________________
__ भावार्थ:--उसके बाद (श्रोजिनेश्वरसूरिजी के पीछे) रिक्त संघपुर-जैन मन्दिर की भित्ति में लगे हुए प्रायः श्रीजिनचन्द्र नामके श्रेष्ठ सूरि हुए, जिसने संवेगरंगशाला सं० १३२६ (?) के अपूर्ण शिलालेख की नकल स्व• बुद्धि- की, और धारण-पोषण की। सागरसूरिजी की प्रेरणा से 'बीजापुर-वृत्तान्त' के लिए
-उत्तमोत्तम यह संवेगरंगशाला ग्रन्थ कई वर्षों के मैंने ५४ वर्ष पहिले उद्धृत की थी, उसमें यह पद्य है
पहिले श्री जिनदत्तसूरि-ज्ञानभंडार, सूरत से तीन हजार "संवेगरङ्गशाला सुरभिः सुरविटपि-कुसुममालेव ।
पद्य-प्रमाण अपूर्ण प्रकाशित हुआ था। दस हजार, तिरेपन शुचिसरसाऽमरसरिदिव यस्य कृतिर्जयति कीतिरिव ।।
गाथा प्रमाण परिपूर्ण ग्रन्थ आचार्यदेवविजयमनोहरसूरि भावार्थ:-जिसकी (श्रीजिनचन्द्रसूरिजी की) कृति शिष्याणु मुनि परम-तपस्वी श्री हेमेन्द्रविजयजी और संवेगरंगशाला सुगन्धि कल्पवृक्ष की कुसुममाला जैसी और पं० बाबूभाई सवचन्द के शुभ प्रयत्न से संशोधित संपादित पवित्र सरस गंगानदी जैसी, और उनकी कीर्ति जैसी जयवती होकर, विक्रम संवत् २०२५ में अणहिलपुर पत्तनवासी
झवेरी कान्तिलाल मणिलाल द्वारा मोहमयी मुम्बापुरी
से पत्राकार प्रकाशित हुआ है । मूल्य साढ़े बारह रुपया है । उनकी परम्परा के चन्द्रतिलक उपाध्याय ने वि० सं० गत सप्ताह में ही संपादक मुनिराज ने कृपया उसकी १ प्रति १३१२ में रचे हुए सं० अभयकुमार चरित काव्य में दो हमें भेंट भेजी है। पद्य हैं कि
इस ग्रन्थ के टाइटल के ऊपर तथा समाप्ति के पीछे कर्ता "तस्याभूतां शिष्यो, तत्प्रथमः सूरिराज जिनचन्द्रः। श्रीजिनचन्द्रसुरिजी का विशेषण तपागच्छीय छपा है, घट संवेगरङ्गशालां, व्यधित कथां यो रसविशालाम् ॥
नहीं सकता । 'तपागच्छ' नामकी प्रसिद्धि सं० १२८५ से बृहन्नमस्कारफल, श्रोतृलोकसुधाप्रपाम् ।
श्रीजगच्चन्द्रसूरिजी से है, और इस ग्नन्थ की रचना वि. चक्र क्षपक शिक्षां च, यः संवेगविवृद्धये ॥"
संवत् ११२५ में अर्थात् उससे करीब डेढ़ सौ वर्ष पहिले भावार्थः --उनके (श्रीजिनेश्वर सूरिजी के) दो शिष्य हुई थी। और वहाँ गुजराती प्रस्तावना में इस ग्रन्थकार हुए। उनमें प्रथम सूरिराज जिनचन्द्र हुए ; जिसने रस- श्रीजिनचन्द्रसूरिजी को समर्थ तार्किक महावादी श्री सिद्धविशाल श्रोता लोगों के लिये अमृत-परब जैसी संवेगरंगशाला सेन दिवाकर सूरिजी कृत संमतितर्क ग्रन्थ पर असाधारण कथा की, और जिसने बृहन्नमस्कारफल तथा संवेग की टीका लिखनेवाले पू० आचार्यदेव श्रीअभयदेवसूरिजी विवृद्धि के लिये क्षपकशिक्षा की थी।
___ महाराज के वडील गुरुबन्धु सूचित किया, वह उचित राजगृह में विक्रम को पन्द्रहवीं शताब्दी का जो नहीं है । इस संवेगरंगशाला की प्रान्त प्रशस्ति में स्पष्ट शिलालेख उपलब्ध है, उसमें उनके अनुयायी भुवनहित सूचन है कि वे अंगों की वृत्ति रचनेवाले श्रीअभयदेव उपाध्याय ने संस्कृत प्रशस्ति में श्रीजिनचन्द्रसूरिजी की मूरिजी के वडील गुरुबन्धु थे, उनकी अभ्यर्थना से इस संवेगरंगशाला का संस्मरण इस प्रकार किया है --- ग्रन्थ की रचना सूचित की है।
'ततः श्रीजिनचन्द्राख्यो बभूव मुनिपुंगवः । ___अभयदेवसूरिजी ने अङ्गों (आगम) पर वृत्तियाँ विक्रम संवेगरङ्गशालां यश्चकार च बभार च ॥" संवत् ११२० से ११२८ तक में रचो थी, प्रसिद्ध है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org