Book Title: Krodh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation
Catalog link: https://jainqq.org/explore/009590/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध से शील का प्रताप विशेष ! ये क्रोध, मान, माया और लोभ यहीं सारी कमज़ोरियाँ हैं जो बलवान होता है उसे क्रोध करने की जरूरत ही कहाँ रही ? मगर यह तो क्रोध का जो प्रताप है उस प्रताप से सामनेवाले को वश में करने जाता है, पर जिसे क्रोध नहीं उसके पास कुछ होगा तो सही न ? उसका शील नामक जो चारित्र्य है उससे जानवर तक वश में हो जाते हैं। बाघ, शेर, दुश्मन सभी, सारा लश्कर सभी वश में हो जायें। 'दादाश्री - क्रोध डॉ. नीरूबहन अमीन Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादा भगवान प्ररूपित प्रकाशक : अजित सी. पटेल महाविदेह फाउन्डेशन दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद - ३८००१४, गुजरात. फोन - (०७९) २७५४०४०८,२७५४३९७९ E-Mail: info@dadabhagwan.org All Rights reserved - Dr. Niruben Amin Trimandir, Simandhar City, Ahmedabad-Kalol Highway, Post - Adalaj, Dist.-Gandhinagar-382421, Gujarat, India. क्रोध प्रथम संस्करण : प्रत ३०००, फरवरी २००७ भाव मूल्य : ‘परम विनय' और 'मैं कुछ भी जानता नहीं', यह भाव! द्रव्य मूल्य : २.५० रुपये लेसर कम्पोझ : दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद. मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरूबहन अमीन मुद्रक अनुवाद : महात्मागण : महाविदेह फाउन्डेशन (प्रिंटिंग डिवीज़न), पार्श्वनाथ चैम्बर्स, नई रिज़र्व बैंक के पास, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (०७९) २७५४२९६४, २७५४०२१६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिमंत्र दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित पुस्तकें हिन्दी १. ज्ञानी पुरूष की पहचान ७. भूगते उसी की भूल २. सर्व दु:खों से मुक्ति ८. एडजस्ट एवरीव्हेयर ३. कर्म का विज्ञान ९. टकराव टालिए ४. आत्मबोध १०. हुआ सो न्याय ५. मैं कौन हूँ? ११. चिंता ६. वर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी १२. क्रोध English 1. Adjust Everywhere 14. Ahimsa (Non-violence) 2. The Fault of the Sufferer 15. Money 3. Whatever has happened is Justice 16. Celibacy : Brahmcharya 4. Avoid Clashes 17. Harmony in Marriage 5. Anger 18. Pratikraman 6. Worries 19. Flawless Vision 7. The Essence of All Religion 20. Generation Gap 8. Shree Simandhar Swami 21. Apatvani-1 9. Pure Love 22. Noble Use of Money 10. Death: Before, During & After... 23. Life Without Conflict 11. Gnani Purush Shri A.M.Patel 24. Spirituality in Speech 12. Who Am I? 25. Trimantra 13. The Science of Karma दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा गुजराती भाषा में भी बहुत सारी पुस्तकें प्रकाशित हुई है। वेबसाइट www.dadabhagwan.org पर से भी आप ये सभी पुस्तकें प्राप्त कर सकते हैं। दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा हर महीने हिन्दी, गुजराती तथा अंग्रेजी भाषा में दादावाणी मेगेज़ीन प्रकाशित होता है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'दादा भगवान कौन? जून १९५८ की एक संध्या का करीब छ: बजे का समय, भीड़ से भरा सुरत शहर का रेल्वे स्टेशन। प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रगट हुए। और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घण्टे में उनको विश्व दर्शन हुआ। मैं कौन? भगवान कौन? जगत कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?' इत्यादि जगत के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सन्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसकेमाध्यम बने श्री अंबालाल मलजीभाई पटेल, चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रेक्ट का व्यवसाय करने वाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष! उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घण्टों में अन्य मुमुक्षु जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से। उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात बिना क्रम के, और क्रम अर्थात सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढ़ना। अक्रम अर्थात लिफ्ट मार्ग। शॉर्ट कट। आपश्री स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन?' का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह दिखाई देनेवाले दादा भगवान नहीं है, वे तो 'ए. एम. पटेल' है। हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे 'दादा भगवान' हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं। सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और यहाँ' संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हैं।" 'व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं', इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसी के पास से पैसा नहीं लिया। बल्कि अपने व्यवसाय की अतिरिक्त कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे। आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लींक ! 'मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करनेवाला हूँ। पीछे अनुगामी चाहिए कि नहीं चाहिए? पीछे लोगों को मार्ग तो चाहिए न?" - दादाश्री परम पूजनीय दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षु जनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। आपश्री ने अपने जीवनकाल में ही पूजनीय डॉ. नीरूबहन अमीन (नीरूमाँ) को आत्मज्ञान प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थी। दादाश्री के देहविलय पश्चात् नीरूमाँ वैसे ही मुमुक्षुजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रही थी। पूज्य दीपकभाई देसाई को दादाश्री ने सत्संग करने की सिद्धि प्रदान की थी। नीरूमाँ की उपस्थिति में ही उनके आशीर्वाद से पूज्य दीपकभाई देश-विदेशो में कई जगहों पर जाकर मुमुक्षुओं को आत्मज्ञान करवा रहे थे, जो नीरूमाँ के देहविलय पश्चात् जारी रहेगा। इस आत्मज्ञानप्राप्ति के बाद हजारों मुमुक्षु संसार में रहते हुए, जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी मुक्त रहकर आत्मरमणता का अनुभव करते हैं। ग्रंथ में मुद्रित वाणी मोक्षार्थी को मार्गदर्शक के रुप में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो, लेकिन मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मज्ञान पाना जरूरी है। अक्रम मार्ग के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति आज भी जारी है, इसके लिए प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी को मिलकर आत्मज्ञान की प्राप्ति करे तभी संभव है। प्रज्वलित दीपक ही दूसरा दीपक प्रज्वलित कर सकता है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन आत्मज्ञानी श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, जिन्हें लोग 'दादा भगवान' के नाम से भी जानते हैं, उनके श्रीमुख से आत्मतत्त्व के बारे में जो वाणी निकली, उसको रिकार्ड करके संकलन तथा संपादन करके ग्रंथो में प्रकाशित की गई है। मैं कौन हूँ?' पुस्तक में आत्मा, आत्मज्ञान तथा जगतकर्ता के बारे में बुनियादी बातें संक्षिप्त में संकलित की गई हैं। सुज्ञ वाचक के अध्ययन करते ही आत्मसाक्षात्कार की भूमिका निश्चित बन जाती है, ऐसा अनेकों का अनुभव है। 'अंबालालभाई' को सब 'दादाजी' कहते थे। 'दादाजी' याने पितामह और 'दादा भगवान' तो वे भीतरवाले परमात्मा को कहते थे। शरीर भगवान नहीं हो सकता है, वह तो विनाशी है। भगवान तो अविनाशी है और उसे वे 'दादा भगवान' कहते थे, जो जीवमात्र के भीतर है। संपादकीय क्रोध एक कमजोरी है, मगर लोग उसे बहादुरी समझते हैं। क्रोध करने वाले से क्रोध नहीं करने वाले का प्रभाव कुछ ज्यादा ही होता है । आम तौर पर जब हमारी धारणा के अनुसार नहीं होता, हमारी बात सामनेवाला समझता नहीं हो, डिफरन्स ऑफ व्युपोईन्ट (दृष्टिबिन्दु का भेद) होता है, तब क्रोध हो जाता है। कई बार हम सही हों पर कोई हमें गलत ठहराये, तब क्रोध हो जाता है। पर हम सही हैं वह हमारे दृष्टिबिंदु से ही न?सामनेवाला भी खुद के दृष्टिबिंदु से खुद को सही ही मानेगा न! कई बार समझ में नहीं आने पर, आगे का नज़र नहीं आता और क्या करना, यह समझ में ही नहीं आता, तब क्रोध हो जाता है। अपमान होगा वहाँ क्रोध होगा, नुकसान होगा वहाँ क्रोध होगा। इस प्रकार मान के रक्षणार्थ, लोभ के रक्षणार्थ क्रोध हो जाता है। वहाँ मान और लोभ कषाय से मुक्त होने की जागृति में आना जरूरी है। नौकर से चाय के कप टूट जायें, तब क्रोध हो जाता है, मगर जमाई के हाथों टूटे तब? वहाँ क्रोध कैसा कंट्रोल में रहता है! अर्थात बिलिफ (मान्यता) पर ही आधारित है न ? कोई हमारा नुकसान या अपमान करे तो वह हमारे ही कर्म का फल है, सामने वाला निमित्त है, ऐसी समझ फिट हो गई हो, तभी क्रोध जायेगा। जहाँ-जहाँ और जब जब क्रोध आता है, तब-तब नोट कर के उस पर जागृति रखें। और हमारे क्रोध की वजह से जिसको दुःख हुआ हो, उसका प्रतिक्रमण करें, पछतावा करें और फिर नहीं करूँगा ऐसा दृढ़ निश्चय करें। क्योंकि जिसके प्रति क्रोध होगा, उसे दुःख होता है और वह फिर बैर बाँधेगा। इसी कारण अगले जन्म में फिर आ मिलेगा। माँ-बाप अपनी संतानों पर और गुरु अपने शिष्यों पर क्रोध करें तो उससे पुण्य बँधता है, क्योंकि उसके पीछे का उद्देश, तात्पर्य उसके भले के लिए, सुधारने हेतु है। स्वार्थ के खातिर होने पर पाप बँधता है। वीतरागों की समझ की बारीकी तो देखिए !! प्रस्तुत पुस्तिका में क्रोध, जो कि बहुत परेशान करने वाला खुला कषाय है, उसके संबंधी सारी बातें क्रमश: संकलित कर यहाँ प्रकाशित हुई हैं, जो सुज्ञ पाठक को क्रोध से मुक्त होने में पूर्णतया सहायक हो, यही अभ्यर्थना। - डॉ. नीरूबहन अमीन प्रस्तुत अनुवाद में यह विशेष ख्याल रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है, ऐसा अनुभव हो। उनकी हिन्दी के बारे में उनके ही शब्द में कहें तो "हमारी हिन्दी याने गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी का मिश्चर है, लेकिन जब 'टी' (चाय) बनेगी, तब अच्छी बनेगी।" ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वह इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसी हमारा अनुरोध है। अनुवाद संबंधी कमियों के लिए आप के क्षमाप्रार्थी हैं। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध क्रोध कौन माने, “मैं गलत ?" प्रश्नकर्ता : हमारे सही होने पर भी कोई हमें गलत ठहराये, तो भीतर उस पर क्रोध आता है। तो वह क्रोध तुरन्त न आये, इस लिए क्या करें? दादाश्री : हाँ, मगर आप सही हो तब न? क्या आप सही होते हैं वास्तव में? आप सही हैं, ऐसा आपको पता चलता हैं? प्रश्नकर्ता : हमें हमारा आत्मा कहता है, कि हम सही हैं। दादाश्री : यह तो खुद-ब-खुद जज, खुद ही वकील और खुद ही आरोपी, इसलिए आप सही ही होंगे न? आप फिर गलत होंगे ही नहीं न? सामनेवाले को भी ऐसा होता है कि मैं ही सही हूँ। आपकी समझ में आया? ये हैं सभी कमजोरियाँ कोई तुझे धमकाये, तो तू उग्र हो जायेगा न? प्रश्नकर्ता : हाँ, हो जाता हूँ। दादाश्री : तो वह कमजोरी कहलाये या बहादुरी कहलाये? प्रश्नकर्ता : पर किसी जगह तो क्रोध होना ही चाहिए ! दादाश्री : नहीं, नहीं। क्रोध तो खुद ही एक कमजोरी है। किसी जगह क्रोध होना चाहिए. यह तो संसारी बात है। यह तो खुद से क्रोध निकलता नहीं हैं, इसलिए ऐसा बोलते हैं कि क्रोध होना ही चाहिए। मन भी नहीं बिगड़े वह बलवान प्रश्नकर्ता : तब फिर मेरा कोई अपमान करे और मैं चुपचाप बैठा रहूँ तो वह निर्बलता नहीं कहलायेगी? दादाश्री : नहीं, ओहोहो! अपमान सहन करना, यह तो महान बहादुरी कहलाये। अभी हमें कोई गालियाँ दे, तो हमें कुछ भी नहीं होगा। उसके प्रति मन भी नहीं बिगड़ेगा, यही बहादुरी ! और निर्बलता तो ये सभी किच-किच करते रहते है न, जीव मात्र लठ्ठबाजी करते रहते है न, वो सब निर्बलता कहलाये। इसलिए अपमान शांति से सहन करना, यह महान बहादुरी है और ऐसा अपमान एक बार ही पार कर दें, एक कदम लाँघ जायें, तो सौ कदम लाँघने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। आपकी समझ में आया? सामनेवाला बलवान हो तो उसके सामने तो जीवमात्र निर्बल हो ही जाता है। वह तो उसका स्वाभाविक गुण है। पर यदि निर्बल मनुष्य हमें छेड़े, तब हम उसे कुछ भी नहीं करें, तब वह बहादुरी कहलायेगी। वास्तव में निर्बल का रक्षण करना चाहिए और बलवान का सामना करना चाहिए। पर इस कलियुग में ऐसे मनुष्य ही नहीं रहे हैं। अभी तो निर्बल को ही मार मार करते हैं और बलवान से भागते हैं। बहुत कम लोग ऐसे हैं, जो निर्बल की रक्षा करते हैं और बलवान का प्रतिकार करते प्रश्रकर्ता : किन्तु मुझे यह पूछना था कि अन्याय के लिए चिढ़ हो, वह तो अच्छा है न? किसी बात पर हमें स्पष्टतया अन्याय होता नज़र आये, तब जो प्रकोप होगा, वह योग्य है? दादाश्री : ऐसा है, कि यह सब क्रोध और चिढ, ये सभी कमजोरियाँ (विकनेस) हैं। सारे संसार के पास ये कमजोरियाँ हैं। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध क्रोध हैं। ऐसा हो तो वह क्षत्रिय गुण कहलायेगा । बाकी, सारा संसार कमजोर को मारता रहता है। घर जाकर मर्द औरत पर मर्दानगी दिखाता है। खूटेबँधी गाय को मारेंगे तो वह किस ओर जायेगी? और छोड़कर मारेंगे तो? भाग जायेगी, नहीं तो सामना करेगी। मनुष्य खुद की शक्ति हो तो भी सामनेवाले को नहीं सताता, अपने दुश्मन को भी नहीं सताता, उसका नाम बहादुरी है। अभी कोई आपके ऊपर क्रोध करता हो और आप उस पर क्रोध करें, तो वह कायरता नहीं कहलायेगी? अर्थात मेरा क्या कहना है कि ये क्रोध-मान-माया-लोभ, ये सब निर्बलताएं हैं। जो बलवान है, उसे क्रोध करने की जरूरत ही कहाँ रही? पर यह तो क्रोध का जो रुआब है, उस रुआब से सामनेवाले को वश में करने जाते हैं, पर जिसे क्रोध नहीं होता हो, उसके पास ओर कुछ होगा तो सही न? उसके पास 'शील' नाम का जो चारित्र्य है, उससे जानवर भी वश में आ जाते हैं। बाघ, शेर, दुश्मन, सभी वश में आ जाते है! क्रोधी वह अबला ही प्रश्नकर्ता : पर दादाजी, यदि कोई मनुष्य कभी हम पर उबल पड़े तब क्या करना? दादाश्री: उबल ही पड़ेगा न! उसके हाथ की बात थोडे ही है? उसके अंदर की मशीनरी पर उसका अंकुश नहीं है न! यह ज्यों-त्यों कर के अंदर की मशीनरी चलती रहती है। अपने अंकुश में होने पर तो मशीनरी गरम होने ही नहीं देगा न! यह ज़रा सा भी गरम हो जाना यानी गधा हो जाना, मनुष्य होकर गधा हो जाना! पर ऐसा कोई करेगा ही नहीं न! जहाँ अपना अंकुश नहीं है, वहाँ पर फिर क्या हो सकता है ? ऐसा है, इस संसार में किसी भी समय उत्तेजित होने का कोई कारण ही नहीं है। कोई कहेगा कि, "यह लड़का मेरा कहा नहीं मानता है।" तो भी वह उग्र होने का कारण नहीं है। वहाँ तुझे ठंडा रह कर काम लेना है। यह तो तू निर्बल है, इसलिए गरम हो जाता है और गरम हो जाना तो भयंकर निर्बलता कहलाती है। इसलिए अधिकाधिक निर्बलता होने पर तो गरम होता है न! कमजोर को गुस्सा बहुत आता है। इसलिए जो गरम हो जाता है, उस पर तो दया आनी चाहिए कि इस बेचारे का क्रोध पर कुछ भी कंट्रोल नहीं है। जिसका अपना स्वभाव भी कंट्रोल में नहीं है, उस पर दया आनी चाहिए। गरम होना यानी क्या ? कि पहले खुद जलना और बाद में सामनेवाले को जला देना। यह दियासलाई दागी यानी खुद भड़-भड़ सुलगना और फिर सामनेवाले को जला डालना। अर्थात गरम होना अपने वश में होता तो कोई गरम होता ही नहीं। जलन किसे अच्छी लगेगी? कोई ऐसा कहे कि, "संसार में कभी कभी क्रोध करने की ज़रूरत होती है।" तब मैं कहूँगा कि, "नहीं, ऐसा कोई कारण नहीं है कि जहाँ क्रोध करना जरूरी हो।" क्रोध निर्बलता है, इसलिए हो जाता है। भगवान ने इसलिए क्रोधी को 'अबला' कहा है। पुरुष तो कौन कहलाये? क्रोधमान-माया-लोभ आदि निर्बलताएँ जिसमें नहीं होतीं, उन्हें भगवान ने 'पुरुष' कहा है। अर्थात ये जो पुरुष नज़र आते हो, उनको 'अबला' कहा हैं, लेकिन उन्हें शर्म नहीं आती न? उतने अच्छे है, वर्ना 'अबला' कहने पर शरमा जाते न! लेकिन इनको कोई समझ ही नहीं है। समझ कितनी है? नहाने का पानी रखो तो नहा लें। खाना, नहाना, सोना, इन सबकी समझ हैं, पर दूसरी कुछ समझ नहीं है। मनुष्यत्व की जो विशेष समझ कही गई है, कि यह 'सज्जन पुरुष' है, ऐसी सज्जनता लोगों को नज़र आये, उसकी समझ नहीं है। क्रोध-मान-माया-लोभ यह तो खुली कमजोरी हैं और बहुत क्रोध आने पर आपने हाथ-पैर काँपते नहीं देखे? प्रश्रकर्ता : शरीर भी मना करता है कि तुझे क्रोध करने जैसा नहीं है। दादाश्री : हाँ, शरीर भी मना करता है कि यह क्रोध हमें शोभा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध नहीं देता। अर्थात क्रोध तो भारी कमजोरी कहलाये । इसलिए क्रोध करना हमारे लिए उचित नहीं है। निखरे पर्सनालिटी (व्यक्तित्व), बिना कमज़ोरी प्रश्नकर्ता : यदि कोई मनुष्य छोटे बच्चे को पीट रहा हो और हम वहाँ से गुजर रहे हों, तब उसे ऐसा करने से मना करें और नहीं मानने पर आखिर में डाँटकर या क्रोध करके रोकना चाहिए कि नहीं? दादाश्री : क्रोध करने पर भी वह मारे बगैर रहेगा नहीं। अरे, आपको भी मारेगा ! फिर उसके साथ आपको क्रोध क्यों करना चाहिए? उसे आहिस्ता से कुछ कहें, व्यावहारिक बातचीत करें। बाकी उसके प्रति क्रोध करें वह तो वीकनेस (कमज़ोरी) है। प्रश्नकर्ता: तो बच्चे को पीटने देना? दादाश्री : नहीं, वहाँ जाकर हम कहें कि, " भाई जी, आप ऐसा क्यों करते हैं ? इस बच्चे ने आपका क्या बिगाड़ा है?" ऐसे उसे समझाकर बात कर सकते हैं। आप उस पर क्रोध करें, वह तो आपकी कमज़ोरी होगी। पहले अपने में कमज़ोरी नहीं होनी चाहिए। जिसमें कमज़ोरी नहीं होगी, उसका तो प्रभाव पडेगा ही। वह तो यूँ ही सामान्य रूप में ही कहेगा न, तो भी सभी मान जायेंगे। प्रश्नकर्ता: कदाचित नहीं माने ! दादाश्री : नहीं मानने की क्या वजह है ? आपकी पर्सनालिटी (प्रभाव) नहीं पडती । अर्थात, कमज़ोरी नहीं होनी चाहिए, चारित्र्यवान होना चाहिए। 'मेन ऑफ पर्सनालिटी' होना चाहिए। लाखों गुँडे उसे देखते ही दफ़ा हो जायें! चिड़चिड़े आदमी से तो कोई दफ़ा नहीं होता, उल्टा मारेंगे भी! संसार तो कमज़ोर को ही मारेगा न !! अर्थात मेन ऑफ पर्सनालिटी होना चाहिए। पर्सनालिटी कब आती क्रोध है ( व्यक्तित्व कब निखरे)? विज्ञान जानने पर पर्सनालिटी आती है। इस संसार में जो भूल जाते है, वह (रिलेटीव) व्यवहार ज्ञान है और जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता वह विज्ञान है। गरमी से हिम भारी आपको मालूम है, हिमवर्षा होती है? हिम यानी कातिल ठंड ! उस हिम से पेड़ जल जाते है, कपास घास सब जल जाता है। वह ठंड में क्यों जल जाता होगा? प्रश्नकर्ता: 'असीमित' ठंड के कारण। दादाश्री : हाँ, अर्थात यदि आप ठंडे होकर रहें तो ऐसा 'शील' उत्पन्न होगा। ६ क्रोध बंद वहाँ प्रताप प्रश्नकर्ता: पर दादाजी, ज़रूरत से ज्यादा ठंडा होना, वह भी तो एक कमज़ोरी है न? दादाश्री : ज़रूरत से ज्यादा ठंडा होने की ज़रूरत ही नहीं है। हमें तो लिमिट में रहना है, उसे 'नोर्मालिटी' कहते है। बीलो नोर्मल इज़ द फीवर, एबॉव नोर्मल इज़ द फीवर, नाइन्टी एइट (९८) इज द नोर्मल । अर्थात हमें नोर्मालिटी ही चाहिए। क्रोधी के बजाय क्रोध न करनेवाले से लोग अधिक डरते हैं। क्या कारण होगा इसका? क्रोध बंद हो जाने पर प्रताप उत्पन्न होता है, ऐसा कुदरत का नियम है। नहीं तो उसको रक्षण करनेवाला ही नहीं मिलता न! क्रोध तो रक्षण था, अज्ञानता में क्रोध से रक्षण होता था । चिड़चिड़े का नंबर आखिरी प्रश्नकर्ता : सात्विक चिढ़ या सात्विक क्रोध अच्छा है या नहीं? Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध क्रोध प्रश्नकर्ता : उदाहरण देकर समझाइए तो अधिक स्पष्टता होगी। दादाश्री : हमारे लोग नहीं कहते कि "क्यों बहुत गुस्सा हो गये?" तब कहे, "मुझे कुछ सूझता नहीं, इसलिए गुस्सा हो गया।" हाँ, कुछ सूझ नहीं पड़ने पर मनुष्य गुस्सा कर बैठता है। जिसे सूझ पड़े वह गुस्सा करेगा? गुस्सा करना यानी क्या? वह गुस्सा पहला इनाम किसे देगा? जहाँ निकलेगा वहाँ पहले खुद को जलायेगा, फिर दूसरे को जलायेगा। क्रोधाग्नि जलायें स्व-पर को दादाश्री : उसे लोग क्या कहेंगे? ये बच्चे भी उसे कहेंगे कि, "ये तो चिड़चिड़े ही हैं।" चिढ़ वह मूर्खता है, फूलिशनेस है। चिढ़ कमजोरी कहलाती है। बच्चों से हम पूछे कि, "तुम्हारे पापाजी कैसे है?" तब वे भी बतायेंगे कि. "वे तो बहत चिडचिड़े है।" बोलिए, अब आबरू बढ़ी या घटी? यह कमजोरी नहीं होनी चाहिए। अर्थात जहाँ सात्विकता होगी, वहाँ कमजोरी नहीं होगी। घर के छोटे बच्चों को पूछे कि, "तुम्हारे घर में पहला नंबर किसका?" तब बच्चे खोजबीन करें कि मेरी माँ चिढ़ती नहीं है, इसलिए सब से अच्छी वह है। पहला नंबर उसका। फिर दूसरा, तीसरा करते करते पापा का नंबर आखिर में आता है!!! ऐसा क्यों? क्योंकि वे चिढ़ते हैं। चिड़चिड़े है इसलिए। मैं कहूँ कि, "पापा पैसे लाकर खर्च करते हैं, फिर भी उसका आखिरी नंबर?" तब वे 'हाँ' कहते हैं। बोलिए अब! मेहनतमज़दरी करें, खिलायें, पैसे लाकर दें, फिर भी आखिरी नंबर आपका ही आता है न? क्रोध यानी अंधापन प्रश्नकर्ता : मनुष्य को क्रोध आने का सामान्य रूप से मुख्य कारण क्या हो सकता है? दादाश्री : दिखना बंद हो जाता है इसलिए। मनुष्य दीवार से कब टकरायेगा? जब उसे दीवार नज़र नहीं आती, तब टकरायेगा न? इस प्रकार अंदर नज़र आना बंद हो जाता है, इसलिए मनुष्य से क्रोध हो जाता है। आगे का रास्ता नहीं मिलने पर क्रोध हो जाता है। सूझ नहीं पड़ने पर क्रोध क्रोध कब आता है ? तब कहें, दर्शन अटकता है, इसलिए ज्ञान अटकता है, इसलिए क्रोध उत्पन्न होता है। मान भी ऐसा है। दर्शन अटकता है, इसलिए ज्ञान अटकता है, इसलिए मान खड़ा हो जाता है। क्रोध यानी खुद अपने घर को आग लगाना। खुद के घर में घास भरी हो और दियासलाई जलाना, उसका नाम क्रोध । अर्थात पहले खुद जले और बाद में पड़ौसी को जलाये। घास के बड़े-बड़े गळूर किसी के खेत में इकट्ठे किये हो, पर एक ही दियासलाई डालने पर क्या होगा? प्रश्नकर्ता : जल जायेगा। दादाश्री : ऐसे ही एक बार क्रोध करने पर, दो साल में जो कमाई की हो वह मिट्टी में मिल जाती है। क्रोध यानी प्रकट अग्नि। उसे खुद पता नहीं चलता कि मैं ने मिट्टी में मिला दिया। क्योंकि बाहर की चीजों में कोई कमी नहीं होती, पर भीतर सब ख़तम हो जाता है। अगले जन्म की सब तैयारियाँ होगी न, उसमें से थोड़ा खर्च हो जाता है। और फिर ज्यादा खर्च हो जाने पर क्या होगा? यहाँ मनुष्य था तब रोटियाँ खाता था। फिर वहाँ चारा खाने (जानवर में) जाना पडे। यह रोटियाँ छोड़कर चारा खाने जाना पड़े, यह ठीक कहलायेगा? वर्ल्ड (संसार) में कोई मनुष्य क्रोध को नहीं जीत सकता। क्रोध के दो रूप है, एक कुढ़न के रूप में (बाहर दिखाई देनेवाला) और दूसरा, बेचैनी के रूप में (जो भीतर होता है)। लोग जो क्रोध को जीतते है वे Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध क्रोध कुढ़न रूप को जीतते है। इसमें ऐसा होता है कि एक को दबाने पर दूसरा बढ़ेगा और कहेंगे कि मैं ने क्रोध को जीत लिया। परिणाम स्वरूप मान बढ़ेगा। वास्तव में क्रोध पूर्णतया नहीं जीता जा सकता। जो दिखाई देता है उस क्रोध को ही जीता कहलाये। ताँता उसका नाम क्रोध जिस क्रोध में ताँता हो, वही क्रोध कहलाता है। उदाहरणार्थ, पतिपनि रात में खब लडे, क्रोध ज़बरदस्त धधक उठा। सारी रात दोनों जागते पड़े रहे। सुबह बीवी ने चाय का प्याला जरा पटक कर रखा, तो पति समझ जायेगा कि अभी ताँता (क्रोध की पकड़) है ! उसी का नाम क्रोध। फिर चाहे कितने भी समय का हो! अरे, कितनों को तो सारी जिंदगी का होता है ! बाप बेटे का मुँह नहीं देखता और बेटा बाप का मुँह नहीं देखता! क्रोध का ताँता तो बिगड़े हुए चेहरे से ही पता चलता है। ताँता एक ऐसी वस्तु है कि पंद्रह साल पहले मेरा अपमान हुआ हो और वह मनुष्य पंद्रह साल तक मझे नहीं मिला हो। पर आज मुझे मिल जाये तो मिलने के साथ ही मुझे सब याद आ जाता है, वह ताँता। ताँता किसी का जाता नहीं है। बड़े-बड़े साधु महाराज भी ताँतेवाले होते है। रात को यदि आपने कुछ मज़ाक की हो तो पंद्रह-पंद्रह दिनों तक आप से नहीं बोलेंगे, ऐसा होता है वह ताँता। ____ फर्क, क्रोध और गुस्से में प्रश्नकर्ता : दादाजी, गुस्सा और क्रोध में क्या फर्क है ? दादाश्री : क्रोध उसका नाम, जो अहंकार सहित हो। गुस्सा और अहंकार दोनों मिलने पर क्रोध कहलाता हैं। और बेटे के साथ बाप गस्सा करे, वह क्रोध नहीं कहलाता। उस क्रोध में अहंकार सम्मिलित नहीं होता, इसलिए वह गुस्सा कहलाता है। इस पर भगवान ने कहा कि, "यह गुस्सा करे तो भी इसका पुण्य जमा करना।" तब कहते हैं, "यह गुस्सा करे तो भी?" इस पर कहा, "क्रोध करे तो पाप है, गुस्से का पाप नहीं है।" क्रोध में अहंकार मिला होता है और आपको गुस्सा आने पर भीतर आपको बुरा लगता है न! क्रोध-मान-माया-लोभ दो तरह के होते है: एक मोड़े जा सकें ऐसे-निवार्य। किसी के ऊपर क्रोध आया हो तो उसे अंदर ही अंदर बदल सकें और उसे शांत कर सके, ऐसा मोड़ सकनेवाला क्रोध। इस स्टेज तक पहुँचे तो व्यवहार बहुत सुंदर हो जाता है। दूसरे प्रकार का क्रोध जो मोड़ा नहीं जा सकता ऐसा - अनिवार्य । बहुत प्रयत्न करने के बावजूद भी फटाका फूटे बगैर रहते ही नहीं! वह नहीं मुड़नेवाला अनिवार्य क्रोध। यह क्रोध खुद का अहित करता है और सामनेवाले का भी अहित करता है। भगवान ने कहाँ तक का क्रोध चला लिया है ? साधुओ और चारित्र्यवालों के लिए, कि क्रोध जहाँ तक सामनेवाले मनुष्य को दुःखदायी न हो, उतने क्रोध को भगवान ने चला लिया है। मेरा क्रोध मझे अकेले को दु:खदायी हो, पर अन्य किसी को दु:खदायी न हो उतना क्रोध चला लिया है। जाननेवाले को पहचानिए प्रश्नकर्ता : हम सभी जानते हैं कि यह क्रोध आया, वह खराब है। फिर भी... दादाश्री : ऐसा है न, जो क्रोधी है वह जानता नहीं, लोभी है वह जानता नहीं, मानी है वह जानता नहीं, जाननेवाला उससे अलग ही है। और इन सभी लोगों को मन में होता है कि मैं जानता हूँ फिर भी क्यों होता है? अब जानता हूँ, वह कौन? यह मालूम नहीं। 'कौन जानता है' Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध यह मालूम नहीं है, उतना ही खोजना है। 'जाननेवाले' को खोज निकाले, तो सब चला जाये ऐसा है। जानना तो वह कहलाये कि चला ही जाए, खड़ा ही नहीं रहे। सम्यक् उपाय जानिये एक बार प्रश्नकर्ता : यह जानने पर भी क्रोध हो जाता है, उसका निवारण क्या? दादाश्री: कौन जानता है ? जानने के बाद क्रोध होगा ही नहीं। क्रोध होता है इसलिए जानते ही नहीं, खाली अहंकार करते हो कि 'मैं जानता हूँ। प्रश्नकर्ता : क्रोध हो जाने के बाद ख़याल आता है कि हमें क्रोध नहीं करना चाहिए। दादाश्री : नहीं, मगर जानने के पश्चात क्रोध नहीं होता। हमने यहाँ दो शीशियाँ रखी हो। वहाँ किसी ने समझाया हो कि एक शीशी में यह दवाई है और दूसरी शीशी में पोईज़न (ज़हर) है। दोनों समान दिखाई देते हैं, पर उसमें भूलचूक हो तो समझेंगे न कि यह जानता ही नहीं है। भूलचूक नहीं हो तो, कहेंगे कि जानता है, पर भलचक होती है इसलिए यह निश्चित हो गया कि वह जानता नहीं था। वैसे ही क्रोध होता है, तब कुछ जानते नहीं हैं और जानने का अहंकार लिए फिरते रहते हैं। उजाले में कहीं ठोकर लगती है क्या? इसलिए, ठोकरें लगती हैं मतलब जाना ही नहीं। यह तो अँधेरे को ही उजाला कहते है, वह हमारी भूल है। इसलिए सत्संग में बैठकर एक बार 'जानिये', फिर क्रोध-मान-माया-लोभ सभी चले जायेंगे। प्रश्नकर्ता : पर क्रोध तो सभी को हो जाता है न? दादाश्री : इस भाई से पूछिए, वे तो इन्कार करते है। क्रोध प्रश्नकर्ता : सत्संग में आने के बाद क्रोध नहीं होता न! दादाश्री : ऐसा? इन्होंने कौन सी दवाई ली होगी? द्वेष का मूल नष्ट हो जाये, ऐसी दवाई पी ली।। समझदारी से प्रश्नकर्ता : मेरा कोई नज़दीकी रिश्तेदार हो, उस पर मैं क्रोधित हो जाऊँ। वह उसकी दृष्टि से शायद सही भी हो पर मैं अपनी दृष्टि से क्रोधित होऊँ, तो किस वजह से क्रोधित हो जाता हूँ? दादाश्री: आप आ रहे हैं और इस मकान के उपर से एक पत्थर सिर पर आ गिरा और खून निकला, तो उस घड़ी क्रोध करोगे? प्रश्नकर्ता : नहीं, वह तो कुदरती हो गया है। दादाश्री : नहीं, मगर क्रोध क्यों नहीं करते वहाँ पर। क्योंकि खुद ने किसी को देखा नहीं, इसलिए क्रोध कैसे होगा ? प्रश्नकर्ता : किसी ने जान-बूझकर मारा नहीं है। दादाश्री : और अभी बाहर जाने पर कोई लड़का पत्थर मारे और हमें लगे और खून निकले, तो हम उस पर क्रोध करेंगे, किस लिए? उसने मझे पत्थर मारा, इसलिए खून निकला और क्रोध करेंगे कि तू ने क्यों मारा? और यदि पहाड़ पर से लुढ़कता लुढ़कता पत्थर आकर लगे और सिर से खून निकले, तब देखेंगे पर क्रोध नहीं करेंगे। यह तो हमारे मन में ऐसा लगता है कि वही कर रहा है। कोई मनुष्य जान-बूझकर मार ही नहीं सकता। अर्थात पहाड़ पर से पत्थर का लुढ़क ना और यह मनुष्य पत्थर मारे, वे दोंनो समान ही है। पर भ्रांति से ऐसा दिखता है कि यह करता है। इस वर्ल्ड (संसार) में किसी मनुष्य की संडास जाने की शक्ति नहीं है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध क्रोध निकालते आये हैं, पर वह जाता क्यों नहीं?" इस पर मैं ने कहा कि,"आप क्रोध निकालने के उपाय नहीं जानते हैं।" उसने कहा कि, "क्रोध निकालने के उपाय तो शास्त्र में लिखें हैं, वे सभी करते हैं, फिर भी क्रोध नहीं जाता।" तब मैं ने कहा कि, "सम्यक् उपाय होना चाहिए।" तब कहे कि, "सम्यक् उपाय तो बहुत पढे, पर उसमें से कुछ काम नहीं आता।" फिर मैं ने कहा कि, "क्रोध को बंद करने का उपाय खोजना मूर्खता है, क्योंकि क्रोध तो परिणाम है। जैसे आपने परीक्षा दी हो और रिजल्ट आया। अब मैं रिज़ल्ट को नष्ट करने का उपाय करूँ, उसके समान बात हई। यह रिजल्ट आया वह किसका परिणाम है ? हमें उसमें बदलाव करने की आवश्यकता है।" इसलिए यदि हमें पता चले कि किसी ने जान-बूझकर नहीं मारा, तो वहाँ क्रोध नहीं करता। फिर कहता है, "मुझे क्रोध आ जाता है। मेरा स्वभाव क्रोधी है।" मुए, स्वभाव से क्रोध नहीं आता। वो पुलिसवाले के सामने क्यों नहीं आता? पुलिसवाला धमकाये, उस समय पुलिसवाले पर क्रोध क्यों नहीं आता? उसे पत्नी पर गस्सा आता है, बच्चों पर क्रोध आता है, पड़ौसी पर, अन्डरहेन्ड (सहायक) पर क्रोध आता है और 'बॉस' पर क्यों नहीं आता? क्रोध यूँ ही स्वभाव से मनुष्य को नहीं आता है। यह तो उसे अपनी मनमानी करनी है। प्रश्नकर्ता : किस प्रकार उसे कंट्रोल करें? दादाश्री : समझ से। यह जो आपके सामने आता है, वह तो निमित्त है और आपके ही कर्म का फल देता है। वह निमित्त बन गया है। अब ऐसा समझ में आये तो क्रोध कंट्रोल में आयेगा। जब पत्थर पहाड़ पर से गिरा, ऐसा देखते है, तब आप कंट्रोल रख सकते है। तो इसमें भी समझ रखने की जरूरत है कि भाई, यह सब पहाड़ के समान है। रास्ते में कोई गाड़ीवाला गलत तरीके से रास्ते पर हमारे सामने आता हो, तो भी वहाँ नहीं लड़ेंगे? क्रोध नहीं करेंगे? क्यों? हम टकराकर उसे तोड़ देंगे? ऐसा करेंगे? नहीं। तो वहाँ क्यों नहीं करता? वहाँ सयाना हो जाता है कि मैं मर जाऊँगा। तब उससे ज्यादा तो यहाँ क्रोध करने में मर जाते हो, पर यह चित्रपट नज़र नहीं आता और वह खला दिखाई देता है, इतना ही फर्क है ! वहाँ रोड पर सामना नहीं करता? क्रोध नहीं करता, सामनेवाले की भूल होने पर भी? प्रश्नकर्ता : नहीं। दादाश्री : वैसा जीवन में भी समझ लेने की ज़रूरत है। परिणाम तो, कारण बदलने पर ही बदलें एक भाई मुझ से कहता है कि, "अनंत अवतारों से यह क्रोध हमारे लोग क्या कहते है कि, "क्रोध को दबाओ, क्रोध को निकालो।" अरे! ऐसा क्यों करता है? बिना वज़ह दिमाग खराब करते हो! ऐसा कहने पर भी क्रोध निकलता तो है नहीं! फिर भी वे कहेंगे कि, "नहीं साहिब, थोड़ा-बहुत क्रोध दब तो गया है।" अरे, वह अंदर है वहाँ तक उसे दबा हुआ नहीं कहते। तब उस भाई ने पूछा कि, "तब आपके पास दूसरा कोई उपाय है?" मैं ने कहा, "हाँ, उपाय है, आप करेंगे?" तब उसने कहा, "हाँ।" तब मैं ने बताया कि, "एक बार नोट करें कि इस संसार में खास कर किसके ऊपर क्रोध आता है?" जहाँ जहाँ क्रोध आये, उसे नोट कर लें और जहाँ क्रोध नहीं आता हो उसे भी जान लें। एक बार लिस्ट बना लें कि इस मनुष्य के साथ क्रोध नहीं होता। कुछ लोग उल्टा करें तो भी उन पर क्रोध नहीं आता और कुछ तो बेचारे सीधा करते हो, फिर भी उन पर क्रोध आता है। इसलिए कुछ कारण तो होगा न?" प्रश्रकर्ता : उसके लिए मन में ग्रंथि बंध गई होगी? दादाश्री : हाँ, ग्रंथि बंध गई है। उस ग्रंथि को छुड़ाने को अब क्या करें? परीक्षा तो दे दी। जितनी बार जिसके साथ क्रोध होनेवाला है. उतनी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध क्रोध है, उसके बाद क्रोध बंद हो जायेगा। हमने दोष देखना बंद किया, इसलिए सब बंद हो गया। क्रोध के मूल में अहंकार बार उसके साथ हो जानेवाला है और उसके लिए ग्रंथि भी बंध गई है, पर अब हमें क्या करना चाहिए? जिस पर क्रोध आता हो, उसके लिए मन खराब नहीं होने देना चाहिए। मन सुधारना कि भाई, हमारे प्रारब्ध के हिसाब से यह मनुष्य ऐसा करता है। वह जो कुछ भी करता है वह हमारे कर्मों का उदय है, इसलिए ऐसा करता है। इस प्रकार हम मन को सुधारें। मन को सुधारते रहे और जब सामनेवाले के लिए मन सुधर जायेगा, फिर उसके लिए क्रोध होना बंद हो जायेगा। थोड़े समय तक पिछला इफेक्ट (पहले की असर) है, उतना इफेक्ट देकर फिर बंद हो जायेगा। लोग पूछते है, "यह हमारे क्रोध की दवाई क्या करें?" मैं ने कहा. "आप अभी क्या करते हैं?" तब कहें. "क्रोध को दबाते रहते है।" मैं ने पछा, "पहचान कर दबाते हो या बिना पहचाने? क्रोध को पहचानना तो होगा न?" क्रोध और शांति दोनों साथ-साथ बैठे होते है। अब हम क्रोध को नहीं पहचानें तो वह शांति को दबा दें, तो शांति मर जायेगी ! अर्थात दबाने जैसी चीज़ नहीं है। तब उसकी समझ में आता है कि क्रोध अहंकार है। अब किस प्रकार के अहंकार से क्रोध होता है, इसकी तहक़ीकात करनी चाहिए। यह जरा सूक्ष्म बात है और लोग ढूँढ नहीं पाये। हर एक का उपाय तो होता ही है न? उपाय बगैर तो संसार होता ही नहीं न! संसार तो परिणाम का ही नाश करना चाहता है। अर्थात क्रोध-मान-माया-लोभ का उपाय यह है कि परिणाम को कुछ नहीं करें, उसके कारणों को उड़ा दें, तो वे सभी चले जायेंगे। इसलिए खद विचारक होने चाहिए। वर्ना अजागृत होने पर किस तरह उपाय करेगा? प्रश्नकर्ता : कारणों को किस तरह उड़ाना, यह जरा फिर से समझाइये। दादाश्री : इस भाई पर मुझे क्रोध आता हो तो फिर में निष्कर्ष निकालुं कि इसके उपर जो क्रोध आता है, वह मैं ने पहले उसके दोष देखे थे उसका परिणाम है। अब वह जो जो दोष करे, उसे मन पर नहीं लॅ, तो फिर उसके प्रति जो क्रोध है वह बंद होता जायेगा। पर थोडे पूर्व परिणाम होंगे, उतना आने के बाद दूसरा आगे बंद हो जायेगा। प्रश्नकर्ता : दूसरों के दोष देखते हैं इसलिए क्रोध आता है ? __इस लड़के ने ग्लास फोड़ा तो क्रोध आ गया, वहाँ हमारा क्या अहंकार है? इस ग्लास का नुकसान होगा, ऐसा अहंकार है। नफा-नुकसान का अहंकार है हमारा! इसलिए नफा-नुकसान के अहंकार को, उस पर विचार कर के, निर्मूल कीजिए। गलत अहंकार का संग्रह करने पर क्रोध होता रहेगा। क्रोध है, लोभ है, वे तो वास्तव में मूलतः सारे अहंकार ही हैं। क्रोध का शमन, किस समझ से? क्रोध खुद ही अहंकार है। अब इसकी जाँच-पड़ताल करनी चाहिए कि, किस तरह वह अहंकार है। तब उसे पकड़ पायेंगे कि क्रोध वह अहंकार है। यह क्रोध उत्पन्न क्यों हआ? तब कहे कि, "इस बहन ने कप-रकाबी फोड़ डाले, इसलिए क्रोध उत्पन्न हआ।" अब कप-रकाबी फोड़ डाले, उसमें हमें क्या हर्ज है? तब कहे कि, "हमारे घर का नुकसान हुआ" और नुकसान हुआ इसलिए फिर उसे डाँटना उपर से? यह अहंकार करना, डाँटना, यह सब बारीकी से यदि सोचा जाये, तो सोचने पर वह सारा अहंकार धुल जाये ऐसा है। अब यह कप टूट गया वह निवार्य है दादाश्री : हाँ। उन दोषों को देखते हैं, उसे भी हम जान लें कि ये भी गलत परिणाम ही हैं। जब वे गलत परिणाम दिखना बंद हो जाते Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध क्रोध कि अनिवार्य है? अनिवार्य संयोग होते हैं कि नहीं होते? सेठ नौकर को डाँटे कि. "कप-रकाबी क्यों फोड डाले? तेरे हाथ टूटे हुए थे? और तू ऐसा है, वैसा है।" यदि अनिवार्य है तो उसे डाँटना चाहिए? जमाई के हाथों कप-रकाबी टूट जाने पर वहाँ तो एक शब्द भी नहीं बोलते! क्योंकि वह सुपिरियर ठहरा, वहाँ चुप्पी! और इन्फिरियर आया वहाँ दुतकार दिया!!! ये सारे इगोइज़म (अहंकार) है। सुपिरियर के आगे सभी चुप्पी नहीं साध लेते? यह 'दादाजी' के हाथों यदि कुछ ट जाये तो मन में कुछ भी नहीं होगा और उस नौकर के हाथों टूट जाये तो ? इस संसार ने कभी न्याय देखा ही नहीं है। नासमझी की वजह से यह सब है। यदि बुद्धिपूर्वक की समझ होती तो भी बहुत हो जाता ! बुद्धि यदि विकसित होती, समझदारीवाली होती, तो कहीं कोई झगड़ा हो ऐसा है ही नहीं। अब झगड़ा करने पर कुछ कप-रकाबी साबूत हो जानेवाले हैं? सिर्फ संतोष लेता है, उतना ही न ! और मन में क्लेश होता है सो अलग। इसलिए इस व्यापार में एक तो कप-रकाबी गये वह नुकसान, दूसरे यह क्लेश हुआ वह नुकसान और नौकर के साथ बैर बँधा वह नुकसान!!! नौकर बैर बाँधेगा कि "मैं गरीब हूँ" इसलिए मुझे ऐसा कहते हैं न! पर वह बैर कुछ छोड़नेवाला नहीं है और भगवान ने भी कहा है कि किसी के साथ बैर मत बाँधना। हो सके तो प्रेम बाँधना, मगर बैर मत बाँधना। क्योंकि प्रेम बँधेगा, तो वह प्रेम अपने आप ही बैर को उखाड फैंकेगा। प्रेम की क़बर तो बैर को खोद डाले ऐसी है. पर बैर की क़बर कौन खोदेगा? बैर से तो बैरबढ़ता ही रहता है। ऐसे निरंतर बढ़ता ही रहता है। बैर की वजह से तो यह भटकना है सब! ये मनुष्य क्यों भटकते हैं? क्या तीर्थंकर नहीं मिले थे? तब कहे, "तीर्थंकर तो मिले. उनकी देशना भी सुनी मगर कुछ काम नहीं आयी।" है। इसलिए ज्ञानीपुरुष लोंग साइट (दीर्घ दृष्टि) दे देते हैं। लोंग साइट के आधार पर सब 'जैसा है वैसा' नज़र आता है। __ बच्चों पर गुस्सा आये तब... प्रश्नकर्ता : ये घर में बच्चों पर क्रोध आता है उसका क्या करें? दादाश्री : नासमझी से क्रोध आता है। उसे हम पूछे कि तुझे बड़ा मज़ा आया था? तब कहे कि मुझे अन्दर बहुत बुरा लगा, भीतर बहुत दुःख हुआ था। उसे दुःख हो, हमें दुःख हो ! इसमें बच्चे पर चिढ़ने की ज़रूरत ही कहाँ रही फिर? और चिढ़ने पर सुधरते हों तो चिढ़ना। रिजल्ट (परिणाम) अच्छा आता हो तो चिढ़ना काम का, रिज़ल्ट ही अच्छा नहीं आता हो तो चिढ़ने का क्या अर्थ है? क्रोध करने से फायदा होता हो तो करना और यदि फ़ायदा नहीं होता हो तो ऐसे ही चला लेना। प्रश्नकर्ता : अगर हम क्रोध ना करे तो वे हमारा सने ही नहीं. खायें भी नहीं। दादाश्री : क्रोध करने के बाद भी कहाँ सुनते हैं ?! वीतरागों की सूक्ष्म दृष्टि तो देखिये ! फिर भी हमारे लोग क्या कहते हैं कि पिता अपने बच्चों पर इतना क्रोधित हो गया है, इसलिये यह बाप नालायक है। और कुदरत के यहाँ इसका कैसा न्याय होता है? पिता को पुण्य बंधता है। हाँ, क्योंकि इसने बच्चे के हित के लिये अपने आप पर संघर्षण किया। बच्चे के सुख की खातिर खुद पर संघर्षण किया, इसलिए पुण्य बंधेगा। बाकी सब प्रकार का क्रोध पाप ही बांधता है। यही एक प्रकार है, जो बच्चे के या शिष्य के भले के लिये क्रोध करते हैं। वो अपना सुलगाकर उनके सुख के लिए करते हैं। इसलिए पुण्य बंधेगा। फिर भी लोग तो उसे अपयश ही देंगे। पर ईश्वर के घर सच्चा न्याय है या नहीं? अपने बेटे पर, बेटी पर क्या-क्या अड़चनें आती है, कहाँ-कहाँ विरोध होता है, तो उन विरोधों को मिटा दे न ! विरोध होता है, यह छोटी नज़र (संकुचित दृष्टि) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध जो क्रोध करता है न, उसमें हिंसक भाव नहीं होता है। बाकी सब में हिंसक भाव होता है। फिर भी इसमें ताँता तो रहता है, क्योंकि वे बेटी को देखते ही अंदर क्लेश शुरू हो जाता है। १९ यदि क्रोध में हिंसक भाव और ताँता, ये दो नहीं हों, तो मोक्ष मिल जाता है। और यदि हिंसक भाव नहीं, सिर्फ ताँता है, तो पुण्य बंधता है। कैसी सूक्ष्मता से भगवान ने ढूंढ निकाला है! क्रोध करे फिर भी बाँधे पुण्य ! भगवान ने कहा है कि दूसरों के भले के लिए क्रोध करें, परमार्थ हेतु क्रोध करें तो उसका फल पुण्य मिलता है। अब इस क्रमिकमार्ग में तो शिष्य डरते ही रहते है कि "अभी कुछ कहेंगे, अभी कुछ कहेंगे।" और वे (गुरु) भी सारे दिन सुबह से अकुलाये हुये ही बैठे रहते है। तो ठेठ दसवे गुणकस्थान तक वैसा ही वेष। वे आंख लाल करें तो अंदर आग झरती है। कितनी सारी वेदना होती होगी! तब कैसे पहुँच पायें ? इसलिए मोक्ष पाना क्या यों ही लड्डू खाने का खेल है ? ये तो कभी ही ऐसा अक्रम विज्ञान प्राप्त होता है। क्रोध यानी एक प्रकार का सिग्नल संसार के लोग क्या कहते हैं कि इस भाई ने लड़के पर क्रोध किया, इसलिए वह गुनहगार है और उसने पाप बाँधा। भगवान ऐसा नहीं कहते। भगवान कहते हैं कि, “लड़के के ऊपर क्रोध नहीं किया, इसलिए उसका बाप गुनहगार है। इसलिए उसका सौ रूपये दंड होता है।" तब कहे, "क्रोध करना ठीक है ?" तब कहते हैं, "नहीं, मगर अभी उसकी ज़रूरत थी। यदि यहाँ क्रोध नहीं किया होता तो लड़का उल्टे रास्ते चला जाता।" अर्थात क्रोध एक प्रकार का लाल सिग्नल है, और कुछ नहीं । यदि आँख नहीं दिखाई होती, यदि क्रोध नहीं किया होता, तो लड़का उल्टे क्रोध रास्ते पर चला जाता। इसलिए भगवान तो लड़के के ऊपर बाप क्रोध करे, फिर भी उसे सौ रूपये ईनाम देते हैं। २० क्रोध तो लाल झंडा है। यही पब्लिक को पता नहीं और कितनी देर लाल झंड़ा खड़ा करना, कितने समय के लिए खड़ा करना, यह समझने की ज़रूरत है। अभी मेल गाडी जा रही हो और ढाई घण्टे लाल झंडा लेकर बिना कारण खड़ा रहे, तो क्या होगा? यानी लाल सिग्नल की ज़रूरत है, मगर कितना टाईम (समय) रखना, यह समझने की ज़रूरत है। ठंडा (शांत रहना), वह हरा सिग्नल है। रौद्रध्यान का रूपांतर धर्मध्यान में बच्चों पर क्रोध किया, पर आपका भाव क्या है कि ऐसा नहीं होना चाहिए। आपका भाव क्या है ? प्रश्नकर्ता: ऐसा नहीं होना चाहिए। दादाश्री : इसलिए यह रौद्रध्यान था, वह धर्मध्यान में रूपांतरित हो गया। क्रोध हुआ फिर भी परिणाम में आया धर्मध्यान । प्रश्नकर्ता : ऐसा नहीं होना चाहिए, यह भाव रहा है इसलिए? दादाश्री: हिंसक भाव नहीं है उसके पीछे। हिंसक भाव बगैर क्रोध होता ही नहीं, पर क्रोध की कुछ एक दशा है कि यदि खुद का बेटा, खुद का मित्र, खुद की वाईफ पर क्रोध करने पर पुण्य बँधता है। क्योंकि यह देखा जाता है कि क्रोध करने के पीछे उसका हेतु क्या है ? प्रश्नकर्ता प्रशस्त क्रोध । दादाश्री : वह अप्रशस्त क्रोध, बुरा कहलाये । इसलिए यह क्रोध में भी इतना भेद है। दूसरा, पैसों के लिए बेटे को भला-बुरा कहें कि तू धंधे में ठीक से ध्यान नहीं देता, वह क्रोध Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध अलग है। बच्चे को सुधारने के लिए, चोरी करता हो, दूसरा कुछ उल्टासीधा करता हो, उसके लिए हम लड़के को डाँटे, क्रोध करें उसका फल भगवान ने पुण्य कहा है। भगवान कितने सयाने है ! क्रोध टालें ऐसे प्रश्नकर्ता: हम क्रोध किसके ऊपर करते हैं ? खास करके ऑफिस में सेक्रेटरी के ऊपर क्रोध नहीं करते और अस्पताल में नर्स के ऊपर नहीं करते, पर घर में वाईफ के ऊपर हम क्रोध करते हैं। २१ दादाश्री : इसलिए तो जब सौ लोग बैठे हों और सुन रहे हों, तब सब से कहता हूँ कि ओफिस में बॉस (मालिक) धमकाता हो या कोई डाँटता हो, तो उन सबका क्रोध लोग घर में बीवी पर निकालते हैं। इसलिए मुझे कहना पड़ता है कि, मुए, बीवी से क्यों लड़ते हो, बेचारी से ! बिना वजह बीवी को डाँटते हो ! बाहर कोई धमकाये उनसे लड़ो न, यहाँ क्यों लड़ते हो बेचारी से? एक भाईसाहब थे, वे हमारे जान-पहचानवाले थे। वे मुझे हमेशा कहते थे कि, "साहिब, एक बार मेरे यहाँ पधारिये!" मकान बाँधने का काम करता था। एक बार मैं वहाँ से गुज़र रहा था तब मुझे मिल गया और बोला, "मेरे घर चलिए, थोड़ी देर के लिए।" तब मैं उसके घर गया। वहाँ मैं ने पूछा, “अरे, दो रूम में तुझे अनुकूल रहता है?" तो वह कहने लगा, "मैं तो मेमार कहलाऊँ न!" यह तो हमारे जमाने की, अच्छे समय की बात करता हूँ। अभी तो एक रूम में रहना पड़ता है, पर अच्छे जमाने में भी बेचारे के दो ही रूम थे ! फिर मैं ने पूछा, "क्या बीवी तुझे परेशान नहीं करती ?" तब कहने लगा, “बीवी को क्रोध आ जाये पर मैं क्रोध नहीं करता हूँ" मैं ने पूछा, "ऐसा क्यों?” तब कहें, “तब तो फिर वह क्रोध करे और मैं भी क्रोध करूँ, फिर इन दो रूमों में, मैं कहाँ सोऊँ और वो कहाँ सोये ?!" वह उस ओर मुँह करके सो जाये और मैं भी इस ओर मुँह करके सो जाऊँ, ऐसी हालत में तो मुझे सुबह क्रोध चाय भी अच्छी नहीं मिलेगी। वही मुझे सुख देनेवाली है। उसकी वज़ह से ही मैं सुखी हूँ। मैं ने पूछा, "बीवी कभी क्रोध करे तो?" तब कहे, "उसे मना लेता हूँ। 'यार, जाने दे न, मेरी हालत मैं ही जानता हूँ, ' ऐसा वैसा करके उसे मना लेता हूँ। पर उसे खुश रखता हूँ। बाहर मारपीट करके आऊँ पर घर में उससे मारपीट नहीं करता।" और हमारे लोग बाहर मार खाकर आयें और घर में मारपीट करते हैं । २२ यह तो सारा दिन क्रोध करते हैं। गायें भैंसे अच्छी कि क्रोध तो नहीं करती। जीवन में कुछ शांति तो होनी चाहिए न ! कमज़ोरीवाला तो नहीं होना चाहिए। यह तो क्रोध हर घड़ी हो जाता है। आप गाड़ी में आये न, तब गाड़ी सारे रास्ते पर क्रोध किया करे तो क्या होगा ? प्रश्नकर्ता: तो यहाँ आ ही नहीं सकते। दादाश्री : तब आप यह क्रोध करते हैं तो उसकी गाड़ी किस तरह चलती होगी? तू तो क्रोध नहीं करती? प्रश्नकर्ता: कभी-कभी हो जाता है। दादाश्री : और यदि दोनों को होता हो, फिर बाकी क्या रहा ? प्रश्नकर्ता : पति-पत्नी के बीच थोड़ा-बहुत क्रोध तो होना ही चाहिए न ? दादाश्री : नहीं। ऐसा कोई कानून नहीं है। पति-पत्नी के बीच में तो बहुत शांति रहनी चाहिए। यदि दुःख हो तो वे पति - पत्नी ही नहीं कहलाये। सच्ची फ्रेन्डशिप में दुःख नहीं होता, तब यह तो सब से बड़ी फ्रेन्डशिप कहलाये !! यहाँ क्रोध नहीं होना चाहिए। यह तो लोगों ने जबरदस्ती से दिलों में बीठा दिया है, खुद को होता है इसलिए कहने लगे की कानून ऐसा ही है। पति-पत्नी के दरमियान तो बिलकुल दुःख नहीं होना चाहिए, भले ही और जगह हो जाये । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध क्रोध मनमानी से पड़े मार प्रश्रकर्ता : घर में या बाहर मित्रों में सब जगह हर एक के मत भिन्न भिन्न होते हैं और उसमें हमारी धारणा (मनमानी) के अनुसार नहीं होने पर हमें क्रोध क्यों आता है? तब क्या करना चाहिए? दादाश्री : सब लोग अपनी धारणा के अनुसार करने जायें, तो क्या होगा? ऐसा विचार ही क्यों आता है? तरन्त ही विचार आना चाहिए कि यदि सभी अपनी धारणा के अनुसार करने लगें, तो यहाँ पर सारे बरतन तोड़ डालेंगे, आमने-सामने और खाने को भी नहीं रहेगा। इसलिए धारणा के अनुसार कभी करना ही नहीं। धारणा ही नहीं करना तो गलत नहीं ठहरेगा। जिसे गरज होगी वह धारणा करेगा, ऐसा रखना। प्रश्नकर्ता : हम कितने भी शांत रहे मगर पति क्रोध करे तो हमें क्या करना चाहिए? तो थोड़ी देर बंद रखने पर अपने आप ठंडी हो जायेगी और हाथ लगायें या उसे छेडेंगे तो हम जल जायेंगे। __ प्रश्रकर्ता : मुझसे तो अपने हसबंड पे क्रोध हो जाता है और बहस हो जाती है, कहा सुनी और वह सब, तो मैं क्या करूँ? दादाश्री : क्रोध तू करती है या वह? क्रोध कौन करता है? प्रश्नकर्ता: वह, फिर मुझ से भी हो जाता है। दादाश्री : तो हमें भीतर ही खुद को उलाहना देना चाहिए, "क्यों तू ऐसा करती है? ऐसा किया तो भुगतना ही होगा न!" पर प्रतिक्रमण करने पर ये सारे क्रोध खतम हो जाते हैं। वर्ना हमारे ही दिए हुए घूसे, हमें फिर भुगतने पड़ते हैं। पर प्रतिक्रमण करने पर ज़रा ठंडे पड़ जाते है। यह तो एक तरह की पाशवता प्रश्नकर्ता : हम से क्रोध हो जाये और गाली निकल जाये तो किस प्रकार सुधारना? दादाश्री : ऐसा है कि यह जो क्रोध करता है और गाली बोलता है, वह अपने आप पर कंट्रोल नहीं है, इसलिए यह सब होता है। कंट्रोल करने के लिए पहले थोडा समझना चाहिए। यदि कोई हमारे पर क्रोध करे, तो हमसे बरदाश्त होगा या नहीं, यह सोचना चाहिए। हम क्रोध करें. उससे पहले हमारे ऊपर कोई क्रोध करे तो हमसे बरदाश्त होगा? अच्छा लगेगा या नहीं? हमें जितना अच्छा लगे, उतना ही वर्तन औरों के साथ करना। वह तुझे गाली दे और तुझे दिक्कत न हो, डिप्रेशन नहीं आता हो, तो तुम भी वैसा करना, वर्ना बंद कर देना। गालियाँ तो दे ही नहीं सकते। यह तो एक तरह की पाशवता है। अन्डरडेवलप्ड पीपल्स. अनकल्चर्ड (अल्पविकसित मनुष्य, असंस्कृत)! दादाश्री : वह क्रोध करे और उसके साथ झगड़ा करना हो, तो हमें भी क्रोध करना चाहिए, अन्यथा नहीं! यदि फिल्म बंद करनी हो तो शांत हो जाना। फिल्म बंद नहीं करनी हो, तो सारी रात चलने देना, कौन मना करता है? क्या पसंद है ऐसी फिल्म? प्रश्नकर्ता : नहीं, ऐसी फिल्म पसंद नहीं है। दादाश्री : क्रोध करके क्या करना है? वह मनुष्य क्रोध नहीं करता, यह तो 'मिकेनिकल एडजस्टमेन्ट' (डिस्चार्ज होती मनुष्य प्रकृति) क्रोध करता है। इसलिए फिर खुद को मन में पछतावा होता है कि यह क्रोध नहीं किया होता तो अच्छा था। प्रश्नकर्ता : उसे ठंडा करने का उपाय क्या? दादाश्री : वह तो यदि मशीन गरम हुई हो और ठंडी करनी हो Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध २६ क्रोध शुद्धात्मा को याद करके मन में ही माफ़ी माँग लेना। हजारों में कोई दस आदमी ऐसे निकलेंगे कि माफ़ी माँगने से पहले ही झक जायें। प्रतिक्रमण यही सच्चा मोक्षमार्ग पहले तो दया रखिए, शांति रखिए, समता रखिए, क्षमा रखिए, ऐसा उपदेश सिखाते है। तब यह लोग क्या कहते है "अरे! मुझे क्रोध आता रहता है और तू कहता है कि क्षमा रखिए, पर मैं किस प्रकार क्षमा रखू?" इसलिए इनको उपदेश किस प्रकार दिया जाना चाहिए कि आपको क्रोध आने पर आप इस प्रकार मन में पछतावा करें कि मेरी क्या कमजोरी है कि मुझ से ऐसा क्रोध हो जाता है। तो मुझ से गलत हो गया, ऐसा पछतावा करना और यदि ऊपर कोई गुरु हो तो उनकी मदद लेना और फिर से ऐसी कमजोरी पैदा न हो, ऐसा निश्चय करना। आप अब क्रोध की रक्षा मत करना, ऊपर से उसका प्रतिक्रमण करना। नकद परिणाम, हार्दिक प्रतिक्रमण के प्रश्रकर्ता : किसी के ऊपर भारी क्रोध हो गया. फिर बोलकर चप हो गये. बाद में यह जो बोले उसके लिए जी बार-बार जलता रहे, तो उसमें एक से अधिक प्रतिक्रमण करने होंगे? इसलिए दिन में कितने अतिक्रमण होते हैं और किसके साथ हुए, उसे नोट करते रहना और उसी समय प्रतिक्रमण कर लेना। प्रतिक्रमण में हमें क्या करना होगा? आपको क्रोध हुआ और सामनेवाले मनुष्य को दुःख हुआ, तो उसकी आत्मा को याद करके उससे क्षमा मांग लेना। अर्थात जो हुआ उसकी क्षमा माँग लेना और फिर से नहीं करूँगा ऐसी प्रतिज्ञा करना, और आलोचना करना यानी क्या, कि हमारे पास दोष जाहिर करना कि मेरा यह दोष हो गया है। मन में भी माफ़ी माँगिए प्रश्नकर्ता : दादाजी, पश्चाताप या प्रतिक्रमण करते समय कई बार ऐसा होता है कि कोई भूल हो गई, किसी पर क्रोध आ गया. तब भीतर दुःख होता है कि यह गलत हो गया, पर सामनेवाले से माफ़ी माँगने की हिम्मत नहीं होती। दादाश्री : ऐसे माफ़ी माँगनी ही नहीं, वर्ना वे फिर उसका दुरुपयोग करेंगे। "हाँ, अब आई न ठिकाने पर?" ऐसा है यह ! नोबल (खानदान) जाति नहीं है! ये माफ़ी माँगने लायक मनुष्य नहीं है! इसलिए उसके दादाश्री : उसमें दो-तीन बार सच्चे दिल से प्रतिक्रमण करें और एकदम चौकसी के साथ हुआ तो पूर्ण हो गया। "हे दादा भगवान ! मुझ से जबरदस्त क्रोध हुआ, सामनेवाले को भारी कष्ट पहुँचाया, उसकी माफ़ी चाहता हूँ। आपके रूबरू बहुत माफ़ी माँगता हूँ।" गुनाह लेकिन बेजान प्रश्नकर्ता : अतिक्रमण से जो उत्तेजना होती है, वह प्रतिक्रमण से शांत हो जाती है? दादाश्री : हाँ, शांत हो जाती है। चिकनी फाइल(गाढ़ा हिसाब) होने पर तो पाँच-पाँच हजार प्रतिक्रमण करने पड़ते हैं, तब शांत होता है। गुस्सा बाहर नहीं आया हो और व्याकुलता हो गई हो, तो भी हम उसके लिए प्रतिक्रमण नहीं करें तो उतना दाग़ हमें रह जायेगा। प्रतिक्रमण करने पर साफ हो जाता है। अतिक्रमण किया इसलिए प्रतिक्रमण कीजिए। प्रश्नकर्ता : किसी के साथ क्रोध हो जाने के बाद ख़याल में आया और उसी क्षण पर हम उनकी माफ़ी माँग ले, तो वह क्या कहलाये? दादाश्री : अभी ज्ञान लेने के बाद क्रोध हो जाये और फिर माफ़ी माँग लें, तो कोई हर्ज नहीं। मुक्त हो गया! और ऐसे रूबरू माफ़ी नहीं माँग सके ऐसा हो तो मन में माँग ले, तो हो गया। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध क्रोध प्रश्नकर्ता : रूबरू सबके बीच में ? दादाश्री : ऐसे कोई नहीं माँगे और वैसे ही अन्दर माफी माँग ले तो चलेगा, उसमें हर्ज नहीं। क्योंकि यह गनाह चार्ज नहीं है. यह डिस्चार्ज है। 'डिस्चार्ज' गुनाह यानी यह चार्ज गुनाह नहीं है ! इसलिए इतना बुरा फल नहीं देता! खुद की प्रतिष्ठा से खड़े कषाय यह सब व्यवहार आप नहीं चलाते, क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषाय चलाते हैं। कषायों का ही राज है ! खुद कौन है' उसका भान होने पर कषाय जायेंगे। क्रोध होने पर पछतावा हो, मगर भगवान का बताया गया प्रतिक्रमण नहीं आता तो क्या होगा? प्रतिक्रमण आता तो छुटकारा हो जाता। अधिक तगड़ा हुआ।" मान तगड़ा होता रहता है, क्योंकि माया के ये बेटे मरें ऐसे नहीं हैं। उनका उपाय करें तो जायें ऐसे हैं, वर्ना जानेवालों में से नहीं। वे माया की संताने हैं। वह मान नामक भैंसा इतना तगड़ा हुआ। जितना मैं ने क्रोध को दबा दिया, मैं ने क्रोध को दबा दिया कहता है, तो फिर वह तगड़ा हुआ। इसकी तुलना में चारों समान थे, वह ठीक था। क्रोध और माया हैं रक्षक क्रोध और माया, वे तो रक्षक हैं। वे तो लोभ और मान के रक्षक हैं। लोभ की यथार्थ रक्षक माया और मान का यथार्थ रक्षक क्रोध। फिर भी मान के लिए थोड़ी बहुत माया इस्तेमाल होगी, कपट करते हैं। कपट करके भी मान प्राप्त कर लें, क्या ऐसा करते हैं लोग? अर्थात यह क्रोध-मान-माया-लोभ की सृष्टि कहाँ तक खड़ी है ? 'मैं चन्दुलाल हूँ और ऐसा ही हूँ' ऐसा निश्चय है वहाँ तक खड़ी रहेगी। जब तक हमने प्रतिष्ठा की हुई है कि 'मैं चन्दुलाल हूँ', इन लोगों ने हमारी प्रतिष्ठा की और हमने उसे मान लिया कि 'मैं चन्दुलाल हूँ', तब तक ये क्रोध-मान-माया-लोभ अन्दर रहते हैं। और क्रोध कर के लोभ कर ले। लोभी क्रोधी नहीं होता और यदि क्रोध करे तो समझना कि इसे लोभ में कोई बाधा आई है, इसलिए मूआ क्रोध करता है। वर्ना लोभी को गालियाँ देने पर भी उल्टा कहेगा, "भले ही वह शोर मचाता रहे, हमें तो अपना रूपया मिल गया न।" लोभी ऐसे होते हैं, क्योंकि कपट सब का रक्षण करेगा ही न! कपट अर्थात माया और क्रोध वे सभी रक्षक है। खुद की प्रतिष्ठा कब समाप्त होगी कि जब 'मैं शुद्धात्मा हूँ' यह भान होगा तब। अर्थात खुद के निज स्वरूप में आये तो प्रतिष्ठा टूट जाती है। तब क्रोध-मान-माया-लोभ जायेंगे वर्ना नहीं जायेंगे। मारते रहने पर भी नहीं जायेंगे और उल्टे बढ़ते रहेंगे। एक को मारें तो दूसरा बढ़ेगा और दूसरे को मारें तो तीसरा बढ़ेगा। क्रोध दुबला वहाँ मान तगड़ा एक महाराज कहते है, मैं ने क्रोध को दबा-दबा कर निर्मूल कर डाला। मैं ने कहा, "उसके परिणाम स्वरूप यह 'मान' नाम का भैंसा अपने मान पर आँच आए, तब मनुष्य क्रोध कर लेता है। अपना मान भंग होता हो, वहाँ क्रोध होता है। क्रोध भोला है। भोला पहले नष्ट होता है। क्रोध तो गोला-बारूद है और गोला-बारूद होगी, वहाँ लश्कर लड़ेगा ही। क्रोध गया फिर लश्कर क्यों लड़ेगा? फिर तो (ऐरे-गैरे) सब भाग जायेंगे। कोई खड़ा नहीं रहेगा। क्रोध का स्वरूप क्रोध उग्र परमाणु है। कोठी के अन्दर बारूद भरा हो और फूटे Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध क्रोध तब ज्वाला भड़कती है। भीतरी बारूद पूरा हो जाने पर अपने आप कोठी शांत हो जाती है। ऐसा ही क्रोध का है। क्रोध उग्र परमाणु है, और वे जब 'व्यवस्थित' के नियम के हिसाब से फूटते हैं, तब चारों और से सुलगते है। हम उग्र रहे उसे क्रोध नहीं कहते, जिस क्रोध में ताँता रहे, वही क्रोध कहलाता है। क्रोध तो कब कहलाये कि भीतर जलन हो। जलन हो और ज्वाला भड़कती रहे और दूसरों को भी उसका असर पहुंचे। वह कुढ़न रूप कहलाये और बैचेनी रूप में खद अकेला अन्दर ही अन्दर जला करता है, पर ताँता तो दोनों ही रूपों में रहेगा। जब कि उग्रता अलग वस्तु है। कुढ़ना, सहन करना ये भी क्रोध क्रोधवाली वाणी नहीं निकले तो सामनेवाले को नहीं लगती। मुँह से बोल दें, वही क्रोध कहलाये ऐसा नहीं है, भीतर कुढ़ता रहे वह भी क्रोध है। उसे सहन करना वह तो डबल (दोहरा) क्रोध है। सहन करना यानी दबाते रहना। वह तो एक दिन स्प्रिंग उछले तब पता चलेगा। सहन किस लिए करना? इसका तो ज्ञान से हल निकाल देना है। मरते हैं, इमोशनल होने की वजह से! क्रोध जीता जाये ऐसे द्रव्य अर्थात बाहरी व्यवहार, वह नहीं पलटता पर भाव पलटे तो बहुत हो गया। कोई कहे कि क्रोध बंद करना है, तो आज ही क्रोध बंद नहीं होगा। क्रोध बंद करना हो तो किस प्रकार होगा? क्रोध को तो पहचानना होगा, कि क्रोध क्या है ? क्यों उत्पन्न होता है ? उसका जन्म किस आधार पर होता है ? उसकी माँ कौन ? बाप कौन ? सब खोज करने के बाद क्रोध को पहचान पायें। छूटा हुआ छुड़ाये आपको सब निकालना है ? क्या क्या निकालना है, बताइए। लिस्ट (सूचि) बनाकर मुझे दीजिए। वह सब निकाल देंगे। आप क्रोध-मानमाया-लोभ से बँधे है ? प्रश्नकर्ता : एकदम। दादाश्री : अर्थात बँधा हुआ मनुष्य अपने आप किस प्रकार छूट सकता है ? ऐसे चारों ओर से हाथ-पैर सब कसकर बँधे हो. तो वह अपने आप किस तरह मुक्त हो सकता है ? प्रश्नकर्ता : उसे किसी का सहारा लेना पड़ेगा। दादाश्री : बँधे हुए की हेल्प (मदद) लेनी चाहिए? प्रश्नकर्ता : स्वतंत्र हो उसकी हेल्प लेनी चाहिए। दादाश्री : हम किसी से पूछे कि भाई, कोई है यहाँ छूटा हुआ? मुक्त है ? तो हमें यहाँ हेल्प करो। अर्थात जो मुक्त हुआ हो वह मुक्त क्रोध में बड़ी हिंसा बुद्धि इमोशनल (आवेशमय) होती है, ज्ञान मोशन (गति) में रहता है। जैसे वह ट्रेईन मोशन में चलती है, यदि वह इमोशनल हो जाये तो? प्रश्नकर्ता : एक्सिडेन्ट हो जाये। दादाश्री: आडी-टेढी होती चले तो एक्सिडेन्ट हो जाये। इसी तरह मनुष्य जब इमोशनल होता है, तब कई जीव भीतर मर जाते हैं। क्रोध हुआ कि कितने ही छोटे छोटे जीव मर कर खतम हो जाते हैं और ऊपर से खद दावा करता है कि, "मैं तो अहिंसा धर्म का पालन करता हूँ, जीव हिंसा तो करता ही नहीं हूँ।" अरे, पर क्रोध से तो निरे जीव ही Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध क्रोध कर देता है, वर्ना और कोई नहीं कर सकेगा। क्रोध-मान-माया-लोभ की खुराक कुछ लोग जागृत होते हैं, वे कहते हैं कि यह क्रोध होता है वह हमें पसंद नहीं है, फिर भी करना पड़ता है। और कुछ तो क्रोध करते हैं और कहते है, "क्रोध नहीं करें तो हमारी गाड़ी चलेगी ही नहीं, हमारी गाड़ी बंद हो जायेगी।" ऐसा भी कहते हैं। खिलाते रहते हैं। प्रतिदिन भोजन कराते हैं और फिर वे (दोष) तगड़े होकर घूमते रहते हैं। बच्चों को मारे, भारी क्रोध में आकर पीटते हैं, फिर बीवी कहेगी, "बेचारे लड़के को क्यों इतना मारा?" तब कहेंगे, "तू नहीं समझेगी, मारने योग्य ही है।" इस पर क्रोध समझ जाता है कि, "अहह, मेरी खुराक जुटाई! भूल है ऐसा नहीं समझता और मारने लायक है ऐसा अभिप्राय दिया है, इसलिए यह मुझे खुराक खिलाता है।" इसे खुराक जुटाई कहते हैं। हम क्रोध को एनकरेज (प्रोत्साहित) करें, उसे अच्छा समझें, वह उसे खुराक दी कहलाता हैं। क्रोध को 'क्रोध खराब है' ऐसा समझें तो उसे खुराक नहीं दी कहलाये। क्रोध की तरफदारी की, उसका पक्ष लिया. तो उसे खुराक मिल गयी। खुराक से तो वह जी रहा है। लोग तो उसका पक्ष लेते हैं न? क्रोध-मान-माया-लोभ निरंतर खुद का ही चुराकर खाते हैं, पर लोगों की समझ में नहीं आता। इन चारों को यदि तीन साल भूखे रखो, तो वे भाग जायेंगे। पर जिस खुराक से वे जी रहे हैं वह खुराक क्या ? यदि यह नहीं जानें, तो वे किस प्रकार भूखे मरेंगे? उसकी समझ नहीं होने से ही उन्हें खुराक मिलती रहती है। वे जीते किस प्रकार हैं? और वे भी अनादि काल से जी रहे हैं! इसलिए उसकी खुराक बंद कर दें, ऐसा विचार तो किसी को भी नहीं आता और सभी हाथ-मुँह धोकर उन्हें निकालने में लगे हैं। वे चारों यों ही जानेवालों में से नहीं हैं। वे तो आत्मा बाहर निकले तब साथ में भीतर के सभी कर्म परमाणु झाड़-पोंछ कर बाद में निकले। उन्हें हिंसक मार नहीं चाहिए, उन्हें तो अहिंसक मार चाहिए। क्रोध-मान-माया-लोभ किसी चीज़ को हमने रक्षण नहीं दिया। क्रोध हो गया हो तब कोई कहे कि, "यह क्रोध क्यों करते हैं?" तब मैं कह दूँ कि, "यह क्रोध बहुत गलत चीज़ है, मेरी निर्बलता के कारण हो गया।" अर्थात् हमने रक्षण नहीं किया। पर लोग रक्षण करतें हैं। आचार्य शिष्य को कब धमकाता है ? क्रोध हो तब। उस समय कोई कहे. "महाराज, इसे क्यों धमकाते हो?' तब महाराज कहे, "वह तो धमकाने योग्य ही है।" हो गया खतम। यह बोले, वह क्रोध की खुराक। किये हुए क्रोध का रक्षण करना, वही उसकी खुराक। ये साधु नसवार सूंघते हों और हम कहें, "साहिब, आप नसवार सूंघते हैं ?" तब यदि वह कहे, "नसवार में हर्ज नहीं।" तो बढ़ता है। ये चारों, क्रोध-मान-माया-लोभ हैं, उनमें से एक पर प्रेम ज्यादा होता है, दूसरे पर उससे कम होगा। इस तरह जिसकी तरफ़दारी ज्यादा, उसकी प्रियता अधिक। स्थूल कर्म : सूक्ष्म कर्म स्थूल कर्म यानी क्या, यह समझाऊँ। तुझे एकदम क्रोध आया, तू क्रोध नहीं करना चाहता फिर भी आ गया. ऐसा होता है कि नहीं होता? इन क्रोध-मान-माया-लोभ को तीन साल तक यदि खुराक नहीं मिलती तो फिर खुद-ब-खुद भाग जाते हैं, हमें कहना ही नहीं पड़ता। क्योंकि हर कोई चीज अपने-अपने खुराक से जीवित रहती है और संसार के लोग क्या करते हैं ? प्रतिदिन इन क्रोध-मान-माया-लोभ को खुराक Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध भगवान ने तो क्या कहा है कि तेरा क्रोध ऐसा है कि तेरे सगे मामा के साथ तू क्रोध करता है तो उसका मन तुझ से अलग हो जाता है, सारी जिन्दगी के लिए अलग हो जाता है, तो तेरा क्रोध गलत है। वह क्रोध जो सामनेवाले के मन को साल-दो साल के लिए जुदा कर दे। फिर वापस एक हो जाये, उसे अप्रत्याखानी क्रोध कहा जाता है। जो मन को ब्रेकडाऊन कर डाले, उसे अंतिम कक्षा का यूज़लेस (निकम्मा) क्रोध कहा है, उसे अनंतानुबंधी क्रोध कहा है। और लोभ भी ऐसा, फिर मान, वे सभी ऐसे कठीन होते हैं कि उनके खतम होने के बाद मनुष्य सही ठीकाने आये और गुणस्थान प्राप्त करता है, वर्ना गुणस्थान में ही नहीं आता। क्रोध-मान-माया-लोभ, ये चार अनंतानुबंधी कषाय जायें तो भी बहुत हो प्रश्नकर्ता : होता है। दादाश्री : वह क्रोध आया तो उसका फल यहाँ ही तुरन्त मिल जाता हैं। लोग कहेंगे कि, “जाने दीजिए न उसे, वह तो है ही बहुत क्रोधी।" कोई तो उसे सामने से थप्पड भी मार दे। अर्थात् क्रोध होना यह स्थूल कर्म है। और क्रोध हुआ उसके पीछे आज तेरा भाव क्या है कि "क्रोध करना ही चाहिए।" तो वह अगले अवतार का फिर से क्रोध का हिसाब है। तेरा आज का भाव है कि क्रोध नहीं करना चाहिए, तेरे मन में निश्चय हो कि क्रोध करना ही नहीं है, फिर भी हो जाता है, तो अगले अवतार के लिए तुझे बंधन नहीं रहा। यह स्थल कर्म में तुझे क्रोध हुआ तो तुझे इस अवतार मार खानी होगी। फिर भी तुझे अगले अवतार का बंधन नहीं होगा, क्योंकि सूक्ष्म कर्म में तेरा निश्चय है कि क्रोध करना ही नहीं चाहिए। और आज एक मनुष्य किसी पर क्रोध नहीं करता, फिर भी मन में कहता है कि, "इन लोगों पर क्रोध करें तो ही वे सीधे हों ऐसे हैं।" तब इससे अगले अवतार वह फिर क्रोधवाला हो जायेगा ! अर्थात् बाहर जो क्रोध होता है वह स्थूल कर्म है। (उस समय अंदर जो भाव होता है वह सूक्ष्म कर्म है।) यदि हम यह समझें तो स्थल कर्म का बिलकुल बंधन नहीं है। इसलिए यह 'सायन्स' (विज्ञान) मैं ने नई तरह से बताया है। अभी तक 'स्थूल कर्म से बंधन है ऐसा जगत को ढूँस दिया है और उससे लोग भड़कते रहते हैं। गया। अब ये कब जायें ? 'जिन' के पास से सुनें, तो ये जायें। 'जिन' यानी आत्मज्ञानी, वह किसी भी धर्म का आत्मज्ञानी हो, चाहे वेदान्त का हो, चाहे जैन का, पर आत्मज्ञानी होना चाहिए। उसके पास से सुनने पर श्रावक होता है। और श्रावक होने पर उसके अनंतानुबंधी कषाय जाते हैं। फिर अपने आप ही क्षयोपक्षम होता रहता है। ____ अब दूसरा उपाय यह है कि हम उसे भेदज्ञान करा देते हैं। तब सारे कषाय चले जाते हैं, खतम हो जाते हैं। यह इस काल का आश्चर्य है। इसलिए इसे "अक्रम विज्ञान" कहा है न! भेदज्ञान से छूटे कषाय -- जय सच्चिदानंद प्रश्रकर्ता : चार कषायों को जीतने के लिए कोई प्राथमिक भूमिका तैयार करना ज़रूरी है ? यदि ज़रूरी हो तो उसके लिए क्या करना चाहिए? दादाश्री : ऐसा है न, यदि क्रोध-मान-माया-लोभ, ये चार चले जायें तो वह भगवान हो गया! Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिस्थान शुद्धात्मा के प्रति प्रार्थना हे अंतर्यामी परमात्मा! आप प्रत्येक जीवमात्र में विराजमान हैं, वैसे ही मुझे में भी बिराजमान है। आपका स्वरूप वही मेरा स्वरूप है। मेरा स्वरूप शुद्धात्मा है। हे शद्धात्मा भगवान ! मैं आपको अभेदभाव से अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। अज्ञानतावश मैं ने ** जो भी दोष किए है, उन सभी दोषों को आपके समक्ष जाहिर करता हूँ। उनका हृदयपूर्वक बहुत पछतावा करता हूँ और क्षमा माँगता हूँ। हे प्रभु ! मुझे क्षमा करे, क्षमा करे, क्षमा करे और फिर से ऐसे दोष नहीं करूँ ऐसी आप मुझे शक्ति दे, शक्ति दे, शक्ति दे। हे शुद्धात्मा भगवान! आप ऐसी कृपा करें कि हमारे भेदभाव छूट जाये और अभेद स्वरूप प्राप्त हो। हम आप में अभेद स्वरूप से तन्मयाकार रहे। ** (जो दोष हुए हो, वे मन में जाहिर करें) प्रतिक्रमण विधि प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में देहधारी के मन-वचन-काया के योग, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म से भिन्न ऐसे हे शुद्धात्मा भगवान, आपकी साक्षी में आज दिन तक जो जो दोष हए हैं, उसके लिए क्षमा माँगता हूँ। पश्चाताप करता हूँ। आलोचना, प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान करता हूँ और ऐसे दोष कभी भी नहीं करूँ ऐसा दृढ निश्चय करता हूँ / मुझे क्षमा करें, क्षमा करें, क्षमा करें। हे दादा भगवान ! मुझे ऐसा कोई भी दोष न करने की परम शक्ति दीजिये, शक्ति दीजिये, शक्ति दीजिये। * जिसके प्रति दोष हुआ हो उस सामनेवाले व्यक्ति का नाम लेना। ** जो दोष हुए हो वे मन में जाहिर करना। (आप शुद्धात्मा और जो दोष करता है उसके पास प्रतिक्रमण करवाना चन्दुलाल के पास दोषों का प्रतिक्रमण करवाना।) दादा भगवान परिवार अडालज: त्रिमंदिर संकुल, अहमदाबाद- कलोल हाईवे, पोस्ट : अडालज, जि. गांधीनगर, गुजरात - 382421. फोन : (079) 3983 0100 E-mail : info@dadabhagwan.org अहमदाबाद : (079)27540408, 27543979 राजकोट : त्रिमंदिर, फोन: 99243 43416 मुंबई : 022-24113875, 24137616 पूणे : 98220 37740 बेंग्लोर : 9341948509 कोलकत्ता : 033-30933885 U.S.A. : Tel:785-271-0869, E-mail : bamin@cox.net Tel.:951-734-4715 U.K. : Tel.:07956476253. E-mail: dadabhagwan_uk@yahoo.com Canada :416-675-3543 Australia :0423211778 Dubai :506754832 Singapore : 81129229 Malaysia : 126420710 Website: www.dadabhagwan.org & www.dadashri.org