रिशला को कोई सन्तति नहीं होगी, और अपनी पुत्र - लालसा को सन्तुष्ट करने हेतु उसने देवानन्दा के पुत्र को अपना पुत्र बनाया होगा; आगे जा कर यह बात को ग्रन्थकारों ने गर्भापहरण का रूप दे दिया होगा ।
७९
-
तो डॉ. जगदीशचन्द्र जैन का मन्तव्य ऐसा है कि आयुर्वेद के शास्त्रग्रन्थों में 'नैगमेषापहृत' नामक एक रोग है, जिस में गर्भ कोख में ही शुष्क होता हुआ मर जाता है। हुआ ऐसा होगा कि देवानन्दा का गर्भ इस रोग के कारण मृत हो गया होगा, और उसी के साथ साथ सगर्भा बनी त्रिशलाने पुत्र पैदा किया होगा, तो लोगोंने उसे 'गर्भापहार' मान लिया होगा । गहराई से सोचे जाने पर उक्त दोनों मान्य विद्वज्जनों की दोनों प्रकार
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुसन्धान ४६
की कल्पनाएं अवास्तविक प्रतीत होती है ।
पहली बात : देवानन्दा और त्रिशला दोनों भिन्न भिन्न क्षेत्रों में निवास करनेवाली महिलाएं थी। फिर, दोनों के बीच में कोई सख्य हो, सम्बन्ध हो, अथवा दोनों कभी मिली भी हो, ऐसा एक भी साक्ष्य या प्रमाण उपलब्ध नहीं होता । दो औरतें आत्मीयतापूर्ण सख्य से जुडी हो और दो में से एक अपने पुत्र को दूसरी सखी को भेंट करें ऐसा होना अशक्य नहीं, किन्तु यहां तो दोनों के बीच कोई अनुबन्ध ही नहीं ! इस स्थिति में ऐसा सोचना कि 'देवानन्दा के पुत्र को त्रिशलाने अपना पुत्र बना लिया होगा' केवल क्लिष्ट एवं अप्रतीतिकर, भ्रान्त धारणामात्र है ।
दूसरी बात : रोगसे गर्भ का क्षीण होना यह अलग स्थिति है, और जीवन्त और निरामय भ्रूण का गर्भपरिवर्तन एवं जन्म होना अलग स्थिति है। ग्रन्थों में मिलते प्रतिपादन के अनुसार, देवानन्दा के गर्भ को कोई रोग नहीं था, और बाद में त्रिशलादेवीने जिसे जन्म दिया वह गर्भ/पुत्र भी निरामय ही था । गर्भस्थित महावीर का निःस्पन्द होना कोई बिमारी नहीं थी, अपि तु परिपक्व गर्भने जान-बूझ कर निर्माण की हुई स्थिति थी ।
अब इन दोनों स्थितियों को जोड दे कर बात करने में कौन सा तर्क है, समझ में नहीं आता । 'नागोदर' या 'नैगमेषापहृत' ये दोनों तो गर्भ को क्षीण करनेवाले रोग का नाम है, और जैन आगमों में जो बात है वह तो निरामय गर्भ के कुक्षिपरिवर्तन की बात है । दोनों बातों का मेल कैसे बैठेगा ?। 'हरि-नैगमेषी' देव और 'नैगमेषापहृत' ये दो शब्दों की समानता को लेकर अगर दोनों बातों का मेल बैठाया जाय तो हो सकता है, किन्तु वह प्रतीतिकर नहीं हो सकता ।
देवानन्दा को उक्त रोग लागू पडा था, उसका कोई प्रमाण तो है नहि। जब कि गर्भसंक्रमण के बारे में तो एकाधिक शास्त्रों में पाठ मिल रहे हैं । फिर, देवानन्दा जैसी कोई औरत को ऐसा रोग हुआ भी हो, तो उसकी नोंध लेने की जैन शास्त्रकार को आवश्यकता भी क्या होगी ?। जिस व्यक्ति का और उसके जीवन की कोई घटना का जब महावीरस्वामी के जीवन से कोई अनुबन्ध ही नहीं है, तो उसकी जिक्र महावीर-चरित्रकार क्यों करेंगे ?!
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
डिसेम्बर २००८
ब्राह्मण जाति को हीन दिखाने के वास्ते ऐसा किया गया, ऐसी दलील जरूर हो सकती है। लेकिन किसी जातिविशेष को हीन दिखाने के लिए, अपने इष्ट देव तीर्थङ्कर के साथ, इतनी जुगुप्साजनक (गर्भापहारकी) घटना जोड देना, यह कोई सच्चा भक्त कभी नहि कर सकता । भद्रबाहुस्वामी या सुधर्मास्वामी जैसे श्रुतधर और परम जिनभक्त महात्मा तो ऐसी कुत्सित कल्पना नहीं ही कर सकते थे । फिर, वे स्वयं भी ब्राह्मण जाति के थे !! ब्राह्मण होकर ब्राह्मणजाति की हीनता सिद्ध करने की ऐसी चेष्टा वे करें, यह नितान्त असम्भव प्रतीत होता है ।
एक बात, प्रसङ्गतः, स्पष्ट होनी चाहिए : कल्पसूत्र में जहां कौन से कुल में तीर्थङ्कर पैदा नहि होते उसका वर्णन लिखा है वहां, अन्तकुल, प्रान्तकुल, तुच्छकुल, दरिद्रकुल, भिक्षाचरकुल, कृपणकुल के नाम लिखे गये हैं, और इनमें से एक भी कुल में ब्राह्मण जाति का समावेश नहि करके ब्राह्मणकुल को उसी वाक्य में अलग लिखा गया है । अगर ब्राह्मण कुल सर्वथा हीन माना गया होता, तो उसका नाम अलग न लिखकर उक्त किसी नाम के अन्तर्गत मान लिया जाता !! परन्तु अलग लिखा गया है, उसका तात्पर्य एक ही है कि अन्य सर्व अपेक्षासे उच्च जाति होते हुए भी ब्राह्मण जाति को अयोग्य इस लिए माना गया होगा कि ब्राह्मणों ने वेदों के माध्यम से पशुमेध, नरमेध इत्यादि घोर हिंसात्मक कर्मकाण्डों को धर्म का वैध रूप दिया था और उनकी यज्ञादिरूपेण प्रवृत्ति भी चालू थी ! अब जैन धर्म एवं उसके प्रवर्तक तीर्थङ्कर तो ठहरे अहिंसामार्ग के परम उपासक और किसी भी प्रकार की हिंसा को अधर्म माननेवाले । ऐसे तीर्थङ्कर का अवतरण, ऐसी, हिंसा को धर्म माननेवाली जाति में हो, यह बात जैन परम्परा को किसी भी प्रकार से मान्य न हो, तो उसमें किसी जातिविशेष का अनादर मानना उचित नहीं लगता।
एक सवाल यह भी होता है कि इस रोगका नाम 'नैगमेषापहत' ही क्यों ?। 'गर्भक्षीणता', 'गर्भमृत्यु', 'मृतवत्स' जैसा कोई भी सार्थक नाम न देकर ऐसा निरर्थक नाम क्यों दिया होगा आयुर्वेदाचार्योने ?। नैगमेषापहृत का शब्दार्थ तो ऐसा होगा कि जो (गर्भ) नैगमेष के द्वारा अपहृत हो । इस में
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________ अनुसन्धान 46 गर्भ के क्षय का या मरण का तो संकेत तक नहीं प्राप्त होता / अगर यहां ऐसी कल्पना की जाय कि जाय कि हरि-नैगमेषी देव के द्वारा महावीर का गर्भपरिवर्तन हुआ, बाद में वह घटना व्यापकरूप से लोग में-समाज में प्रसिद्ध हो गई होगी; और उसके पश्चात् कोई स्त्री के गर्भ को नागोदर जैसी बिमारी के कारण हानि हो, तो लोग उस स्त्री के गर्भ के लिए 'वह मर गया' या 'क्षीण हो गया' ऐसे आधातजनक शब्दप्रयोग को टाल कर 'तेरा गर्भ नैगमेषापहृत हो गया', यानी 'तेरे गर्भ को भी नैगमेष (देव) अपहरण करके कहीं ले गया होगा' ऐसा कहने लगे होंगे; तो वह क्लिष्ट कल्पना नहीं होगी / वस्तुतः, कितने लोग जैसे धर्म के अन्ध भगत होते हैं, वैसे कितनेक लोग विज्ञान के भी अन्धे भगत होते हैं। उनके अनुसार धर्म की वे सब बातें गलत है, जिन्हें विज्ञान का आधार एवं समर्थन नहि मिलता / फिर, उस पुराने जमाने में भी विज्ञान जैसी चीज थी, ऐसा मानने को वे तैयार नहीं। ऐसे लोग टेस्ट ट्यूब बेबी की बात को विज्ञान के चमत्कार के नाम पर स्वीकार लेंगे, मगर 2600 साल पूर्व भी ऐसा कोई ज्ञान-विज्ञान था कि जिसके बल से गर्भपरिवर्तन जैसी क्रिया भी हो सकती थी, ऐसा स्वीकार करने में उनको परेशानी होगी / सार यही कि जहां गर्भापहरण की घटना को कल्पसूत्र, आचाराङ्गसूत्र,विवाहपन्नत्तीसूत्र इत्यादि आगमों का स्पष्ट समर्थन है, उपरांत, मथुराउत्खनन में मिले हरि-नैगमेषी देव द्वारा गर्भापहार के शिल्प को याद करें, तो पुरातात्त्विक आधार भी है; वहां 'नैगमेषापहत' रोगवाली कल्पना को एक भी ग्रन्थ का समर्थन नहीं है / फिर भी अगर कोई विद्वज्जन या पृथग्जन उन सूत्रों को एवं इस घटनाको गलत समझे, 'धार्मिक मान्यता' कहकर उसका अस्वीकार करे, तो उसका कोई इलाज व उत्तर नहीं है / ऐसे लोगों की ऐसी अवैज्ञानिक कल्पना उन्हें ही मुबारक। हमें तो यकीन है कि कल कोई वैज्ञानिक प्रक्रिया किसी गर्भ का ट्रान्स-प्लैन्टेशन करके दिखाएगी तो ये लोग भी उसे विज्ञान के चमत्कार के रूप में, बिना हिचकिचाटके, मान लेंगे !! अस्तु /