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कृष्णर्षिगच्छ का संक्षिप्त इतिहास
शिवप्रसाद
प्राकमध्ययुगीन एवं मध्ययुगीन निर्ग्रन्थदर्शन के श्वेताम्बर आम्नाय के गच्छों में कृष्णर्षिगच्छ भी एक था। आचार्य वटेश्वर क्षमाश्रमण के प्रशिष्य एवं यक्षमहत्तर के शिष्य कृष्णमुनि की शिष्यसंतति अपने गुरु के नाम पर कृष्णर्षिगच्छीय कहलायी । इस गच्छ में जयसिंहसूरि (प्रथम), नयचन्द्रसूरि (प्रथम), जयसिंहसूरि (द्वितीय), प्रसन्नचन्द्रसूरि (प्रथम व द्वितीय), महेन्द्रसूरि, नयचन्द्रसूरि, (द्वितीय व तृतीय) आदि कई विद्वान् आचार्य हुए हैं। इस गच्छ में जयसिंहसूरि, प्रसन्नचन्द्रसूरि और नयचन्द्रसूरि इन तीन पट्टधर आचार्यों के नामों की प्रायः पुनरावृत्ति मिलती है, अत: यह माना जा सकता है कि इस गच्छ के मुनिजन संभवत: चैत्यवासी रहे होंगे।
कृष्णर्षिगच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिये इस गच्छ के मुनिजनों की कृतियों की प्रशस्तियाँ तथा उनकी प्रेरणा से प्रतिलिपि करायी गयी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की दाताप्रशस्तियाँ उपलब्ध हैं। इस.गच्छ से सम्बद्ध कोई पट्टावली प्राप्त नहीं होती। अभिलेखीय साक्ष्यों के अन्तर्गत इस गच्छ के मुनिवरों द्वारा प्रतिष्ठापित जिन-प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों की चर्चा की जा सकती है। ये लेख वि० सं० १२८७ से वि० सं० १६१६ तक के हैं। साम्प्रत लेख में उक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर इस गच्छ के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
कृष्णर्षिगच्छ का उल्लेख करने वाला सर्वप्रथम साक्ष्य है - गच्छ के आदिपुरुष कृष्णर्षि के शिष्य जयसिंहसूरि द्वारा वि० सं० ९१५ / ई० सं० ८५९ में रचित धर्मोपदेशमालाविवरण की प्रशस्ति' । इसमें जो गुरु-परम्परा दी गयी है, वह इस प्रकार है:
वटेश्वर क्षमाश्रमण
तत्त्वाचार्य
यक्षमहत्तर
कृष्णर्षि
जयसिंहसूरि [वि० सं० ९१५ / ई० सन् ८५९ में धर्मोपदेशमालाविवरण के रचनाकार] शीलोपदेशमाला के कर्ता जयकीर्ति संभवतः इन्हीं जयसिंहसूरि के शिष्य थे।
दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरि ने कुवलयमालाकहा (रचनाकाल शक सं० ७०० / ई० स० ७७८) की प्रशस्ति में अपने गुरु-परम्परा की लम्बी तालिका दी है, जिसमें वटेश्वरसूरि का भी उल्लेख है। इस तालिका में सर्वप्रथम वाचक हरिगुप्त का नाम आता है, जो तोरराय (तोरमाण) के गुरु थे। उनके पट्टधर कवि देवगुप्त हुए, जिन्होंने सुपुरुषचरिय या त्रिपुरुषचरिय की रचना की। कवि देवगुप्त के शिष्य शिवचन्द्रगणि महत्तर हुए जिनके नाग, वृन्द, दुर्ग, मम्मट, अग्निशर्मा और वटेश्वर ये ६ शिष्य थे। वटेश्वर क्षमाश्रमण ने आकाशवप्रनगर (अम्बरकोट/अमरकोट) में जिनमंदिर का निर्माण करवाया। वटेश्वर के शिष्य तत्त्वाचार्य हुए । कुवलयमालाकहा के रचनाकार दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरि इन्हीं तत्त्वाचार्य के शिष्य थे। इस बात को प्रस्तुत तालिका से भली भांति समझा जा सकता है:
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कृष्णर्षिगच्छ का संक्षिप्त...
वाचक हरिगुप्त
[तोरमाण के गुरु]
कवि देवगुप्त
सुपुरुषचरिय के रचनाकार
शिवचन्द्रगणिमहत्तर
[भिन्नमाल में स्थिरवास
नाग
वृन्द
दुर्ग
मम्मट
अग्निशर्मा
वटेश्वर [आकाशवप्रनगर/अम्बरकोट/ अमरकोट में जिनमंदिर के निर्माता]
तत्त्वाचार्य
दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरि [शक सं० ७००/ई० स०७७८ में
कुवलयमालाकहा के रचनाकार उक्त दोनों प्रशस्तियों की गुरु-परम्परा की तालिकाओं के मिलान से उद्योतनसूरि और कृष्णर्षिगच्छीय जयसिंहसूरि की गुरु-परंपरा की जो संयुक्त तालिका बनती है, वह इस प्रकार है:
वाचक हरिगुप्त [तोरमाण के गुरु]
कवि देवगुप्त
[सुपुरुषचरिय या त्रिपुरुषचरिय के रचनाकार]
शिवचन्द्रगणि महत्तर [भिन्नमाल में स्थिरवास]
नाग
वृन्द
दुर्ग
मम्मट
अग्निशर्मा
वटेश्वर क्षमाश्रमण आकाशवप्रनगर में जिनमंदिर के निर्माता)
तत्त्वाचार्य
यक्षमहत्तर
दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरि [शक सं० ७०० / ई० स० ७७८ में कुवलयमालाकहा के रचनाकार]
कृष्णर्षि
जयसिंहसूरि [वि० सं० ९१५ / ई० स० ८५९ में धर्मोपदेशमालाविवरण के रचनाकार]
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शिवप्रसाद
Nirgrantha
(थारापद्रगच्छ से सम्बद्ध वि० सं० १०८४ / ई० स० १०२८ के लेख में इस गच्छ के आचार्य पूर्णभद्रसूरि ने भी वटेश्वर क्षमाश्रमण का अपने पूर्वज के रूप में उल्लेख किया है।)
कृष्णर्षिगच्छ का उल्लेख करने वाला द्वितीय साहित्यिक साक्ष्य है वि० सं० १३९० / ई० स० १३३४ में इस गच्छ के भट्टारक प्रभानंदसूरि द्वारा आचार्य हरिभद्र विरचित जम्बूद्वीपसंग्रहणीप्रकरण पर लिखी गई टीका की प्रशस्ति। यद्यपि इसमें टीकाकार प्रभानन्दसूरि के अतिरिक्त किसी अन्य आचार्य या मुनि का उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु इनकी प्रेरणा से वि० सं० १३९१ / ई० स० १३३५ में लिपिबद्ध करायी गयी त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित की प्रतिलिपि की दाताप्रशस्ति से इनके गुरु-परम्परा के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त होती है। इसके अनुसार कृष्णर्षिगच्छ में सुविहित शिरोमणि पद्मचन्द्र उपाध्याय हुए जिनकी शाखा में भट्टारक पृथ्वीचन्द्रसूरि हुए। उनके पट्टधर प्रभानन्दसूरि के उपदेश से एक श्रावकपरिवार द्वारा उक्त महत्त्वपूर्ण कृति की प्रतिलिपि करायी गयी ।
सुविहितशिरोमणि पद्यचन्द्र उपाध्याय
भट्टारक पृथ्वीचन्द्रसूरि
प्रभानन्दसूरि [वि० सं० १३९०/ ई० सन् १३३४ में जम्बूद्वीपसंग्रहणीप्रकरणसटीक के रचनाकार,
इनके उपदेश से वि० सं०१३९१ / ई० स०१३३५ में विशष्टिशलाकापुरुषचरित की प्रतिलिपि की गयी]
कृष्णर्षिगच्छ का उल्लेख करने वाला तृतीय साहित्यिक साक्ष्य है इसी गच्छ के आचार्य जयसिंहसूरि द्वारा रचित कुमारपालचरित (रचनाकाल वि० सं०१४२२ / ई०१३६६) की प्रशस्ति', जिसके अन्तर्गत ग्रन्थकार ने अपनी गुरुपरम्परा दी है। इसके अनुसार चारण (वारण) गण की वज्रनागरी शाखा के......कुल में कृष्णनामक महातपस्वी मुनि हुए। उनकी परम्परा में निर्ग्रन्थचूडामणि आचार्य जयसिंहसूरि हुए, जिन्होंने वि० सं० १३०१ / ई० स० १२४५ में मरुभूमि से मंत्रशक्ति द्वारा जल निकाल कर प्यास से व्याकुल श्रीसंघ की प्राणरक्षा की। इनके शिष्य प्रभावक शिरोमणि प्रसन्नचन्द्रसूरि हुए। इनके पट्टधर निस्पृहशिरोमणि महेन्द्रसूरि हुए, जिनका सम्मान मुहम्मदशाह ने किया था। इन्हीं के शिष्य जयसिंहसूरि हुए, जिन्होंने वि० सं० १४२२ / ई. सन् १३६६ में उक्त कृति की रचना की जिसकी प्रथमादर्श प्रति इनके प्रशिष्य नयचन्द्रसूरि ने लिखी।
कृष्णमुनि
निर्ग्रन्थचूडामणि जयसिंहसूरि [वि० सं० १३०१/ ई० सं० १२४५ में मरुभूमि में जल निकालकर संघ की
प्राणरक्षा की
प्रभावक शिरोमणि प्रसन्नचन्द्रसूरि
निस्पह शिरोमणि महेन्द्रसूरि [मुम्मदशाह द्वारा सम्मानित
जयसिंहसूरि [वि० सं० १४२२ / ई० स० १३६६ में कुमारपालचरित के रचनाकार]
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कुछ का संक्षिप्त...
आचार्य जयसिंहसूरि ने भासर्वज्ञ कृत न्यायसार पर न्यायतात्पर्यदीपिका की भी रचना की।
जयसिंहसूर के प्रशिष्य एवं प्रसन्नचन्द्रसूरि के शिष्य नयचन्द्रसूरि ने वि० मं० १४४४ / ई० स० १३८८ के आसपास हम्मीरमहाकाव्य' और रम्भामञ्जरीनाटिका" की रचना की। इन रचनाओं की प्रशस्तियों में इन्होंने अपने प्रगुरु जयसिंहसूरि का सादर स्मरण किया है।
जयसिंहसूर 1
प्रसन्नचन्द्रसूरि
नयचन्द्रसूरि
[वि० सं० १४४४ / ई० स० १३८८ के लगभग हम्मीरमहाकाव्य और
रम्भामंजरीनाटिका के रचनाकार)
२७
I
यही इस गच्छ से सम्बद्ध साहित्यिक साक्ष्य हैं । जैसा कि पूर्व में कहा गया है, इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें भी उपलब्ध हुई हैं। इन पर उत्कीर्ण लेखों का विवरण इस प्रकार है:
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शिवप्रसाद
Nirgrantha
प्रतिमालेख
संदर्भ ग्रन्थ
प्रतिष्ठापना रर्ष | माह, तिथि, बार प्रतिष्ठापक आचार्य वि० सं०
बर्तमान प्रतिष्ठा
स्थान
क्रमांक
|
१२८७
नयचन्द्रसूरि
फाल्गुन वदि ३.
रविवार
विमलवसही,
आबू
अर्बुदप्राचीन जैन
लेख संदोह, सं० मुनि जयंतविजय,
लेखाङ्क. २५१.
१३७९
तिथि विहीन - प्रसन्नचन्द्रसूरि पार्श्वनाथ की प्रतिमा पंचायती मंदिर, | जैन लेख संग्रह, ।
का लेख कलकत्ता भाग १, सं० पूरनचन्द
नाहर, लेखाक. ४२६ आषाढ सुदि ५, जयसिंहसूरि ।
विमलवसही, आबू मुनिजयंतविजय,
पूर्वोक्त, लेखा.
गुरुवार
३८१.
१४८३
माघ सुदि ५, गुरुवार प्रसन्नचंद्रसूरि के | आदिनाथ की चिन्तामणि पार्श्वनाथ बीकानेर जैनलेख | पट्टधर नयचन्द्रसूरि | धातु-प्रतिमा का | जिनालय, बीकानेर संग्रह, सं० अगरचन्द लेख
नाहटा, लेखाङ्क-७२४.
१४८८
नयचन्द्रसूरि
मार्गशीर्ष सुदि ५
गुरुवार
शांतिनाथ की वीरजिनालय, वैदों वही, लेखाङ्क-१३४३. धातुकी पंचतीर्थी का चौक, बीकानेर प्रतिमा का लेख
फाल्गुन वदि १०
सोमवार
नयचन्द्रसूरि । सुविधिनाथ की जैनमंदिर, कातरग्राम प्राचीन लेख संग्रह, धातुकी प्रतिमा का
सं० विजयधर्म सूरि, लेखाक- १७४
लेख
१४९८
फाल्गुन वदि १० | जयसिंहसूरि के सुमतिनाथ की
सोमवार संतानीय नयचन्द्रसूरि प्रतिमा का लेख
चन्द्रप्रभ जिनालय, | नाहर, पूर्वोक्त, भाग
जैसलमेर ३, लेखाङ्क. २३१४.
नयचन्द्रसूरि
माघ सुदि १० ।
सोमवार
शांतिनाथ की | वीर जिनालय, प्रतिष्ठा लेख संग्रह, पंचतीर्थी प्रतिमा का पनवाड़. सं० विनयसागर,
लेखाक. ३५१.
लेख
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१०.
११.
१२.
१३.
१४.
१५.
१६.
१७.
१५०६
१५०६
१५०६
१५१०
१५१२
१५२१
१५२४
१५३२
१५३४
पौष सुदि ५
पौष सुदि ९
माघ वदि १३
शुक्रवार
ज्येष्ठ सुदि १० बुधवार
मार्गशिर वदि ५ रविवार
आषाढ़ सुदि २ सोमवार
कृष्णर्विगच्छ का संक्षिप्त...
श्रेयांसनाथ की प्रतिमा का लेख
चैत्र वदि ५ शनिवार प्रसन्नचन्द्रसूरि मुनिसुव्रत की प्रतिमा बालावसही,
का लेख
शत्रुञ्जय
आषाढ़ सुदि १ गुरुवार
नयचन्द्रसूरि
पुण्यरत्नसूरि
चन्द्रप्रभ की प्रतिमा
का लेख
लक्ष्मीसागरसूरि
नयचन्द्रसूरि के विमलनाथ की धातु पथर जयसिंहरि की प्रतिमा का लेख
श्रेयांसनाथ की धातु जैनमंदिर, तूलापट्टी, जैनधानुप्रतिमालेख, की प्रतिमा का लेख सं० मुनि कान्तिसागर,
कलकत्ता
लेखा १०५.
चन्द्रप्रभ की पंचतीर्थी प्रतिमा का
लेख
धर्मनाथ जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त, भाग लेखाङ ९८.
बड़ा बाजार, कलकत्ता
चन्द्रसूरि के सुपतिनाथ की पट्टधर जयचन्द्रसूरि पंचतीर्थी प्रतिमा का
लेख
बालावसही, शत्रुञ्जय
वीर जिनालय, खेड़ा, गुजरात
जयसिंहसूरि सुमतिनाथ की धातु चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर
वही, लेखा ९९.
शत्रुद्रपवैभव, सं० मुनिकान्तिसागर, लेख १२३
वही, लेखा. १३७.
जैनधातुप्रतिमालेख संग्रह, भाग २, सं० मुनि बुद्धिसागर, लेखार ४५५.
शांतिनाथ जिनालय, विनयसागर, पूर्वोक्त, रामपुरा लेखा ६४८
नाहटा, पूर्वोक्त, लेखाङ्क १०७५.
भाण्डागारस्थ धातु- वही, लेखाङ्ग १३७८. प्रतिमा, वीर जिनालय, वेदों का चौक, बीकानेर
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१८.
१९.
२०.
२१.
२२.
१५३४
१५८५ (१५९४ १) ज्येष्ठ सुदि ६
१५९५
१६१६
१६१६
माघ सुदि.. शुक्रवारभ प्रसन्नचन्द्रसूरि के
माघ वदि २ बुधवार
माघ सुदि ११
शिवप्रसाद
माघ सुदि ११
शांतिनाथ की पट्टधर नयचन्द्रसूरि चौबीसी प्रतिमा का लेख
जयशेखरसूरि
जयसिंह सूरि
धनचन्द्रसूरि
उपाध्याय
कमलकीर्ति आदि
धनचन्द्रसूरि,
उपाध्याय
कमलकीर्ति आदि
वासुपूज्य की धातु नेमिनाथ जिनालय, की पंचतीर्थी प्रतिमा सेठियों का वास, बीकानेर
का लेख
जैन मंदिर, भिनाय | विनयसागर, पूर्वोक्त, लेखा ७८२.
Nirgrantha
अजितनाथ की धातुशांतिनाथ जिनालय, वही, लेखा २५३४. की पंचतीर्थी प्रतिमा हनुमानगढ़, बीकानेर
का लेख
नाहटा, पूर्वोक्त, लेखान २३२६.
विमलवसही आबू मुनि जयन्तविजय पूर्वोक्त, लेखाइ १५५
उक्त अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर इस गच्छ के कुछ मुनिजनों की गुरु परम्परा की एक तालिका इस प्रकार बनायी जा सकती है:
नयचन्द्रसूरि ( प्रथम ) [वि० सं० १२८७ ]
प्रसन्नचन्द्रसूरि
[वि० सं० १३७९]
जयसिंहसूर
[वि० सं० १४१७]
प्रसन्नचन्द्रसूरि (द्वितीय)
नयचन्द्रसूरि (द्वितीय) [वि० सं० १४८३-१५०६ ]
जयचन्द्रसूरि [वि० सं. १५३४ ]
विमलवसही आबू वही, लेखान २०६.
जयसिंहसूर [वि० सं० १५२१-३२]
जयसिंहसूर [वि० सं० १५९५ ]
अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा निर्मित इस तालिका में नयचन्द्रसूरि प्रसन्नचन्द्रसूरि और जयसिंहसूर ये तीन नाम कुमारपालचरित
लक्ष्मीसागरसूरि [वि० सं० १५२४]
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कृष्णर्विगच्छ का संक्षिप्त...
और हम्मीरमहाकाव्य की प्रशस्तियों में भी आ चुके हैं। दोनों ही साक्ष्यों में इन नामों की प्राय: पुनरावृत्ति होती रही है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि कृष्णर्षिगच्छ की इस शाखा में पट्टधर आचार्यों को जयसिंहसूरि, प्रसन्नचन्द्रसूरि और नयचन्द्रसूरि ये तीन नाम प्रायः प्राप्त होते रहे। उक्त तर्क के आधार पर वि० सं० १२८७ के प्रतिमालेख में उल्लिखित नयचन्द्रसूरि को निर्ग्रन्थचूडामणि जयसिंहसूरि ( जिन्होंने वि० सं० १३०१ में मरुभूमि में भीषण ताप के समय मंत्र शक्ति द्वारा भूमि से जल निकाल कर श्रीसंघ की प्राणरक्षा की थी) के गुरु (नयचन्द्रसूरि ?) से समीकृत किया जा सकता है । किन्तु इनके शिष्य प्रसन्नचन्द्रसूरि और वि० सं० १३७९ में प्रतिमाप्रतिष्ठापक प्रसन्नचन्द्रसूरि को अभिन्न मानने में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि दोनों आचार्यों की कालावधि में पर्याप्त अन्तर है । वि० सं० १४१७ के प्रतिमालेख में उल्लिखित जयसिंहरि कुमारपालचरित और न्यायतात्पर्यदीपिका ( रचनाकाल वि० सं० १४२२ / ई० स० १३६६ ) के रचनाकार जयसिंहसूरि से निश्चय ही अभिन्न हैं।
वि० सं० १४८३ से वि० सं० १५०५ के मध्य प्रतिमा प्रतिष्ठापक नयचन्द्रसूरि और हम्मीरमहाकाव्य ( रचनाकाल वि० सं० १४४४ / ई० स० १३८८) और रम्भामंजरीनाटिका के कर्त्ता नयचन्द्रसूरि को उनके कालावधि के आधार . पर अलग-अगल आचार्य माना जा सकता है और यह कहा जा सकता है कि वि० सं० १४४४ और वि० सं० १४८३ के मध्य जयसिंहसूरि और प्रसन्नचन्द्रसूरि ये दो आचार्य हुए, परन्तु उनके बारे में हमें कोई सूचना प्राप्त नहीं होती।
अभिलेखीय साक्ष्यों में उल्लिखित लक्ष्मीसागरसूरि (वि० सं० १५२४) और जयशेखरसूरि (वि० सं० १५८४) के बारे में हमें अन्यत्र कोई सूचना प्राप्त नहीं होती ।
इस प्रकार साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा निर्मित तालिकाओं के परस्पर समायोजन से कृष्णर्विगच्छीय मुनिजनों के आचार्य परम्परा की एक विस्तृत तालिका बनती है, जो इस प्रकार है :
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शिवप्रसाद
Nirgrantha
वाचक हरिगुप्त
[तोरमाण के गुरु]
कवि देवगुप्त
[सुपुरुषचरिय या त्रिपुरुषचरिय के रचनाकार]
शिवचन्द्रगणि महत्तर
[भिन्नमाल में स्थिरवास
नाग
वृन्द
दुर्ग
मम्मट
अग्निशर्मा
वटेश्वर
तत्त्वाचार्य
दाक्षिण्यचिहन उद्योतनसूरि
यक्षमहत्तर
कृष्णर्षि
- जयसिंहसूरि [प्रथम] [वि० सं०९१५]
[वि० सं० १२८७, प्रतिमालेख
नयचन्द्रसूरि [प्रथम]
जयसिंहसूरि (द्वितीय
[वि० सं० १३०१ में मरुभूमि में भीषण ताप के समय मंत्रशक्ति से जल निकाल कर संघ की प्राणरक्षा की]
प्रभावकशिरोमणि
प्रसन्नचन्द्रसूरि [प्रथम]
महेन्द्रसूरि
निस्पृहशिरोमणि मुहम्मदशाह द्वारा सम्मानित
जयसिंहसूरि [तृतीय]
[वि० सं० १४२२ / ई० स० १३६६ में कुमारपालचरित एवं न्यायतात्पर्यदीपिका के रचनाकार]
प्रसन्नचन्द्रसूरि [द्वितीय]
नयचन्द्रसूरि द्वितीय]
[वि० सं० १४४४ / ई० स० १३८८ के आसपास हम्मीरमहाकाव्य एवं रम्भामंजरीनाटिका के रचयिता]
प्रसन्नचन्द्रसूरि [तृतीय
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लक्ष्मीसागरसूरि [वि०सं० १५२४, प्रतिमालेख ]
जयशेखरसूरि
[वि० सं० १५८५, प्रतिमालेख]
१.
२.
ܡ
[वि० सं० १९४८३ - १५०६ ] प्रतिमालेख
५.
६.
अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा कृष्णर्विगच्छ की एक कृष्णर्षितपाशाखा का भी पता चलता है। इस शाखा से सम्बद्ध वि० [सं०] १४५० से वि० सं० १५१० तक के प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं। इनका विवरण इस प्रकार है:
माघ वदि ९ सोमवार पुण्यप्रभसूर
१४५०
१४७३
१४८३
१४८३
१४८९
१५०३
जयसिंहसूर (चतुर्थ]
[वि०सं० १५१६- १५३२, प्रतिमालेख]
जयसिंहसूर [वि० सं० १५९५, प्रतिमालेख ] 1
धनचन्द्रसूरि, कमलकीर्ति आदि [वि० सं० १६१६, प्रतिमालेख]
५
कृष्णछिका संक्षिप्त...
भाद्रपद वदि ७ गुरुवार
भाद्रपद वदि. ७ गुरुवार
माघ वदि ६ रविवार
आषाढ़ सुदि ९
पुष्पप्रभसूर
पुण्य के पट्टधर जयसिंहर
पुण्यप्रभसूरि के पट्टधर जयहि
जयसिंहसूरि
जयसिंहसूर के पट्टधर जयशेखर
|
नियचन्द्रसूरि [ तृतीय ]
जयचन्द्रसूरि
[वि०सं० १५३४, प्रतिमालेख]
पद्मप्रभ की चिन्तामणि पार्श्वनाथनाहटा, पूर्वोक्त लेखाक धातुप्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर ५५८.
सुपार्श्वनाथ की आदिनाथ जिनालय विनदरसागर, पूर्वोक्तपंचतीर्थी प्रतिमा का मालपुरा. लेखा २११.
लेख
देहरीनं १८ पर जैनमंदिर, जीरावला अर्बुदाचल प्रदक्षिणा उत्कीर्ण लेख जैनलेख संग्रह, सं०.
देहरी नं. २० पर जैनमंदिर, जीरावला वही, लेखा १४१. उत्कीर्ण लेख
आदिनाथ की चिन्तामणि पार्श्वनाथ धातुप्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर
मुनिजयन्त विजय लेखक १३८.
नाहटा, पूर्वोक्त,
लेखा ७४४.
धर्मनाथ की प्रतिमा और जिनालय, पुरानी नाहर, पूर्वोक्त, भाग का लेख मंडी, जोधपुर १, लेखाङ्ग ५८६.
३३
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शिवप्रसाद
Nirgrantha
१५०५
वैशाख सुदि६. जयसिंहसूरि के चन्द्रप्रभ की धातु कीचिन्तामणि पार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त,
सोमवार पट्टधर जयशेखरसूरि प्रतिमा का लेख | जिनालय, बीकानेर लेखाङ्क ८९०.
१५०८
वैशाख सुदि ५ | जयसिंहसूरि के | शांतिनाथ की धातु लक्कड़वास का विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त,
सोमवार पट्टधर जयशेखरसूरि की प्रतिमा का लेख मंदिर, उदयपुर | लेखाक २३७.
मार्गशीर्ष सुदि १०/ जयसिंहसूरि की | संभवनाथ की धातु | महावीर जिनालय, रविवार
शाखा के की प्रतिमा का लेख वैदों का चौक, | कमलचन्द्रसूरि
बीकानेर
नाहटा, पूर्वोक्त, लेखाङ्क १२१३.
अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर कृष्णर्षिगच्छ की कृष्णर्षितपाशाखा की मुनिजनों के गुरु-परम्परा की जो तालिका बनती है, वह इस प्रकार है:
पुण्यप्रभसूरि [वि० सं० १४५०-१४७३, प्रतिमालेख
जयसिंहसूरि
[वि० सं० १४८३-१४८७, प्रतिमालेख]
कमलचन्द्रसूरि
जयशेखरसूरि [वि० सं० १५१०, प्रतिमालेख]
[वि० सं० १५०३-१५०८ प्रतिमालेख] कृष्णर्षितपाशाखा के प्रवर्तक कौन थे, यह शाखा कब और किस कारण से अस्तित्व में आयी, इस बात की कोई जानकारी नहीं मिलती।
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि कृष्णर्षिगच्छ वि० सं० की ९वीं शती के अंतिम चरण तक अवश्य ही अस्तित्व में आ चुका था। वि० सं० की १० वीं शती के प्रारम्भ का केवल एकमात्र विवरण है जयसिंहसूरि कृत धर्मोपदेशमालाविवरण की प्रशस्ति । इसके लगभग ३५० वर्षों पश्चात् ही इस गच्छ के बारे में विवरण प्राप्त होते हैं और ये साक्ष्य वि० सं० की १७वीं शती के प्रारम्भ तक जाते हैं। यद्यपि इस गच्छ के बारे में लगभग ३५० वर्षों तक कोई विवरण प्राप्त नहीं होता, किन्तु इस गच्छ की अविच्छिन्न परम्परा विद्यमान रही होगी, इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वि० सं० की १६वीं शती के पश्चात् इस गच्छ के सम्बन्ध में कोई भी विवरण न मिलने से ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय तक इस गच्छ का अस्तित्व समाप्त हो गया होगा और इसके अनुयायी किसी अन्य गच्छ में सम्मिलित हो गये होंगे।
संदर्भसूची:१. धर्मोपदेशमालाविवरण, सं० पं० लालचंद भगवानदास गांधी, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ्क २८, बम्बई १९४९, पृ० २२८-२३०; पं० लालचन्द भगवानदास गांधी, ऐतिहासिक लेखसंग्रह, श्री सयाजी साहित्यमाला, पुष्प ३३५, बड़ोदरा १९६३, पृ० ३०४ और आगे; और त्रिपुटी महाराज, जैन परम्परानो इतिहास, श्री चारित्र स्मारक ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ्क ५१, अहमदाबाद १९५२, पृ० ५१८ और आगे.
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________________ Vol. I. 1995 कृष्णपिगच्छ का संक्षिप्त... 2. शीलोपदेशमाला, गुजराती भाषान्तर, अनुवादक हरिशंकर कालिदास शास्त्री, अहमदाबाद 1900, पं० लालचंद भगवानदास गांधी, ऐतिहासिक०, पृ० 314. 3. कुवलयमालाकहा, सं० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ्क 45, बम्बई 1959, पृ० 282-284. 4. अम्बालाल प्रेमचंद शाह, जैनतीर्थ सर्वसंग्रह खंड 1, भाग 1, अहमदाबाद 1953, पृ० 39. 5. Muni Punyavijaya, New Catalogue Of Prakrit and Sanskrit Mss. Jesalmer Collection, L. D. Series No-36 Ahmedabad-1972, p. 303, No. 1492. 6. Muni Punyavijaya, Catalogue of Palm-Leaf Mss in the Shantinath Jain Bhandar, Cambay, Part 7.H. R. Kapadia, Descriptive Catalogue of the Govt. Collections of Mss.desposited at the Bhandarkar Oriental Research Institute Volume XIX, Section II, Part I, B.O. R. 1. Pune 1967, pp. 176-178. 8. न्यायतात्पर्यदीपिका, सं० महामहोपाध्याय सतीशचंद्र विद्याभूषण, Asiatic Society of Bengal, Calcutta 1910. 9. हम्मीरमहाकाव्य, सं० मुनि जिनविजय, राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ्क 65, जोधपुर 1968. 10. H. D. Vclankar, Jinaratnakosha, Bhandarkar Oriental Research Institute, Government Oriental Series, Class c, No. 4, Poona 1944, p. 329.