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कौशिक : एक अप्रसिद्ध वैयाकरण
___ - नीलाञ्जना सु. शाह पाणिनीय धातुपाठ परना वृत्तिग्रंथोमां, जे केटलाक अप्रसिद्ध वैयाकरणोना मतना उल्लेखो मळे छे, तेमांना एक कौशिक नामना वैयाकरण छे. तेमणे पाणिनीय धातुपाठ पर वृत्ति लखी होवानुं मनाय छे.' तेमनी ए वृत्ति हाल उपलब्ध नथी, पण तेमना केटलाक मतोनो उल्लेख क्षीरस्वामीकृत 'क्षीरतरंगिणी' (ई.स.नी अगियारमी सदी) 'दैव' · परनी 'पुरुषकार वृत्ति' (ई.सनी तेरमी सदी) अने सायणकृत 'माधवीया धातुवृत्ति' (ई.स.नी चौदमी सदी)मां मळी आवे छे.* तेमना धातुसूत्रो विशेना मत सहुप्रथम आपणने क्षीरतरंगिणी (क्षीत)मा उपलब्ध थाय छे तेथी तेओ अगियारमी सदी पहेला थई गया हशे ए चोक्कस छे. तमना धातुओ विशेना आ मतोने 'क्षीत'ना क्रमानुसार अहीं दर्शाव्या छे जेथी एक समर्थ धातुवृत्तिकार तरीकेनी तेमनी प्रतिभानो परिचय संस्कृत व्याकरणशास्त्रना अभ्यासीओने थाय.
१. दध धारणे । क्षीत (पृ. १५).. 'कौशिकस्तु दद धारणे दध दारे इति पाठं व्यत्यास्थात् । ददते मणिम्, दधते धनमर्थिभ्यः इति' । क्षीरस्वामी लखे छे के सामान्य रीते मोय भागना धातुपाठोमां 'दद दाने अने दध धारणे होय छे तेने बदले कौशिक 'दद'नो अर्थ 'धारणे' करे छे अने 'दध'नो 'दाने' करे छे. कौशिकना मतना समर्थनमा जे 'ददते मणिम्' एवं वाक्य क्षीरस्वामीए यंक्यु छे ते पूरुं वाक्य 'निरुक्त मां मळे छे तेमां दद धारणेना समर्थनमां 'अक्रूरो ददते मणिम्' । 'विश्वे देवाः पुष्करे त्वाददन्ता' (ऋ. ७. ३३. ११)-आ बंने वाक्यो आप्यां छे. टीकाकार दुर्गे पण आ बाबतनुं समर्थन करतां कह्यु छ : लोकेऽप्यं ददतिर्धारणार्थे भाष्यते । माधवीया धातुवृत्ति (माधावृ पृ. ५५)मां आ ज धातुसूत्रना संदर्भमां सायण लखे छे : - * युधिष्ठिर मीमांसक (स)क्षीरतरंगिणी (बहालगढ, हरियाणा) द्वितीय आवृत्ति,
सं. २०८२; युधिष्ठिर मीमांसक, दैव-पुरुषकारवात्तिक, अजमेर, प्रथम संस्करण, सं. २०१९; द्वारिकादास शास्त्री, माधवीया धातुवृत्ति, वाराणसी, द्वितीय संस्करण, १९८३.
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अनुसंधान-१७ • 204 दान इति केचित्पठन्ति, 'दद दाने' इत्यत्र धारणे इति तदयुक्तम् । तेमणे कौशिकनुं नाम आप्युं नथी. ते पोते आ मतने अयोग्य ठेवे छे अने तेना समर्थनमां शिशुपालवधना श्लो. १९. ११४ने तेमज काव्यप्रकाशना श्लो. १०.५९३ने टांके छे जेमा अनुक्रमे दद धातु दानना अने दध धातु धारणना अर्थमां प्रयोजायो छे.
दाददो दुद्ददुद्दादी दादादो दुददी ददो...... ददः ॥(शिशु १९. ११४) तद्वेषोऽसदृशोऽन्याभिस्त्रिभिर्मधुरताभृतः । दधते सुलभां शोभां तदीया विभ्रमा इव ॥ (काव्यप्रकाश, १०. ५९३)
एक नोंधपात्र बाबत ए छे के क्षीरस्वामीए कौशिकनो आ मत आप्या बाद एक तटस्थ विवेचकने शोभे तेवो सरस खुलासो कर्यो छे : युक्तायुक्तत्वे त्वत्र सूरयः प्रमाणम् । वयं हि मतभेदप्रदर्शनमात्रेणैव कृतार्थाः । मुनिमुख्यानां वाक्यं कथंकारं विकल्पयामः, वयमपि हि स्खलन्तोऽन्यैः कियन् नोपलप्स्यामहे । योग्यायोग्यत्वनी बाबतमा मुनिओ प्रमाण छे. अमे तो मात्र मतभेदनुं प्रदर्शन करीने कृतार्थ थईए छोए. मुख्य मुनिओनां वाक्योनी अमे केवी रोते छणावट (साचुं शुं खोटुं शुं ?) करीए ? अमारी भूल थाय तो शुं अमे पण केटला ठपकाने पात्र नहीं थईए ? (पुरुषकार वृत्ति (पृ. १२)मां कृष्ण लीलाशुके कौशिकना मत साथे आ खुलासो पण आप्यो छे. मात्र बोपदेवना धातुपाठ, कविकल्पद्रुम (पृ.३४)मां दध ददे एवो पाठ मळे छे जे कौशिकना मतनुं समर्थन करे छे.
२. युतृ जुतृ भासने । क्षीत (पृ. २०) ..... कौशिकस्तु ज्योति: सिद्धये जुर्ति ज्युति मन्यते । ज्योतिश्च छुतेरसिजादेश्च । (उ. २. ११०) इति सिद्धम् । जुतिरिति दुर्ग: । कौशिक ज्योतिः शब्दनी सिद्धि माटे जुति उपरांत ज्युति एवो धातु पण सूचवे छे. मोटाभागना बधा धातुपाठोमां क्षीतनी जेम ज भ्वादि गणना आ धातुओनो पाठ छे. 'क्षीत'कार उणादि सूत्र द्युतेरसिजा० (२-११०)थी आ शब्दनी सिद्धि दर्शावे छे. एनो अर्थ ए थयो के एमने 'ज्युति' जेवो धातु मानवानी जरूर लागती नथी. 'क्षीत'ना संपादक युधिष्ठिर मीमांसके दर्शाव्युं छे के क्षीरस्वामीए 'अमरकोश' परनी 'अमरकोशोद्घाटन' टीकामां 'ज्योतिः' (३-३.२३१) शब्दने समजावतां 'ज्योतते
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अनुसंधान-१७. 205 ज्योतिः' का छे, तो शतपथब्राह्मण (१.५.३.१)मां 'अवज्योत्यमानम्' प्रयोग मळे छे अने निरुक्त (२-२८-१६)मां ज्वलतिना कर्मोमां 'द्योतते ज्योतते'ए बे धातुनो पाठ मळे छे. तेथी मीमांसकनुं मानवं छे के अर्वाचीन आचार्योए पोताना समयमां आ धातुनो प्रयोग नहीं जोयो होय तेथी 'द्युत दीसौ'-ए धातुमांथी ज्योतिः निष्पन करे छे.२ आ संदर्भमां ग. बा. पल्सुलेनो मत नोंधवा जेवो छे. तेओ माने छे के मळ धातु तो ज्युत् ज हशे पण पाछळथी प्राकृत भाषानी असरने लीधे जुत् थई गयो. आ दृष्टिए जोईए तो कौशिके प्राचीन धातुने दर्शाव्यो जणाय छे. बोपदेवना कवि. (पृ. २९)मां "ज्युत् भासने' मळे छे ए नोंधळू घटे.
३. विथ वे, याचने । क्षीत. (पृ २१)..... कौशिकस्तु अविथुरसिद्धये यातन इत्याह, नन्न व्यथेः सम्प्रसारणं किच्च । (उ. १. ३९) इति सिद्धेः । आ बाबतमां क्षीरस्वामी नोंधे छे के कौशिक विथुर ने विथ वेथ परथी सिद्ध करवा आ बने धातुओनो अर्थ याचनाने बदले यातना सूचवे छे. क्षीरस्वामी आ मतनो अस्वीकार करतां कहे छे के आ धातुओ साथे विथुरः (पीडा आपनार)ने सांकळवानी जरूर नथी. कारणके उणादि सूत्र व्यथे: (उ. १. ३९)थी भ्वादि धातु 'व्यथ भयसञ्चलनयोः'नुं संप्रसारण थई विथुरः रूप थयुं छे. नोंधवू घटे के माधावृ (पृ. १९१)मां पण व्यथ ने लगता धातुसूत्रमा ज विथुर:नी उपर्युक्त उणादिसूत्रथी ज व्युत्पत्ति दर्शावी छे, क्षीरस्वामीए कौशिकना आ मतनुं स्पष्ट खंडन कर्यु छे.
'माधावृ' (पृ. ६३)मां मळतो कौशिकनो मत आ धातुओने लगतो छे पण ते तेमना अर्थनी बाबतमां नहीं पण स्वरूपने लगतो छे. सायण विथवे याचने । धातसूत्रनी वृत्तिमां कहे छे : द्वितीयो दान्तः आद्यो धान्तः इति कौशिक: ' कौशिकना मत प्रमाणे विधृ अने वेदृ एम आमनुं स्वरूप जोईए. तेमना आ मतने कोई पण धातुपाठनुं समर्थन मळतुं नथी. सायणे वधारामां एम पण नोंध्यु छ के कौशिकना मतनो क्षीरस्वामीए अस्वीकार कर्यो छे. धातुना स्वरूप अंगेना आ मतनो निर्देश ज क्षीरस्वामीए कर्यो नथी, तो तेने दोषित ठराववानो प्रश्न क्यां रहे ? सायण क्षीरस्वामीए आ धातुना अर्थ अंगेना कौशिकना मतना क्षीतमां करेला अस्वीकारनी वात
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अनुसंधान-१७. 206 करता जणाय छे.
४. श्च्युतिर् क्षरणे । क्षीत. (पृ. २३)..... कौशिकस्तु श्रुतिमयोपधं मन्यतेश्चोतति । कौशिक भ्वादि गणना आ धातुनो 'श्चति' ए रीते 'य'कार वगरनो पाठ करे छे. 'माधावृ'मां (पृ. ६७)सायणे कौशिकना नाम वगर आ मतनो निर्देश कर्यो छे अने तेना मतना समर्थनमां, भट्टभास्करे टांकेली ऋग्वेदनी ऋचाओ आपी छे : अत्र श्चतिरित्ययकारमपि पठन्ति । तथा च 'मधुश्चुतं घृतमिव सुपूतम् .. । [ऋ. ४. ५७.२], श्चोतन्ति ते वसो: .... [ऋ. ३. २१. ५] इत्यादौ भट्टभास्करः । तथा च मैत्रेयोऽपि - श्रुतिरित्यप्येके पठन्ति । सायणे नोंध्या प्रमाणे मैत्रेये पण 'धातुप्रदीप' (पृ.७)मां केटलाकनो कहीने नाम आप्या वगर कौशिकना आ मतनो निर्देश कर्यो छे. माधावृ.मां, धातुसूत्रोना संदर्भमां भट्ट भास्कर के जे पोताना अभिप्रायना संदर्भमां वैदिक ऋचाओ टांके छे तेमना केटलाक मत मळे छे. ___ कौशिकने भट्ट भास्कर उपरांत हेमचंद्रना धातुपाठनुं समर्थन पण मळी रहे छे, कारणके हेमचंद्र हेमधातुमाला (पृ.३३)मां चुतू, श्चुत, श्च्युत क्षरणे -एम त्रणे आपे छे. कवि (पृ.२९)मां चुत् च्युति क्षरे-बने मळे छे. नोंधQ जोईए के भट्टिकाव्यमां तो आश्च्योतद्रुधिरम्.....(१७.११)-एम श्च्युत् धातुनो प्रयोग मळे छे.
५. द्रा आयासे च । क्षीत. (पृ. ३३) आयासं कदर्थनम् । कौशिकस्त्वायामे । दैर्ध्यविशिष्टायां क्रियायामित्याख्यत् ।
कौशिक द्राघुना अर्थनी बाबतमां क्षीरस्वामीथी जुदा पडीने आयाम ए अर्थ दर्शावे छे अने आयामनो अर्थ पण दीर्घताथी विशिष्ट एवी क्रिया करे छे. 'माधावृ' (पृ. ८०) पण 'द्राघु आयामे आयामो दैर्घ्यक्रियेति कौशिकः।' कहीने कौशिकनो उपर्युक्त मत ज आपे छे.
क्षीरस्वामी, चान्द्र, जैनेन्द्र, कातंत्रव्याकरणकार, शाकटायन-आमां मोटाभागना धातुवृत्तिकारो आयासः अर्थ ज आपे छे. कौशिकना मतने सायण उपरांत बोपदेवतुं समर्थन मळी रहे छे. जो के बोपदेवे कवि. (पृ. १६)मां द्राङ् श्रमायामाशकितषु । एम वणे अर्थ आप्या छे. श्री. ग. बा. पल्सुलेए जणाव्यु छे के हस्तप्रतोमां अमुक अक्षरोमां, एकने बदले बीजो वंचावानो संभव
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रहे छे तेवी रीते मनो स वंचावाने लीधे ज आयामनुं आयासे वंचायुं छे." खरेखर द्राघृ धातुनो साचो अर्थ आयाम: छे कारणके द्राघिमान, द्राविष्ट आ बधा शब्दोनुं मूळ द्राघ धातु ज छे. आम धातुओना अर्थनी बाबतमां कौशिकनी दृष्टि साचा अर्थने पकडे छे, एवी छाप पडे छे.
६. हेड विबाधायाम् । 'क्षीत' (पृ. ५६ ) - कौशिकस्तु नैतानाह । क्षीरस्वामी लखे छे के कौशिक आ धातुओनो पाठ करता नथी. आ परथी पण स्पष्ट थाय छे के कौशिके समग्र धातुपाठ पर वृत्ति लखी होवी जोईए. क्षीरस्वामीए अहीं 'एतान्' एम बहुवचननो प्रयोग कर्यो छे तेथी 'हेड विबाधायाम् अने ते पहेलांना ओछामां ओछा बे धातुओ पिट शब्दे' अने 'विट आक्रोशे' एम त्रण धातुओनो कौशिक धातुपाठमा समावेश करता नथी एवो अर्थ थयो. 'माधावृ', अने 'धाप्र'मां हेड विबाधायाम् अने विट आक्रोशे नथी. पिट शब्दसंङ्खातयोः धातु बनेमां- माधावृ (पृ. १०४ ) अने धाप्र (पृ. २३) मां अने बीजा धातुपाठोमां मळे छे. हेड विबाधायाम् भाग्ये ज कोई धातुपाठमां मळे छे, ज्यारे मोटेभागे हेठ विबाधायाम् मळे छे. आक्रोशना अर्थमां विट मात्र कवि (पृ. २३) मां मळे छे. आ संदर्भमां ग. बा. पल्सुलेनो मत एवो छे अमुक धातुओ अमुक अर्थमां भाषा अने साहित्यमा प्रयोजाया नथी के पछीना समयमां अनार्य गणाईने धातुपाठमां समावाता बाध थया तेथी केटलाक धातुवृत्तिकाये तेमनो पाठ करता नथी. ७. कुडि वैकल्ये । क्षीत (पृ.५७) कुटि इति कौशिकदुग कुण्टति । कौशिक अने दुर्ग भ्वादि गणना कुडिने बदले कुटि एम पाठ करे छे. माधावृ (पृ.११४ ) मां आ ज प्रमाणे कौशिकने दुर्गना मतनो उल्लेख छे. सायणे त्यां नोंध्युं छे के धातुपाठमां अहीं डान्त धातुओना पाठनुं प्रकरण चाले छे माटे शाकटायन प्रकरणना अनुरोधथी कुडि धातुने ज माने छे. दैव परनी पुरुषकार वृत्ति (पृ. ६७) कुठीति कौशिकदुर्गौ । एम मत आपे छे. कुडिनुं कुण्डति, कुटिनं कुण्टति अने कुठिनुं कुण्ठति रूप थाय छे. मैत्रेय, कातंत्रकार, अने काशकृत्स्न वैकल्यना अर्थमां, कुड धातु आपे छे, चान्द्र जैनेन्द्र शाकटायन अने हेमचंद्र कुट धातुनो पाठ करे छे ज्यारे बोपदेव कविमां कुड (पृ. २६) कुट (पृ. २२) अने कुठ
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अनुसंधान-१७ • 208 (पृ. २४) एम त्रणे आपे छे एवो संभव छे के पुरुषकार वृत्तिमां कुटने बदले कुठ वंचायुं होय कारणके हस्तप्रतमा टने ठनो गोटाळो थवानो संभव छे."
८. मुडि खण्डने । क्षीत (पृ. ५७)-मुटि इति कौशिकदुर्गोमुण्टति । भ्वादिगणना मुडि खण्डने धातुनो कौशिक अने दुर्ग मुटि पाठ कहे छे. माधावृ (पृ. ११३)मां, धा. प्र. (पृ. २६) अने लगभग बधा ज धातुपाठमां मुडि एम धातु मळे छे. दैव परनी पुरुषकार वृत्ति (पृ... ६४)मां मुडि खण्डने-ना संदर्भमां शुठीति कौशिकदुर्गौ । शुण्ठति मळे छे. तेमा मुटिने बदले शुठि कदाच वंचायुं होय तेम क्षीतना संवादो युधिष्ठिर मीमांसकनु मानवु छे. प्रकरणनी दृष्टिए पण शुठि अहीं बंध बेसतुं नथी.
९. शुठि शोषणे । श्रीत (पृ. ६०)-एनं कौशिको नाध्येष्ठ । क्षीरस्वामी जणावे छे के भ्वादि गणना आ धातुनो कौशिक पाठ करतो नथी के एने स्वीकारतो नथी. माधावृ (११५)मां, धाप्र (पृ. २८)मां, पुरुषकारवृत्ति (पृ. ६३) अने कवि (पृ. २५)मां शुठ शोषणे धातु आपे छे. शुठ धातु परनी आवेलो शुण्ठी (सूंठ) शब्द प्रचलित छे (माधावृ. पृ ११५). आ धातुनो पाठ करवानुं केम कौशिके ना पाडी हशे तेनो ख्याल आवतो नथी. चान्द्र व्याकरणमां आ धातुनो पाठ नथी. तेने अनुसरीने कदाच आवो मत कौशिके दर्शाव्यो होय. ___ १०. मेप रेपृ लेप गतौ । क्षीत. (पृ. ६३)-हेपृ च इति
कौशिकः । ___माधावृ (पृ. ११७)मां पण उपर्युक्त धातुसूत्रनी व्याख्यामां आम कौशिकनो नाम वगर निर्देश छे : क्वचित् पढ्यते हेपृ धेपृ इति च । आ हे धातुनुं वर्तमानकाळ तृ. पुः एकवचन- रूप हेपते थाय छे, आ धातु कोई धातुपाठमा मळतो नथी, ते नोंधq घटे.
११. बर्फ, रफ, रफि, अर्ब, बर्ब, कर्ब, खर्ब, गर्ब, धर्ब, शर्ष, पर्व.... नर्ब गतौ । क्षीत... (पृ. ६८) - अ.त्यादौ रेफस्थाने नकारं कौशिको मन्यते । माधावृ (पृ. १२५)मां आ ज मत बीजा शब्दोमां मळे छे. अर्बादियो नोपधा इति कौशिकः' अने कौशिक भ्वादिगणना आ धातुसूत्रना अर्बथी
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अनुसंधान-१७ • 209 नर्ब सुधीना बारे धातुओने नोपध माने छे एटले के तेमनुं स्वरूप अन्ब, बन्ब, कन्ब, एम थर्बु जोईए. नोंधq घटे के मात्र कवि. (पृ. ३९)मा आ धातुओना अर्ब अने अन्ब, बर्ब-ब-ब, कर्ब-कन्ब-एम बने रूपो आप्या
___आ धातुओना संदर्भमां, ग. बा. पल्सुलेए एम जणाव्युं छे के शारदालिपिमां र अने न बने लगभग सरखा वंचाय छे तेथी लिपि वांचवाना गोटाळाने लीधे आम बन्युं हशे. कवि. सिवायना बधा ज धातुपाठ अर्ब-बर्ब एम पाठ आपे छे.
१२. वन भण धण शब्दे । क्षीत. (पृ. ७२) धणति । कौशिकस्तु दन्त्यान्तमाह ।
कौशिक आ धातुसूत्रमांना धण शब्दे ए भ्वादि गणना धातुनो धन एम पाठ करे छे. माधावृमां अने धाप्रमां आ धातुनो निर्देश नथी. मात्र काशकृत्स्न धातुपाठ (पृ. २५)मां धन शब्दे मळे छे ज्यारे बोपदेवना कवि. (पृ. ३६)मां धन् खे एम मळे छे. कवि. परनी धातुदीपिका टीकामां तेना दृष्टांत तरीके 'धनति मृदङ्गः ।' एम पण आप्युं छे आम कौशिकने काशकृत्स्न व्याकरणना कर्ता अने बोपदेव बनेनुं समर्थन मळी रहे छे.
१३. त्सर छद्मगतौ । क्षीत. (पृ. ८५)-त्सम इत्यपीति कौशिक:त्सद्मति । कौशिके भ्वादि गणना धातु त्सर ने बदले त्सम सूचव्यो छे अने तेनुं वर्तमानकाळनुं रूप त्सद्मति दर्शाव्युं छे. कोई धातुपाठमां आ धातुनो पाठ मळतो नथी.
१४. कव शब्दे । क्षीत. (पृ. १०३)- कशेति कौशिकः । कौशिक अहीं कश शब्दे नो पाठ करे छे. 'क्षीत'ना संपादक युधिष्ठिर मीमांसक नोंधे छे के अहीं शकारान्त धातुओना पाठमां वच्चे कव धातु आवे छे, ते बंधबेसतो नथी. प्रकरणना अनुरोध प्रमाणे कश धातु योग्य छे. 'माधा' के 'धाप्र'मां आ कश शब्दनो पाठ नथी. हेमधातुमाला (पृ. ५२) अने कवि. (पृ. ४८)मां कश शब्दे मळे छे. ग. बा. पल्सुलेना मत प्रमाणे आ धातु पाछळथी उमेरायेलो लागे छे. कारणके प्राचीन धातुपाठमां आ धातु मळतो नथी.१० कशा (चाबूक) शब्दने अमरकोश (२-१०-३१) परनी
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'व्याख्यासुधा' नामनी टीकामां कश शब्दे परथी व्युत्पन्न करवामां आव्यो छे आ कश धातु अदादि कस (कश) गतिशासनयोः धातु करतां जुदो छे.
१५. खन्भु विश्वासे । (पृ. १०८ ) स्त्रन्हु इति कौशिक:- संहते, ऊष्मान्तप्रस्तावात् । भ्वादि गणना खन्भु ने बदले सन्हु धातुनो पाठ करे छे आ धातु मात्र कवि (पृ. ५६ ) आपे छे अने तेना परनी टीका धातुदीपिकाना कर्ता दुर्गादास लखे छे : धातुरयं कैश्चिन मन्यते । सामान्य रीते मोटयभागना धातुपाठो सम्भु विश्वासे एम आ धातुनो पाठ आपे छे. कौशिकने आ बाबतमा कविना कर्ता बोपदेवनुं सबळ समर्थन मळी रहे छे.
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१६. क्षजि गतिदानयोः । क्षीत. (पृ. ११२) क्षीर नोंधे छे के क्षजेति कौशिकः । आ ज प्रमाणे माधावृ. (पृ. १९२) मां पण कौशिकनो आ मत मळे छे के भ्वादि गणना आ धातुनो पाठ क्षज थवो जोईए. जो क्षजि पाठ करीए तो इदितो नुम् धातोः । (पा. ७. १. ५८ ) सूत्रथी क्षञ्जते वर्तमानकाळनुं रूप थाय अने जो क्षज करीए तो क्षजते एम रूप थाय. बोपदेव कवि. (पृ. १८) मां क्षजि क्षज बंने आपे छे.
कौशिके भाषा के साहित्यमां क्षजते वगैरे एवां आ धातुनां रूपो जोयां हशे, तेथी तेओ आ सूचन करे छे.
१७. दाशृ दाने । क्षीत. (पृ. १३२) - दायू दान इति कौशिकः । भ्वादि गणना आ धातुनो पाठ दाशृ नहीं पण दाय थवो जोईए एम कौशिक माने छे. दाशृ होय तो वर्तमानकाळनुं रूप दाशते थाय छे अने दाय होय तो दायते थाय छे. माधावृमां कौशिकना आ मतनो उल्लेख नथी. मात्र बोपदेवना कवि (पृ. ४२ ) मां दायृञ् दाने एम मळे छे.
१८. शिजि अव्यक्ते शब्दे । क्षीत. (पृ. १७९) शिजि पिजि इति कौशिकः । पिंक्ते पिञ्जरः । कौशिक अव्यक्त शब्दना अर्थ दर्शावता धातु तरीके अदादिगणना आ शिजि उपरांत पिजिने पण आ धातुपाठमां गणाववा इच्छे छे. माधावृ (पृ. ३३५) मां सायण नोंधे छे अयं पिजिश्च द्वावव्यक्ते शब्दे' इति काश्यपः । आम काश्यपनो मत पण कौशिक जेवो ज छे
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के आ धातुसूत्रमां शिजि साथे पिजिनो पाठ थवो जोईए. अव्यक्त शब्द ए अर्थमां पिजि धातु कोई पण धातुपाठमां मळतो नथी.
ग. बा. पल्सुलेनो आ संदभां एवो मत छे के आ धातु प्रमाणमां सहेज पाछळथी उमेरायेलो हशे के गभ नेम पण एनी साथे ज्यारे ए उमेरायो त्यारे एनो अर्थ संकळायेलो न हतो. " जान्त होवाथी तेने शिजि जोडे मूकीने कोईए एनो अर्थ अव्यक्त शब्द कर्यो, तो तेना पछीना धातु पद सम्पर्के साथे एने सांकळीने अन्यए सम्पर्के के सम्पर्चने अर्थ कर्यो तो केटलाके पिंगलः पिंगलकः जेवा शब्दोनो मूळ धातु कल्पीने एनो अर्थ 'वर्ण' कर्यो, अने अमुक वैयाकरणोए पिञ्जुल: (घासनो पूळो) साधे एनो मेळ बेसाडीने तेनो अर्थ 'अवयव' पण कर्यो. बोपदेवना कवि. (पृ. २८) मां पिजनो अर्थ वर्णपूजयोः एम मळे छे, जेनुं एक पाठांतर वर्णकूजयोः मळे छे अने कूजनो अर्थ अव्यक्त शब्द ज थाय छे. कौशिक अने काश्यप पिजिनो अर्थ 'अव्यक्त शब्द' करे छे, जेनुं वर्तमानकाळनं रूप पिंक्ते थाय छे. गुजराती भाषामा रू ने पिंजवुं, रूनुं पिंजण वगैरे शब्दो वपराय छे अने तेमनो आ पिज धातु साथै संबंध कदाच दर्शावी शकाय.
(पृ. १८० ) - पुचि इति कौशिक:
१९. पृची सम्पर्क I क्षीत. पृङ्कते । माधावृमां (पृ. ३३६ ) मां अदादि गणना आ धातुसूत्रना संदर्भमां सायणे नोंध्युं छे के इदित्तृतीयान्तः इति कौशिकः । एटले अर्थ एवो थयो के कौशिक पृचीने बदले पूजि पाठ आपे छे. क्षीतमां आ बाबत कोई चर्चा नथी, पण सायणे स्पष्ट कयुं छे के सम्पृचादि सूत्र ( ३. २. १४२) मां काशिकावृत्ति' मां स्पष्ट लख्युं छे के 'पृची सम्पर्के' इति रुधादिर्गृह्यते न त्वदादिः । तेथी पृची ए स्वरूप बराबर छे, वळी उणादिवृत्तिमां पर्जन्यः शब्दनी व्युत्पत्ति 'अर्जेः पर्ज वा' ए धातुथी अन्यः प्रत्यय लगाडीने करवामां आवी छे (उणादिवृत्तिमां पर्जन्य: ३-८-६ सूत्र ज छे ने सिद्धांतकौमुदीमां पृषु सेचने परथी तेनी व्युत्पत्ति करवामां आवी छे). आ उपरांत शाकटायन पण पृचै सम्पर्चने । सूत्र आपे छे. तेथी पृची ज बराबर छे अने पूजि ए धातुनुं स्वरूप अयुक्त छे तेम सायण दलील करे छे धाप्र (पृ. ७९ ) मां अने काशकृत्स्त्र (पृ. १२६ ) मां पूजी छे, कवि. मां पृची (पृ. १७) अने
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अनुसंधान-१७ • 212 पृजि (पृ. २०)- ए बने संपर्कना अर्थमां आप्या छे. पुरुषकार वृत्ति (पृ. ४६)मां सुधाकरनो मत मळे छ : अत्र भूवादि सूत्रे सुधाकरः - पृचि इति द्रमिडाः, वेति नन्दिस्वामी । ___ आम कौशिकना पृचि ए धातु स्वरूपने द्रमिडानो ने जैनेन्द्र व्याकरणना
वृत्तिकार नन्दिस्वामीनुं समर्थन मळी रहे छे.. तो पूजि ए रूपने कवि.ना कर्ता बोपदेवतुं समर्थन मळी रहे छे.
२०. बिल भेदने । क्षीत. (पृ. २९८) भिल इति कौशिक:-भेलयति भेलः भिल्मम् । कौशिक चुरादि धातु बिलने बदले भिल एम आ धातुनो पाठ करे छे. कवि. (पृ. ४५)मां आवो पाठ मळे छे ते सिवाय बधा धातुपाठमा बिल भेदने एम ज मळे छे. क्षीत.ना संपादके नोंध्यु छे के निरुक्त १. २०मां बिल्म भिल्मं भासनमिति वा मळे छे.१२ टीकाकार दुर्गे
आ भिल्मम् नो अर्थ वेदानां भेदनम् । भेदो व्यासः । एम आप्यो छे पण एना मूळ धातुनो निर्देश कर्यो नथी. पण भिल्मम् ना अर्थ जोतां भिल भेदने ए एनो मूळ धातु होवो जोइए. गुजराती शब्द भेलाणनो मूळ
धातु पण कदाच भिल होवानुं अनुमान थई शके. ___२१. व्यय क्षये । क्षीत (पृ. ३०१)-व्यप व्यय इति कौशिकः । कौशिक 'क्षय'ना अर्थमां चुरादि गणना व्यय क्षये-ए धातु उपरांत व्यप नो पण पाठ करे छे. आ व्यप क्षये ए धातु मात्र कवि. (पृ. ३८)मां मळे छे.
२२. चुषिर विशब्दने । क्षीत. (पृ. ३१३).... धुष विशब्दने इति कौशिकः । कौशिक चुरादि गणना धातु घुषिर् नो घुष एम पाठ करे छे. घुषिर पाठ करीए तो इरितो वा (पा. ३. १. ५७) सूत्रथी लुङ् एटले के अद्यतनकाळनां रूपोमां अङ् विकरण प्रत्यय विकल्पे थाय. वळी क्षीरस्वामी जणावे छे के इरित्वमनित्यण्यन्तत्वे लिङ्गम् । एटले के इर् अनुबन्ध अनित्य ण्यन्तत्वने दर्शावे छे. तेथी घुषिर् ना लुङ् मां त्रण रूपो थाय छे : अजूघुषत् अघुषत् अघोषीत् । जो 'इ' अनुबन्ध विनाना 'घुष'नो पाठ, कौशिकना मत प्रमाणे करीए तो 'इरितो वा ।' लागु न पडे अने तेथी अद्यतन 'अजूधुषत् अधुषत्' - ए प्रमाणे रूप थाय. कौशिके
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अनुसंधान-१७. 213 आ धातुनां अद्यतनकाळमां अमुक ज रूपो प्रयोजातां जोयां होय तेथी तेओ 'घुष' ए पाठनो आग्रह राखे छे एम बने. लगभग पाणिनीय परंपराना बधा धातुपाठमां 'चुरादि' गणमां आ धातुनो पाठ 'घुषिर' मळे छे. आ धातुनो अर्थ 'अविशब्दन' के 'विशब्दन' ते विशे वैयाकरणोमां मतभेद प्रवर्ते छे. पण ते बाबतमां कौशिक क्षीरस्वामी साथे सहमत छे तेथी तेनी चर्चा अस्थाने छे.
२३. लुट विलोडने । माधाव (पृ. १११).....एतदादयः पाठत्यन्ताष्टवर्गतृतीयान्तां इति कौशिककाश्यपनन्दिद्रमिडाः । माधावृमां नोंधायेलो कौशिकनो आ एक ज मत एवो छे के जे 'क्षीत.'मां नथी. सायण वधारामां नोंधे छे के ते चास्मादनन्तरे पिटहटी च पेटुः । आ परथी जणाय छे के तेमणे लुट पछी तरत पिट अने हटनो पाठ को हशे. अने लुट, पिट, हट, विट बिट (बेमांथी एकनो पाठ हशे) इट, किट, कटी-आ सातेक धातुओ पछी तरत पठनो पाठ कर्यो हशे. कौशिक ; तेना जेवो ज एक अप्रसिद्ध वैयाकरण काश्यप (वृत्तिकार ?) जैनेन्द्र व्याकरणना कर्ता नन्दिस्वामी अने द्रमिड वैयाकरणो आ धातुओनो यन्तने बदले डान्त पाठ करे छे. आ धातुओमाथी मात्र विट आक्रोशे धातुनो 'विड आक्रोशे' एम 'डान्त' पाठ धाप्र. (पृ. २६) अने हैमधातुमाला (पृ. ३१)मां अने कवि (पृ. २७)मां मळे छे.
क्षीत. (पृ. ५६)मा 'लुट विलोडने ।' सूत्रनी वृत्तिमा 'लुड इति द्रमिडाः' एम निर्देश मळे छे. सायणे ए पण नोंध्यु छ के भूसूत्रे सुधाकर:- लुल विलोडने इति लान्तोऽयं दृश्यते, लोलदभुजाकार बृहत्तरंगम्... । (३. ७२) इति माघः । डलयोरेकत्वस्मरणम् इति प्रतिविधेयम् । __माधावृ मां मळतो सुधाकरनो आ ज मत पुरुषकार वृत्ति(पृ. ५८)मां मळे छे. सुधाकरना ड अने ल ने एक मानवाना विधान परथी अनुमान थई शके के ते पण कदाच लुड ने मूळ धातु मानवानो मत धरावता होय. एम न होय तो पण कौशिकने नन्दिस्वामी अने द्रमिडोनुं समर्थन तो मळी ज रहे छे. ___उपर्युक्त वृत्तिग्रंथोमां कौशिकना जुदा जुदा धातुओ विशेना कुल २३ मत छे, जेमांना २२ (नं १-२२) 'क्षीत'मां छे. माधावृमां कौशिकना नामथी
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अनुसंधान-१७ • 214 अपायेला ७मांथी ६ मत (नं. ३, ५, ७, ११, १६, १९) क्षीतमां मळे छे ज्यारे ४ (नं. १, ४, १०, १८) मत एवा छे के जेमां कौशिक, नाम नथी, पण क्षीतमां ते कौशिकने नामे छे. 'क्षीत'मां मळता बाकीना १२ मत (नं. २, ६. ८, ९, १२, १३, १४, १५, १७, २०, २१, २२)माधावृमां मळता नथी. ___ 'दैव' परनी 'पुरुषकार' वृत्तिमा जे त्रण मत कौशिकना नामे मळे
छे, ते तो 'क्षीत'मां नोंधायेला छे. आम कौशिकना धातुओ विशेना आ मतो साचववानुं श्रेय क्षीरस्वामीने फाळे जाय छे.
तेमना आ मतोनो अभ्यास करतां एवं चोक्कस लागे छे के तेमणे पाणिनीय धातुपाठ पर सळंग वृत्ति लखी हशे. तेओ पाणिनीय परंपरा उपरांत एमना समयमा विद्यमान बीजी व्याकरणपरंपराओथी सारी रीते परिचित जणाय छे. तेमना अमुक मत कातंत्र व्याकरणना टीकाकार दुर्ग (इसनी आठमी सदी) साथे तो कोई मत चान्द्र व्याकरणकार साथे तो अमुक भत जैनेन्द्र व्याकरणना टीकाकार नन्दीस्वामी अने द्रमिडो साथे मळता आवे छे.
धातुओना स्वरूपो माटेनां तेमनां सूचनो शिष्ट संस्कृत साहित्य उपरांत वैदिक साहित्य पर आधारित जणाय छे. प्राकृत भाषानी असरने लीधे बदलाई गयेला धातुओना मूळ स्वरूपने तेमणे सूचव्यां छे. केटलाक धातुओना डान्त पाठने यन्त सूचववामां तेओ दुर्गने अनुसरता जणाय छे. धातुओना स्वरूपो विशेनो तेमनो अभिगम मौलिक जणाय छे.
धातुओना अर्थ बाबतनां पण तेमणे मौलिक विचारणा दर्शावी छे. लिपिवांचन दोषने लीधे बदलाई गयेला धातुना मूळ अर्थ तरफ ध्यान दोयुं छे. ___ एमणे सूचवेला नवा धातुओमाथी केटलाक धातु एवा छे के कोई धातुपाठमां मळता नथी. एनो अर्थ ए नथी थतो के ए धातुओ प्रमाणभूत नथी. अगियारमी सदीनीये पहेलां थई गयेला आ वैयाकरण समक्ष एवं साहित्य विद्यमान हशे के जेमां आ धातुओ प्रयोजाया हशे. ए साहित्य अत्यारे लुप्त थई गयुं होवाथी · अ ए धातुओ प्रयोजाया होवा- कोई प्रमाण मळे नहीं एम बनी शके.
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अनुसंधान - १७•215
आ बधा परथी स्पष्ट थाय छे के कौशिके पाणिनीय धातुपाठनो सांगोपांग अभ्यास करीने पोतानी वृत्तिमां धातुसूत्रो अंगेना महत्त्वनां सूचनो कर्या हता. तेमना धातुओना स्वरूप अने अर्थ बाबतना वलणने तेमज अमुक धातुओ वधारवाना अभिप्रायने सबळ समर्थन मळे तेवा प्रयोगो मळी आववानी आशा राखीए, कारणके पुरुषकारना शब्दोमां जोईए तो व्याकरणमा प्रयोग ज मुख्य छे :
पाठा व्याख्याश्च धातूनां दृश्यन्ते स्वैरिणः भगवांस्तानवस्थापयेत्
प्रयोग
एव
पादटीप
१. युधिष्ठिर मीमांसक - संस्कृत व्याकरणशास्त्रका इतिहास, भा. २ ( बहालगढ, हरियाणा), सं. २०४१) पृ. ९१
२. युधिष्ठिर मीमांसक, क्षीरतरंगिणे, पृ. २०, पा.टी.६
३. G. B. Palsule, The Sanskrit Dhatupāthas, (Deccan College, Poona, 1961), p. 211
४. G. B. Palsule, A concordance of Sanskrit Dhatupāthas (Deccan College Poona 1955 ) p. 168.
4. G. B. Palsule, Op. Cit, p. 132.
६. G. B. Palsule, The Sanskrit Dhatupāthas, pp 243-245.
७. युधिष्ठिर मीमांसक, दैवम् पुरुषकारवार्त्तिकम्, पृ. ६४, पाटी ८.
८. G. B. Palsule, The Sanskrit Dhatupāthas, p. 238.
९. G. B. Palsule, Ibid, p. 221.
१०. G. B. Palsule, fbid, p. 234.
११. G. B. Palsule, Ibid, p. 150. १२. युधिष्ठिर मीमांसक, क्षीरतरंगिणी, पृ. २९८. पा.टी. ३.
क्वचित् ।
पथि || (पृ. १२)
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________________ कवि. क्षीत धाप्र अनुसंधान-१७ . 216 संक्षेपसूचि उणादिसूत्र बोपदेव रचित कविकल्पद्रुम (धातुपाठ) क्षीरतरंगिणी धातुप्रदीप माधवीया धातुवृत्ति माधावृ संदर्भ ग्रंथोनी सूचि 1. के. जी. ओक (सं)क्षीरस्वामीकृत अमरकोशटीका अमरकोशोद्घाटन, पूना, प्रथमावृत्ति, 1913. 2. पं शिवदत्त दाधिमथ (सं) भानुजी दीक्षित कृत अमरकोशटीका, व्याख्यासुधा, दिल्ली, द्वितीय संस्करणम्, 1995. 3. पं. आशुबोध विद्याभूषण (सं) कविकल्पगुम-धातुदीपिकाटीका, प्रथम संस्करणम्, 1980, कलकत्ता. 4. युधिष्ठिर मीमांसक (सं) काशकृत्स्न धातुव्याख्यानम्, वाराणसी, सं. 2022. 5. युधिष्ठिर मीमांसक (सं) क्षीरतरंगिणी, अजमेर, द्वितीयावृत्ति, सं. 2016. 6. युधिष्ठिर मीमांसक (सं) दैव-पुरुषकारवात्तिकम्, अजमेर, प्रथमावृत्ति, सं. 2016. 7. युधिष्ठिर मीमांसक (सं) धातुप्रदीप, बहालगढ, प्रथमावृत्ति, 1986. 8. पंडित शिवदत्त शर्मा (सं) निरुतम, मुंबई, संवत 1982. 9. शास्त्री द्वारकादास, माधवीया धातुवृत्तिः, वाराणसी, द्वितीयावृत्ति, 1983. 10. मुनि गुणविजय : हैम धातुमाला, अहमदाबाद, प्रथमावृत्ति, 1927. 88. Theodor Autrecht (Ed.) The commentary on the Unadi Satras, Bonn, 1859 A.D. 12. G. B. Palsule, Kavikalpadruma, Poona, 1954. 83. G. B. Palsule, A Concordance of Sanskrit Dhatupathas, Poona, 1955. 88. G. B. Palsule, The Sanskrit Dhatupathas, Poona, 1961. 15.K. V. Abhyankar, A Dictionary of Sanskrit Grammar, Baroda, Third Edi tion, 1986.