Book Title: Jinsutra Lecture 31 Samyak Darshan ke Aath Ang
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतीसवां प्रवचन सम्यक दर्शन के आठ अंग For Private Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ah दा सूत्र / HEATRE निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। उवबूह थिरीकरणे, वच्छल पभावणे अट्ठ।।७८।। जत्थेव पासे कई दुप्पउत्तं, काएण वाया अदु माणसेण। तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा, आइन्नओ खिप्पमिवक्खलीणं।।७९।। तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ। अभितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम् ! मा पमायए।।८०।। P Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला सूत्रः 'सम्यक दर्शन के आठ अंग हैं: अत्यंत अपरिचित की खोज में चला है। निःशंका, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, अकसर लोग सत्य की खोज नहीं करते, शास्त्र को पकड़कर उपगूहन, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना।' | बैठ जाते हैं। क्योंकि शास्त्र में कहीं जाना नहीं-शब्द का खेल एक-एक अंग को बहुत ध्यान से समझना जरूरी है। है; बुद्धि की खुजलाहट है। तोते की तरह रट लेंगे, याद कर लेंगे 'निःशंका...' और सोच लेंगे, पहुंच गये। जैसे कोई हिमालय के नक्शे को सम्यक दर्शन का पहला अंग, पहला चरण : अभय। मन में लेकर बैठ जाये, छाती से लगाकर रखे और सोचे कि पहुंच गये; कोई शंका न हो, कोई भय न हो। लेकिन हिलेरी को या तेनसिंग को जब गौरीशंकर चढ़ना होता है साहस! क्योंकि जो साहसी हैं वे ही केवल सत्य की खोज पर | तो यह छाती पर नक्शे लगाने जैसा नहीं है, यह जीवन को दांव जा सकेंगे। सत्य की खोज में, समझ से भी ज्यादा मूल्य साहस पर लगाना है। साहस चाहिये। मृत्यु भी घट सकती है। जो है का है। साहस का अर्थ होता है। जहां कभी न गये हों, जिसे वह भी खो सकता है। और उसका तो कोई पता नहीं जो मिलने कभी न जाना हो, अपरिचित, अनजान, अज्ञेय-उसमें प्रवेश। को है। सत्य है अपरिचित। उसे अब तक जाना नहीं। जो जाना-माना तो जिसके पास जुआरी जैसा दिल है कि जो है उसे दांव पर है, उससे भय मिट जाता है; उससे हम परिचित हो जाते हैं। | लगा दे, उसके लिये जो नहीं है, वही केवल सत्य की खोज में जिस रास्ते पर बहुत बार आये-गये, उस रास्ते पर फिर डर नहीं सफल हो पाता है। दुकानदार सफल नहीं हो पाते। लगता। पहली बार, नये रास्ते पर, भय प्रतीत होता है : पता हिसाबी-किताबी सफल नहीं हो पाते। इसलिये महावीर सम्यक नहीं, रास्ता कहां ले जाये, और पता नहीं रास्ते पर क्या घटे! | दर्शन का पहला सूत्र कहते हैं : निःशंका। मन में जरा भी भय न और सत्य का रास्ता तो तुम कभी चले नहीं। जिस रास्ते पर तुम हो, तो ही जा सकोगे। अभय का, वीरों का मार्ग है-कायरों का चले हो, वह है संसार का रास्ता। साहस के अभाव के कारण ही नहीं, भगोड़ों का नहीं। हम बार-बार संसार के रास्ते पर ही परिभ्रमण करते रहते हैं। अब यहां तो उलटी हालत घटी है। जैन धर्म को स्वीकार मनस्विद कहते हैं कि आदमी अपरिचित सुख से भी डरता है; करनेवाले, जरा भी साहसी नहीं हैं। साहस से उनका कोई संबंध परिचित दुख को भी पकड़े रखता है, कम से कम परिचित तो है! नहीं रहा है और उन्होंने अपनी कायरता को अच्छे-अच्छे शब्दों कम से कम जाना-माना, अपना तो है! इतने दिनों का नाता तो | में ढांक लिया है...अहिंसा! अकसर मुझे ऐसा दिखाई पड़ा कि है! अपरिचित सुख से भी भय लगता है, कि पता नहीं क्या हो, जो आदमी डरता है कि कोई उसकी हिंसा न कर दे, वह अहिंसक क्या घटे! और जो व्यक्ति सत्य की खोज में चला है, वह तो हो जाता है। इस भय से कि कहीं दूसरा मेरी हानि न कर दे, वह 668 . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 कहता है हानि किसी को पहुंचाना ही नहीं। वह स्वयं भी हानि जायेगा कैसे? दिखाई पड़नेवाले से जो डर रहा है वह अदृश्य नहीं पहुंचाता, क्योंकि हानि पहुंचाने में हानि उठाने का खतरा भी की यात्रा पर तो कैसे कदम उठायेगा? जहां भीड़ है, संगी-साथी जुड़ा है। वह किसी को मारता भी नहीं है, क्योंकि मारने जाने में हैं, परिवार है, मित्र हैं, उस रास्ते पर, राजपथ पर चलने से डर अपने मारे जाने की भी संभावना खुलती है। वह अहिंसा की रहा है, तो बीहड़ वनों में और पगडंडियों पर उतरेगा? सत्य की बात करता है। खोज पर तो जाना पड़ता है अकेले। वहां तो कोई साथी न होगा, यहां खयाल रखना, अहिंसा वीरों का वेश है—उनका नहीं जो कोई संगी न होगा। वहां तो शास्त्र भी छोड़ देने होंगे, शब्द भी अभी डर रहे हैं, भयभीत हो रहे हैं, घबड़ा रहे हैं। उनकी अहिंसा | छोड़ देने होंगे। वहां तो समाज से जो लिया है वह सब छोड़कर किसी काम की नहीं है। वह तो केवल लफ्फाजी है। वह तो जाना होगा। भाषा भी छोड़ देनी होगी। इसलिये महावीर ने ऊपर से थोप लिया आवरण है। वह तो अपने को छिपा लेना है, अपने संन्यासी को मुनि कहा था, कि वह भाषा का त्याग कर दे। सुरक्षा है। क्योंकि भाषा तो समाज की ही देन है। गौर से देखें तो भाषा ही महावीर कहते हैं, निःशंका पहला चरण है। और जो संसार से समाज है। जब तुम बोलते हो तभी समाज बनता है; जब तुम ही घबड़ा गये हैं, वह सत्य की यात्रा पर क्या खाक निकल नहीं बोलते तो समाज नहीं बनता। तुम अगर चुप खड़े हो तो तुम सकेंगे। जहां डरने जैसा कुछ भी न था, क्योंकि जहां खोने जैसा अकेले हो; बोले, कि जुड़े। ही कुछ न था, वहां जो डर गये, वे सत्य की यात्रा पर कैसे निकल | थोड़ी देर को सोचो! एक गांव तय कर ले कि अब वाणी का सकेंगे? इस भेद को खयाल में लो। त्याग करते हैं, पूरा गांव चुप हो जाये, तो उस गांव में सत्य की खोज के नाम पर तुम कहीं संसार से डरकर तो नहीं अकेले-अकेले लोग रह जायेंगे। उस गांव में समाज न रहेगा, बैठ गये हो। जैन मुनियों को मैं देखता हूं तो ऐसा ही प्रतीत होता | क्योंकि सेतु गिर जायेंगे। दो आदमियों के बीच जो सेतु हैं वे तो है। अधिक मौकों पर वे सत्य की खोज में नहीं गये, सिर्फ संसार शब्द हैं। अगर सारा गांव तय कर ले कि अब हम चुप होंगे तो की खोज से रुक गये हैं। संसार की खोज से रुक जाना अनिवार्य | गांव मिट जायेगा; व्यक्ति रह जायेंगे, समूह न रह जाएगा। रूप से सत्य की खोज नहीं है। हां, सत्य का खोजी संसार की | समूह तो जीता है भाषा पर। खोज से मुक्त हो जाता है, यह जरूर सही है। लेकिन संसार की महावीर ने कहा कि तुम भाषा भी छोड़ोगे तो ही जा सकोगे खोज छोड़ देनेवाला सत्य की खोज पर निकल जाता है, यह | सत्य तक। हां, जब सत्य को जान लो, तब चाहे भाषा का आवश्यक नहीं है। उपयोग करके लोगों को समझा देना। लेकिन जानते समय ऐसा समझो, एक आदमी गौरीशंकर चढ़ने जाता छोड़कर जाना होगा, मौन होना होगा, शून्य होना होगा। और जो है—गौरीशंकर चढ़ने जायेगा तो पूना छूटेगा। लेकिन पूना | भी तुम्हारे पास है उस सबको उसके लिए दांव पर लगा देना छोड़कर कोई बैठ जाये, इससे गौरीशंकर नहीं पहुंच जायेगा। होगा, जिसको न तुम जानते, न कोई आश्वासन है जिसका कि पूना छोड़कर बैठने के हजार उपाय हैं: पूना की ठीक सीमा पर पक्का है, मिलेगा। क्योंकि कोई दूसरा तुम्हें आश्वासन नहीं दे बाहर बैठा रहे; जहां पूना का कारपोरेशन का क्षेत्र शुरू होता है, | सकता। अगर मुझे कुछ मिला तो मैं लाख सिर पटकू तो भी तुम्हें बस उसकी सीमा पर बैठा रहे। लेकिन इससे कोई गौरीशंकर पर समझा नहीं सकता कि तुम्हें भी मिलेगा। कोई उपाय नहीं है। | नहीं पहंच जायेगा। हां, गौरीशंकर की यात्रा पर जो गया है वह सत्य की अनुभूति आंतरिक है। वस्तुतः नहीं है सत्य, कि तुम्हें पूना से जरूर मुक्त हो जायेगा; उसे पना छोड़ना ही पड़ेगा। / दिखा दूं हाथ में रखकर, कि यह रहा सत्य, ताकि तुम्हें भरोसा महावीर ने संसार छोड़ा, सत्य की यात्रा पर गये, इसलिये। आ जाये। तुम छूकर तो न देख सकोगे, आंख से न देख सकोगे, बड़े साहस का कदम उठाया। लेकिन जैन मुनि!...वह संसार कान से सुना न जा सकेगा। भरोसा करना होगा। उसी भरोसे को से डरकर बैठ गया है। संसार से जो डर गया वह सत्य में तो महावीर कहते हैं: निःशंका, ट्रस्ट। एक गहन श्रद्धा की जरूरत जायेगा ही कैसे? परिचित से जो डर रहा है वह अपरिचित में तो होगी; एक ऐसी श्रद्धा की, जिसमें जरा भी संदेह न हो, क्योंकि 664 '. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक दर्शन के आठ अंग जरा भी संदेह हुआ तो संदेह पैर को पीछे खींच लेता है। संदेह बात ही नहीं है, मेरे पास कुछ है नहीं...। पैर को आगे बढ़ने ही नहीं देता। अगर तुम्हें जरा भी डर रहा और मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन के द्वार पर एक भिखारी आया। पता, पता नहीं होगा ऐसा, न होगा ऐसा-अगर ऐसी तुम तो मुल्ला ने उसे देखते ही से कहा कि मालूम होता है गांव में आशंका में घिरे रहे, तो कदम उठेगा नहीं। नये-नये आये हो। इसलिए पहला कदम महावीर कहते हैं : निःशंका। लेकिन हम उस भिखारी ने कहा, आप कैसे पहचान गए? बिलकल ठीक तो बड़ी आशंका से भरे हैं। और हमारी आशंकाएं बड़ी अदभुत कहते हैं। मैं अभी स्टेशन से ही उतरकर चला आ रहा हूं। मगर हैं। हमारी आशंकाएं ऐसी हैं कि जैसे कोई नंगा कहे कि मैं नहाऊं | आप पहचाने कैसे? आप कोई ज्योतिषी हो? कैसे, क्योंकि नहा लूंगा तो फिर कपड़े कहां निचोडूंगा, कपड़े। उसने कहा कि मैं कोई ज्योतिषी नहीं, लेकिन गांव के भिखारी कहां सुखाऊंगा! नंगा है, कपड़े हैं नहीं; लेकिन स्नान नहीं जानते हैं कि यहां कुछ मिलेगा नहीं। करता इस डर से कि कहीं कपड़े भीग न जायें। भिखारी है, डरता भिखारी को भी देने योग्य हमारे पास क्या है! हमारे पास है ही है कि कहीं चोर-लुटेरे न मिल जाएं। पास कुछ भी नहीं। लुटेरे | कहां कुछ! लेकिन हम मानकर बैठे हैं, मान्यता है, और मान्यता मिल भी जाएंगे तो उन्हीं को लुटना पड़ेगा, कुछ देकर जाना में हम काफी रस लेते हैं। मान्यता के ढक्कन को उघाड़कर भी पड़ेगा। लेकिन, भिखारी भी डरता है कि कहीं चोर-लुटेरे न | भीतर के खाली बर्तन को नहीं देखते। डर लगता है कि कहीं मिल जाएं। हमारी दशा ऐसी ही है। हमारे पास कुछ भी नहीं| ऐसा न हो कि खाली ही हो! मुट्ठी हम बांधकर रखते हैं, खोलते और आशंका बहुत है कि कहीं खो न जाये। | नहीं, क्योंकि कहीं दिखाई न पड़ जाये कि खाली है। हम अपने कभी तुमने सोचा, क्या है तुम्हारे पास जो खो जायेगा? हाथ को समझाये रखते हैं कि है, बहुत है। हम गुनगुनाते रहते हैं कि तुम्हारे खाली हैं, हृदय तुम्हारा रिक्त है, संपत्ति के नाम पर कुछ बहुत है। और फिर आशंका पैदा होती है कि कहीं छिन न जाये। ठीकरे इकट्ठे कर रखे हैं जो मौत तुमसे छीन ही लेगी। तुम लाख | महावीर जब तुमसे कहते हैं, आशंका नहीं चाहिये, निःशंका उपाय करो तो भी अंततः मौत से तुम हारोगे। कितने ही बचो, की स्थिति चाहिये, तो वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम निःशंका को इधर बचो उधर बचो, इधर छिपो उधर छिपो, एक न एक दिन | आरोपित करो। वे इतना ही कह रहे हैं कि तुम अपनी आशंका मौत तुम्हारी गर्दन पकड़ ही लेगी। को जरा गौर से खोलकर, आंखों के सामने बिछाकर तो देख अंततः मौत जीतेगी, तुम न जीत पाओगे—इतनी बात निश्चित लोः वहां कोई कारण है? कोई भी कारण नहीं है! जिस दिन है। बीच में कितनी देर तुम धोखा दे लेते हो, मौत को इससे क्या तुम्हें ऐसी दृष्टि उपलब्ध होगी कि डरने का कोई भी कारण नहीं फर्क पड़ता है? अंततोगत्वा मौत तुम्हारी गर्दन पकड़ लेगी और है, खोने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि है ही नहीं, उसी क्षण तुम्हारे तुम्हारे ठीकरों को उगलवा लेगी। जिसे तुमने इनकमटैक्स जीवन में एक नई ऊर्जा का आविर्भाव होगा। उस नई ऊर्जा को आफिस से बचा लिया होगा, उसको तुम मौत से न बचा | कहोः श्रद्धा, भरोसा, ट्रस्ट। उस नई ऊर्जा को कहो : निःशंका। सकोगे। जिसको तुमने चोरों से, डाकुओं से बचा लिया होगा, | तब तुम असंदिग्ध भाव से बिना पीछे लौटकर देखे, सत्य की उसको तम मौत से न बचा सकोगे। | खोज में निकल जाओगे। वह भाव तुम्हें, यह अनुभव कि मेरे यहां, पहली तो बात H तम्हारे पास कुछ है नहीं, और जो तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, ना-कुछ ही दांव पर लगाना है, मिला तो पास है वह सब मौत छीन लेगी। तो गवाने का डर क्या है? भय | ठीक न मिला तो कुछ खोता नहीं तो फिर दांव पर लगाने में क्या है? लेकिन तुम बड़े भयभीत होते हो।। तुम झिझकोगे नहीं। तुम सभी दांव पर लगा दोगे। महावीर कहते हैं, ठीक से अपनी स्थिति को समझो तो | मैंने सुना है, एक आदमी अमरीका की एक कार बेचनेवाली आशंका का कोई कारण ही नहीं है। आशंका के लिए जरा भी दुकान में गया। वह जिस कार को खरीदना चाहता था, उसका कोई आधार नहीं है। आशंका कल्पित है और जब आशंका गिर मिलना मुश्किल था। दुकानदार ने कहा, 'कम से कम साल भर जाये, और तुम देख लो खुली आंख से कि आशंका की तो कोई रुकना पड़ेगा। लंबा क्यू है। और कोई उपाय नहीं अभी देने 665 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः1 का।' वह आदमी बड़ा नाराज हो गया। उसने कहा कि उसमें कोई आकांक्षा मत रखना। क्योंकि आकांक्षा ही संसार है। सालभर! गुस्से में उसने अपने खीसे से नोटों के बंडल निकाले अगर सत्य की खोज पर भी आकांक्षा लेकर गये, तो तुम अपने और जो कचरा फेंकने की टोकरी थी, उसमें डालकर दरवाजे के को धोखा दे रहे हो, तुम संसार में ही दौड़ रहे हो। तुम्हें भ्रांति हो बाहर हो गया। दुकानदार भी चकित हो गया। और बहुत धनी | गई है कि तम सत्य की खोज पर जा रहे हो। सत्य की खोज पर लोग देखे थे, मगर यह आदमी अदभुत है। हजारों डालर, ऐसे | वही जाता है जिसकी आकांक्षा गिर गई। कचरे में डालकर चला गया। उसने जल्दी से नोट निकलवाये, आकांक्षा को हम समझें। फिर नकारात्मक शब्द है: गिनती करवाई; दुगने थे, जितने कि कार के दाम हो सकते थे। निष्कांक्षा। आकांक्षा क्या है? जैसे हम हैं उससे हम राजी नहीं उसने फौरन अपने आदमियों को कहा कि जाकर कार उसके घर हैं। एक बड़ी गहरी बेचैनी है-कुछ होने की, कुछ पाने की, पहुंचा दो। कार घर पहुंचा दी। दूसरे दिन वह हैरान हुआ। भागा कहीं और होने की, कहीं और जाने की। जहां हम हैं वहां हुआ उस आदमी के घर गया और कहा, 'महानुभाव! वह सब अतृप्ति! जैसे हम हैं वहां अतृप्ति! जो हम हैं उससे अतृप्ति! नोट नकली हैं।' उस आदमी ने कहा, नकली न होते तो हम कुछ और होना था, कहीं और होना था। किसी और मकान में, कचराघर में फेंकते? . किसी और गांव में। किसी और पति के पास, किसी और पत्नी एक बार तुम्हें दिखाई पड़ जाये कि नोट नकली हैं, तो कचराघर के पास! कोई और बेटे होते! कोई और देह होती! कोई और में फेंकना भी आसान है। अड़चन कहां है? वस्तुतः ढोना तिजोड़ी होती! लेकिन कुछ और! 'कुछ और' की दौड़ मुश्किल हो जायेगा। उस बोझ को तुम किसलिये ढोओगे! उस आकांक्षा है। बोझ को किस कारण ढोओगे! तुम थोड़ा सोचो। कहीं भी तुम होते, क्या इससे आकांक्षा की महावीर तुमसे श्रद्धा जन्माने को नहीं कहते। यही महावीर का दौड़ रुक जाती? तुम सोचते हो, जिस महल में तुम्हें होना और अन्य शिक्षकों का भेद है। महावीर कहते हैं, तुम अपनी चाहिए था, उसमें कोई है, उससे तो पूछो! वह कहीं और होने की आशंका को ठीक से पहचान लो, वह गिर जाएगी। जो शेष रह दौड़ में लगा है। तुम जिस पद पर नहीं हो और सोचते हो, होना जायेगा, वही श्रद्धा है। इसलिये महावीर श्रद्धा शब्द का उपयोग चाहिए थे, उस पद पर भी कोई है। उससे तो पूछो! वह कहीं नहीं करते। एक-एक शब्द खयाल करना। यहां महावीर श्रद्धा और जाने की तैयारी में लगा है। जिस गांव तुम पहुंचना चाहते कह सकते थे, लेकिन नहीं कहा; साहस कह सकते थे, नहीं हो, वहां भी कोई रहता है। उससे तो पूछो! वह बिस्तर-बोरिया कहा। नकारात्मक शब्द उपयोग किया H निःशंका। कोई बांधे बैठा है कि कब ट्रेन मिल जाये कि वह कहीं और चल पड़े। विधायक शब्द उपयोग न किया, क्योंकि विधायक की कोई यहूदियों में एक कहानी है। एक यहूदी धर्मगुरु ने—गरीब जरूरत नहीं है। सिर्फ आशंका की समझ आ जाए कि व्यर्थ है, आदमी था—एक रात सपना देखा। सपना देखा कि देश की कोरी है, अकारण है-जैसे ही आशंका गिर जाती है तो जो राजधानी में जो पुल है नदी के ऊपर, उसके एक किनारे बिजली शंकारहित चित्त की दशा है वही श्रद्धा है, वही साहस है, वही के ठीक खंभे के नीचे बड़ा धन गड़ा है। उसने धन भी अभय है। तुम्हारे भीतर एक अनूठी ऊर्जा का जन्म होगा। वह देखा-हीरे-जवाहरात चमकते हुए! सुबह उठा, सोचा सपना दबी पड़ी है। तुम्हारी चट्टान ने, आशंका की चट्टान ने उस झरने है। लेकिन दूसरी रात सपना फिर आया, ठीक वैसा का वैसा। को फूटने से रोका है। हटा दो चट्टानः झरना अपने से फूट दूसरे दिन सुबह जागकर वह एकदम यह न कह सका कि सपना पड़ेगा। झरना तो है ही! झरना तुमने खोया नहीं है। है, क्योंकि सपने इस तरह नहीं दुहरते। फिर भी उसने सोचा कि इसलिए महावीर नहीं कहते कि झरने को खोजो। महावीर नहीं क्या भरोसा, कहां जाना! लेकिन तीसरी रात सपना फिर आया, कहते कि श्रद्धा को आरोपित करो। महावीर कहते हैं, सिर्फ तब रुकना मुश्किल हो गया। उसने कहा, कोई राजधानी इतनी आशंका को उघाड़ो। दूर भी नहीं है, जाकर देख तो आऊं मामला क्या है! वह कभी दूसरा चरण है : निष्कांक्षा। जो भी तुम करो सत्य की खोज में, राजधानी गया भी न था। जब वह गया तो चकित हुआ। ठीक 666 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सम्यक दशेन के आठ अंग जैसा पुल उसने सपने में देखा था वैसा ही पुल राजधानी का है। खजाना था! तब तो उत्साह बढ़ा। तेजी से चलने लगा। दूसरी तरफ पहुंचा। हसीद फकीर इस कहानी में बड़ा रस लेते हैं। क्योंकि यह ठीक बिजली का खंभा वहीं है जहां सपने में देखा था। ठीक वैसा कहानी जीवन की कहानी है। तुम सोच रहे हो, कहीं और ही बिजली का बल्ब लगा है—तब तो भरोसा और बढ़ा। | खजाना गड़ा है, किसी राजधानी में, किसी पुल के पास। वहां लेकिन एक मुसीबत थी। सपने में उसने यह न देखा था कि एक जो खड़ा है वह सोच रहा है कि तुम्हारे घर खजाना गड़ा है। पुलिसवाला वहां पहरा देता है। तो वह राह देखने लगा कि तुमने कभी देखा! कभी-कभी राह से चलते भिखमंगे को पुलिसवाला जाये तो मैं खोदकर देखें। लेकिन पुलिसवाला तभी देखकर भी धनपति के मन में भी ईर्ष्या आ जाती है। कभी-कभी जाता जब दूसरा आ जाता, ड्यूटी बदलती। वह दो-तीन दिन सम्राटों के मन में ईर्ष्या आ जाती है। क्योंकि जिस मस्ती से ऐसे चक्कर मारता रहा। पुलिसवाले ने भी बार-बार इस आदमी भिखारी चल सकते हैं उस मस्ती से सम्राट तो नहीं चल सकते। को वहां चक्कर मारते देखा। उसे बुलाया पास और कहा कि बोझ भारी है, चिंता बहुत है। रात सो भी नहीं सकते। कौन सुनो, क्या मामला है? आत्महत्या करनी है पुल से कूदकर? | सम्राट सो सकता है भिखारी की तरह! राह के किनारे की तो बात क्योंकि इसीलिये वहां वह खड़ा रहता था कि कोई आत्महत्या न दूर; सुंदरतम, सुविधा से सुविधापूर्ण कक्षों में भी, आरामदायक कर ले। मामला क्या है? | बिस्तरों पर भी नींद नहीं आती। चिंताएं इतनी हैं, मन ऊहापोह में उस यहूदी धर्मगुरु ने कहा, अब आपसे छिपाना क्या है; एक लगा रहता है। और भिखारी राह के किनारे, अखबार को सपने के चक्कर में पड़ गया हूं। वह पुलिसवाला हंसा और बिछाकर ही सो जाता है और घुर्राटे लेने लगता है। कभी-कभी उसने कहा, ठहरो! इसके पहले कि तुम अपना सपना कहो, मैं सम्राटों के मन में भी ईर्ष्या उठती है कि ऐसा स्वास्थ्य, ऐसी भी तुम्हें कह दूं। तीन दिन से मैं भी एक सपना देख रहा हूं। मैं निश्चितता, ऐसी शांति, ऐसे विश्राम की दशा काश, हमारी भी एक सपना देख रहा हूं कि फला-फलां गांव में...। जो उसने होती! भिखमंगा भी रोज महल के पास से निकलता है, सोचता नाम लिया तो वह धर्मगुरु बड़ा हैरान हुआ, वह तो उसी के गांव है, काश, हमारे पास ऐसा महल होता! का नाम है। फला-फलां गांव में फला-फलां नाम का एक आकांक्षा का अर्थ है : तुम जहां हो वहां राजी नहीं। जो जहां है धर्मगुरु है। वहां राजी नहीं। कहीं और दिखाई पड़ता है जीवन का स्वप्न पूरा उसने कहा, अरे ठहरो! यह मेरा नाम है और मेरे गांव का तुम होता। वहां जो है, उसका भी जीवन का स्वप्न पूरा नहीं हो रहा पता ले रहे हो! मैं ही हूं वह धर्मगुरु। है। यहां भिखमंगे तो पराजित हैं ही, यहां सिकंदर भी पराजित वह पुलिसवाला बहुत हंसा। उसने कहा कि मैं तीन दिन से हैं। यहां भिखमंगे तो खाली हाथ हैं ही, यहां सिकंदर भी खाली एक सपना देखता हूं कि जहां धर्मगुरु सोता है उसके बिस्तर के | हाथ हैं। जिस दिन तुम्हें आकांक्षा की यह व्यर्थता दिखाई पड़ नीचे एक खजाना गड़ा है। मैं तो एक दिन तो सोचा सपना है, जाती है, उसी दिन निष्कांक्षा पैदा होती है, निष्काम-भाव पैदा दूसरे दिन कैसे सोचूं कि सपना है! हीरे-जवाहरात सब साफ होता है। दिखाई पड़ते हैं। और आज तीसरी रात फिर सपना देखा है। सत्य के जगत में तुम आकांक्षा से नहीं जा सकोगे। क्योंकि और तुमसे इसलिए कह रहा हूं कि तुम्हारा चेहरा उस सपने में सभी आकांक्षा संसार में लौटा लाती है। तो महावीर कहते हैं, मुझे दिखाई पड़ता है। यह माजरा क्या है? तुम तीन दिन से यहां अगर तुम स्वर्ग की आकांक्षा से सत्य की खोज करो, चूक चक्कर भी लगा रहे हो। | जाओगे। क्योंकि स्वर्ग की खोज फिर संसार की ही खोज है। उस धर्मगुरु ने कहा कि अब कुछ माजरा नहीं है। मैं कुछ और | परिमार्जित, सुधरे हुए संस्कार-संसार का ही संस्करण है वह। ही सपना देखा हूं। लेकिन अब मैं कुछ कहूंगा नहीं, अब मैं यहीं जो सुख नहीं मिल पाये हैं, उनका ही बढ़ा-चढ़ा रूप है, जाता हूं गांव अपने वापस। | फैला विस्तार है। जो शराब यहां नहीं पी. वहां बहिश्त में उसके वह भागा आया। उसने अपनी खाट के नीचे खोदा, पाया, | झरने बहाये हैं-वह तुम्हारी ही कल्पना है। जो स्त्रियां यहां 663 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र उपलब्ध नहीं हो सकीं, वहां अप्सराओं की तरह बैठी तुम्हारी का कोई भी संबंध नहीं है। कोई चोर है, इससे बांसुरी बजाने में प्रतीक्षा कर रही हैं। इतना ही नहीं, अगर तुम किसी वृक्ष के नीचे |बाधा नहीं पड़ती। लेकिन तुम तत्क्षण दबा देते हो कि वह चोर ध्यान वगैरह करो, तो उर्वशी और मेनका आकर तुमको परेशान है, वह क्या बांसुरी बजायेगा! करेंगी। तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं बिलकुल कि तुम कब करो | और तुम अपने दोषों को छिपाये चले जाते हो। तुम अगर क्रोध तपश्चर्या कि वे आयें। यह वासना, अतृप्त वासना ही, नये-नये | भी करते हो तो जिस पर क्रोध करते हो उसी के हित के लिये करते विक्षेप कर रही है। यह अतृप्त वासना का ही विस्तार है। हो, सुधार के लिये, एक तरह की सेवा समझो। अगर तुम बच्चे तो महावीर कहते हैं, किसी भी तरह के लाभ की | को पीटते भी हो, तो उसी के भविष्य के लिये। हालांकि कभी आकांक्षा-वह स्वर्ग का ही लाभ क्यों न हो—संसार में लौटा पीटने से, किसी का भविष्य बना नहीं, बिगड़ा भला हो। मां लायेगी, सम्यक दृष्टि पैदा न होगी। अगर बेटे को पीटती है, तो सोचती है, क्योंकि वह कपड़े खराब निष्कांक्षा! कैसे निष्कांक्षा पैदा हो? आकांक्षा को समझने से; कर आया, धूल-धवांस में खेला, या गलत बच्चों के साथ आकांक्षा की व्यर्थता को देख लेने से। जैसे कोई आदमी रेत से खेला। लेकिन अगर भीतर खोज करे तो पायेगी कि वह क्रोध से तेल निचोड़ रहा हो, और न निचुड़ता हो और परेशान हो रहा हो उबल रही थी। पति से कुछ झंझट हो गई थी। पति पर न फेंक और कोई उसे बता दे कि 'पागल, रेत में तेल होता ही नहीं; पाई क्रोध को, बच्चे की प्रतीक्षा करती रही। क्योंकि यह बच्चा इसलिए तू लाख उपाय कर, तेरे उपायों का सवाल नहीं है, तेल कल भी उन्हीं बच्चों के साथ खेला था और कल भी यह निकलेगा नहीं; तू लाख सिर मार, तेरा सिर टूटेगा, गिरेगा, रेत धूल-धवांस से भरा लौटा था। बच्चे हैं-लौटेंगे ही। बच्चे से तेल निकलेगा नहीं।' | बूढ़े नहीं हैं। और समय के पहले उन्हें बूढ़ा बनाने की चेष्टा बड़ी अकांक्षा से कभी सत्य नहीं निकला, क्योंकि आकांक्षा स्वप्नों खतरनाक है। उनके लिये अभी कपड़ों का कोई मूल्य नहीं की जननी है। आकांक्षा का जिसने सहारा पकड़ा, वह सपनों में है-और शुभ है कि कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि जिस दिन खो गया; उसने अपने सपनों का संसार बना लिया। लेकिन कपड़ों का मूल्य हो जाता है उसी दिन अपने भीतर के सब मूल्य सत्य उससे कभी निकला नहीं। वह रेत की तरह है; उससे तेल | खो जाते हैं। अभी भीतर का आनंद पर्याप्त है, कपड़े गंदे भी हो निकल नहीं सकता। तेल वहां है नहीं। | जाते हैं तो चिंता नहीं, लेकिन भीतर का खेल शद्ध रहता है. ध्यान रखना, महावीर की प्रक्रिया का यह अनिवार्य हिस्सा है | स्वच्छ रहता है। अभी भीतर की मौज इतनी बड़ी है कि थोड़ी कि वह जो है उसे देखने को कहते हैं। आकांक्षा है तो आकांक्षा | धूल पड़ जाये तो बर्दाश्त कर लेती है। अभी बच्चे में प्रदर्शन का को देखो, पहचानो, परखो, चारों तरफ से अवलोकन, निरीक्षण | भाव नहीं जगा है और अभी थोथी वस्तुओं का मूल्य निर्मित नहीं करो, विश्लेषण करो। खोज करो कि इससे तुम जो चाह रहे हो हुआ है। अभी असली का मूल्य है। खेल का आनंद, रस वह हो भी सकता है? अगर नहीं हो सकता तो आकांक्षा गिर मूल्यवान है। कपड़े इत्यादि अभी निर्मूल्य हैं। अभी इनका कोई, जायेगी। जो शेष रह जायेगी, चित्त की दशा, निष्कांक्षा, वही कोई अर्थ नहीं है। लेकिन कल भी वह ऐसा ही आया था, तब दूसरा चरण है सम्यक दृष्टि का। मां ने कुछ भी न कहा था। लेकिन आज टूट पड़ती है, पीटने तीसरा-निर्विचिकित्सा। जुगुप्सा का अभाव। अपने दोषों लगती है। पूछो तो कहेगी, सुधार के लिये! लेकिन अगर गौर से को तथा दूसरों के गुणों को छिपाने का नाम है जुगुप्सा। प्रत्येक निरीक्षण करे तो पायेगी कि पति पर नाराजगी थी। पति पर व्यक्ति उलझा है जुगुप्सा में। हम अपने दोष छिपाते हैं और निकाल न सकी–पति परमात्मा है! ऐसा पतियों ने ही समझाया दूसरों के गुण छिपाते हैं। हुआ है, तो उन पर नाराजगी निकाली भी नहीं जा सकती। वहां अगर तुमसे कोई कहे फला आदमी देखा, कितनी प्यारी बांसुरी द्वार-दरवाजा बंद है। बजाता है, तुम फौरन कहते हो: वह क्या बांसुरी बजायेगा! तो जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है, ऐसा ही क्रोध भी अपने चोर, लुच्चा, लंपट! अब चोर, लुच्चा, लंपट से बांसुरी बजाने से कमजोर की तरफ बहता है। बच्चे से ज्यादा कमजोर और तुम 1668 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GILSHREENE सम्यक दर्शन के आठ अग क्या पाओगे? बच्चे से ज्यादा कोमल और तुम क्या पाओगे? तुम आत्म-रूपांतरण को पा सकोगे, अन्यथा नहीं। क्योंकि जो पति अगर नाराज हो जाता है दफ्तर में मालिक से, तो घर पत्नी आदमी अपनी भूलें छिपाता है और दूसरों के गुण दबाता है, वह पर निकाल लेता है। पत्नी नाराज हो जाती है, बच्चे पर निकाल आदमी कभी गुणवान न हो सकेगा। दूसरे के गुण को देखना, लेती है। बच्चे को तुमने देखा। जाकर अपने कमरे में बैठकर या पहचानना, स्वीकार करना; क्योंकि दूसरे में देखकर ही तो तुममें तो किताब फाड़ डालेगा, या अपनी गुड़िया की टांगें तोड़ देगा, भी उसके जन्म का सूत्रपात होगा। किसी के मधुर कंठ को क्योंकि अब और कहां निकाले! | सुनकर ही तो तुम्हें भी खयाल उठेगा कि मेरा कंठ भी मधुर हो सारा संसार वहां खतम हो जाता है। सकता है। किसी कोयल की कह-कुह सुनकर तो तुम्हारे भीतर हम अपने दोषों को भी बड़ी सुंदर व्याख्या देते हैं। हम दूसरों भी रस का संचार होगा। के गुणों को भी स्वीकार नहीं करते, अस्वीकार करते हैं। और | लेकिन तुमने कहा, 'यह क्या कुहू कुहू है? यह सब शोरगुल हम अपने दोषों को भी बचाते हैं। | है! यह सब उत्पात है! यह कोई संगीत है?' अगर तुमने मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा उससे पूछ रहा था। एक आदमी कुहू-कुहू को इनकार किया तो तुमने अपने भीतर भी कुहू-कुहू मसलमान था, हिंद हो गया था। उसके बेटे ने पछा कि पिताजी, की संभावना को इनकार कर दिया। इसको हम क्या कहें? उसने कहा, 'क्या कहना, गद्दारी है! जो तो दूसरे में जब कोई महिमा दिखाई पड़े तो सम्मान और आदमी मुसलमान से हिंदू हो गया, यह गद्दारी है।' पर उसके समादर से, अहोभाव से, उसे स्वीकार करना। उस स्वीकृति में, बेटे ने कहा कि कुछ ही दिन पहले, एक आदमी हिंदू से तुम्हारे भीतर भी महिमा के जन्म का पहला बीजारोपण होगा। मुसलमान हुआ था, तब आपने यह न कहा? उसने कहा कि और अपने भीतर जब कोई दोष दिखाई पड़े तो उसे छिपाना मत, वह धर्म-रूपांतरण था। उस आदमी को बुद्धि आई थी, क्योंकि छिपाने से दोष मिटते नहीं, छिप जाते हैं, और सदबुद्धि का आविर्भाव हुआ था। भीतर-भीतर बढ़ते रहते हैं। जिसे तुमने छिपाया वह बढ़ेगा। तो जब हिंदू मुसलमान बने, तो मुसलमान कहता है, अपना दोष हो तो उसे प्रगट कर देना; उसे स्वीकार कर लेना। सदबुद्धि और जब मुसलमान हिंदू बन जाये तो गद्दार! यही तुमने कभी खयाल किया, दोष स्वीकार करते से ही तुम्हारे हिंदू के लिए मूल्य है। भीतर क्रांति घटित हो जाती है! उस दोष का तुम्हारे ऊपर कब्जा मैं एक जैन संत को जानता था। वे हिंदू थे और जैन हो गये। छूट जाता है। तो जैन उनसे बड़े प्रसन्न थे, हिंदू बड़े नाराज थे। हिंदू उनकी बात ईसाइयों में कन्फैशन का बड़ा मूल्य है। उसी कन्फैशन की भी न करते। लेकिन जैन उन्हें बड़ा सम्मान देते, उतना सम्मान तरफ महावीर का इशारा है। कन्फैशन का अर्थ होता है: अपनी देते, जितना कि उन्होंने कभी जैन संतों को भी नहीं दिया था। बड़ी से बड़ी भूल को भी स्वीकार कर लेना। स्वीकार करते ही क्योंकि इस आदमी का हिंदू से जैन हो जाना, इस बात का सबूत तुम हलके हो जाते हो। प्रगट करते ही तुम निर्विकार हो जाते हो। था कि जैन धर्म सही है। तब तो कोई हिंदू जैन होता है, नहीं तो छिपाया, दबाया, तो जो आज छिपाया है उसे कल भी छिपाना क्यों होगा! तो जैनों से भी ज्यादा आदृत जैनों में वे थे; लेकिन पड़ेगा। और मजा यह है कि जिसे तुम छिपाओगे, दूसरे उघाड़ने हिंदुओं में उनका बड़ा अनादर था क्योंकि यह गद्दार था। इसने की कोशिश करेंगे। क्योंकि जो तुम उनके साथ कर रहे हो, वही हिंदू धर्म की अवमानना की। वे तुम्हारे साथ कर रहे हैं। तुम उनके गुणों को दाब रहे हो, उनके तुम इसे जरा गौर करना। हमारे जीवन में दोहरे मूल्य होते हैं। दुर्गुणों को उघाड़ रहे हो-वे तुम्हारे गुणों को दाब रहे हैं, तुम्हारे अपनी भल को भी हम सोने से ढंक लेते हैं: दसरे के सौंदर्य को दर्गणों को उघाड़ रहे हैं। तो तम जो छिपाओगे, उसे लोग भी हम मिट्टी से पोत देते हैं। इसको महावीर कहते हैं जुगुप्सा। उघाड़ेंगे। और अगर तुमने छिपाया और न छिपा पाये और लोगों जुगुप्सा के अभाव का नाम है : निर्विचिकित्सा। ने उघाड़ा तो भी दुख होगा, पीड़ा होगी, नाराजगी होगी, क्रोध यह बहुत बहुमूल्य सूत्र है। इसे अगर खयाल में रखा तो ही होगा। इससे अंधेरा बढ़ेगा, प्रकाश घटेगा। जो हो गई हो भूल, सापाकासा। www.jainelibrar og Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1,SHREE उसे स्वीकार कर लेना। करवा रहे हो; क्योंकि हमारे यहां सदा से होता चला आया है! चौथा चरण है: अमूढ़दृष्टि। यह बहुत क्रांतिकारी चरण है। / और सत्यनारायण की कथा में सत्य जैसा कुछ भी नहीं है। मगर महावीर ने कहा है, दुनिया में तीन तरह की मूढ़ताएं हैं, भ्रांत हो रही है कथा! क्योंकि न करवायें, तो तुम अकेले पड़ जाते हो, दृष्टियां हैं। एक मूढ़ता को वे कहते हैं, लोकमूढ़ता। अनेक भीड़ से टूटते हो। लोग अनेक कामों में लगे रहते हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि समाज और भीड के साथ हम जड़े रहते हैं—भय के कारण। अकेले ऐसा करता है क्योंकि और लोग ऐसा करते हैं। उसको महावीर होने में डर लगता है। मंदिर तुम चले जाते हो-पिताजी भी जाते कहते हैं: लोकमूढ़ता। क्योंकि सभी लोग ऐसा करते हैं, थे; पिताजी के पिताजी भी जाते थे। उनसे भी अगर पूछा जाता, इसलिए हम भी करेंगे!...सत्य का कोई हिसाब नहीं है-भीड़ वे कहते, 'हम क्या करें, हमारे पिताजी जाते थे, उनके पिताजी का हिसाब है। तो यह तो भेड़चाल हुई। जाते थे।' ऐसे पंक्तिबद्ध मूढ़ता चलती रहती है। एक स्कूल में एक शिक्षक ने पूछा एक छोटे बच्चे से कि तुम्हारे हिम्मत होनी चाहिए साधक में, कि वह इस पंक्ति के बाहर घर भेड़ें हैं, तो अगर तुमने अपने आंगन में दस भेड़ें बंद कर रखी निकल आये। अगर उसे ठीक लगे तो बराबर करे, लेकिन ठीक हैं और उनमें से एक छलांग लगाकर बाहर निकल जाये, तो लगना चाहिए स्वयं की बुद्धि को। यह उधार नहीं होना चाहिए। कितनी पीछे बचेंगी? उस बच्चे ने कहा : एक भी नहीं। उस और अगर ठीक न लगे, तो चाहे लाख कीमत चुकानी पड़े तो भी शिक्षक ने कहा, 'तुम्हें कुछ गणित का हिसाब है? मैं कह रहा हूं करना नहीं चाहिए, हट जाना चाहिए। दस अंदर हैं, और एक छलांग लगाकर निकल जाये तो कितनी तुम झुक जाते हो पत्थर की मूर्ति के सामने जाकर, क्योंकि और बचेंगी?' उसने कहा, 'गणित की तुम समझो, भेड़ों को मैं सब भी कहते हैं कि भगवान की मूर्ति है। और तुम कभी भी नहीं अच्छी तरह जानता हूं। एक निकल गई तो सब निकल गईं। सोचते कि भगवान की मूर्ति है! भगवान की कोई मूर्ति हो सकती गणित का मुझे भला पता न हो, लेकिन भेड़ों का मुझे पता है।' है? क्योंकि समस्त ज्ञानी कहते हैं, वह अमूर्त, निराकार, भेड़चाल! भीड़ के पीछे चले चलना! यह भरोसा रखकर कि निर्गुण, अनंत, असीम-उसकी मूर्ति हो सकती है? हां, अगर जहां सब जा रहे हैं ठीक ही जा रहे होंगे। और मजा यह है कि | तुम्हें लगता हो, तुम्हारी अंतरप्रज्ञा कहती हो, हां, हो सकती है, बाकी सबका भी यही भरोसा है। वह जो तुम्हारे पड़ोस में चल तुम्हारे भाव में लगता हो कि हां, है—तो झुकना। फिर चाहे रहा है, तुम्हारी वजह से चल रहा है। कि तुम जा रहे हो तो ठीक | सारा संसार कहे कि नहीं है तो फिक्र मत करना। तो महावीर यह ही जा रहे होओगे; और तुम जा रहे हो उसकी वजह से कि वह | नहीं कह रहे हैं, वे तुम्हें कोई स्पष्ट निर्देश नहीं दे रहे हैं कि तुम जा रहा है तो ठीक ही जा रहा होगा। इसको महावीर कहते हैं: | क्या करो। वे इतना ही कह रहे हैं कि जो भी तुम करो वह तुम्हारी लोकमूढ़ता। अंतःप्रज्ञा की साक्षी से किया गया हो, बस। वे यह नहीं कह रहे और सत्य की तरफ केवल वही जा सकता है जो भेड़चाल से हैं कि तुम मस्जिद जाओ कि मंदिर जाओ कि गुरुद्वारा कि चर्च। ऊपर उठे; जो धीरे-धीरे अपने को जगाए और देखने की चेष्टा इससे कोई प्रयोजन नहीं है। जो तुम्हारी अंतःप्रज्ञा कहे, जो करे कि जो मैं कर रहा हूं, वह करना भी था या सिर्फ इसलिए कर | तुम्हारा बोध कहे, वही तुम करना; उससे अन्यथा मत करना, रहा हूं कि और लोग कर रहे हैं! अन्यथा वह लोकमूढ़ता होगी। अकसर तुम कहते पाये जाते हो कि हमारे घर में तो यह सदा से दूसरी मूढ़ता को उन्होंने कहा—देवमूढ़ता, कि लोग देवताओं चला आया है। हमारे पिता भी करते थे, उनके पिता भी करते थे, की पूजा करते हैं। कोई इंद्र की पूजा कर रहा है कि इंद्र पानी इसलिए हम भी कर रहे हैं। तुमने कभी यह भी पूछा कि इसके गिरायेगा; कि कोई कालीमाता की पूजा कर रहा है कि बीमारी दूर करने का कोई प्रयोजन है, कोई लाभ है? इसके करने से जीवन | हो जायेगी। लोग देवताओं की पूजा कर रहे हैं। में कुछ संपदा, शांति, आनंद का अवतरण होता है? नहीं, | महावीर कहते हैं, देवता भी तो तुम्हारे ही जैसे हैं! यही तुम्हारे पिताजी भी सत्यनारायण की कथा करवाते थे, तुम भी वासनायें, यही जाल, यही जंजाल उनका भी है। यही [ 670/ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक दर्शन कआठअग ARRANKARISM धन-लोलुपता, यही पद-लोलुपता, यही राजनीति उनकी भी है। होंगे कि इस चरित्र के रहते हुए, इनको देवता कहे जाने का कारण तो अपने ही जैसों की पूजा करके, तुम कहां पहुंच जाओगे? जो | क्या है! दिव्यता तो कहीं भी मालूम नहीं पड़ती। उन्हें नहीं मिला है वह तुम्हें कैसे दे सकेंगे? ___ इंद्र के संबंध में कितनी कथायें हैं कि जब भी कोई तेजस्वी महावीर कहते हैं कि देवता का अर्थ है: होंगे स्वर्ग में, सुख में व्यक्ति, कोई तपस्वी, चैतन्य की ऊंचाइयों पर पहुंचने लगता है, होंगे, तुमसे ज्यादा सुख में होंगे; लेकिन अभी आकांक्षा से मुक्त सहस्रार के करीब उसकी ऊर्जा आती है, कि इंद्र का देवासन नहीं हुए। डोलने लगता है। महावीर और बुद्ध ने मनुष्य की गरिमा को देवता के ऊपर क्यों? क्योंकि उसे डर लगता है कि कोई प्रतिद्वंद्वी पैदा हुआ। उठाया। महावीर और बुद्ध ने देवताओं को आदमी के पीछे छोड़ प्रतिद्वंद्वी! यह तो कोई राजनीतिज्ञ की स्थिति हो गई, कि कोई दिया। महावीर और बुद्ध ने कहा कि जो निर्विकार हो गया है, जो राष्ट्रपति है, कोई प्रधानमंत्री है, और दूसरा चेष्टा करने लगा, निष्कांक्षा से भर गया है, जो निष्काम हो गया है, देवता भी उसके और लोक में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ने लगी तो घबड़ाहट पैदा हो पैर छुएं, देवता भी उसके चरणों में झुकें। हिंदू बहुत नाराज हुए, | जाती है कि यह आदमी कुर्सी छीनने आ रहा है! क्योंकि जैन कथायें हैं, बौद्ध कथायें हैं-ब्रह्मा, विष्णु, महेश को यह इंद्र देवता कैसा, जिसको अपने आसन के छिन जाने की भी बुद्ध और महावीर के चरणों में झुका देती हैं। बुद्ध को जब इतनी चिंता और घबड़ाहट है; और फिर उ ज्ञान हुआ, तो खुद ब्रह्मा आकर चरण छुआ। हिंदुओं को बड़ा बचाने के लिये सब तरह के उपाय करता है-सही, गलत; भेज कष्ट हो जाता है कि यह क्या बात हुई : 'ब्रह्मा से पैर छआ रहे देता है मेनका को कि भ्रष्ट करो विश्वामित्र को! यह तो ऐसे ही हो। ब्रह्मा तो जगत का स्रष्टा है। उसने तो बनाया। और ब्रह्मा हुआ जैसे राजनेता के पास किसी वेश्या को भेज दिया, और फिर से पैर छुआ रहे हो।' चित्र निकलवा लिये और अखबारों में छाप दिये तो लोक में लेकिन जैनों और बौद्धों का कारण है। प्रतिष्ठा खतम हो गई। यह तो कोई सम्यक उपाय भी न हुआ। वे कहते हैं, ब्रह्मा का जीवन तो उठाकर देखो। कथा है, कि यह तो शद्ध राजनीति भी न हई। यह तो राजनीति का भी बड़ा उसने पृथ्वी को बनाया, और वह पृथ्वी पर मोहित हो गया, गर्हित रूप हुआ। यह तो तरकीब बड़े वासनातुर चित्त की हो कामातुर हो गया। कामांध होकर पृथ्वी के पीछे भागने लगा। सकती है। पिता, बेटी के प्रति कामांध हो गया! बेटी घबड़ा गई कि इस तो महावीर कहते हैं, पहली मूढ़ता—लोकमूढ़ता; दूसरी पिता से कैसे बचे! तो वह अनेक-अनेक रूपों में छिपने लगी। मूढ़ता-देवमूढ़ता।। वह गाय बन गई, तो ब्रह्मा सांड बन गया। और इस तरह सारी | देवताओं से सावधान! सृष्टि हुई। दिव्यत्व की पूजा करो-देवताओं की नहीं। और दिव्यत्व जैन और बौद्ध कहते हैं कि ये तो देवता भी कामातुर हैं! तो तुम कभी-कभी घटता है-उन मनीषियों में, जिनके भीतर चैतन्य हिंदू देवताओं की कथायें पढ़ो। किसी ऋषि की पत्नी सुंदर है, तो सब तरह से शुद्ध और निर्विकार हुआ। ध्यान की आखिरी कोई देवता लोलुप हो जाता है, काम-लोलुप हो जाता है, तो ऊंचाई-समाधि-समाधि की पूजा करो! इसलिए जैनों ने षड्यंत्र करके स्त्री के साथ कामभोग कर लेता है। महावीर की पूजा की, ऋषभ की पूजा की, नेमि की पूजा की; महावीर और बुद्ध कहते हैं कि यह तो देवमूढ़ता हुई। अगर तीर्थंकरों की पूजा की, देवताओं की पूजा नहीं की। मनुष्यों की पूजना है तो उनको पूजो, जिनके जीवन से सारी आकांक्षा चली पूजा की, जो परमशुद्ध हो गए! बौद्धों ने बुद्ध की पूजा की, बुद्ध गई है। अगर पूजना है, तो उनको पूजो, जिनके जीवन से सारे को भगवान कहा; लेकिन देवताओं को नहीं पूजा। यह बड़ी मल-दोष समाप्त हो गए हैं। क्रांतिकारी घटना थी। यह बड़ी गहरी दृष्टि थी। इस दृष्टि से बड़े इन देवताओं का चरित्र तो देखो, महावीर कहते हैं। हम गौर से रूपांतर हुए। धर्म का नया रूप प्रगट हुआ। कभी देवताओं का चरित्र देखते नहीं, अन्यथा हम बड़े चकित और तीसरी मूढ़ता, महावीर कहते हैं-गुरुमूढ़ता। लोग हर 671 www.jainelibrar.org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग 1 किसी को गुरु बना लेते हैं। जैसे बिना गुरु बनाए रहना ठीक नहीं आकर ढाई सौ डालर जमा करवा गया। तो मैं खुद भी चमत्कृत मालूम पड़ता—गुरु तो होना ही चाहिए! तो किसी को भी गुरु हुआ। यह मैंने सोचा न था। दूसरे दिन देखा कि एक दूसरा बना लेते हैं। किसी से भी कान फुकवा लिए! यह भी नहीं आदमी आया और वह भी कोई सौ डालर जमा करवा गया। सोचते कि जिससे कान फंकवा रहे हैं उसके पास कान फंकने फिर तो मेरी इतनी हिम्मत बढ़ गई कि मेरे पास जो पच्चीस डालर योग्य भी कुछ है। थे वे भी मैंने जमा कर दिये। बैंक चल पड़ा। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम पहले गुरु बना चुके तुम अगर थोड़ी देर किसी पत्थर पर, सिंदर पोतकर बैठ हैं, तो आपका ध्यान करने से कोई अड़चन तो न होगी? मैंने | जाओ, तो शाम होते-होते तुम खुद ही पूजा करोगे। क्योंकि तुम कहा, 'अगर तुम्हें पहले गुरु मिल चुका है तो यहां आने की कोई | देखोगे कि इतने लोग पूजा कर रहे हैं, सभी गलत थोड़े ही हो जरूरत नहीं। वे कहते हैं, 'मिला कहां!' वह तो गांव में जो सकते हैं। माना कि तुम्हीं ने रंग पोता था, लेकिन जरूर कुछ बात ब्राह्मण था, उसी को बना लिया था। होगी, कुछ राज होगा। शायद तुमने ठीक पत्थर पर रंग पोत अभी उसको खुद ही कुछ नहीं मिला। तो तुम सोचते तो थोड़ा | दिया है। अनजाने सही। तुमने परमात्मा की किसी प्रतिमा पर कि जिसे तुम गुरु बनाने जा रहे हो, वह कम से कम तुमसे एक रंग डाल दिया, इतने लोग पूज रहे हैं! कदम तो आगे हो! लेकिन गुरु होना चाहिए!...बिना गुरु के यह मूढ़ता छूटनी चाहिए। कैसे रहें! तो किसी को भी गुरु बना लेते हो! जो मिल गया वही ...तो महावीर कहते हैं अमूढ़दृष्टि पैदा होती है। गुरु हो गया। पिता के गुरु थे तो वही तुम्हारे गुरु हो गये, पति के अमूढदृष्टि चौथा चरण है सम्यक दर्शन का। गुरु थे तो वही पत्नी के गुरु हो गये। बिना इस बात का विचार पांचवां चरण है: उपगृहन। किए कि यह बड़ी महिमापूर्ण बात है, यह जीवन की बड़ी चरम उपगूहन का अर्थ है : अपने गुणों और दूसरों के दोषों को प्रगट खोज है-गुरु को खोज लेना! न करना। यह जुगुप्सा के ठीक विपरीत है। अपने गण प्रगट न गुरु को खोज लेने का अर्थ, एक ऐसे हृदय को खोज लेना है करना और दूसरे के दोष प्रगट न करना। हम तो करते हैं उलटा जिसके साथ तुम धड़क सको और उस लंबी अनंत की यात्रा पर हीः अपने गुण प्रगट करते हैं, जो नहीं हैं वे भी प्रगट कर देते हैं; जा सको। और दूसरे के दोष प्रगट करते हैं, जो नहीं है वे भी प्रगट कर देते तो महावीर कहते हैं, ये तीन मूढ़ताएं हैं और इन मूढ़ताओं के | हैं, जो हैं उनकी तो बात ही छोड़ दो।। कारण व्यक्ति सत्य की तरफ नहीं जा पाता। या तो भीड़ को महावीर कहते हैं, जिसको सत्य की खोज पर जाना है, उसे ये मानता है, या देवी-देवताओं को पूजता रहता है। कितने सारे संयम, ये अनुशासन, ये मर्यादाएं, अपने जीवन में उभारनी देवी-देवता हैं! हर जगह मंदिर खड़े हैं। हर कहीं भी झाड़ के पड़ेंगी। अपने गुणों को मत कहना, दूसरों के दोषों को मत नीचे रख दो एक पत्थर और पोत दो लाल रंग उस पर, थोड़ी देर कहना। तुम्हारा क्या प्रयोजन है? दूसरे का दोष है-दूसरा में तुम पाओगे, कोई आकर पूजा कर रहा है! तुम करके देखो! जाने। और तुम जान भी कैसे सकते हो, क्योंकि तुम दूसरे के तुम सिर्फ बैठे रहो दूर छिपे हुए, देखते रहो। तुमने ही पत्थर रख स्थान पर खड़े नहीं हो सकते। दूसरे की परिस्थिति का तुम्हें पता दिया है और सिंदूर पोत दिया है; थोड़ी देर में कोई न कोई आकर नहीं है। दूसरे ने किस परिस्थिति में ऐसा दोष किया, इसका तुम्हें पूजा करेगा। बड़ी मूढ़ता है। कुछ पता नहीं है। अगर वैसी ही ठीक परिस्थिति तम्हारे जीवन में मैंने सुना है, जिस आदमी ने अमरीका में पहला बैंक खोला, | भी होती तो शायद तुम भी न बच सकते। उससे बाद में जब पूछा गया, कि तुमने यह बैंक खोला कैसे? | कोई भूखा है, और किसी ने चोरी कर ली; किसी की मां मर उसने कहा कि कोई काम-धाम न था मेरे पास, कुछ और न सूझा | रही है और दवा नहीं है, और किसी ने किसी का जेब काट मेरे लिए तो मैंने एक तख्ती लटका दी अपने घर के सामने, | लिया-तुम भी उसकी परिस्थिति में अपने को रखकर देखो, तो 'बैंक' उस पर लिख दिया। थोड़ी देर में देखा कि एक आदमी शायद तुम भी यही कर लेते। 672 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक दर्शन के आठ अंग लेकिन हम परिस्थिति से तोड़ लेते हैं तथ्यों को अलग। हम | भी चुराकर नहीं लाते हैं कि कोई अपराध कहा जा सके। किसी कहते हैं, यह आदमी चोर है! और हम परिस्थितियों की बात ही के घर बैठे हैं, पैंसिल दिख गई, वह खीसे में सरका ली। किसी भूल जाते हैं। यह किन परिस्थितियों में चोर था? के यहां भोजन करने गये हैं, चम्मच ही डाल लिया। पत्नी मनोवैज्ञानिक पश्चिम में बहुत अध्ययन कर रहे हैं अपराध के परेशान कि यह आज नहीं कल, यह झंझट...। और उसने ऊपर। और उनके जो नतीजे हैं वे बहुत घबड़ानेवाले हैं। मुझसे कहा कि आपसे उनका लगाव है; शायद...। आनेवाली सदी में, अगर उनके नतीजे स्वीकार किये गये तो तो मैं उनसे धीरे-धीरे बात किया। मैंने उनकी बड़ी प्रशंसा की, अदालतों को विदा हो जाना पड़ेगा। अदालतों के ज्यादा दिन क्योंकि मैं समझा कि उनको कोई कमी तो है नहीं। धनपति घर से नहीं हैं—दिन लद गये! क्योंकि अदालतें बुनियादी गलती पर हैं, अच्छी नौकरी पर हैं। पत्नी भी नौकरी पर है, खुद भी नौकरी खड़ी हैं। मजिस्ट्रेट इस तरह से बैठकर निर्णय करता है जैसे कि पर हैं। सब कुछ है। तो कोई चम्मच चुराने क चोर होना कोई सारी परिस्थितियों से टूटा हुआ अलग तथ्य है। तो कारण नहीं है। तो जरूर कुछ मन में कारण होगा। तो मैंने उन्हीं परिस्थितियों में यह मजिस्ट्रेट भी चोरी करता। कभी उनकी चोरी का विरोध नहीं किया। इस ढंग से उनको मनस्विद कहते हैं कि अपराध की जितनी समझ बढ़ती जा रही | फुसलाया कि उनको लगे कि शायद मैं भी उसी रोग का बीमार है, उससे पता चलता है कि लोग मजबूरी में अपराध करते हैं। हूं। उनको मैंने इसी तरह बात की कि जैसे मैं भी चम्मचें उठा दो तरह के अपराधी हैं। एक तो अपराधी हैं जो इस तरह | लाता हूं। तो उन्होंने कहा, 'अरे! यह तो अच्छा हुआ; आपसे मजबूर हो जाते हैं, इस तरह मजबूर किये जाते हैं, सारी समाज दिल खोल सकते हैं। आपको मैं दिखाऊंगा, घर चलिए।' की परिस्थिति उन्हें ऐसी जगह ले आती है, जहां अपराध किये | उन्होंने एक अलमारी में, जितनी चीजें चुराई थीं वे सब सजा रखी बिना वे जी नहीं सकते। जहां अपराध करना ही उनके बचने का थीं। उस पर चिटें भी लगा रखी थीं कि किसके घर से कब एकमात्र उपाय रह जाता है। अगर अपराध न करना हो तो मरने | लाए। और उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से दिखाईं। के सिवा उनके पास कोई सुविधा नहीं है। और मजा यह है कि उनका इलाज करना पड़ा। वे मानसिक रूप से रोगी थे। चोरी इस समाज में मरना भी अपराध है। यहां आत्महत्या करना भी | के माध्यम से, वे यह सिद्ध कर रहे थे कि वे दूसरों से ज्यादा अपराध है। अगर करते पकड़े गये तो सजा पाओगे। यहां जीना कुशल हैं। दूसरे उनकी चोरी नहीं पकड़ पाते, वे कर जाते हैं। तो मुश्किल है ही, यहां मरना भी मुश्किल है। यहां जीने भी नहीं। यह चोरी में चोरी कारण नहीं थी-अपनी कुशलता, अपनी देते ठीक से, यहां मरने की भी आज्ञा नहीं है। होशियारी, सिद्ध करने की चेष्टा थी। तो ऐसी परिस्थिति में कुछ लोग हैं, जो अपराध करते हैं। और मनोवैज्ञानिक कहते हैं, इस तरह का बीमार चिकित्सा चाहता कुछ दूसरा एक वर्ग है जो किसी मानसिक रोग के कारण अपराध | है। उसको मनोचिकित्सा चाहिए। और जिसने परिस्थितिगत करता है। उसकी परिस्थिति नहीं थी अपराध करने की। जैसे रूप से चोरी की हो, उसकी परिस्थिति में रूपांतरण चाहिए। क्लिप्टोमैनिया है। कुछ लोग हैं जिनको चोरी का रोग होता है। | अपराध समाप्त हो जाते हैं। या तो कोई परिस्थिति के कारण चोर अपराध नहीं। उनको चोरी करने में मजा आता है। उनको कोई है तो परिस्थिति बदलनी चाहिए; और या कोई मानसिक रोग के कमी नहीं है। वे लखपति हो सकते हैं, और ऐसी चीजों की चोरी | कारण चोर है, तो मानसिक रोग का इलाज होना चाहिए। कर सकते हैं जिनका कोई मूल्य भी नहीं है; जैसे कि माचिस की | जेलखाने खाली हो जाते हैं। जेलखाने में बस दो तरह के लोग डिबिया उन्होंने खीसे में रख ली। कोई कारण नहीं है, क्योंकि | पड़े हुए हैं। उनके पास खूब है। और माचिस की डिबिया का कोई मूल्य नहीं महावीर कहते हैं, दूसरे के दोष को बताना ही मत। तुम्हें क्या है। लेकिन उनको कुछ मानसिक रोग है। | पता, किस मजबूरी में, किस कठिनाई में उसने किया हो? और __ मैं एक प्रोफेसर को जानता हूं। उनको इस तरह का रोग था। तुम्हें क्या पता उसके जन्मों-जन्मों की जीवन-कथा का? लंबी उनकी पत्नी ने मुझे कहा कि आप कुछ करिये। वे कोई ऐसी चीज | यात्रा है। उस लंबी यात्रा में कहां उसने किसी दोष को अर्जित कर 67 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page जिन सूत्र भाग : 1 ement Bere Sood S S लिया हो, अनजाने सीख लिया हो। मांग लेना। वहीं हाथ जोड़ लेना। कहना, माफ करना, क्षमा और फिर तुम कौन हो निर्णायक? करना, भूल हो गई। वापस लौट आना। फिर स्थिर हो जाना। जीसस ने भी यही बात कही है। कहा है कि निर्णायक मत स्थिरीकरण बहुत उपयोगी सूत्र है। और जिनको जीवन को बनना, 'जज ई नाट!' दूसरे के न्यायाधीश मत बनना। दूसरा साधना है, उनके लिए निरंतर उसका उपयोग करना होगा, स्वयं जिम्मेवार है अपने कृत्यों के लिए; अपने कृत्यों का फल क्योंकि भूलें तो होंगी ही। फिर भूलों को लेकर मत बैठ जाना स्वयं पा लेगा। तुम बीच में निंदा, तुम बीच में विरोध और और उनमें बहुत रस मत लेने लगना, कि भूल हो गई, अपराध व्याख्या मत करना। और ध्यान रखना, जैसे दूसरे के गुणों को का भाव, और गिल्ट...। क्योंकि वह भी गलत है। वह भी देखना जरूरी, दुर्गणों को देखना जरूरी नहीं-अपने दर्गणों को नाहक अपने घाव को कुरेद-कुरेदकर खराब करना है। हो गई देखना जरूरी है, अपने गुणों को देखना जरूरी नहीं है। क्योंकि भूल, याद आ गई, वापस लौट जाए। जो व्यक्ति अपने गुणों को बहुत देखने लगता है, वह फूलने तुम ध्यान करने बैठते हो, थिरता टूट जाती है : किसी विचार लगात है गुब्बारे जैसा। उसका अहंकार मजबूत होने लगता है। के पीछे चल पड़े। कभी-कभी ऐसे विचार, जिनसे तुम्हें जाने का तो अपने गुब्बारे को, अहंकार के गुब्बारे को दोषों को कोई संबंध न था—तुम ध्यान करने बैठे, एक कुत्ता भौंकने देख-देखकर फोड़ते रहना, ताकि अहंकार बड़ा न हो। और लगा; अब कुत्ते के भौंकने से तुम्हारा कोई लेना-देना न था, अपने गुणों की कोई चर्चा मत करना। क्योंकि अगर वे हैं तो लेकिन कुत्ते के भौंकने से तुमको अपने मित्र के कुत्ते की याद आ उनकी सुगंध अपने से पहुंच जाएगी। अगर वे नहीं हैं तो चर्चा गई। मित्र के कुत्ते की याद आई तो मित्र की याद आ गई। मित्र करने से कुछ सार नहीं। के साथ कभी दो साल पहले कोई सुंदर दिन बिताया था पहाड़ों __'उपगृहन' के बाद छठवां है : स्थिरीकरण। महावीर कहते हैं | पर, वह याद आ गया-चल पड़े! कि जीवन की, सत्य की इस यात्रा में बहुत बार चूकें होंगी; बहुत जब याद आ जाये कि अरे! तब तत्क्षण स्थिर हो जाना। फिर बार पांव यहां-वहां पड़ जायेंगे; बहुत बार तुम भटक जाओगे। वापस लौट आना। फिर इसको लेकर परेशान मत होना, कि यह तो उसके कारण व्यर्थ परेशान मत होना और अपराध भाव भी | मैंने क्या कर लिया, क्योंकि वह परेशानी भी फिर ध्यान में न मत लाना। यह स्वाभाविक है। जब भी तुम्हें स्मरण आ जाए, | लगने देगी। तो जैसे ही याद आ जाए, स्मरण हो, चुपचाप अपने फिर अपने को मार्ग पर आरूढ़ कर लेना। उसका नाम है: | को स्थिर कर लेना। नहीं तो लोग क्या करते हैं-पहले गलती स्थिरीकरण। फिर अपने को स्थिर कर लेना। करते हैं, फिर गलती के संबंध में पश्चात्ताप करते हैं, फिर रोते हैं, जैसे तुमने तय किया, क्रोध न करेंगे; समझ आई कि क्रोध न अपराध अनुभव करते हैं तो गलती से भी ज्यादा गलती हो करेंगे; देखा, बार-बार क्रोध करके कि सिवाय दुख के कुछ भी | गई। गलती तो एक जगह होकर पूरी हो गई फिर उसका न हआ देखा क्रोध करके कि अपने लिये भी नर्क बना, दूसरे के | सिलसिला चल पड़ा। अब उसका पश्चात्ताप करो। अब लिये भी नर्क बना–तय किया, अब क्रोध नहीं करेंगे। ऐसी | रोओ। अब कहो कि भूल हो गई, डिग गया अपने पथ से, पापी समझपूर्वक एक स्थिति बनी क्रोध न करने की। लेकिन फिर भी | हो गया। चूकें होंगी। किसी आवेश के क्षण में पुनः क्रोध हो जाएगा। लंबी | महावीर कहते हैं, इस सब में पड़ने की इतनी ऊर्जा खराब मत आदत है। जन्मों-जन्मों के संस्कार हैं; इतनी जल्दी नहीं छूट | करना। आया स्मरण, कि भूल के रास्ते पर चले गये थे, तत्क्षण जैसे ही याद आ जाए, अगर क्रोध के मध्य में याद आ जाए, तो | होते-होते, होते-होते, जिसको कृष्ण ने स्थिति भी कहा है, पुनः अपने को अक्रोध में स्थिर कर लेना। अगर गाली आधी | स्थितिप्रज्ञ कहा है-वह स्थिति घटेगी। कभी ऐसी घड़ी आ निकल गई थी, तो बस आधी को पूरा भी मत करना। यह भी मत | जाती है कि फिर कोई भूल नहीं होती। तुम्हारी थिरता शाश्वत हो कहना कि अब पूरी तो कर दूं। बीच से ही रोक लेना। वहीं क्षमा | जाती है। तुम्हारी लौ अकंप हो जाती है। 674 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TWARE सम्यक दर्शन के आठ अंग / - सातवा : वात्सल्य। इसे समझना। पास बुद्धि नहीं है। तो मां का वात्सल्य है। मां उसे जो प्रेम करती भक्ति के संप्रदाय, प्रार्थना को मूल्य देते हैं। तो तीन शब्द | | है वह सिर्फ देने-देने का है। मां देती है, वह लौटा भी नहीं समझ लेना, तो ही वात्सल्य समझ में आयेगाः प्रार्थना, प्रेम, सकता। उसको अभी होश ही नहीं लौटाने का। वात्सल्य। प्रार्थना होती है, जो अपने से बड़ा है-परमात्मा, वात्सल्य का अर्थ है: तुम दो जैसे मां देती है। उसके प्रति। प्रार्थना में एक मांग होती है। प्रार्थना शब्द में ही तो महावीर कहते हैं, प्रार्थना नहीं, प्रेम नहीं-वात्सल्य। तुम मांग छिपी है। इसलिए मांगनेवाले को हम प्रार्थी कहते हैं। मांगा तो लुटाओ, जो तुम्हारे पास है दिये चले जाओ। इसकी फिक्र ही उससे जा सकता है जिसके पास हमसे ज्यादा हो, अनंत हो। तो मत करो कि किसको दिया। बस इसकी फिक्र करो कि दिया। प्रार्थना सिर्फ भगवान से की जा सकती है। लेकिन महावीर की तो जो तुम्हारे पास हो, वह तुम देते चले जाओ। कुछ तुम्हारे पास व्यवस्था में भगवान की कोई जगह नहीं है-प्रार्थना की कोई बाहर का देने का न हो तो भीतर का दो। वस्तुएं न हों तो अपना जगह नहीं। प्राण बांटो, अपना अस्तित्व बांटो, पर दो और देते रहो! फिर दूसरा शब्द है : प्रेम। प्रेम होता है सम अवस्था, सम तो जैसे भक्ति के रास्ते पर प्रार्थना सूत्र है, ठीक उससे विपरीत, स्थितिवाले लोगों में एक स्त्री में, एक पुरुष में; दो मित्रों में, ध्यान के रास्ते पर वात्सल्य सूत्र है। भक्ति के रास्ते पर तुम बेटे में: भाई-भाई में ऐसा समस्थिति। परमात्मा ऊपर भिखारी होकर भगवान के मंदिर पर जाते होः ध्यान के रास्ते पर है, प्रार्थी नीचे है। लेकिन प्रेमी साथ-साथ खड़े हैं। परमात्मा से तुम सम्राट होकर, तुम बांटते हुए जाते हो, तुम देते हुए जाते हो! सिर्फ मांगा जा सकता है, उसको दिया तो क्या जा सकता है! देने तुम मांगते नहीं। क्योंकि मांग में तो आकांक्षा है-वह तो पहले को हमारे पास कुछ भी नहीं है। उसके सामने हम निपट भिखारी ही चरण में समाप्त हो गई। हैं, समग्ररूपेण भिखारी। देंगे क्या? देने को कुछ भी नहीं है। अब तुम्हारे पास कुछ है, तुम उसे बांटते हो-और जब तुम अपने को भी दें तो भी वह देना नहीं है, क्योंकि हम भी उसी के हैं बांटते हो, तब तुम पाते हो और आने लगा! अनंत ऊर्जा उठने तो देना क्या है? उससे हम सिर्फ मांग सकते हैं, सिर्फ मांग | लगी। तुम्हारे सब जलस्रोत खुल जाते हैं। तुम्हारे झरने सब फूट सकते हैं। उसके सामने हम सिर्फ भिखारी हो सकते हैं। पड़ते हैं। जितना तुम्हारे कुएं से पानी उलीचा जाता है, तुम पाते इसलिए महावीर कहते हैं, परमात्मा की कोई जरूरत नहीं, होः उतना ही नया पानी आ रहा है। सागर तुममें अपने को क्योंकि परमात्मा के कारण सारा संसार भिखारी हो जाता है। उंडेलने लगता है। प्रेम में हम लेते हैं, देते हैं, क्योंकि दोनों समान हैं। जिसको तुम तो लटाओ। दोनों हाथ उलीचिए, यही सज्जन को काम प्रेम करते हो, तुम देते भी हो लेकिन देते तुम इसीलिए हो कि कबीर ने कहा है : उलीचो! महावीर का वात्सल्य वही है जिसको मिले। जो तुम्हें प्रेम करता है, वह भी देता है; लेकिन देता कबीर कहते हैं : उलीचना। इसीलिए है कि मिले, वापिस हो। तो प्रेम में लेन-देन है। और प्रभावना! परमात्मा की तरफ से इकतरफा है; सिर्फ मिलता है; देने को और आठवां चरण है सम्यक दर्शन काः प्रभावना। यह हमारे पास कुछ भी नहीं है। प्रेमी लेते-देते हैं। महावीर का अपना शब्द है। इसके लिए कहीं तुम्हें पर्याय न वात्सल्य ठीक प्रार्थना का उलटा है। वात्सल्य का अर्थ है: मिलेगा। प्रभावना का अर्थ होता है। इस भांति जीयो कि तम्हारे तुम दो। इसलिए हम कहते हैं, मां का वात्सल्य होता है बेटे की जीने से धर्म की प्रभावना हो। इस ढंग से उठो-बैठो कि तुम्हारे तरफ। बेटा क्या दे सकता है? छोटा-सा बेटा है, अभी पैदा उठने-बैठने से धर्म झरे। और जिनके जीवन में धर्म की कोई हुआ, चल भी नहीं सकता, बोल भी नहीं सकता, कुछ लाया भी रोशनी नहीं है, उनको भी प्यास पैदा हो। तुम्हारा चलना, तुम्हारा नहीं, बिलकुल नंग-धडंग चला आया है। हाथ खाली है। वह व्यवहार, तुम्हारे जीवन की शैली-सभी प्रभावना बन जाए। देगा क्या? इसलिए समान तल तो है नहीं मां का और बेटे का। प्रभावना-धर्म की, सत्य की। और मांग भी नहीं सकता, क्योंकि मांगने के लिए भी अभी उसके ___ तुम एक ज्योतिर्मय व्यक्तित्व बन जाओ कि जिनके भी पास 675 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः / ज्योति नहीं है, उनको भी ज्योति होनी चाहिए। और यह ऐसा मत समझ लेना कि सिद्ध हो गये। क्योंकि इस अनंत की जीवन-अंधेरे का भी क्या कोई जीवन है, ऐसा भाव उठे! तम खोज के मार्ग पर बहुत ऐसे पड़ाव आते हैं जहां यह भ्रम पैदा जहां से गुजर जाओ, वही लोगों के हृदय में एक लहर दौड़ होता है कि हो गये सिद्ध। सिद्ध होने का भ्रम बड़ा आसान है, जाए। और लोगों का जीवन सत्य की तरफ उन्मुख हो। क्योंकि अहंकार को बड़ा भाता है, कि हो गये सिद्ध, पहुंच गये! महावीर कहते हैं, इस सत्य की खोज का आठवां अंग है: तुम ध्यान रखना कि ऐसा भाव जब भी तुम्हें आएगा कि पहुंच प्रभावना। क्योंकि तुम जब सत्य को खोजने चले हो, तो अकेले गए, तभी तुम तत्क्षण पाओगे कि कुछ विकृति घटी, कुछ नहीं। उसमें भी कंजूसी मत कर बैठना। नहीं तो वह भी स्वार्थ दुष्प्रयोग हुआ, कहीं कोई भूल हई।। हो जायेगा। तो जिसकी खोज पर तुम चले हो और जो तुम्हें | तो स्मरण रखना कि भूल होती रहेंगी अंतिम क्षण तक। मिलने लगा है, उसकी खोज पर औरों को भी लगा देना। लेकिन निर्वाण के आखिरी क्षण तक भूल होती रहेंगी। समाधि के परम खयाल रखना, महावीर बड़े अनूठे शब्दों का उपयोग करते हैं। फूल के खिलने तक भूल होती रहेंगी। वे यह नहीं कहते, तुम लोगों को उपदेश देना। वे यह नहीं कहते, भल मनुष्य का स्वभाव है। और भलों का जन्मों-जन्मों का तुम लोगों को आदेश देना। वे कहते हैं, प्रभावना! इतिहास है। इसलिए जहां भी कहीं ऐसा लगे, कि दष्प्रयोग में तम्हारे होने के ढंग से ही उनको उपदेश मिल जाए। तुम्हारे होने प्रवृत्ति दिखाई दे, उसे तत्काल मन, वचन और काया से (सम्यक के ढंग से उनको आदेश मिल जाए। तुम्हारा होने का ढंग ही दृष्टि) धीरपुरुष समेट ले; जैसे कि जातिवंत घोड़ा रास के द्वारा | उनको पकड़ ले और एक नये नृत्य में डबा दे और एक, एक नई शीघ्र ही सीधे रास्ते पर आ जाता है। मस्ती से भर दे! तुम्हारा होना ही, तुम्हार अस्तित्व मात्र, तुम्हारा तो अपनी लगाम को कभी भी छोड़ मत देना। जब तक घोड़ा उनके पास से गुजर जाना: एक नए जगत का प्रवेश हो जाए है, तब तक लगाम को हाथ में रखना। घोड़ा यानी मन। जब उनके जीवन में! तुम्हारा उनके पास आ जाना, तुम्हारा सत्संग, तक मन है, तब तक लगाम मत छोड़ देना। मन पर भरोसा मत तुम्हारी मौजूदगी, उन्हें रूपांतरित कर दे! उनकी आंखें उस तरफ कर लेना। क्योंकि बहुत बार घोड़ा बिलकुल ठीक-ठीक चल उठ जायें जहां कभी न उठी थीं। लेकिन इसके लिए वे जो शब्द रहा है, घंटों तक ठीक-ठीक चल रहा है और तुम्हारा मन होता उपयोग करते हैं, वह बड़ा अनूठा है : प्रभावना! तुम उन्हें है, अब लगाम की क्या जरूरत है, रख दो ताक पर; अब तो प्रभावित भी करने की चेष्टा मत करना। तुम्हारा होना प्रभावना सब ठीक चल रहा है, अब होश की क्या जरूरत है, अब निरंतर बने! वे प्रभावित हों: तुमसे नहीं—धर्म से; तुमसे नहीं सत्य स्मरण की क्या जरूरत है, घोड़ा तो ठीक अपने-आप ही चल से; जो तुममें घटा है---उससे; वह जो पारलौकिक तुममें उतरा रहा है! ऐसा भरोसा मत करना। लगाम के रखते ही तत्क्षण है-उससे। घोड़ा अपने स्वभाव के अनुकूल बरतने लगेगा। लगाम तो हाथ ये आठ अंग स्मरण हों तो सम्यक दर्शन निर्मित होता है। में रखनी पड़ेगी जब तक घोड़ा है। जब तक मन न मर जाए, जब यह पहला सूत्र है: तक कि मन से परिपूर्ण मुक्ति न हो जाए, जब तक तुम्हारे भीतर निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। विचारों की तरंगें उठती हैं-तब तक लगाम का खयाल रखना। उवबूह थिरीकरणे, वच्छल पभावणे अट्ठ।। और जैसे ही तुम्हें लगे कि कहीं घोड़ा गलत रास्ते पर जाने लगा, ये आठ बातें सम्यक दर्शन के आठ अंग हैं। मार्ग से च्युत हुआ, दुष्प्रयोग में लगा, कहीं कोई प्रवृत्ति उठने दूसरा सूत्र : 'जब कभी अपने में दुष्प्रयोग की प्रवृत्ति दिखाई दे लगी, फिर आंख गलत पर पड़ी, फिर कान ने गलत को सुना, तो उसे तत्काल मन, वचन, काया से धीर (सम्यक दृष्टि) समेट फिर हाथ गलत की तरफ बढ़े, फिर विचार में गलत की छाया ले; जैसे कि जातिवंत घोड़ा रास के द्वारा शीघ्र ही सीधे रास्ते पर पड़ी तत्क्षण मन, वचन, काया से धीरपुरुष अपने को फिर आ जाता है।' ऐसे समेट ले...मन, वचन, काया से शरीर को तत्क्षण हटा और महावीर इस बात को बार-बार दोहराते हैं कि तुम कभी ले वहां से। 676 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STRIPURANDARPAN सम्यक दर्शन के आठ अग शरीर को हटाने का अर्थ समझना। जब भी तुम्हारे मन में कोई गया—वह राग था महावीर के प्रति। वह राग था महावीर के तरंग उठती है, तत्क्षण शरीर में भी समानांतर तरंग उठती है। चरणों का। उतने ही राग ने रोक लिया। एक प्रेम लग गया अगर तुम्हारे मन में कामवासना उठी, तो तत्क्षण शरीर महावीर से। महावीर के बिना उसे तकलीफ होने लगी। दिन को कामवासना के लिये तत्पर होने लगता है, तरंग उठती है। और भी कहीं जाता तो बस महावीर की ही याद आती रहती। महावीर जब भी तुम्हारे मन में कोई तरंग उठती है, और शरीर में तरंग ने उसे कई बार कहा कि तूने सब छोड़ दिया, अब मुझे क्यों पकड़ उठती है, तो तुम्हारे भीतर भाषा और वचन निर्मित होता है। रूप लिया है? क्योंकि असली सवाल छोड़ने का नहीं-असली बनता है विकार का। प्रतिमायें उठती हैं। स्वप्न निर्मित होता है। सवाल तो पकड़ ही छोड़ देने का है। वचन से अर्थ है : विचार; मन की कल्पना का जाल। और | तुमने कुछ पकड़ा, किसी ने कुछ और पकड़ा, किसी ने कुछ मन, शरीर, वचन, तीनों में एक साथ लहर आती है। तीनों को और पकड़ा-लेकिन पकड़ तो जारी रहती है। किसी ने धन एक साथ खींच लेना! किसी एक को खींच लेने से काम न पकड़ा, किसी ने धर्म पकड़ा। किसी ने पत्नी पकड़ी, किसी ने चलेगा। तुम, हो सकता है शरीर को खींचकर दरवाजा बंद | गुरु पकड़ा–लेकिन पकड़ तो जारी रहती है। करके बैठ जाओ, इससे कुछ फर्क न पड़ेगा। बहुत-से जैन मुनि और महावीर बड़े कठोर हैं इस दृष्टि से। क्योंकि उनका पूरा शरीर को खींचकर बैठ गए हैं, लेकिन मन और वचन में तरंगें राग से ही विरोध है। वह पूरा रास्ता ही वीतराग का है। तो यह उठती रहती हैं। शरीर को खींच लेना बहुत आसान है। शरीर को गौतम सब छोड़ आया। पत्नी होगी, बच्चे होंगे, घर-द्वार होगा, खींच लेने में बहुत कठिनाई नहीं है। शरीर बहुत स्थूल है। उससे मित्र-परिजन होंगे, धन-संपत्ति होगी, पद-प्रतिष्ठा होगी-सब भी गहरा वचन है। विचार में भी तरंग न उठे। | छोड़ आया। यह बड़ा पंडित था, ब्राह्मण था। इसने सब शास्त्र लेकिन बहुत-से लोग विचार को भी खींचकर बैठ जाते हैं। वेद, उपनिषद, सब छोड़ दिये। लेकिन उस सबको छोड़कर फिर भी मन में तरंग उठती है। मन यानी अचेतन। तो दिनभर महावीर के चरणों को पकड़कर बैठ गया। यह अब महावीर का याद नहीं आते, लेकिन रात सपने में याद आ जाते हैं। दिनभर दीवाना बन गया। तो महावीर उससे बार-बार कहते रहे कि तू तुम सम्हाले रहते हो। कोई विचार नहीं उठने देते। लेकिन स्वप्न | मुझे भी छोड़। यह बात ही सुनकर उसको कष्ट होता। यह बात में विचार आ जाते हैं। तो भी, दुष्प्रवृत्ति हो गई। तो भी, तुम ही कल्पना के बाहर थी : महावीर को छोड़ो! वह सब छोड़ने को च्युत हुए। इन सबसे धीरपुरुष अपने को खींचता रहता है। तैयार था महावीर के लिए। सब छोड़ा ही महावीर के लिए था। _ 'तू महासागर को तो पार कर गया है, अब तट के निकट | अब यह तो बात जरा ज्यादा हो गई कि महावीर को भी छोड़ो। पहंचकर क्यों खड़ा है? उसे पार करने में शीघ्रता कर हे गौतम, तो फिर सब छोड़ा ही किसलिए था! वह महावीर के लिए ही क्षणभर का भी प्रमाद मतकर!' छोड़ा था। वह मुक्त न हो सका। यह तीसरा सूत्र है आज के लिए। यह महावीर ने अपने | महावीर ने जिस दिन देह छोड़ी, उसे सुबह ही दूसरे गांव में महानिर्वाण के क्षणभर पहले कहा था। यह अपने पट्ट शिष्य उपदेश के लिए भेजा। शायद जानकर ही भेजा हो। क्योंकि वह गौतम के लिये कहा था। पास रहेगा तो बहुत दुखी होगा। यह मृत्यु उसके सामने, कहीं गौतम महावीर का प्रथम गणधर है—उनका सबसे ज्यादा उसे विक्षिप्त न कर दे। उसका लगाव बहुत था। फिर पीछे से निकट का शिष्य। लेकिन विडंबना भाग्य की, कि वह आया था खबर मिलेगी तो बात आई-गई हो जाएगी। फिर धीरे-धीरे सबसे पहले, लेकिन मुक्ति का स्वाद न ले सका। वह महावीर सम्हल जाएगा। आघात मृत्यु का सीधे, महावीर को अपने के पास वर्षों रहा, फिर भी उस परम दशा को न पहुंच सका, सामने ही, मरा हुआ देखना, देह से छूट जाना देखना-शायद जिसको हम कैवल्य कहें, समाधि कहें। मन मिट न सका। और उसके प्राणों को तोड़ दे, शायद वह सह न पाये! तो उसे दूसरे उसने कुछ छोड़ा हो करने में, ऐसा भी नहीं है। उसने सब किया / गांव भेज दिया। जब वह सांझ को लौट रहा था दूसरे गांव से तो जो महावीर ने कहा। लेकिन एक छोटा-सा राग पैदा हो राहगीरों ने रास्ते में उससे कहा कि गौतम, तुम्हें कुछ पता है, www.jainelibran.org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः महावीर जा चुके ! अब तुम कहां जा रहे हो? अब वह सत्पुरुष करने में निमित्त बना लेना, लेकिन जब नदी पार हो जाए, तो गुरु न रहा! को पकड़कर मत रुक जाना। महावीर कहते हैं, क्षणभर का भी तो वह वहीं रोने लगा। वहीं छाती पीटकर चिल्लाने लगा। प्रमाद मत कर, और इसमें क्षणभर की देर मत कर, आलस्य मत भरी आंखों से, टपकते आंसुओं से, उसने उन लोगों से पूछा कि कर-क्योंकि समय बीता जाता है, फिर लौटकर न आएगा! 'एक बात मुझे पूछनी है कि यह कैसा हुआ? यह उन्होंने कैसा और जो महावीर के जीते-जी न हो सका, वह महावीर की मृत्यु अन्याय किया? जीवनभर मैं उनके साथ रहा। तो आज तो कम | के कारण हो गया। गौतम को वह चोट भारी पड़ी। किनारा से कम मुझे बाहर न भेजते, दूर न भेजते! यह उन्होंने कौन-सा उसने नहीं छोड़ा, किनारा खुद ही जा चुका था अब। अब बदला लिया! एक ही बात पूछनी है मुझे मरते समय मुझे याद पकड़ने को कुछ था भी नहीं। जो जीवनभर महावीर के साथ किया था? मरने के पहले मेरे लिये कोई इशारा छोड़ा? क्योंकि रहकर बोध न हुआ, वह महावीर के मरने के एक दिन मैं तो अभी भी अंधेरे में भटक रहा हूं। मेरा क्या होगा? दीया | बाद...गौतम समाधि को उपलब्ध हो गया। उसने जान लियाः बुझ गया-अब मेरा क्या होगा?' तो उन लोगों ने...यह सूत्र संसार ही असार नहीं है, यहां सदगुरु के चरण भी छूट जाते हैं! महावीर ने गौतम के लिए कहा है, इसलिए गौतम का नाम इस यहां संपत्ति ही नहीं छूटती, सदगुरु भी छुट जाता है। यहां सभी सूत्र में आता है...उन लोगों ने गौतम को कहा, महावीर ने तुझे कुछ असार है। यहां अपने में ही लौट आने में सार है। याद किया था। वे यह सूत्र तेरे लिये छोड़ गए हैं : 'तू महासागर | ऐसा समझ कर...और तो सब छोड़ ही चुका था, यह महावीर को तो पार कर गया है, अब तट के निकट पहुंचकर क्यों खड़ा के प्रति लगाव था, यह भी छूट गया और यह लगाव बिलकुल है? उसे पार करने में शीघ्रता कर! हे गौतम, क्षणभर का भी मानवीय है, समझ में आता है। महावीर जैसा प्यारा पुरुष हो तो प्रमाद मत कर!' किसे लगाव न हो! गौतम की अड़चन समझ में आती है। तिण्णो हु सि अण्णवं महं, कि पुण चिट्ठसि तीरमागओ। महावीर ही कठोर मालूम होते हैं। गौतम का भाव तो ठीक ही है; अभितर पार गमित्तए, समय गोयम् ! मा पमायए।। समझ में पड़ता है। इतना प्यारा पुरुष कभी-कभी होता है। और 'हे गौतम! तू पूरा भवसागर पार कर गया, सारा संसार छोड़ ऐसे प्यारे पुरुष के पास पकड़ लेने का मन किसके मन में न दिया, सब तरफ से राग की जड़ें उखाड़ लीं-और अब तू होगा! और एकबारगी ऐसा भी होता है कि छोड़ो मोक्ष, छोड़ो किनारे को पकड़कर क्यों रुका है?' | बैकुंठ-यही चरण काफी है। ऐसा ही गौतम को हुआ होगा। किनारा यानी महावीर। ऐसा समझो कि तुम उस दूर के किनारे सब संसार छोड़ने की हिम्मत की थी, लेकिन ये चरण न छोड़ को पाने के लिए सारी नदी पार करते हो, निश्चित ही उस किनारे सका। लेकिन फिर ये चरण एक दिन छूट गए। जो भी बाहर है, जाने के लिए ही नदी पार करते हो। फिर इस नदी के सारे कष्ट | वह छूट ही जाएगा। उठाते हो-तूफान, झंझावात, धार के उपद्रव, मृत्यु का डर, डूब इसलिए महावीर कहते हैं : आत्मा में ही रमण करो। सब तरफ जाने का भय-यह सबको तुम पार कर जाते हो। फिर उस दूसरे से अपने में ही लौट आओ! अपने में ही लीन हो जाओ। उस किनारे को पकड़कर रुक जाते हो। रुके हो नदी में ही। किनारे आत्मलीनता को ही महावीर ने मोक्ष कहा है। को पकड़कर रुके हो! तुम कहते हो, इसी किनारे के लिए तो यह जो निमंत्रण गौतम के लिए है, यही निमंत्रण तम्हारे लिए सारी नदी पार की, वह किनारा छोड़ा, नदी छोड़ी, इतना संघर्ष भी है। झेला-अब इस किनारे को न छोड़ेंगे! पोत अगणित इन तरंगों ने तो महावीर कहते हैं, यह तो कुछ लाभ न हुआ। रुके तुम अब डुबाए, मानता मैं भी नदी में हो। अब इस किनारे को भी छोड़ो, बाहर निकलो! | पार भी पहुंचे बहुत से अब पार हो गए, नदी छूट गई, किनारे को भी छोड़ो! बात यह भी जानता मैं तो गुरु का उपयोग दूर के किनारे की तरह है। नदी को पार किंतु होता सत्य यदि यह 678 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक दर्शन के आठ अंग भी, सभी जलयान डूबे हैं। बहुत-से खो भी गये हैं। अनंत खो गए हैं। पार जाने की प्रतिज्ञा कहते हैं, हजार बुलाए जाते तो सौ पहुंचते हैं। सौ जो पहुंचते आज बरबस ठानता मैं हैं, उनमें से दस चलते हैं। और दस चलते हैं, एक कहीं डूबता मैं, किंतु उतराता सिद्धावस्था को उपलब्ध हो पाता है। सदा व्यक्तित्व मेरा किंतु होता सत्य यदि यह हों युवक डूबे भले ही भी, सभी जलयान डूबे है कभी डूबा न यौवन पार जाने की प्रतिज्ञा तीर पर कैसे रुकू मैं आज बरबस ठानता मैं आज लहरों में निमंत्रण! लेकिन, अगर यह भी सत्य होता कि जो भी गया, सभी डूब महावीर दूर अनंत के सागर की लहरों का निमंत्रण हैं। और गए, तो भीनिमंत्रण ही नहीं, उस दूर के सागर तक पहुंचने का एक-एक पार जाने की प्रतिज्ञा, कदम भी स्पष्ट कर गए हैं। महावीर ने अध्यात्म के विज्ञान में आज बरबस ठानता मैं कुछ भी अधूरा नहीं छोड़ा, खाली जगह नहीं है। मक्शा पूरा है। -क्योंकि यहां इस किनारे कुछ भी तो नहीं है। यहां बचे भी, एक-एक इंच भूमि को ठीक से माप गए हैं और जगह-जगह तो भी तो कुछ बचने जैसा नहीं है। और सागर में अगर डूबे भी मील के पत्थर खड़े कर गए हैं। तो डूबकर भी कुछ मिलता है। ये आठ सूत्र सम्यक दर्शन के सध जाएं तो सब सध गया। ये डूबता मैं किंतु उतराता | आठ सध जाएं तो समाधि सध गई, क्योंकि इन आठ के सधते ही सदा व्यक्तित्व मेरा। सारी समस्याएं तिरोहित हो जाती हैं। जो शेष रह जाता है, वही | तुम तो डूब जाओगे, लेकिन आत्मा उतराएगी। तुम तो डूबोगे समाधान है। | तभी आत्मा उतराएगी। तुम तो आत्मा में पत्थर की तरह हो। महावीर के निमंत्रण को अनुभव करो! उनकी पुकार को सुनो! तुम्हारी वजह से आत्मा तैर नहीं पाती, तिर नहीं पाती। ऐसे खाली नाममात्र को जैन होकर बैठे रहने से कुछ भी न होगा। हों युवक डूबे भले ही ऐसी नपुंसक स्थिति से कुछ लाभ नहीं। उठो! अपने का है कभी डूबा न यौवन जगाओ! बहुत बड़ी संभावना तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। खतरा तीर पर कैसे रुकू मैं है। इसलिए महावीर कहते हैं : अभय, साहस चाहिए! आज लहरों में निमंत्रण। खतरा यही है: सुनो इस निमंत्रण को! करो हिम्मत! चलो थोड़े कदम पोत अगणित इन तरंगों ने महावीर के साथ। थोड़े ही कदम चलकर तुम पाओगे कि जीवन डुबाए, मानता मैं की रसधार बहने लगेगी। थोड़े ही कदम चलकर तुम पाओगे, -बड़ा है, विराट है सागर! और न मालम कितने पोत इब | संपदा करीब आने लगगी। आने लगी शीतल हवाएं-शांति चुके हैं! | की, मुक्ति की! फिर तुम रुक न पाओगे। फिर तुम्हें कोई भी पोत अगणित इन तरंगों ने रोक न सकेगा। थोड़ा लेकिन स्वाद जरूरी है। दो कदम चलो, डुबाए, मानता मैं स्वाद मिल जाए; फिर तुम अपने स्वाद के बल ही चल पड़ोगे। पार भी पहुंचे बहुत से लाओत्सु ने कहा है, एक कदम तुम उठा लो, फिर फिक्र नहीं। बात यह भी जानता मैं। बस एक कदम तुम न उठाओ तो बड़ी फिक्र है। पहला कदम तुम लेकिन कुछ हैं जो पार भी पहुंच गए हैं। कोई महावीर, कोई | उठा लो तो बस, दूसरा तुम उठाओगे ही। क्योंकि पहले को बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट, कोई मुहम्मद पार भी पहुंच गये उठाने में ही ऐसा रस बरस जाता है, फिर कौन पागल होगा जो Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जिन सूत्र भागः1 24..20.20-Sports दूसरा कदम न उठाए! और एक-एक कदम चलकर हजारों मील की यात्रा भी अंततः पूरी हो जाती है! दो कदम तो कोई एकसाथ चल भी नहीं सकता। एक कदम! छोटा कदम! जितनी तुम्हारी सामर्थ्य में आता हो, इतना बड़ा कदम! लेकिन उठाओ! बैठे-बैठे बहुत जन्म खोए-और मत खोओ! धम्मपद में बुद्ध ने कहा है: 'उत्तिट्टे!' उठो! 'न पमज्जेय्य!' उठो! प्रमाद मत करो! सोये मत रहो! आलसी मत रहो! जो उठता है, वही पाता है। जो सोया रहता, वह सभी कुछ खो देता है। आज इतना ही। 680