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श्रोजिनचन्द्रसरिजी की श्रेष्ठ रचना
संवेगरंगशाला आराधना
( संक्षिप्त परिचय ) ले० पं० लालचन्द्र भगवान् गान्धी, बड़ौदा
[ सुविहित मार्ग प्रकाशक आचार्य जिनेश्वरसूरिजी के पट्टधर श्रीजिनचन्द्रसूरिजी हुए। उनका विस्तृत परिचय तो प्राप्त नहीं होता । युगप्रधानाचार्य गुर्वावली में इतना ही लिखा है कि 'जिनेश्वरसूरि ने जिनचन्द्र और अभयदेव को योग्य जानकर सूरिपद से विभूषित किया और वे श्रमण धर्म की विशिष्ट साधना करते हुए क्रमशः बुगप्रधान पद पर आसीन हुए। ___आचार्य जिनेश्वरसूरि के पश्चात् सूरिश्रेष्ठ जिनचन्द्रसूरि हुए जिनवे अष्टादश नाममाला का पाठ और अर्थ साङ्गोपाङ्ग कण्ठान था, सब शास्त्रों के पारंगत जिन चन्द्रसूरि ने अठारह हजार श्लोक परिमित संवेगरंगशाला की सं० ११२५ में रचना की। यह ग्रन्थ भव्य जीवों के लिए मोक्ष रूपी महल के सोपान सदृश है। ____ जिनचन्द्रसूरि ने जावालिपुर में जाकर धावकों की सभा में “चीय दण मावरसय' इत्यादि गाथाओं की व्याख्या करते हुए जो सिद्धान्त संवाद कहे थे उनको उन्हीं के शिष्य ने लिस्कर ३०० श्लोक परिमित दिनचर्या नामक ग्रन्थ तैयार कर दिया जो श्रावक समाज के लिए बहुत उपकारी सिद्ध हुआ। वे जिनचन्द्रसूरि अपने काल में जिन-धर्म का यथार्थ प्रकाश फैलाकर देवगति को प्राप्त हुए।" ___ आपके रचित पंच परमेष्ठी नमस्कार फल कुलक, क्षपक-शिक्षा प्रकरण, जीव-विभत्ति, आराधना, पार्श्व स्तोत्र आदि भी प्राप्त हैं।
संवेगरंगशाला अपने विषय का अत्यन्त महत्वपूर्ण विशद ग्रन्थ है। जिसका संक्षिप्त परिचय हमारे अनुरोध से जैन साहित्य के विशिष्ट विद्वान पं० लालचन्द्र भ० गांधी ने लिख भेजा है। इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित होना अति आवश्यक है ।-- सं० ]
श्रीजैनशासन के प्रभावक, समर्थ धर्मोपदेशक, ज्योति- शाला आराधना की श्रेष्ठ रचना की थी, जो ६००-नो सौ धर गीतार्थ जैनाचार्यों में श्रीजिनचन्द्रसूरिजी का संस्मर- वर्षों के पीछे-विक्रमसंवत् २०२५ में पूर्णरूप से प्रकाश में णीय स्थान है। मोक्षमार्ग के आराधक, मुमुक्षु-जनों के आई है, परम आनन्द का विषय है। परम माननीय, सत्कर्त्तव्य-परायण जिस आचार्य ने आज से बड़ौदा राज्यकी प्रेरणा से सुयोग्य विद्वान चीमनलाल नौ सौ वर्ष पहिले-विक्रम संवत् ११२५ में प्राकृत भाषा डा० दलाल म० ए० ईस्वी सन् १९१६ के अन्तिम चार मास में दस हजार, ५३ गाथा प्रमाण संवेगमार्ग-प्रेरक संवेगरंग- वहीं ठहर कर जेसलमेर किल्ले के प्राचीन ग्रन्थ-भण्डार
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का अवलोकन बड़ी मुश्किल से कर सके। वहाँ की रिपोर्ट ३८-३६ में 'संवेग रंगशाला' के सम्बन्ध में अन्वेषण पूर्वक कच्ची नोध व्यवस्थित कर प्रकाशित कराने के पहिले ही वे संक्षिप्त परिचय सूचित किया था। उसकी रचना सं०११२५ ईस्वी सन् १९१७ अक्टोबर मास में स्वर्गस्थ हुए। में हुई थी। लि. प्रति सं० १२०७ की थी। रचना का ___ आज से ५० वर्ष पहिले-ईस्वी सन् १९२० अक्टोबर आधार नीचे टिप्पणी में मैंने मूलग्रन्थ की अर्वाचीन से० में बड़ौदा-राजकीय सेन्ट्रल लाइब्रेरी (संस्कृत पुस्तकालय) में ला० की ह० लि. प्रति से अवतरण द्वारा दर्शाया था'जैन पंडित' उपनामसे हमारी नियुक्ति हुई, और विधि- विक्कमनिवकालाओ समइक्कतेसु वरिसाण । वशात् सद्गत ची० डा० दलाल एम० ए० के अकाल एक्कारमसु सएसु पणवीस समहिएसु ॥ स्वर्गवास से अप्रकाशित वह कच्ची नोंध-आधारित निपत्ति संपत्ता एसाराहण त्ति फुडपायडपयत्था।" 'जेसलमेर दुर्ग-जैन ग्रन्थभण्डार-सूचीपत्र' सम्पादित-प्रकाशित भावार्थ-विक्रमनृपकाल से ११२५ वर्ष बीतने के कराने का हमारा योग आया। दो वर्षों के बाद बाद स्फुट प्रगट पदार्थवाली यह आराधना सिद्धि को ईस्वी सन १६२३ में उस संस्था द्वारा गायकवाड ओरि- प्राप्त हुई। यन्टल सिरीज नं० २१ में यह ग्रन्थ बहुत परिश्रम से
इसके पीछे मैंने तह ट्रिप्पणिका का भी संवाद बम्बई नि सा द्वारा प्रकाशित हुआ है। बहुत ग्रन्थ टेववट भ्रातजिनचन्द्रीया १००५३"
दर्शाया था-'संबेगरङ्गशाला ११२५ वर्षे नयागाभयगोषणा के बाद उसमें प्रस्तावना और विषयवार अप्रसिद्ध मैंने वहाँ संस्कृत संक्षेप में परिचय कराया था कि ग्रन्थ, ग्रन्थकृत-परिचय परिशिष्ट आदि संस्कृत भाषा में 'आराधनेत्यपराह्वयं नवाइवत्तकाराभयदेवसूरेरभ्यर्थनया मैंने तैयार किया था । उसमें जेसलमेर दुर्ग के बड़े भण्डार विरचिता। विरच यता चायं जिनेश्वरसूरे मुख्य: 'शष्योऽमें नं० १८३ में रही हुई उपर्युक्त सवेगरंगशाला (२८३४२३ भयदेवसुरेइन वृद्धगती यः ।" साइज) ३४७ पत्रवाली ताडपत्रीय पोथी का सूचन है। अभयदेवसूर पर टिपणी में मैंने उसी संवेगरंगशाला वहाँ अन्तिम उल्लेख इस प्रकार है :
की से० ला० की ह० लि. प्रति से पाठ का अवतरण वहां __"इति श्रीजिनचन्द्रसूरिकृता तद्विनेय श्रीप्रसन्नचन्द्रा- दर्शाया था - चार्यसमभ्यर्थित-गुणचन्द्राण प्रतियत्कृ (संस्कृ)ता जिन- सिरिअभय देव सरि ति पत्तकित्ती परं भवणे ॥[१००४:] वल्लभागिना संशोधिता संवेपरंगशालाभिधानाराधना जे कोट महारिउ विम्ममाणस्प नरवइस्सेव । समाप्ता।
सुपधम्पास दढतं, निव्वतियमंगवित्तीहि ॥ [१०० ४२] संवत् १२०७ वर्षे ज्येष्ठमुदि १० गुरौ अद्य ह श्रीवट- सम्भावसको सिरिणिचंदमुनिवरेण इमाण । पद्रके दंड० श्रीवोसरि प्रतिपत्तौ संवेगरंगशाला पुस्तकं मला गारेण द उच्च गऊण वरवणकुसुमाइं ॥ [१०० ४३] लिखित मिति ।"
मूसुय-कागणाओ, गुंथित्ता नियय पइगुणेण दढं । -स्व० दलाल ने इसकी पीछे की २७ पद्योंवाली वित्रिहत्य-मोर धभरा, निम्मविया राहणामाला ॥[१००४४]' लिखानेवाले की प्रशस्ति का सूचन किया है, अवकाशा- भावार्थः - भवन में श्रेष्ठ कीर्ति पानेवाले श्री अभयभाव से वहाँ लिखो नहीं थी।
देवसूरि हुए। जिसने कुबोध रूप महारिपु द्वारा विनष्ट जे० भां० सूचीपत्र में 'अप्रसिद्ध ग्रन्थ-ग्रन्थकृत्परिचय' किये जाते नरपति जैसे श्रुतधर्म का दृढ़त्व अंगों की कराने के समय मैंने 'जनोपदेशग्नन्याः' इस विभाग में पृ० वृत्तियों द्वारा किया। उनकी अभ्यर्थना के वश से
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श्री जिनचन्द्र मुनिवर ने मालाकार की तरह, मूलश्रुत
[३.] रूप उद्यान से श्रेष्ठ वचन-कुसुमों का उच्चुंटन कर, अपने श्रीजिनपतिसूरिजी द्वारा विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में मतिगुण से दृढ़ गुंथन करके विविध अर्थ-सौरभ-भरपूर यह रचित पंचलिंगी-विवरण सं० में प्रशंसा की है किआराधनामाला रची है।
"नर्तयितुं संवेगं पुनर्नृणां लुप्तनृत्यमिव कलिना । इसके पीछे मैंने वहाँ सूचन किया है कि "पाश्चा- संवेगरङ्गशाला येन विशाला व्यरचि रुचिरा ॥" त्यैरनेकैनन्थकारैरस्यः कृतेः संस्मरणमकारि ।" इसका भावार्थ:--जिसने (श्री जिन चन्द्रसूरिजी ने), कलिकाल भावार्थ यह है कि-इस संवेगरंगशाला कृति का संस्मरण, से जिसका नृत्य लुप्त हो गया था, वैसे मानो मनुष्यों के पीछे होनेवाले अनेक ग्रन्थकारों ने किया है। इसका संवेग को नृत्य कराने के लिए विशाल मनोहर संवेगरंगशाला समर्थन करने के लिए मैंने वहां (१) गुणचन्द्रगण का रची ।।
[४] महावीरचरित, (२) जिनदत्तसूरि का गणधरसार्धशतक,
_ विक्रम संवत् १२६५ में सुमतिगणि ने गणधरसार्धशतक (३) जिनपतिसूरि का पंचलिंगीविवरण (४) सुमतिगणि की ।
की सं० बृहद्वृत्ति में उल्लेख किया है कि-- गणधरसार्धशतक वृत्ति, (५) संघपुर मन्दिर-शिलालेख, (६)
"पश्चाजिनचन्द्रसूरिवर आसीद् यस्याष्टादशनाम माला चन्द्रतिलक उपाध्याय का अभयकुमार चरित तथा (७) भुवन
सूत्रतोऽर्थतश्च मनस्यासन् सर्वशास्त्रविदः । येनाष्टा(?) हित उपाध्याय के राजगृह-शिलालेख में से-अवतरण टिप्पणी
दशसहस्रप्रमाणा संवेगरङ्गशाला मोक्षप्रासादपदवी में दर्शाये थे, वे इस प्रकार हैं -
भव्यजन्तूनां कृता । येन जावालिपुरे दू(ग)तेन श्रावकाणामने श्रीगुणचन्द्र गणि ने विक्रम संवत् ११३६ में रचित प्राकृत व्याख्यानं 'चोवंदणमावस्सय' इत्यादि गाथायाः कुर्वता महावीरचरित में प्रशंसा की है कि
सिद्धान्तसंवादाः कथितास्ते सर्वे सुशिष्येण लिखिताः शतश्रयसंवेगरंगसाला न केवलं कवविरयणा जेण । प्रमाणो दिनचर्यानन्थः श्राद्धानामुपकारी जातः ।" भवजणविम्हय करी विहिया संजम-पवित्ती वि ॥"
[-यह पाठ मैंने बड़ौदा-जनज्ञानमन्दिर-स्थित भावार्थ:- जिसने (श्री जिनचन्द्रसूरि ने ) सिर्फ संवेग- श्रीहंसविजयजी मुनिराज के संग्रह की अर्वाचीन ह० लि. रंगशाला काव्य-रचना ही नहीं की, भव्यजनों को विस्मय प्रति से उद्धृत कर दर्शाया था ] करानेवाली संयमप्रवृत्ति भी की थी।
___ भावार्थ:-पीछे (श्रीजिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि _[२]
के अनन्तर ) श्री जिनचन्द्र सूरिवर हुए। सर्वशास्त्रविद् श्रीजिनदत्तसरिजी ने विक्रम की बारहवीं शताब्दी. जिसके मन में - नाममाला
जिसके मन में १८ नाममालाएँ सूत्र से और अर्थ से उपस्थित उत्तरार्ध में रचित प्रागणधरसार्धशतक में प्रशंसा की है
थीं। जिसने दस हजार गाथा प्रमाण सवेगरंगशाला
, कि
भव्यजीवों के लिए मोक्ष प्रासाद-पदवी की। जावालिपूर संवेगरंगसाला विसालसालोवमा कया जेण। में गए हुए जिसने श्रावकों के आगे 'चीवंदणमावरसय' रागाइवेरिभयभीय - भव्वजण रक्खण निमित्तं ॥"
इत्यादि गाथा का व्याख्यान करते हुए सिद्धान्त के संवाद भावार्थ:-जिसने (श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने ) रागादि कहे थे, उन सबको सुशिष्य ने लिख लिए, तीन सौ वैरियों से भयभीत भव्यजनों के रक्षण-निमित्त विशाल
श्लोक-प्रमाण 'दिनचर्या' नामक ग्रन्थ श्रावकों के लिए किला ओ संवेगरंगशाला की।
उपकारी हो गया।
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__ भावार्थ:--उसके बाद (श्रोजिनेश्वरसूरिजी के पीछे) रिक्त संघपुर-जैन मन्दिर की भित्ति में लगे हुए प्रायः श्रीजिनचन्द्र नामके श्रेष्ठ सूरि हुए, जिसने संवेगरंगशाला सं० १३२६ (?) के अपूर्ण शिलालेख की नकल स्व• बुद्धि- की, और धारण-पोषण की। सागरसूरिजी की प्रेरणा से 'बीजापुर-वृत्तान्त' के लिए
-उत्तमोत्तम यह संवेगरंगशाला ग्रन्थ कई वर्षों के मैंने ५४ वर्ष पहिले उद्धृत की थी, उसमें यह पद्य है
पहिले श्री जिनदत्तसूरि-ज्ञानभंडार, सूरत से तीन हजार "संवेगरङ्गशाला सुरभिः सुरविटपि-कुसुममालेव ।
पद्य-प्रमाण अपूर्ण प्रकाशित हुआ था। दस हजार, तिरेपन शुचिसरसाऽमरसरिदिव यस्य कृतिर्जयति कीतिरिव ।।
गाथा प्रमाण परिपूर्ण ग्रन्थ आचार्यदेवविजयमनोहरसूरि भावार्थ:-जिसकी (श्रीजिनचन्द्रसूरिजी की) कृति शिष्याणु मुनि परम-तपस्वी श्री हेमेन्द्रविजयजी और संवेगरंगशाला सुगन्धि कल्पवृक्ष की कुसुममाला जैसी और पं० बाबूभाई सवचन्द के शुभ प्रयत्न से संशोधित संपादित पवित्र सरस गंगानदी जैसी, और उनकी कीर्ति जैसी जयवती होकर, विक्रम संवत् २०२५ में अणहिलपुर पत्तनवासी
झवेरी कान्तिलाल मणिलाल द्वारा मोहमयी मुम्बापुरी
से पत्राकार प्रकाशित हुआ है । मूल्य साढ़े बारह रुपया है । उनकी परम्परा के चन्द्रतिलक उपाध्याय ने वि० सं० गत सप्ताह में ही संपादक मुनिराज ने कृपया उसकी १ प्रति १३१२ में रचे हुए सं० अभयकुमार चरित काव्य में दो हमें भेंट भेजी है। पद्य हैं कि
इस ग्रन्थ के टाइटल के ऊपर तथा समाप्ति के पीछे कर्ता "तस्याभूतां शिष्यो, तत्प्रथमः सूरिराज जिनचन्द्रः। श्रीजिनचन्द्रसुरिजी का विशेषण तपागच्छीय छपा है, घट संवेगरङ्गशालां, व्यधित कथां यो रसविशालाम् ॥
नहीं सकता । 'तपागच्छ' नामकी प्रसिद्धि सं० १२८५ से बृहन्नमस्कारफल, श्रोतृलोकसुधाप्रपाम् ।
श्रीजगच्चन्द्रसूरिजी से है, और इस ग्नन्थ की रचना वि. चक्र क्षपक शिक्षां च, यः संवेगविवृद्धये ॥"
संवत् ११२५ में अर्थात् उससे करीब डेढ़ सौ वर्ष पहिले भावार्थः --उनके (श्रीजिनेश्वर सूरिजी के) दो शिष्य हुई थी। और वहाँ गुजराती प्रस्तावना में इस ग्रन्थकार हुए। उनमें प्रथम सूरिराज जिनचन्द्र हुए ; जिसने रस- श्रीजिनचन्द्रसूरिजी को समर्थ तार्किक महावादी श्री सिद्धविशाल श्रोता लोगों के लिये अमृत-परब जैसी संवेगरंगशाला सेन दिवाकर सूरिजी कृत संमतितर्क ग्रन्थ पर असाधारण कथा की, और जिसने बृहन्नमस्कारफल तथा संवेग की टीका लिखनेवाले पू० आचार्यदेव श्रीअभयदेवसूरिजी विवृद्धि के लिये क्षपकशिक्षा की थी।
___ महाराज के वडील गुरुबन्धु सूचित किया, वह उचित राजगृह में विक्रम को पन्द्रहवीं शताब्दी का जो नहीं है । इस संवेगरंगशाला की प्रान्त प्रशस्ति में स्पष्ट शिलालेख उपलब्ध है, उसमें उनके अनुयायी भुवनहित सूचन है कि वे अंगों की वृत्ति रचनेवाले श्रीअभयदेव उपाध्याय ने संस्कृत प्रशस्ति में श्रीजिनचन्द्रसूरिजी की मूरिजी के वडील गुरुबन्धु थे, उनकी अभ्यर्थना से इस संवेगरंगशाला का संस्मरण इस प्रकार किया है --- ग्रन्थ की रचना सूचित की है।
'ततः श्रीजिनचन्द्राख्यो बभूव मुनिपुंगवः । ___अभयदेवसूरिजी ने अङ्गों (आगम) पर वृत्तियाँ विक्रम संवेगरङ्गशालां यश्चकार च बभार च ॥" संवत् ११२० से ११२८ तक में रचो थी, प्रसिद्ध है।
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इस संवेगरंगशाला के कर्ता ने अन्त में १००२६ गाथा भगवान् श्रेष्ठ श्रीवर्धमानसूरिजी हुए। उनके व्यवहारनय से अपनी परम्परा का वंशवृक्ष सूचित किया है। उसमें और निश्चयनय जैसे अथवा द्रव्यस्तव और भावस्तव जैसे चौवीसवें तीर्थकर भगवान महावीर के अनन्तर सुधर्मा धर्म की परम उन्नति करने वाले दो शिष्य हुए। उनमें स्वामी, जंबूस्वामी, प्रभवस्वामी, शय्यंभव स्वामी की प्रथम श्रीजिनेश्वरसूरि सूर्य जैसे हुए । जिसके उदय पाने परम्परारूप अपूर्व वंशवृक्ष की, वज्रस्वामी की शाखा में पर अन्य तेजस्वि-मंडल की प्रभाका अपहरण हुआ हुए श्रीवर्धमानसूरिजी का वर्णन १००३४, ३५ गाथा में था। जिसके हर-हास और हंस जैसे उज्ज्वल गुणों के किया है। उनके दो शिष्य (१) जिनेश्वरसूरि और (२) समूह को स्मरण करते हुए भव्यजन आज भी अंगों पर बुद्धिसागरसूरि का परिचय १००३६ से १००३६ गाथाओं रोमांच को धारण करते हैं । में कराया है
और दूसरे, निपुण श्रेष्ठ व्याकरण प्रमुख बहु शास्त्रकी "तस्साहाए निम्मलजसधवलो सिद्धिकामलोयाणं ।। रचना करने वाले बुद्धिसागरसूरि नाम से जगत् में सविसेसवंदणिज्जो य, रायणा थो(थे) रप्पवग्गोव्व ॥ प्रख्यात हुए।
१००३४ ॥ उनके (दोनों के) पद-पंकज और उत्संग-संग से कालेणं संभूओ, भयवं सिरिवद्धमाण मुणिवसभो। परम माहात्म्य पानेवाला प्रथम शिष्य जिनचन्द्रसरि निप्पडिम पसमलच्छो-विच्छड्डाखंड-भंडारो ॥ १००३५॥ नामवाला उत्पन्न हुआ । और दूसरा शिष्य अभयदेवसरि ववहार-निच्छयनय व, दब-भावत्थय व्व धम्मस्स । पूर्णिमा के चन्द्र जैसा, भव्यजनरूप कुमुदवन को विकस्वर परमुन्नइजणगा तस्स, दोणि सीसा समुप्पण्णा ॥ करनेवाला हुआ। [-- इसके पीछे का १००४१ से
॥१००३६।। १००४४ तक गाथा का सम्बन्ध उपर आ गया है ] पढमो सिरिसूरिजिणेसरो त्ति, सूरो ब्व जम्मि उद्यम्मि । १००४५ गाथा में ग्रन्थकार ने सूचित किया है किहोत्था पहाऽवहारो, दूरंत-तेयस्सि चक्कस्स ॥ १०० ३७ ॥ श्रमण मधुकरों के हृदय हरनेवाली इस आराधनामाला अज्ज वि य जस्स हरहास-हंसगोरं गुणाण पत्भारं । (संवेगरंगशाला) को भव्य जन अपने सुख (शुभ) निमित सुमरंता भव्वा उवहंति रोमंचमंगेसु ॥ १००३८ ।। विलासी जनोंकी तरह सर्व आदर से अत्यन्त सेवन करें। बीओ पूण विरइय-निउण-पवर वागरण-पमह-बहसत्यो। १००४६ से १००५४ गाथाओं में कृतज्ञताका और रचना नामेण बुद्धिसागर सूरित्ति अहेसि जयपयडो ॥१००३६॥ स्थलका सूचन किया है कि - "सुगुण मुनिजनों के पदतेसि पय-पंक उच्छंग-संग-संपत्त-परम-माहप्पो।
प्रणाम से जिसका भाल पवित्र हुआ है, ऐसे सुप्रसिद्ध श्रेष्ठी सिस्सो पढमोजिणचंदसूरि नामो समुप्पन्नो ॥१.० ४०॥ गोवर्धन के सुत विख्यात जजनाग के पुत्र जो सुप्रशस्त अन्नो य पुन्निमाससहरो ब्व, निव्वविय-भव्व-कुमुयवणो ।' तीर्थयात्रा करने से प्रख्यात हुए, असाधारण गुणों से जिन्होंने [ गाथा १००४१ से १००४४ तक पहिले दर्शाया है ] उज्ज्वल विशाल कीर्ति उपार्जित की है । किबिबोंकी
भावार्थ:-उन (वज्रस्वामी) की शाखा में काल-क्रम प्रतिष्ठा कराना, श्रुतलेखन वगैरह धर्मकृत्यों द्वारा से निर्मल उज्ज्वल यशवाले, सिद्धि चाहने वाले लोगों के आत्मोन्नति करनेवाले, अन्य जनों के चित्त को चमत्कार लिए राजा द्वारा स्थविर आत्मवर्ग की तरह (?) विशेष करनेवाले, जिनमत-भावित बुद्धिवाले सिद्ध और वीर वंदनीय, अप्रतिम प्रशमलक्ष्मीवैभव के अखंड भण्डार, नामवाले श्रेष्ठियों के परम साहाय्य और आदर से यह
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। १४ ]
रचना की है। इस आराधना की रचना से हमने जो पाठकों को स्मरण रहे कि, इस संवेगरंगशाला कुछ कुशल (पुण्य) उपार्जन किया, उससे भव्यजन , जिन- आराधना रचनेवाले श्रोजिनचंद्रसूरिजी के गुरुवर्य श्री जिनेवचन का परम आराधना को प्राप्त करें। छत्रा- श्वरसूरिजी ने गुजरात में अहिलबाड पत्तन (पाटण) में वल्लिपुरी में जेज्जयके पुत्र पासनाग के भुवन में विक्रमनृप दुर्लभराज राजा की सभा में चैत्यवासियों को वाद में के काल से ११२५ वर्ष व्यतीत होने पर स्फुट प्रकट परास्त किया था, 'साधुओं को चैत्य में वास नहीं करना पदार्थवाली यह आराधना सिद्धि को प्राप्त हुई है। इस चाहिये, किन्तु गृहस्थों के निर्दोष स्थान (वसति) में वास रचनाको, विनय-नय-प्रधान, समस्त गुणों के स्थान, जिनदत्त करना चाहिए'-ऐसा स्थापित किया था। उपर्युक्त निर्णय गणि नामक शिष्य ने प्रथम पुस्तक में लिखी। संमोह को के अनुसार जिनेश्वरसूरिजी के प्रथम शिष्य जिनचन्द्रसूरिजी दूर करने के लिए गिनती से निश्चय करके इस ग्रन्थ में ने इस ग्रन्थ की रचना पूर्वोक्त गृहस्थ के भवन में ठहर कर तिरेपन गाथा से अधिक दस हजार गाथाएँ स्थापित की थी। उपर्युक्त घटना का उल्लेख जिनदत्तसूरिजी के प्रा. की हैं।
गणधरसार्धशतक में, तथा उनके अनेक अनुयायियों ने अन्त में संस्कृत के गद्य में उल्लेख है कि, श्रीजिनचन्द्र
अन्यत्र प्रसिद्ध किया है, जो जेसलमेर भण्डार की ग्रन्थसूची सूरि कृत, उनके शिष्य प्रसन्नचन्द्राचार्य-समभ्यथित, गणचन्द्र
(गा० ओ० सि० नं० २१), तथा अपभ्रंशकाव्यत्रयी (गा० . गणि-प्रतिसंस्कृत, और जिनवल्लभगणि द्वारा संशोधित
ओ०सि० नं०२७) के परिशिष्ट आदि के अवलोकन से ज्ञात संबेगरंगशाला नामकी आराधना समाप्त हुई।
होगा। खरतरगच्छ वालों की मान्यता यह है कि, उस वाद अन्तमें प्रति-पुस्तक लिखने का समय संवत् १२०७ में विजय पाने से महाराजा ने विजेता जिनेश्वर सूरिजीको (सं० १२०३ नहीं) और स्थान वटपद्रक में (अर्थात् इस 'खरतर' शब्द कहा या विरुद दिया। इसके बाद उनके बड़ौदा में समझना चाहिये । ) [प्रकाशित आवृत्ति में अनुयायी खरतरगच्छ वाले पहचाने जाते हैं। दुर्लभराज दंडोवासरे प्रतिपत्तौ छपा है. वहाँ दडश्रीवोसरि
का राज्य समय वि० सं० १०६५ से १०७८ तक प्रसिद्ध प्रतिपत्तौ होना चाहिए, मैंने अन्यत्र दर्शाया है । [देखें, जे० है, तो भी खरतरगच्छ की स्थापना का समय सं० १०८० भां० सूचीपत्र (गा० ओ० सि० नं० २१ पृ० २१, ‘वटपद्र माना जाता है। (बड़ौदा) का ऐतिहासिक उल्लेखो' हमारा 'ऐतिहासिक
संवेगरंगशालाकार इस जिनचन्द्रसूरिजी की प्रभावकता के लेख संग्रह' सयाजी साहित्यमाला क्र० ३३५ वगैरह)
___कारण खरतरगच्छ की पट्ट-परम्परा में उनसे चौधे पट्टवर ग्रन्थ निर्दिष्ट नाम-वर्धमानसूरिजी की संवत् ।
' का नाम 'जिनचन्द्रसूरि' रखने की प्रथा है। १०५५ में रचित उपदेशपद-वृत्ति. जिनेश्वरसरिजी की
आराधना-शास्त्रकी संकलना जावालिपुरमै सं० १०८० में रचित अष्टकप्रकरणवृत्ति,
प्रतिष्ठित पूर्वाचार्यों से प्रशंसित इस संवेगरंगशाला प्रमालक्ष्म आदि, तथा बुद्धिसागरसूरिजी का सं० १०८० में
आराधना ग्रन्य-अथवा आराधना शास्त्र को संकलना श्रेष्ठ रचित व्याकरण (पंचग्रन्थो), और अभयदेव सूरिज़ी की सं० । ११२० से ११२८ में रचित स्थानांग वगैरह अंगोंकी
कवि श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने परम्परा-प्रस्थापित सरल सुबोध वृत्तियों की प्राचीन प्रतियों का निर्देश हमने 'जेसलमेर- प्राकृत भाषा में को, उचित किया है। प्रारम्भ में शिष्टाभण्डार-ग्रन्थसूची' (गा० ओ० सि० नं० २१) में किया है, चार-परिपालन करने के लिए विस्तार से मंगल, अभिधेय, जिज्ञासुओं को अवलोकन करना चाहिए।
सम्बन्ध, प्रयोजनादि दर्शाया है। ऋषभादि सर्व तीर्थाधिप
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महावीर, सिद्धों, गौतमादि गणधरों, आचार्यो, उपा- भी, और कभी भी बाधित न हो। वैसा अनुपम अत्यन्त ध्यायों और मुनियों को प्रणाम करके सर्वज्ञको महावाणी एकान्तिक परम हित (सुख) मोट में होता है, और मोक्ष को भी नमन किया है। प्रवचन की प्रशंसा करके, निर्या- कर्मोंके क्षयसे होता है. और कर्मक्षय, विशुद्ध आराधना मक गुरुओं और मुनियों को भी नमस्कार किया है। आराधित करनेसे होता है। इसलिए हितार्थी जनोंको सुगति गमन की मूलपदवी चार स्कन्धरूप यह आराधना आराधनामें सदा यत्न करना चाहिए; क्योंकि, उपायके जिन्होंने प्राप्त की, उन मुनियों को वन्दन किया और गृहस्थों विरहसे उपेय ( प्राप्त करने योग्य साध्य ) प्राप्त नहीं हो को अभिनन्दन दिया (गा० १४), मजबूत नाव जैसी यह सकता। आराधना भगवती जगत् में जयवंती रहो, जिस पर आराधना करने के मनवालों को उस अर्थ को प्रकट करने आरूढ होकर भव्य भविजन रौद्र भव-समुद्र को तरते हैं। वाले शास्त्रों का ज्ञान चाहिए। इसलिए 'गृहस्थों और वह श्रतदेवी जयवती है कि, जिसके प्रसाद से मन्दमति
साधओं दोनों विषयक इस आराधना शास्त्रको मैं तुच्छ जन भी अपने इच्छित अर्थ निस्तारण में समर्थ कवि होते बद्धि वाला होने पर भी कहूँगा । आराधना चाहने वाले हैं। जिन के पद-प्रभाव से मैं सकल जन-श्लाघनीय पदवीको को चाहिए कि वह मन, वचन, काया इस त्रिकरण का पाया है, विबुध जनों द्वारा प्रणत उन अपने गुरुओंको मैं रोध करे।' प्रणिपात करता हूँ। इस प्रकार समस्त स्तुति करने योग्य इस आराधना भाग्त्रमें (१) परिकर्म-विधान (२) शास्त्र विषयक प्रस्तुत स्तुतिरूप गजघटाद्वारा सुभटकी तरह पराण-संक्रमण (३) ममत्वव्यच्छेद और (४) समाधिजिसने प्रत्यह (विघ्न)-प्रतिपक्ष विनष्ट किया है, ऐसा मैं लाभ नामवालेचार स्कन्ध (विभाग) हैं। स्वयं मन्दमति होने पर भी बड़े गुण-गणसे गुरु ऐसे पहिले (१) परिकर्म-विधान में (१) अर्ह (२) लिङ्ग, सुगुरुओं के चरण-प्रसादसे भव्य जनोंके हित के लिए कुछ (३) शिक्षा. (५) विनय, (५) समाधि, (६) मनोऽनुशास्ति, कहता हूँ । (१६)
(७) अनियत विहार, (८) राजा (६) परिणाम साधारण भयंकर भवाटवी में दुर्लभ मनुष्यत्व, और सुकुलादि ठाके १० विनियोग स्थानों, (१०) त्याग, (११) पाकर, भावि भद्रपनसे, भयके शेषफ्नसे, अत्यन्त दुर्जय दर्शन- मरण-विभक्ति-१७ प्रकारके मरणों पर विचार, (१२) मोहनीय के अबलपनसे, सुगरुके उपदेशसे अथवा स्वयं कर्म- अधिकृत मरण, (१३) सीति (श्रेणी), (१४) भावना और ग्रन्थिरे भेदसे, भारी पर्वत नदीसे हरण किये जाते लोगोंको (१५) संलेखना इस प्रकारके १५ द्वारों को विविध बोधक नदी-तटका प्रालंब (प्रकृष्ट अवलम्बन मिल जाय, अथवा दृष्टान्तोंसे स्पष्ट रूपमें समझाया है। रंकजनोंको निधान प्राप्त हो जाय, अथवा विविध व्याधि- दूसरे (२) परगण-संक्रमण स्कन्ध (विभाग) में (१) पीडित जनोंको सुवैद्य मिल जाय, अथवा कुएंके भीतर गिरे दिशा, (२) क्षामणा, (३) अनुशास्ति, (४) सुस्थित गवेहुए को समर्थ हस्तावलंब मिल जाय; इसी तरह सविशेष षणा, (५) उपसंपदा, (६) परीक्षा, (७) प्रतिलेखना, (८) पुण्यप्रकर्षसे पाने योग्य, चिन्तामणि रत्न और कस्पवृक्षको पृच्छा, (६) प्रतीक्षा, (१०) जोतने वाले, निष्कलंक परम (श्रेष्ठ) सर्वज्ञ-धर्म को पाकर, इस प्रकार दस द्वारोंको विविध दृष्टान्तोंसे स्पष्टरूप में अपने हितकी ही गवेषणा करनी चाहिए। वह हित ऐसा समझाया है । हो कि, जो अहितसे नियमसे निश्चयसे) कहीं भी, किससे तीसरे (३) ममत्वव्युच्छेद स्कन्ध (विभाग) में (१)
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आलोचना विधान, (२) शय्या, (३) संस्तारक, (४) निर्या- कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यके स्वोपज्ञ विवरण वाले मक, (५) दर्शन, (६) हानि, (७) प्रत्याख्यान, (८) संस्कृत योगशास्त्रसे भी परामर्श सूचित किया था। इस खामणा- क्षमापना, (६) क्षमा इस तरह नौ द्वारों को संवेगरंगशालाकी रचना विक्रमसंवत् ११२५ में, और विविध दृष्टान्तोंसे स्पष्ट समझाया है।
श्री हेमचन्द्राचार्य का जन्म विक्रमसंवत् ११४५ में (बीस वर्ष ___ चोथे (४) समाधि-लाभ नामक स्कन्ध (विभाग) में पीछे) हुआ था, प्रसिद्ध है। (१) अनुशास्ति, (२) प्रतिपत्ति, (३) सा(स्मा)रणा, (४) संवेगरंगशालामें परिणामद्वारमें आयुष्यपरिज्ञानके कवच, (५) समता, (६) ध्यान, (७) लेश्या, (८) आरा- जो ११ द्वारों (१) देवता, (२) शकुन, (३) उपश्रुति, (४) धना-फल और (6) विजहना द्वारमें अनेक ज्ञातव्य विषय छाया, (५) नाडी, (६) निमित्त, (७) ज्योतिष, (८) समझाये गये है।
स्वप्न, (6) अरिष्ट, (१०) यन्त्र-प्रयोग और (११) विद्या-इपके (१) अनगास्ति द्वारमें त्याग करने योग्य द्वार दर्शाये हैं। इसी तरह श्रीहेमचन्द्राचार्यने अपने संस्कृत १८ अठारह पापस्थानकों के विषय में, (२) त्याग करने योगशास्त्रमें (पांचवें प्रकाशमें) काल-ज्ञानका विचार योग्य ८ आठ प्रकारके मदस्थानों के विषयमें, (३) त्याग ।
विस्तारसे दर्शाया है। तुलनात्मक दृष्टिसे अभ्यास करने करने योग्य क्रोधादि कपायोंके विषयमें, ४) त्याग करने योग्य है। योग्य ५ पांच प्रकार के प्रमाद के विषय में, (५) प्रतिबन्ध-त्याग
पाटण और जेसलमेर आदिके जैन ग्रन्थभंडारों में विषयमें, (६) सम्यक्त्व- स्थिरता के विषयमें, (७) अहन आदि आरधना-विषयक छोटे-मोटे अनेक ग्रन्थ है, सूचीपत्रमें छःकी भक्तिमत्ता के विषयमें, (८) पंचनमस्कारतत्परता के दर्शाये हैं। इन सबका प्राचीन आधार यह संवेगरंगशाला विषयमें, (8) सम्यग ज्ञानोपयोग के विषयमें, १०) पंच आराधनाशास्त्र मालूम होता है। वर्तमानमें, अन्तिम महादात विषयमें, (११) चतु:शरण-गमन, (१२. दुष्कृत-गीं, आराधना कराने के लिए सुनाया जाता आराधना प्रकीर्णक, (१३) मृकृतों की अनुमोदना, (१४, अनित्य आदि १२ चउ परणपयन्ना और उ० विनय विजयजी म० का पुण्यबारह भावना, (१५) शील-पालन, (१६) इन्द्रिय-दमन,
प्रकाश स्तवन इत्यादि इस संवेगरंगशाला ग्रन्थका 'ममत्व(१७) तपमें उद्यम और १८) निःशल्यता-नियाण-निदान. व्युच्छेद' 'समाध-लाभ' विभागका संक्षेप है- ऐसा अवलोमाया, मिथ्यात्व-शल्य-त्याग इस प्रकार १८ द्वारों को कनसे प्रतीत होगा। अन्य व्यतिरेकसे विविध दृष्टान्तों द्वारा विवेचन करके दस हजारसे अधिक ५३ प्राकृत गाथाओंका सार इस अच्छी तरहसे समझाया गया है।
संक्षिप्त लेखमें दिगदर्शन रूप सूचित किया है। परम उपइसके प्रथम स्कन्धके परिणाम द्वार में श्रावकोंकी ११
कारक इस ग्रन्धका पठन-पाठन, व्याख्यान, श्रवण, अनुवाद प्रतिमाओं के अनन्तर साधारण द्रव्यके १० विनियोग
आदिसे प्रसारण करना अत्यन्त आवश्यक है, परम हितकारक स्थान दर्शाये हैं, विचारने समझने योग्य हैं; अन्य ७क्षेत्रों स्व
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नो स्वपरोपकारक है। में द्रव्यापन करने का उपदेश है। आजसे २६ वर्ष पहिले
आशा है, चतुर्विध थीसंघ इस आराधना शास्त्रके मैंने १ लेख 'सशील जैन महिलाओनां संस्मरणो' मंबई और प्रचारमें सब प्रकारसे प्रयत्न करके महसेन राजाकी तरह मांगरोल जैन सभाके सूवर्णमहोत्सव अंकके लिए गजराती में आत्महितके साथ परोपकार साधेगे। मुमुक्षु जन आराधना लिखा था, वह संवत् १९६८ में प्रकाशित हुआ था।
रसायनसे उनसे अजरामर बने—यही शुभेच्छा । और 'सयाजी सा'हत्यमाला' पुष्प ३३५ में हमारे
संवत् २०२७ पोषवदि ३ गुरु 'ऐतिहासिक लेखसंग्रह में | क्र. १०, ३३१ से ३४७
( मकर-संक्रान्ति ) में] संवत् २०५६ में प्राच्यविद्यामन्दिर द्वारा महाराजा
बड़ी बाड़ी, रावपुरा, सयाजीराव युनिवर्सिटी, बड़ौदासे प्रकाशित है। उसमें मैंने
बड़ौदा ( गुजरात ) इस संवेगरंगशाला में से श्रमणी और श्रावक, श्राविका
लालचन्द्र भगवान् गांधी स्थानों के लिए द्रव्य-विनियोग वक्तव्य दर्शाया था। साथमें
[ निवृत्त 'जनपण्डित' बड़ौदा राज्य ]
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प्रथम नरेश्वर और प्रथमतीर्थङ्ककर भगवान ऋषभदेव १ भगवान का कर्मभूभियोग्य विविध कला सिखाना
३ भरत चक्रवर्ती की आयुधशाला में चक्र का प्राकट्य २ ब्राह्मी सुन्दरी को ब्राह्मी लिपी आदि सिखाना
४ समवशरण में चतुर्विध संघ स्थापन बारह परिषद में धर्म देश ५ कैलाश पर्वत पर निर्वाण, सिद्ध शिला पर विराजमान प्रभु
चित्रकार-इन्द्र दुगड जैन भवन के सौजन्य से
a national
Jain Educan
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________________ श्रीनिश्वमूरयः ENSE COM - साधु साध्वी सहित भक्त श्रावक संघ को आशीर्वाद देते हुए युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरि (ची किनवहत |