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महावीर, सिद्धों, गौतमादि गणधरों, आचार्यो, उपा- भी, और कभी भी बाधित न हो। वैसा अनुपम अत्यन्त ध्यायों और मुनियों को प्रणाम करके सर्वज्ञको महावाणी एकान्तिक परम हित (सुख) मोट में होता है, और मोक्ष को भी नमन किया है। प्रवचन की प्रशंसा करके, निर्या- कर्मोंके क्षयसे होता है. और कर्मक्षय, विशुद्ध आराधना मक गुरुओं और मुनियों को भी नमस्कार किया है। आराधित करनेसे होता है। इसलिए हितार्थी जनोंको सुगति गमन की मूलपदवी चार स्कन्धरूप यह आराधना आराधनामें सदा यत्न करना चाहिए; क्योंकि, उपायके जिन्होंने प्राप्त की, उन मुनियों को वन्दन किया और गृहस्थों विरहसे उपेय ( प्राप्त करने योग्य साध्य ) प्राप्त नहीं हो को अभिनन्दन दिया (गा० १४), मजबूत नाव जैसी यह सकता। आराधना भगवती जगत् में जयवंती रहो, जिस पर आराधना करने के मनवालों को उस अर्थ को प्रकट करने आरूढ होकर भव्य भविजन रौद्र भव-समुद्र को तरते हैं। वाले शास्त्रों का ज्ञान चाहिए। इसलिए 'गृहस्थों और वह श्रतदेवी जयवती है कि, जिसके प्रसाद से मन्दमति
साधओं दोनों विषयक इस आराधना शास्त्रको मैं तुच्छ जन भी अपने इच्छित अर्थ निस्तारण में समर्थ कवि होते बद्धि वाला होने पर भी कहूँगा । आराधना चाहने वाले हैं। जिन के पद-प्रभाव से मैं सकल जन-श्लाघनीय पदवीको को चाहिए कि वह मन, वचन, काया इस त्रिकरण का पाया है, विबुध जनों द्वारा प्रणत उन अपने गुरुओंको मैं रोध करे।' प्रणिपात करता हूँ। इस प्रकार समस्त स्तुति करने योग्य इस आराधना भाग्त्रमें (१) परिकर्म-विधान (२) शास्त्र विषयक प्रस्तुत स्तुतिरूप गजघटाद्वारा सुभटकी तरह पराण-संक्रमण (३) ममत्वव्यच्छेद और (४) समाधिजिसने प्रत्यह (विघ्न)-प्रतिपक्ष विनष्ट किया है, ऐसा मैं लाभ नामवालेचार स्कन्ध (विभाग) हैं। स्वयं मन्दमति होने पर भी बड़े गुण-गणसे गुरु ऐसे पहिले (१) परिकर्म-विधान में (१) अर्ह (२) लिङ्ग, सुगुरुओं के चरण-प्रसादसे भव्य जनोंके हित के लिए कुछ (३) शिक्षा. (५) विनय, (५) समाधि, (६) मनोऽनुशास्ति, कहता हूँ । (१६)
(७) अनियत विहार, (८) राजा (६) परिणाम साधारण भयंकर भवाटवी में दुर्लभ मनुष्यत्व, और सुकुलादि ठाके १० विनियोग स्थानों, (१०) त्याग, (११) पाकर, भावि भद्रपनसे, भयके शेषफ्नसे, अत्यन्त दुर्जय दर्शन- मरण-विभक्ति-१७ प्रकारके मरणों पर विचार, (१२) मोहनीय के अबलपनसे, सुगरुके उपदेशसे अथवा स्वयं कर्म- अधिकृत मरण, (१३) सीति (श्रेणी), (१४) भावना और ग्रन्थिरे भेदसे, भारी पर्वत नदीसे हरण किये जाते लोगोंको (१५) संलेखना इस प्रकारके १५ द्वारों को विविध बोधक नदी-तटका प्रालंब (प्रकृष्ट अवलम्बन मिल जाय, अथवा दृष्टान्तोंसे स्पष्ट रूपमें समझाया है। रंकजनोंको निधान प्राप्त हो जाय, अथवा विविध व्याधि- दूसरे (२) परगण-संक्रमण स्कन्ध (विभाग) में (१) पीडित जनोंको सुवैद्य मिल जाय, अथवा कुएंके भीतर गिरे दिशा, (२) क्षामणा, (३) अनुशास्ति, (४) सुस्थित गवेहुए को समर्थ हस्तावलंब मिल जाय; इसी तरह सविशेष षणा, (५) उपसंपदा, (६) परीक्षा, (७) प्रतिलेखना, (८) पुण्यप्रकर्षसे पाने योग्य, चिन्तामणि रत्न और कस्पवृक्षको पृच्छा, (६) प्रतीक्षा, (१०) जोतने वाले, निष्कलंक परम (श्रेष्ठ) सर्वज्ञ-धर्म को पाकर, इस प्रकार दस द्वारोंको विविध दृष्टान्तोंसे स्पष्टरूप में अपने हितकी ही गवेषणा करनी चाहिए। वह हित ऐसा समझाया है । हो कि, जो अहितसे नियमसे निश्चयसे) कहीं भी, किससे तीसरे (३) ममत्वव्युच्छेद स्कन्ध (विभाग) में (१)
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