Book Title: Kya Aryavati Jain Sarasvati Hai
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या 'आर्यावती' जैन सरस्वती है ? प्रो. सागरमल जैन मैंने अपने पूर्व के दो आलेखों - १. अर्धमागधी जैन आगम साहित्य में सरस्वती और २. जैनधर्म में सरस्वती उपासना में जैनधर्म में सरस्वती - की अवधारणा और उपासना का विकास किस रूप में हुआ, यह देखने का प्रयास किया था । प्रस्तुत आलेख में मेरे विमर्श का विषय है - क्या मथुरा के जैन शिल्प में उपलब्ध आर्यावती के दो शिल्पांकन वस्तुत: जैन सरस्वती या जैन श्रुतदेवी (श्रुतदेवता) के शिल्पांकन हैं ? ज्ञातव्य है कि मथुरा के कंकालीटीला के जैन स्तूप से जो पुरासामग्री उपलब्ध हुई है, उसमें जैन सरस्वती की प्रतिमा के साथ-साथ दो आयागपट्ट ऐसे उपलब्ध हुए हैं जिनपर 'आर्यावती' नामक किसी देवी प्रतिमा का शिल्पांकन है | यह देवीप्रतिमा क्या श्रुतदेवी या जैन सरस्वती है ? यही प्रस्तुत आलेख का समीक्ष्य विषय है, क्योंकि आज तक अनेक भारतीय और पाश्चात्य पुराविद यह निर्णय नहीं कर पाये हैं कि यह 'आर्यावती' की देवीप्रतिमा वस्तुतः कौन सी देवी की प्रतिमा (शिल्पांकन) है ? क्योंकि प्राचीन जैन आगम साहित्य एवं आगमिक व्याख्या साहित्य में कहीं भी हमें आर्यावती का कोई उल्लेख नहीं मिलता है | जैनेतर बौद्ध एवं ब्राह्मण साहित्य में भी मुझे आर्यावती का कोई उल्लेख देखने को नहीं मिला । इसी समस्या को लेकर प्रस्तुत आलेख लिखा गया है और विद्वानों एवं पुराविदों से यह आग्रह है कि वे इस सम्बन्ध में अपनी समीक्षा प्रस्तुत करें । यह सुस्पष्ट है कि प्राचीन स्तर के अर्धमागधी आगम साहित्य के एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भगवतीसूत्र में सुयदेवता ( श्रुतदेवता) और सरस्वती का स्पष्ट उल्लेख है, किन्तु उन सन्दर्भों को देखने से यह स्पष्ट होता है कि उसमें श्रुतदेवी या सरस्वती जिनवाणी का ही एक विशेषण या जिनवाणी का ही रूप है । वह कोई देवी है ऐसी अवधारणा वहाँ नहीं है । आगमों में तो अहिंसा या सत्य की अवधारणाओं को भी 'भगवती' या भगवान के रूप में प्रस्तुत किया गया है | किसी देव या देवी के रूप में नहीं । प्रश्नव्याकरण सूत्र में 'सा अहिंसा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ५० (२) भगवई' या 'सच्चं खु भगवं' - ऐसे वाक्यांश उपलब्ध हैं । श्रुतदेवता भी 'श्रुत' ही है । भगवई, भगवं या देवता, ये मात्र आदर सूचक विशेषण हैं । किसी देव-देवी के सूचक नहीं है। इससे स्पष्ट है कि प्रारम्भ में सरस्वती जिनवाणी की और श्रुतदेवता श्रुत (जिनवाणी) के ही प्रतीक थे । किसी विशेष देवसत्ता के सूचक नहीं थे। किन्तु कालान्तर में सुयदेवता या सरस्वती को एक देवीविशेष मानकर उसकी उपासना भी प्रारम्भ हो गई । मथुरा से ईसा की द्वितीय शती के लगभग की जो जैन सरस्वती की प्रतिमा तथा ईसा पूर्व या ईसा की प्रथम शती के जो दो आयागपट्ट उपलब्ध हुए हैं वे यही सूचित करते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शती से जिनवाणी - श्रुतदेवी (आर्यावती) और सरस्वती के रूप में मान्य होकर एक उपासना का विषय बन गई थी। पहले आयागपट्ट में उसका शिल्पांकन हुआ और फिर सरस्वती की प्रतिमा बनी । मथुरा से हमें ईसा की प्रथम-द्वितीय शती की सरस्वती की एक लेखयुक्त प्रतिमा उपलब्ध होती है। इस प्रतिमा की विशेषता यह है कि यह दो भुजा वाली सरस्वती की प्रतिमा है। उसके एक हाथ में पुस्तक होने से तथा अभिलेख में सरस्वती शब्द का स्पष्ट उल्लेख होने से, साथ ही इसकी प्रतिष्ठा वाचक आर्यदेव के शिष्य गणी माघहस्ति के शिष्य आर्य हस्तहस्ती (नागहस्ति) द्वारा होने से यह सुस्पष्ट है कि यह जैन सरस्वती की प्रतिमा है। ज्ञातव्य है कि आचार्य माघहस्ति और नागहस्ति ईसा की प्रथम शती के प्रमुख जैन आचार्य थे। उन्होंने वर्ष ५४ (सम्भवतः शक संवत) की शीतऋतु (हेमन्त) के चतुर्थमास (अर्थात् फाल्गुन मास) के दसवें दिन स्वर्णकार गोव के पुत्र सिंह के द्वारा यह सरस्वती की प्रतिमा दान में प्राप्त कर प्रतिष्ठित की । इस लेख का प्रारम्भ 'सिद्ध' से होता है तथा इसमें आचार्य माघहस्ति के शिष्य हस्तहस्ति (नागहस्ति) को कोट्टियगण, स्थानिक कुल, वैयरी शाखा तथा श्रीगृह सम्भोग का बताया गया है। इस प्रकार प्राप्तिस्थल, अभिलेखीय साक्ष्य आदि से यह सिद्ध होता है कि यह विश्व की प्राचीनतम सरस्वती प्रतिमा है और जैन धर्म से सम्बन्धित है। प्रतिमा की गर्दन के उपर का भाग खण्डित है। प्रतिमा बैठी Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्च २०१० 1 SA-ALP S a हुई है। उसके एक हाथ में पुस्तक, दूसरे हाथ का अग्रभाग खण्डित है, फिर भी ऐसा लगता है कि वह हाथ वरद मुद्रा में रहा होगा । प्रतिमा के ओर एक जैन श्रमण है, जो नग्न है किन्तु उसके हाथ में ऊनी कम्बल तथा दूसरे हाथ में पात्र है । दूसरी ओर हाथ जोड़े हुए एक गृहस्थ का अंकन है जो वर्तमान के श्वेताम्बर श्रमणों के समान अधोवस्त्र और उत्तरीय धारण किये हुए है तथा पादपीठ पर अभिलेख है ।। ___ इस सरस्वती के अतिरिक्त कंकाली टीला जैन स्तूप मथुरा के परिसर से हमें दो आयागपट्ट ऐसे मिले हैं, जिन पर आर्यावती का शिल्पांकन उपलब्ध होता है। दोनों ही आयागपट्ट अभिलेखों से युक्त हैं । इनमें एक अभिलेख का प्रारम्भ 'नमो अरहतो rahasya वर्धमानस्' से होता है और दूसरे indiax.26 अभिलेख का प्रारम्भ 'सिद्धम्' से होता है । अतः यह दोनों पट्ट भी जैनधर्म से ही सम्बन्धित है । किन्तु इनमें 'आर्यावती' नामक जिस देवी का उल्लेख एवं शिल्पांकन है, वह आर्यावती कौन है ? उसका जैनधर्म से सम्बन्ध किस रूप में रहा हुआ है ? यह प्रश्न आज तक अनिर्णीत ही रहा है। कुछ विद्वानों ने इसे तीर्थंकर माता के रूप में पहचानने का प्रयत्न अवश्य किया, किन्तु पहली सुलझी नहीं । इस पहली को सुलझाने का ही एक प्रयत्न इस लेख में भी किया जा रहा है, किन्तु इस चर्चा के पूर्व हमें उन दोनों फलकों के चित्रों और उनके अभिलेखों को सम्यक् प्रकार से समझ लेना होगा । एक फलक पर 'आर्यावती' नाम का स्पष्ट निर्देश है, दूसरे फलक पर आर्यावती नाम का स्पष्ट निर्देश तो नहीं है, किन्तु दोनों शिल्पांकन एक समान होने से यह मानने में कोई बाधा नहीं है कि ये दोनों फलक आर्यावती से सम्बन्धित है। हम क्रमशः उनके चित्र एवं विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं : Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ५० (२) Sand-freeaantismurthian *SISERSurferint.2 Rapidatdar-All । ... Ban"na TH प्रथम फलक प्रस्तुत चित्र में 'आर्यावती' मध्य भाग में खड़ी हुई, उसका एक हाथ वरद मुद्रा में है और दूसरा हाथ कमर पर है। उसके एक ओर एक चवरधारिणी स्त्री खडी हई है, और दूसरी ओर दो स्त्रियां खड़ी हुई हैं । उनमें प्रथम के हाथ में छत्रदण्ड है और दूसरी के हाथों में माला है । आर्यावती के कमर के नीचे के भाग में एक बालक या पुरुष खड़ा हुआ | दिखाया गया है, जो दोनों हाथ जोड़े हुए नमस्कार की मुद्रा में स्थित है। इस फलक के उपर जो अभिलेख ब्राह्मी लिपि में है, उसे निम्न रूप में पढ़ा गया है - अर्हत् वर्धमान को नमस्कार हो । स्वामी महाक्षत्रप सोडास संवत्सर बयालीस के हेमन्त ऋतु के द्वितीय मास की नवमी तिथि को हारित के पुत्र पाल की भार्या कोत्सीय अमोहनीय के द्वारा अपने पुत्रों पालघोष, पोठगघोष और धनघोष के साथ आर्यावती की प्रतिष्ठा की गई। आर्यावती अर्हत की पूजा के लिए। इस अभिलेख के प्रारम्भ में अर्हत् वर्धमान को नमस्कार से तथा 'आर्यावती अर्हत की पूजा के लिए' इस उल्लेख से इतना तो निश्चित हो जाता है कि यह अभिलेख जैन परम्परा से सम्बन्धित है । मेरी दृष्टि में अर्हत के स्थान पर आर्हत पाठ अधिक समीचीन लगता है, क्योंकि प्राचीन काल में जैनधर्म के अनुयायी 'आर्हत' (अर्हत् के उपासक) कहे जाते थे । फिर भी 'आर्यावती' आहेतों अर्थात् जैनों के लिए किस रूप में उपास्य Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्च २०१० थी, यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहता है । RECE+2XKORKEE यह फलक एक कोने से खण्डित है । इसके उपर के भाग में मध्य में स्तूप और दोनों ओर दो-दो तीर्थंकर प्रतिमाएं उत्कीर्ण है । इस भाग के उपर की ओर और नीचे की ओर अभिलेख अंकित है । उसके नीचे दायी ओर 'आर्यावती' का शिल्पांकन है जो प्रायः प्रथम फलक के समान ही है; आर्यावती के समीप एक जैन मुनि (आर्यकन्ह) खड़े हुए हैं । उनके एक हाथ में पिच्छिका है, यह हाथ उपर उठा हुआ है, दूसरे हाथ में कम्बल और मुखवस्त्रिका है, जिससे वे अपनी नग्नता छिपाए हुए है। उनके समीप छोटे आकार के तीन व्यक्तियों का अंकन है । उनमें उपर की ओर जो व्यक्ति खड़ा है वह हाथ जोड़े हुए है, किन्तु उसके सिर पर फनावली अंकित है। नीचे, मेरी दृष्टि में, कोई साध्वी अंकित है, जिसके एक हाथ में पिच्छिका और दूसरे हाथ में मुखवस्त्रिका अस्पष्ट रूप से परिलक्षित होती हैं। उसके पास कोई स्त्री खड़ी है और वह अपने हाथ से आर्यिका का स्पर्श करते हुए या हाथ जोड़े हुए है। चूंकि इस फलक का सम्बन्ध स्पष्टतः आर्यकण्ह के साथ है, मेरी दृष्टि में यही कारण है कि गृहस्थ उपासक के रूप में सर्पफनावली के साथ बलराम को अंकित किया गया हो ।' क्योंकि हिन्दू परम्परा में कृष्ण 1222086104xxx BE द्वितीय फलक 25 ९९ १. यहां आर्यकण्ह यानी आर्य कृष्ण एक जैन आचार्य का नाम है । उसको 'कृष्ण' वासुदेव मान लेना, व हिन्दू परम्परा का सन्दर्भ देकर सर्वफनावलीवाली आकृति को बलराम कह देना नितान्त क्लिष्ट है व भ्रान्तिजनक प्रतिपादन है । फिर बलराम के सिर पर सर्पफनावली हो, यह हिन्दू ( एवं जैन) परम्परा को मान्य भी कहां ? । अत: यह आकृति को बलराम के साथ जोडना कतई उचित नहि लगता । - शी. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अनुसन्धान ५० (२) के साथ बलराम को इसी रूप में अंकित किया जाता है। आर्यकण्ह का उल्लेख कल्पसूत्र पट्टावली के साथ-साथ आवश्यकभाष्य में विस्तार से मिलता है । वस्त्र के प्रश्न को लेकर उनका शिवभूति से जो विवाद हुआ था, वह भी सर्वज्ञात हैं । यहां मैं उस चर्चा में नहीं जाउगा । यहाँ हमारा विवेच्य तो 'आर्यावती' की पहचान ही है। सरस्वती प्रतिमा और इन दोनों फलकों में एक बात विशेष रूप से चिन्तनीय है कि इन दोनों फलकों और सरस्वती की प्रतिमा में गृहस्थ को ही हाथ जोड़े हुए मुद्रा में दिखाए गए हैं, मुनि को नहीं । मुनि मात्र अपनी उपधि (सामग्री) के साथ स्थित है । फलक दो का जो अभिलेख है, उसका वाचन इस रूप में हुआ है : सिद्धम् । सं. ९५ के ग्रीष्म ऋतु के द्वितीय मास के १८ वे दिन (सम्भवतः शक संवत ९५ के वैशाख शुक्ल तृतीया या अक्षयतृतीया को) कोट्टियगण, स्थानिककुल, वैरा शाखा की आर्य अर्हत् (दिन्न) की शिष्या, गृहदत्त की पुत्री एवं धनहस्तिश्रेष्ठी की पत्नी द्वारा (विद्या) दान । इस फलक में देवी और श्रमण के बीच बड़े अक्षरों में 'कण्ह' शब्द यही सूचित करता है कि यह अंकन आर्यकण्ह का है। किन्तु देवी अंकन के समीप 'विद्या' का अंकन कहीं यह तो नहीं बताता है - यह 'विद्या' का अंकन है। इस प्रकार आर्यावती, विद्या एवं सरस्वती - ये तीनों पृथक्-पृथक् हैं या किसी एक के सूचक पर्यायवाची नाम हैं, यह विचारणीय है। कहीं आर्यावती, विद्या और सरस्वती एक तो नहीं है ? इस सम्बन्ध में प्रारम्भ में तो मैं स्वयं भी अस्पष्ट ही था, किन्तु संयोग से मुझे प्रभाशंकर-सोमपुरा की कृति भारतीय शिल्प संहिता के कुछ जिराक्स पृष्ठ प्राप्त हुए, जिसके पृष्ठ १४० पर सरस्वती के (१२) बारह पर्यायवाची नामों का उल्लेख मिला । इसमें सरस्वती के निम्न १२ पर्यायवाची नामों का उल्लेख किया गया है - १. महाविद्या, २. महावाणी, ३. महाभारती, ४. आर्या, ५. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्च २०१० १०१ सरस्वती, ६. ब्राह्मी, ७. महाधेनू, ८. वेदगर्भा, ९. ईश्वरी, १०. महालक्ष्मी, ११. महाकाली, १२. महासरस्वती । इससे मुझे ऐसा आभास हुआ कि प्राचीनकाल में सरस्वती को ही विद्या, आर्या (वती), सरस्वती आदि नामों से जाना जाता था । जैन परम्परा में भी भाषाओं में आर्यभाषा और अनार्यभाषा का उल्लेख मिलता है, इससे यह फलित होता है कि प्राचीन काल में सरस्वती का अन्य नाम आर्यावती, विद्या या महाविद्या भी रहे होंगे। पुनः प्राचीन जैन प्राकृत ग्रन्थ भी प्रमुख रूप से आर्या छन्द में लिखे गये हैं इससे यह फलित होता है कि आर्या (आर्यावती) का सम्बन्ध सम्यक् ज्ञान से अर्थात् जिनवाणी से है और यह सरस्वती का ही एक उपनाम है । इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वस्तुतः मथुरा में उपलब्ध विद्या एवं आर्यावती भी सरस्वती ही है । उस ग्रन्थ में सरस्वती के बारह नाम और लक्षण इस प्रकार दिए गए हैं अथ द्वादश सरस्वती स्वरूपाणि (देवतामूर्ति प्रकरणम्) एकवक्त्राः चतुर्भुजा मुकुटेन विराजिताः । प्रभामंडलसंयुक्ताः कुंडलान्वितशेखराः ॥१॥ इति सरस्वती लक्षणानि । अक्ष-पद्म-वीणा-पुस्तकैर्महाविद्या प्रकीर्तिता । इति महाविद्या १ अक्ष-पुस्तक-वीणा-पद्यैः महावाणी च नामतः ॥२॥ इति महावाणी २ वराक्षं पद्मपुस्तके शुभावहा च भारती । इति भारती ३ वराक्षपद्मपुस्तकैः सरस्वती प्रकीर्तिता ॥३॥ इति सरस्वती ४ वराक्षं पुस्तकं पद्मं आर्या नाम प्रकीतिता ॥ इत्यार्या ५ वरपुस्तकपद्माक्ष(क्षा) ब्राह्मी नाम सुखावहा ॥४॥ इति ब्राह्मी ६ वर-पद्म-वीणा-पुस्तकैः महाधेनुश्च नामतः । इति महाधेनुः ७ वरं च पुस्तकं वीणा वेदगर्भा तथाम्बुजम् ॥५॥ इति वेदगर्भा ८ अक्षं तथाऽभयं पद्मपुस्तकैरीश्वरी भवेत् । इति ईश्वरी ९ अक्षं पद्मं वरग्रन्थौ महालक्ष्मीस्तु धारिणी ॥६॥ इति महालक्ष्मी १० अक्षं पद्मं पुस्तकं च महाकाल्या वरं तथा । इति महाकाली ११ अक्षपुस्तकवीणाश्च पद्मं महासरस्वती ॥७॥ इति महासरस्वती १२ इति द्वादश सरस्वतीस्वरूपाणि (जयमते) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 अनुसन्धान 50 (2) दक्ष नीचे हिन्दु और जैन व्रत : एक क्रियाप्रतिक्रियात्मक लेखाजोखा डॉ. अनीता बोथरा माला माला वरद वरद माला वरद 1. महाविद्या 2. महावाणी 3. भारती 4. सरस्वती आर्या ब्राह्मी 7. कामधेनु 8. वेदगर्भा 9. ईश्वरी 10. महालक्ष्मी 11. महाकाली 12. महासरस्वती उपर कमल पुस्तक माला कमल माला पुस्तक पद्म पुस्तक अभय पद्म कमल वाम उपर नीचे वीणा पुस्तक वीणा कमल कमल पुस्तक पुस्तक पुस्तक कमल माला पद्म पुस्तक वीणा कमल कमल पुस्तक पुस्तक पुस्तक अभय वीणा पद्म वीणा वरद वरद वरद माला माला माला माला वीणा NORA शीर्षक का स्पष्टीकरण : वेद से प्रारम्भित होकर पुराण तथा विविध भक्तिसम्प्रदायों में विचार की जो धारा बहती चली आयी है उसे हम वैदिक, वेदोत्तरकालीन, ब्राह्मण या हिन्दु परम्परा कह सकते हैं / व्रतों के सन्दर्भ में पौराणिक काल में जो विचार अन्तर्भूत हुए है उनको इस शोधनिबन्ध में केन्द्रीभूत स्थान देकर हमने 'हिन्दु परम्परा' शब्द का उपयोग शीर्षक में किया है। यद्यपि हिन्दु तथा हिन्दुत्व इन दोनों शब्दों के बारे में अभ्यासकों में बहुत मतभेद है तथापि वेद से आरम्भ होकर उत्तरकालीन महाकाव्य, दर्शन तथा पुराण में जो विचारप्रवाह बहता चला आया है उसे हम एक दृष्टि से हिन्दु कह सकते हैं / शोधनिबन्ध का प्रयोजन : ब्राह्मण परम्परा से समान्तर बहती चली आयी दूसरी भारतीय विचारधारा श्रमण परम्परा के नाम से जानी जाती है। जैन और बौद्ध परम्परा में यह श्रामणिक विचारधारा साहित्य रूप में प्रवाहित हुई है। जैन विचारधारा श्रमण परम्परा में प्राचीनतम है। जैन साहित्य में प्रतिबिम्बित व्रतों का स्वरूप अपना एक अलग स्थान रखता है। हिन्दु और जैन दोनों धारा इसी भारतभूमि में उद्भूत तथा प्रवाहित होने के कारण उनमें हमेशा आदान-प्रदान तथा क्रिया-प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्तियाँ निरन्तर चलती आयी हैं / व्रत-विचार के बारे में इन दोनों में जो क्रियाप्रतिक्रियाएँ हुई उनका तर्कसंगत लेखाजोखा इस शोधनिबन्ध में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। हिन्दु अथवा ब्राह्मण परम्परा में प्रारम्भ के बहुतांश व्रत-विधान, विविध यज्ञीय क्रियाओं से सम्बन्धित थे / परिस्थितिजन्य कारणों से वे व्रतविधान उपवास, पूजा तथा विविध ऐहिक, पारलौकिक व्रतों में परिणत हुए। नेशनल संस्कृत कॉन्फरन्स, नागपुर, 1,2,3 मार्च 2009 में प्रस्तुत शोधपत्र TOS आर्या