________________ जिन सूत्र उपलब्ध नहीं हो सकीं, वहां अप्सराओं की तरह बैठी तुम्हारी का कोई भी संबंध नहीं है। कोई चोर है, इससे बांसुरी बजाने में प्रतीक्षा कर रही हैं। इतना ही नहीं, अगर तुम किसी वृक्ष के नीचे |बाधा नहीं पड़ती। लेकिन तुम तत्क्षण दबा देते हो कि वह चोर ध्यान वगैरह करो, तो उर्वशी और मेनका आकर तुमको परेशान है, वह क्या बांसुरी बजायेगा! करेंगी। तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं बिलकुल कि तुम कब करो | और तुम अपने दोषों को छिपाये चले जाते हो। तुम अगर क्रोध तपश्चर्या कि वे आयें। यह वासना, अतृप्त वासना ही, नये-नये | भी करते हो तो जिस पर क्रोध करते हो उसी के हित के लिये करते विक्षेप कर रही है। यह अतृप्त वासना का ही विस्तार है। हो, सुधार के लिये, एक तरह की सेवा समझो। अगर तुम बच्चे तो महावीर कहते हैं, किसी भी तरह के लाभ की | को पीटते भी हो, तो उसी के भविष्य के लिये। हालांकि कभी आकांक्षा-वह स्वर्ग का ही लाभ क्यों न हो—संसार में लौटा पीटने से, किसी का भविष्य बना नहीं, बिगड़ा भला हो। मां लायेगी, सम्यक दृष्टि पैदा न होगी। अगर बेटे को पीटती है, तो सोचती है, क्योंकि वह कपड़े खराब निष्कांक्षा! कैसे निष्कांक्षा पैदा हो? आकांक्षा को समझने से; कर आया, धूल-धवांस में खेला, या गलत बच्चों के साथ आकांक्षा की व्यर्थता को देख लेने से। जैसे कोई आदमी रेत से खेला। लेकिन अगर भीतर खोज करे तो पायेगी कि वह क्रोध से तेल निचोड़ रहा हो, और न निचुड़ता हो और परेशान हो रहा हो उबल रही थी। पति से कुछ झंझट हो गई थी। पति पर न फेंक और कोई उसे बता दे कि 'पागल, रेत में तेल होता ही नहीं; पाई क्रोध को, बच्चे की प्रतीक्षा करती रही। क्योंकि यह बच्चा इसलिए तू लाख उपाय कर, तेरे उपायों का सवाल नहीं है, तेल कल भी उन्हीं बच्चों के साथ खेला था और कल भी यह निकलेगा नहीं; तू लाख सिर मार, तेरा सिर टूटेगा, गिरेगा, रेत धूल-धवांस से भरा लौटा था। बच्चे हैं-लौटेंगे ही। बच्चे से तेल निकलेगा नहीं।' | बूढ़े नहीं हैं। और समय के पहले उन्हें बूढ़ा बनाने की चेष्टा बड़ी अकांक्षा से कभी सत्य नहीं निकला, क्योंकि आकांक्षा स्वप्नों खतरनाक है। उनके लिये अभी कपड़ों का कोई मूल्य नहीं की जननी है। आकांक्षा का जिसने सहारा पकड़ा, वह सपनों में है-और शुभ है कि कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि जिस दिन खो गया; उसने अपने सपनों का संसार बना लिया। लेकिन कपड़ों का मूल्य हो जाता है उसी दिन अपने भीतर के सब मूल्य सत्य उससे कभी निकला नहीं। वह रेत की तरह है; उससे तेल | खो जाते हैं। अभी भीतर का आनंद पर्याप्त है, कपड़े गंदे भी हो निकल नहीं सकता। तेल वहां है नहीं। | जाते हैं तो चिंता नहीं, लेकिन भीतर का खेल शद्ध रहता है. ध्यान रखना, महावीर की प्रक्रिया का यह अनिवार्य हिस्सा है | स्वच्छ रहता है। अभी भीतर की मौज इतनी बड़ी है कि थोड़ी कि वह जो है उसे देखने को कहते हैं। आकांक्षा है तो आकांक्षा | धूल पड़ जाये तो बर्दाश्त कर लेती है। अभी बच्चे में प्रदर्शन का को देखो, पहचानो, परखो, चारों तरफ से अवलोकन, निरीक्षण | भाव नहीं जगा है और अभी थोथी वस्तुओं का मूल्य निर्मित नहीं करो, विश्लेषण करो। खोज करो कि इससे तुम जो चाह रहे हो हुआ है। अभी असली का मूल्य है। खेल का आनंद, रस वह हो भी सकता है? अगर नहीं हो सकता तो आकांक्षा गिर मूल्यवान है। कपड़े इत्यादि अभी निर्मूल्य हैं। अभी इनका कोई, जायेगी। जो शेष रह जायेगी, चित्त की दशा, निष्कांक्षा, वही कोई अर्थ नहीं है। लेकिन कल भी वह ऐसा ही आया था, तब दूसरा चरण है सम्यक दृष्टि का। मां ने कुछ भी न कहा था। लेकिन आज टूट पड़ती है, पीटने तीसरा-निर्विचिकित्सा। जुगुप्सा का अभाव। अपने दोषों लगती है। पूछो तो कहेगी, सुधार के लिये! लेकिन अगर गौर से को तथा दूसरों के गुणों को छिपाने का नाम है जुगुप्सा। प्रत्येक निरीक्षण करे तो पायेगी कि पति पर नाराजगी थी। पति पर व्यक्ति उलझा है जुगुप्सा में। हम अपने दोष छिपाते हैं और निकाल न सकी–पति परमात्मा है! ऐसा पतियों ने ही समझाया दूसरों के गुण छिपाते हैं। हुआ है, तो उन पर नाराजगी निकाली भी नहीं जा सकती। वहां अगर तुमसे कोई कहे फला आदमी देखा, कितनी प्यारी बांसुरी द्वार-दरवाजा बंद है। बजाता है, तुम फौरन कहते हो: वह क्या बांसुरी बजायेगा! तो जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है, ऐसा ही क्रोध भी अपने चोर, लुच्चा, लंपट! अब चोर, लुच्चा, लंपट से बांसुरी बजाने से कमजोर की तरफ बहता है। बच्चे से ज्यादा कमजोर और तुम 1668 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org