Book Title: Jain Dharm me Mukti ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म में मुक्ति की अवधारणा एक तुलनात्मक अध्ययन : जैन दर्शन के अनुसार संवर के द्वारा कर्मों के आगमन का निरोध हो जाने पर और निर्जरा के द्वारा समस्त पुरातन कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा की जो निष्कर्म शुद्धावस्था होती है, उसे 'मोक्ष' कहा जाता है। कर्म मलों के अभाव में कर्म-जनित आवरण या बन्धन भी नहीं रहते और यह बन्धन का अभाव ही मुक्ति है। मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपावस्था है। अनात्मा अर्थात् पर में ममत्व या आसक्ति रूप आत्माभिमान का दूर हो जाना ही मुक्ति है । यही आत्मा की शुद्धावस्था है बन्धन और मुक्ति की यह समग्र व्याख्या पर्यायदृष्टि का विषय है। आत्मा की विरूप पर्याय ही बन्धन है और स्वरूप पर्याय मोक्ष है पर पदार्थ, पुगल परमाणु या जड़ कर्म वर्गणाओं के निमित्त से आत्मा में जो पर्याये उत्पन्न होती है और जिनके कारण पर मैं ( मेरा पन) उत्पन्न होता है यही विरूप पर्याय है, परपरिणति है, स्व की पर में अवस्थिति है, यही बन्धन है और इसका अभाव ही मुक्ति है। बन्धन और मुक्ति दोनों एक ही आत्म-द्रव्य या चेतना की दो अवस्थाएँ मात्र हैं, जिस प्रकार स्वर्ण कुण्डल और स्वर्ण मुकुट स्वर्ण की दो अवस्थाएँ हैं। लेकिन यदि मात्र विशुद्ध तत्त्वदृष्टि से विचार किया जाए तो बन्धन और मुक्ति दोनों की व्याख्या सम्भव नहीं है, क्योंकि आत्मतत्त्व स्व स्वरूप का परित्याग कर परस्वरूप में कभी भी परिणित नहीं होता। विशुद्ध तत्त्वदृष्टि से तो आत्मा नित्य मुक्त है। लेकिन जब तत्व की पर्यायों के सम्बन्ध में विचार प्रारम्भ किया जाता है, तो बन्धन और मुक्ति की सम्भावनाएँ स्पष्ट हो जाती हैं, क्योंकि बन्धन और मुक्ति पर्याय अवस्था में ही सम्भव होती हैं। मोक्ष को तत्त्व माना गया है लेकिन वस्तुतः मोक्ष बन्धन के अभाव का ही नाम है। जैनागमों में मोक्ष तत्त्व पर तीन दृष्टियों से विचार किया गया है - १. भावात्मक दृष्टिकोण २. अभावात्मक दृष्टिकोण ३. अनिर्वचनीय दृष्टिकोण | मोक्ष पर भावात्मक दृष्टिकोण से विचार जैन दार्शनिकों ने मोक्षावस्था पर भावात्मक दृष्टिकोण से विचार करते हुए उसे निर्बाध अवस्था कहा है। मोक्ष में समस्त बाधाओं के अभाव के कारण आत्मा के निज गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते हैं। मोक्ष बाधक तत्त्वों की अनुपस्थिति और पूर्णता का प्रगटन है। आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष की भावात्मक दशा का चित्रण करते हुए उसे शुद्ध, अनन्त चतुष्टय युक्त, अक्षय, अविनाशी, निर्बाध अतीन्द्रिय अनुपम, नित्य, अविचल एवं अनालम्ब कहा है। आचार्य उसी ग्रन्थ में आगे चलकर मोक्ष में निम्न बातों की विद्यमानता की सूचना करते हैं- (१) पूर्णज्ञान (२) पूर्णदर्शन (३) पूर्णसौख्य (४) पूर्णवीर्य (शक्ति) (५) पूर्णदर्शन (६) अस्तित्व (७) सप्रदेशता आचार्य कुन्दकुन्द ने । मोक्ष-दशा के जिन सात भावात्मक तथ्यों का उल्लेख किया है वे सभी भारतीय दर्शनों को स्वीकार नहीं हैं। वेदान्त सप्रदेशता को अस्वीकार कर देता है सांख्य सौख्य एवं वीर्य को तथा न्याय-वैशेषिक ज्ञान और दर्शन को भी अस्वीकार कर देते हैं। बौद्ध-शून्यवाद अस्तित्व का भी निरास कर देता है और चार्वाक दर्शन मोक्ष की अवधारणा को ही समाप्त कर देता है। वस्तुतः मोक्षावस्था को अनिर्वचनीय मानते हुए भी विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं के प्रति उत्तर के लिए ही मोक्ष की इस भावात्मक अवस्था का चित्रण किया गया है। भावात्मक दृष्टि से जैन विचारणा मोक्षावस्था में अनन्त चतुष्टय की उपस्थिति पर बल देती है अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति को जैन विचारणा में अनन्त चतुष्टय कहा जाता है। बीज रूप में वह अनन्त चतुष्टय सभी जीवात्माओं में उपस्थित है, मोक्ष- दशा में इनके अवरोधक कर्मों का क्षय हो जाने से ये पूर्ण रूप में प्रगट हो जाते हैं। यह प्रत्येक आत्मा का स्वभाविक गुण है जो मोक्षावस्था में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त हो जाता है। अनन्त चतुष्टय में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त शक्ति और अनन्त सौख्य (अव्यबाघसुख) आते है। लेकिन अष्टकर्मों के प्रहाण के आधार पर सिद्धों के आठ गुणों की मान्यता भी जैन विचारणा में प्रचलित है । १. ज्ञानवरणीय कर्म के नष्ट हो जाने से मुक्तात्मा अनन्त ज्ञान या पूर्ण ज्ञान से युक्त होता है। २. दर्शनावरणीय कर्म के नष्ट हो जाने से अनन्त दर्शन से सम्पन्न होता है। ३. वेदनीय कर्म के क्षय हो जाने से विशुद्ध, अनश्वर, आध्यात्मिक सुखों से युक्त होता है । ४. मोहनीय कर्म नष्ट हो जाने से यथार्थ दृष्टि ( क्षायिक सम्यक्त्व) से युक्त होता है। मोहकर्म के दर्शन मोह और चारित्रमोह ऐसे, दो भाग किए जाते हैं। दर्शनमोह के प्रहाण से यथार्थ दृष्टि और चारित्रमोह के प्राण से यथार्थ चारित्र ( क्षायिक चारित्र) का प्रगटन होता है, लेकिन मोक्ष-दशा में क्रिया रूप चारित्र नहीं होता, मात्र दृष्टि रूप चारित्र होता है अतः उसे क्षायिक सम्यक्त्व के अन्तर्गत ही माना जा सकता है, वैसे आठ कर्मों की प्रकृतियों के प्रहाण के आधार पर सिद्धों के ३१ गुण माने गये हैं, उसमें यथाख्या चारित्र का स्वतंत्र गुण माना गया है। ५ आयुकर्म के क्षय हो जाने से मुक्तात्मा अशरीरी हो जाता है अतः वह इन्द्रियग्राह्य नहीं होता। ७ गोत्रकर्म के नष्ट हो जाने से वह अगुरुलघुत्व से मुक्त हो जाता है अर्थात् सभी सिद्ध समान होते हैं उनमें छोटा-बड़ा या ऊँच-नीच का भाव नहीं होता। ८ अन्तरायकर्म का प्राण हो जाने से बाधा रहित होता है, अर्थात् अनन्त शक्ति सम्पन्न होता है।" अनन्त शक्ति का यह विचार मूलतः निषेधात्मक ही है, यह मात्र बाधाओं का अभाव है। लेकिन इस प्रकार अष्ट कर्मों के प्रहाण के आधार पर मुक्तात्मा के आठ गुण की व्याख्या करना मात्र एक व्यावहारिक संकल्पना ही है, उसके वास्तविक स्वरूप का निर्वाचन नहीं है। व्यावहारिक दृष्टि से उसे समझने का प्रयास मात्र है, जो उसका मात्र व्यवहारिक मूल्य है। वस्तुतः तो वह अनिर्वचनीय है। आचार्य नेमीचन्द्र गोम्मटसार में . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९३ जैन धर्म में मुक्ति की अवधारणा : एक तुलनात्मक अध्ययन स्पष्ट रूप से कहते हैं, सिद्धों के इन गुणों का विधान मात्र सिद्धात्मा नहीं समझाया जा सकता है, क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा के स्वरूप के सम्बन्ध में जो ऐकान्तिक मान्यताएँ हैं, उनके निषेध सकती, वह अनुपम है, अरूपी सत्ताधान है। उस अपद का कोई पद के लिए है। मुक्तात्मा में केवल ज्ञान और दर्शन के रूप में ज्ञानोपयोग नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण और दर्शनोपयोग को स्वीकार करके मुक्तात्मा को जड़ मानने वाली किया जा सके। उसके बारे में केवल इतना ही कहा जा सकता है, वैभाषित बौद्धों और न्याय-वैशेषिक दर्शन की धारणा का प्रतिषेध किया वह अरूप, अरस, अवर्ण, अगंध और अस्पर्श है क्योंकि वह इन्द्रियग्राह्य गया है। मुक्तात्मा के अस्तित्व या अक्षयता को स्वीकार कर मोक्ष को नहीं है। अभावात्मक रूप में मानने वाले जड़वादी तथा सौत्रान्तिक बौद्धों की मान्यता का निरसन किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मोक्ष-दशा गीता में मोक्ष का स्वरूप का समग्र भावात्मक चित्रण अपना निषेधात्मक मूल्य ही रखता है। गीता की समग्र साधना का लक्ष्य परमतत्त्व, ब्रह्म, अक्षर पुरुष यह विधान भी निषेध के लिए है। अथवा पुरुषोत्तम की प्राप्ति कहा जा सकता है। गीताकार प्रसंगान्तर से उसे ही मोक्ष, निर्वाणपद, अव्यय पद, परमपद, परमगति और अभावात्मक दृष्टि से मोक्ष तत्त्व पर विचार परमधाम भी कहता है। जैन एवं बौद्ध विचारणा के समान गीताकार जैनागमों में मोक्षावस्था का चित्रण निषेधात्मक रूप से भी हुआ की दृष्टि में भी संसार पुनरागमन या जन्म-मरण की प्रक्रिया से युक्त है। प्राचीनतम जैनागम आचारांग में मुक्तात्मा का निषेधात्मक चित्रण है जबकि मोक्ष पुनरागमन या जन्म-मरण का अभाव है। गीता का निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया गया है- मोक्षावस्था में समस्त कर्मों साधक इसी प्रेरणा को लेकर आगे बढ़ता है (जरामरणमोक्षाय का क्षय हो जाने से मुक्तात्मा में समस्त कर्म-जन्य उपाधियों का भी ७.२९) और कहता है, “जिसको प्राप्त कर लेने पर पुन: संसार में अभाव होता है, अत: मुक्तात्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्ताकार नहीं लौटना होता है उस परम पद की गवेषणा करनी चाहिए""| है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, न परिमण्डल संस्थान वाला है। गीता का ईश्वर भी साधक को आश्वस्त करते हुए यही कहता है कि वह कृष्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेतवर्ण वाला भी नहीं है, वह सुगन्ध “जिसे प्राप्त कर लेने पर पुन: संसार में आना नहीं होता, वही मेरा और दुर्गन्धवाला भी नहीं है। न वह तीक्ष्ण, कटु, खट्टा, मीठा एवं परमधाम (स्वस्थान) है।" परमसिद्धि को प्राप्त हुए महात्माजन मेरे अम्ल रस वाला है। उसमें गुरु, लघु, कोमल, कठोर, स्निग्ध, रूक्ष, को प्राप्त होकर दु:खों के घर इस अस्थिर पुर्नजन्म को प्राप्त नहीं शीत एवं उष्ण आदि स्पर्श गुणों का भी अभाव है। वह न स्त्री है, होते हैं। ब्रह्मलोक पर्यन्त समग्र जगत् पुनरावृत्ति युक्त है। लेकिन जो न पुरुष है, न नपुंसक है । इस प्रकार मुक्तात्मा में रूप, रस, वर्ण, भी मुझे प्राप्त कर लेता है उसका पुर्नजन्म नहीं होता। १५ मोक्ष के गन्ध और स्पर्श भी नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार में मोक्ष-दशा अनावृत्ति रूप लक्षण को बताने के साथ ही मोक्ष के स्वरूप का निर्वचन का निषेधात्मक चित्रण प्रस्तुत करते हए लिखते हैं मोक्ष-दशा में न करते हुए गीता कहती है- इस अव्यक्त से भी परे अन्य सनातन सुख है न दुःख है, न पीड़ा है, न बाधा है, न जन्म है, न मरण अव्यक्त तत्त्व है, जो सभी प्राणियों में रहते हुए भी उनके नष्ट होने है। न वहाँ इन्द्रियाँ है, न उपसर्ग है, न मोह है, न व्यामोह है, न पर नष्ट नहीं होता है अर्थात् चेतना पर्यायों में जो अव्यक्त है उनसे निद्रा है, न वहाँ चिन्ता है, न आर्त-रौद्र विचार ही है, वहाँ तो धर्म भी परे उनका आधारभूत आत्मतत्त्व है। चेतना की अवस्थाएँ नश्वर (शुभ) और शुक्ल (प्रशस्त) विचारों का भी अभाव है। मोक्षावस्था हैं, लेकिन उनसे परे रहने वाला यह आत्मतत्त्व सनातन है जो प्राणियों तो सर्व संकल्पों का अभाव है, वह बुद्धि और विचार का विषय नहीं में चेतना (ज्ञान) पर्यायों के रूप में अभिव्यक्त होते हुए भी उन प्राणियों है वह पक्षातिक्रांत है। इस प्रकार मुक्तावस्था का निषेधात्मक विवेचन तथा उनका चेतना पर्यायों (चेतन अवस्थाओं) के नष्ट होने पर भी उसकी अनिर्वचनीयता को बताने के लिए है। नष्ट नहीं होता है। उसी आत्मा को अक्षर और अव्यक्त कहा गया है और उसे ही परमगति भी कहते हैं, वही परमधाम भी है, वही मोक्ष का अनिर्वचनीय स्वरूप मेरा परमात्म स्वरूप आत्मा का निज स्थान है, जिसे प्राप्त कर लेने मोक्षतत्त्व का निषेधात्मक निर्वचन अनिवार्य रूप से हमें उसकी पर पुन: निवर्तन नहीं होता। उसे अक्षर ब्रह्म, परमतत्त्व, स्वभाव अनिर्वचनीयता की ओर ले जाता है। पारमार्थिक दृष्टि से विचार करते (आत्मा की स्वभाव-दशा) और आध्यात्म भी कहा जाता है। गीता हुए जैन दार्शनिकों ने उसे अनिर्वचनीय ही माना है। की दृष्टि में मोक्ष निर्वाण है परमशान्ति का अधिष्ठान है। जैन दार्शनिकों आचारांगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है- समस्त स्वर वहाँ के समान गीता भी यह स्वीकार करती है कि मोक्ष सुखावस्था है। से लौट आते हैं, अर्थात् मुक्तात्मा ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की गीता के अनुसार मुक्तात्मा ब्रह्मभूत होकर अनन्त सुख (अनन्त सौख्य) प्रवृत्ति का विषय नहीं है, वाणी उसका निर्वचन करने में कदापि समर्थ का अनुभव करता है।९। यद्यपि गीता एवं जैन दर्शन में मुक्तात्मा में नहीं है। वहाँ वाणी मूक हो जाती है, तर्क की वहाँ तक पहुँच नहीं जिस सुख की कल्पना की गई है वह न ऐन्द्रिय सुख है न वह मात्र है, बुद्धि (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है, अर्थात् वह वाणी, दुःखाभाव रूप सुख है, वरन् वह अतीन्द्रिय ज्ञानगम्य अनश्वर विचार और बुद्धि का विषय नहीं है। किसी उपमा के द्वारा भी उसे सुख है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ बौद्ध दर्शन में निर्वाण का स्वरूप भगवान् बुद्ध की दृष्टि में निर्वाण का स्वरूप क्या है? यह प्रश्न प्रारम्भ से विवाद का विषय रहा है। स्वयं बौद्ध दर्शन के अवान्तर सम्प्रदायों में भी निर्वाण के स्वरूप को लेकर आत्यन्तिक विरोध पाया जाता है। आधुनिक विद्वानों ने भी इस सम्बन्ध में परस्पर विरोधी निष्कर्ष निकाले हैं, जो एक तुलनात्मक अध्येता को अधिक कठिनाई में डाल देते हैं। वस्तुतः इस कठिनाई का मूल कारण पालि निकाय में निर्वाण का विभिन्न दृष्टियों से अलग-अलग प्रकार से विवेचन किया जाना है आदरणीय श्री पुसे एवं प्रोफेसर नलिनाक्ष दत्त ने बौद्ध निर्वाण के सम्बन्ध में विद्वानों के दृष्टिकोणों को निम्र रूप से वर्गीकृत किया है १ (१) निर्वाण एक अभावात्मक तथ्य है। (२) निर्वाण अनिवर्चनीय अव्यक्त अवस्था है। जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ (३) निर्वाण की बुद्ध ने कोई व्याख्या नहीं दी है। (४) निर्वाण भावात्मक विशुद्ध पूर्ण चेतना की अवस्था है। बौद्ध दर्शन के अवान्तर प्रमुख सम्प्रदायों का निर्वाण के स्वरूप के सम्बन्ध में निम्न प्रकार से दृष्टि भेद है— , (१) वैभाषिक सम्प्रदाय के अनुसार निर्वाण संस्कारों या संस्कृत धर्मों का अभाव है, क्योंकि संस्कृत धर्मता ही अनित्यता है, यही बन्धन है, वही दुःख है, लेकिन निर्वाण तो दुःख निरोध है, बन्धनाभाव है इसलिए वह एक असंस्कृत धर्म है और असंस्कृत धर्म के रूप में उसकी भावात्मक सत्ता है। वैभाषिक मत के निर्वाण के स्वरूप को अभिधर्मकोष व्याख्या में निम्न प्रकार से बताया गया है- "निर्वाण नित्य असंस्कृत स्वतन्त्र सत्ता, पृथक् भूत सत्य पदार्थ (द्रव्यसत) है"१३ । निर्वाण में संस्कारों के अभाव का अर्थ अनसित्व नहीं है, वरन् एक भावात्मक अवस्था ही है। निर्वाण असंस्कृत धर्म है। प्रोफेसर शरवात्स्की २४ ने वैभाषिक निर्वाण को अनन्त मृत्यु कहा है। उनके अनुसार निर्वाण आध्यात्मिक अवस्था नहीं वरन् चेतना एवं क्रिया शून्य जड़ अवस्था है। लेकिन समादरणीय एस० के० मुकर्जी, प्रोफेसर नलिनाक्ष दत्त और प्रोफेसर मूर्ति ने प्रोफेसर शरवात्सकी के इस दृष्टिकोण २५ का विरोध किया है। इन विद्वानों के अनुसार वैभाषिक निर्वाण निश्चित रूप से एक भावात्मक अवस्था है। इसमें यद्यपि संस्कारों का अभाव होता है फिर भी उसकी असंस्कृत धर्म के रूप में भावात्मक सत्ता होती है। वैभाषिक निर्वाण में चेतना का अस्तित्व होता है या नहीं? यह प्रश्न भी विवादास्पद है। प्रोफेसर शरवात्सकी निर्वाण-दशा में चेतना का अभाव मानते हैं लेकिन प्रोफेसर मुकर्जी २७ इस सम्बन्ध में एक परिष्कारित दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, उनके अनुसार ( यशोमित्र की अभिधर्मकोष की टीका के आधार पर निर्वाण की दशा में विशुद्ध मानस या चेतना रहती है। (२) डॉ० लाड ने अपने शोध-प्रबन्ध में एवं विद्वत्वर्य बलदेव उपाध्याय ने बौद्ध दर्शन मीमांसा में वैभाषिक बौद्धों के एक तिब्बतीय उप सम्प्रदाय का उल्लेख किया है जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था में केवल वासनात्मक एवं क्लेशोत्पादक (सास्त्रव) चेतना का ही अभाव 2 होता है। इसका तात्पर्य यह है कि निर्वाण की दशा में अनास्त्रव विशुद्ध चेतना का अस्तित्व बना रहता है २८ । वैभाषिकों के इस उप सम्प्रदाय का यह दृष्टिकोण जैन विचारण के निर्वाण के अति समीप आ जाता है, क्योंकि यह जैन विचारणा के समान निर्वाणावस्था में सत्ता (अस्तित्व) और चेतना (ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग) दोनों को स्वीकार करता है। वैभाषिक दृष्टिकोण निर्वाण को संस्कारों की दृष्टि से अभावात्मक, द्रव्य सत्यता की दृष्टि से भावात्मक एवं बौद्धिक विवेचना की दृष्टि से अनिर्वचनीय मानता है फिर भी उसकी व्याख्याओं में निर्वाण का भावात्मक या सत्तात्मक पक्ष अधिक उभरा है। सौत्रान्तिक सम्प्रदाय, वैभाषिक सम्प्रदाय के समान यह मानते हुए भी कि निर्वाण संस्कारों का अभाव है, वह स्वीकार नहीं करता है कि असंस्कृत धर्म की कोई भावात्मक सत्ता होती है। इनके अनुसार केवल परिवर्तनशीलता ही तत्त्व का यथार्थ स्वरूप है। अतः सौत्रान्तिक निर्वाण की दशा में किसी असंस्कृत अपरिवर्तनशील नित्य तत्त्व की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। उनकी मान्यता में ऐसा करना बुद्ध के अनित्यवाद और क्षणिकवाद की अवहेलना करना है। शरवात्स्की के अनुसार सौत्रान्तिक सम्प्रदाय में 'निर्वाण का अर्थ है जीवन की प्रक्रिया समाप्त हो जाना, इसके पश्चात् ऐसा कोई जीवनशून्य तत्त्व शेष नहीं रहता है, जिसमें जीवन की प्रक्रिया समाप्त हो गई है। निर्वाण क्षणिक चेतना प्रवाह का समाप्त हो जाना है, जिसके समाप्त हो जाने पर कुछ भी अवशेष नहीं रहता, क्योंकि इनके अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। परिवर्तनशीलता के अतिरिक्त तत्त्व की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है और निर्वाण- दशा में परिवर्तनों की श्रृंखला समाप्त हो जाती है, अतः उसके परे कोई सत्ता शेष नहीं रहती है। इस प्रकार सौत्रान्तिक निर्वाण मात्र अभावात्मक अवस्था है। वर्तमान में वर्मा और लंका के बौद्ध निर्वाण को अभावात्मक एवं अनस्तित्व के रूप में देखते है। निर्वाण के भावात्मक, अभावात्मक और अनिर्वचनीय पक्षों की दृष्टि से विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सौत्रान्तिक विचारणा निर्वाण के अभावात्मक पक्ष पर अधिक बल देती है। इस प्रकार सौत्रान्तिक सम्प्रदाय का निर्वाण सम्बन्धी अभावात्मक दृष्टिकोण जैन विचारणा के विरोध में जाता है। लेकिन सौत्रान्तिकों में भी एक ऐसा उपसम्प्रदायदशा था।' जिसके अनुसार निर्वाण अवस्था में भी विशुद्ध चेतना पर्यायों का प्रवाह रहता है यह दृष्टिकोण जैन विचारणा की इस मान्यता के निकट आता है, जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था में भी आत्मा में परिणामीपन बना रहता है अर्थात् मोक्ष-दशा में आत्मा में चैतन्य ज्ञान धारा सतत् रूप से प्रवाहित होती रहती है। (३) विज्ञानवाद (योगाचार ) - महायान के प्रमुख ग्रन्थ लंकावतारसूत्र के अनुसार निर्वाण सप्त प्रवृत्ति विज्ञानों की अप्रवृत्तावस्था है; चित प्रवृत्तियों का निरोध है।" स्थिरमति के अनुसार निर्वाण क्लेशावरण और शेयावरण का क्षय है" असंग के अनुसार निवृत्त चित्त (निर्वाण ) उचित है, क्योंकि वह विषयों का ग्राहक नहीं है। वह अनुपलम्भ है, क्योंकि उसको कोई बाह्य आलम्बन नहीं है और इस प्रकार आलम्बन रहित होने से लोकोत्तर ज्ञान है दौल्य अर्थात् आवरण (क्लेशावरण और ज्ञेयावरण) के नष्ट हो जाने से निवृत्त चित्त (आलयविज्ञान) परावृत . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९५ जैन धर्म में मुक्ति की अवधारणा : एक तुलनात्मक अध्ययन नहीं होता, प्रवृत्त नहीं होता।३१ वह अनावरण और आस्त्रवधातु है, को उच्छेद या शाश्वत भी नहीं कहा जा सकता अन्यथा शास्ता के लेकिन असंग केवल इस निषेधात्मक विवेचन से सन्तुष्ट नहीं होते मध्यम-मार्ग का उल्लंघन होगा और हम उच्छेदवाद या शाश्वतवाद की हैं, वे निर्वाण की अनिर्वचनीय एवं भावात्मक व्याख्या भी प्रस्तुत करते मिथ्या दृष्टि से ग्रसित होंगे। इसलिए माध्यमिक नय में निर्वाण भाव हैं। निर्वाण अचिन्त्य है, क्योंकि तर्क से उसे जाना नहीं जा सकता लेकिन और अभाव दोनों नहीं है। वह तो सर्व संकल्पनाओं का क्षय है, अचिन्त्य होते हुए भी वह कुशल है, शाश्वत है, सुख रूप है, विमुक्तकाय प्रपंचोपशमता है। है, और धर्माख्य है। ३२ इस प्रकार विज्ञानवादी मान्यता में निर्वाण की बौद्ध दार्शनिकों एवं वर्तमान युग के विद्वानों में बौद्ध दर्शन में अभावपरक और भावपरक व्याख्याओं के साथ-साथ उनकी अनिर्वचनीयता निर्वाण के स्वरूप को लेकर जो मतभेद दृष्टिगत होता है उसका मूल को भी स्वीकार किया गया है। वस्तुतः निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप कारण बुद्ध द्वारा निर्वाण का विविध दृष्टिकोणों के आधार पर विविध के विकास का श्रेय विज्ञानवाद और शून्यवाद को ही है। लंकावतारसूत्र ____ रूप से कथन किया जाना है। पाली-निकाय में निर्वाण के इन विविध में निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप का सर्वोच्च विकास देखा जा सकता स्वरूपों का विवेचन उपलब्ध होता है। उदान नामक एक लघु ग्रन्थ है। लंकावतारसूत्र के अनुसार निर्वाण विचार की कोटियों से परे है, में ही निर्वाण के इन विविध रूपों को देखा जा सकता है। फिर भी विज्ञानवादी निर्वाण को इस आधार पर नित्य माना जा सकता है कि निर्वाण लाभ से ज्ञान उत्पन्न होता है। निर्वाण एक भावात्मक तथ्य है तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर विज्ञानवादी निर्वाण का इस सन्दर्भ में बुद्ध वचन इस प्रकार है- "भिक्षुओं! (निर्वाण) जैन विचारणा से निम्न अर्थों मे साम्य है-१. निर्वाण चेतना का अभाव अजात, अभूत, अकृत, असंस्कृत है। भिक्षुओं! यदि वह अजात, अभूत, नही है, वरन् विशुद्ध चेतना की अवस्था है। २. निर्वाण समस्त संकल्पों अकृत, असंस्कृत नहीं होता तो जात, भूत, कृत और संस्कृत का का क्षय है, वह चेतना की निर्विकल्पावस्था है। ३ निर्वाणावस्था में व्युपशम नहीं हो सकता। भिक्षुओं! क्योंकि वह अजात, अभूत, अकृत भी चैतन्य धारा सतत् प्रवाहमान रहती है (आत्मपरिणमीपन)। यद्यपि और असंस्कृत है इसलिए जात भूत, कृत और संस्कृत का व्युपशम डॉ०चन्द्रधर शर्मा ने आलय विज्ञान को अपरिवर्तनीय या कूटस्थ माना जाना जाता है।३८ धम्मपद में निर्वाण को परम सुख,३९ अच्युत स्थान है।३३ लेकिन आदरणीय बलदेव उपाध्याय उसे प्रवाहमान या और अमृत पद कहा गया है जिसे प्राप्त कर लेने पर न च्युति का परिवर्तनशील ही मानते हैं।३४ ४. निर्वाणावस्था सर्वज्ञता की अवस्था भय होता है, न शोक होता है। उसे शान्त संसारोपशम एवं सुख है। जैन विचारणा के अनुसार उस अवस्था में केवलज्ञान और केवल पद भी कहा गया है। इतिवुत्तक में कहा गया है- वह ध्रुव, न दर्शन है। असंग ने महायान सूत्रालंकार में धर्मकाय को जो कि निर्वाण उत्पन्न होने वाला है, शोक और राग रहित है, सभी दु:खों का वहाँ की पर्यायवाची है, स्वाभाविक काय कहा है।३५ जैन विचारणा में भी निरोध हो जाता है, वहाँ संस्कारों की शान्ति एवं सुख है। आचार्य मोक्ष को स्वभाव-दशा कहा जाता है। स्वाभाविक काय और स्वभाव-दशा बुद्धघोष निर्वाण की भावात्मकता का समर्थन करते हुए विशुद्धिमग्ग अनेक अर्थों में अर्थ साम्य रखते हैं। में लिखते हैं—निर्वाण नहीं है, ऐसा नहीं कहना चाहिए। प्रभव और (४) शून्यवाद-बौद्ध दर्शन के माध्यमिक सम्प्रदाय में निर्वाण जरामरण के अभाव से नित्य है-अशिथिल, पराक्रम सिद्ध, विशेष के अनिर्वचनीय स्वरूप का सर्वाधिक विकास हुआ है। जैन तथा अन्य ज्ञान से प्राप्त किए जाने से और सर्वज्ञ के वचन तथा परमार्थ से निर्वाण दार्शनिकों ने शून्यता को अभावात्मक रूप में देखा है, लेकिन यह अविधमान नहीं है।४३ उस सम्प्रदाय के दृष्टिकोण को समझने में सबसे बड़ी भ्रान्ति ही कही जा सकती है। माध्यमिक दृष्टि से निर्वाण अनिवर्चनीय है, चतुष्कोटि- निर्वाण की अभावात्मकता विनिर्मुक्त है, वही परमतत्त्व है। वह न भाव है, न अभाव है।३६ यदि निर्वाण की अभावात्मकता के सम्बन्ध में उदान के रूप में निम्न वाणी से उसका विवेचन करना ही आवश्यक हो तो मात्र यह कहा बुद्ध वचन है, “लोहे पर घन की चोट पड़ने पर जो चिनगारियाँ उठती जा सकता है कि निर्वाण अप्रहाण, असम्प्राप्त, अनुच्छेद, अशाश्वत, हैं वो तुरन्त ही बुझ जाती हैं, कहाँ गई कुछ पता नहीं चलता। इसी अनिरुद्ध एवं अनुत्पन्न है।३० निर्वाण को भाव रूप इसलिए नहीं माना प्रकार काम बन्धन से मुक्त हो निर्वाण पाये हुए पुरुष की गति का जा सकता है कि भावात्मक वस्तु या तो नित्य होगी या अनित्य। कोई भी पता नहीं लगा सकता"।४४ नित्य मानने पर निर्वाण के लिए किये गये प्रयासों का कोई अर्थ नहीं शरीर छोड़ दिया, संज्ञा निरुद्ध हो गई, सारी वेदनाओं को भी होगा। अनित्य मानने पर बिना प्रयास ही मोक्ष होगा। निर्वाण को अभाव बिलकुल जला दिया। संस्कार शान्त होगए; विज्ञान अस्त हो गया।४५ भी नहीं कहा जा सकता, अन्यथा तथागत के द्वारा उसकी प्राप्ति का लेकिन दीप शिखा और अग्नि के बुझ जाने अथवा संज्ञा के उपदेश क्यों दिया जाता। निर्वाण को प्रहाण और सम्प्राप्त भी नही निरुद्ध हो जाने का अर्थ अभाव नहीं माना जा सकता, आचार्य बुद्धघोष कहा जा सकता, अन्यथा निर्वाण कृतक एवं कालिक होगा और यह विशुद्धिमग्ग में कहते हैं- निरोध का वास्तविक अर्थ तृष्णाक्षय अथवा मानना पड़ेगा कि वह काल विशेष में उत्पन्न हुआ है और यदि वह विराग है।६। प्रोफेसर कीथ एवं प्रोफेसर नलिनाक्षदत्त अग्गि वच्छगोत्तमुत्त उत्पन्न हुआ है तो वह जरा-मरण के समान अनित्य ही होगा। निर्वाण के आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि बुझ जाने का अर्थ अभावात्मकता Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ नहीं है, वरन् अस्तित्व की रहस्यमय, अवर्णनीय अवस्था है। प्रोफेसर दृष्टि कहा है। कीथ के अनुसार निर्वाण अभाव नहीं वरन चेतना का अपने मूल (४) महायान की धर्मकाय की धारणा और उसकी निर्वाण से (वास्तविक शुद्ध) स्वरूप में अवस्थित होना है। प्रोफेसर नलिनाक्षदत्त एकरूपता तथा विज्ञानवाद के आलयविज्ञान की धारणा निर्वाण की के शब्दों में निर्वाण की अग्नि शिखा के बुझ जाने से, की जाने वाली अभावात्मक व्याख्या के विपरीत पड़ते हैं। अत: निर्वाण का तात्त्विक तुलना समुचित है, क्योंकि भारतीय चिन्तन में आग के बुझ जाने स्वरूप अभाव सिद्ध नहीं होता है। उसे अभाव या निरोध कहने का से तात्पर्य उसके अनिस्तत्व से न होकर उसका स्वाभाविक शुद्ध अदृश्य, तात्पर्य यही है कि उसमें वासना या तृष्णा का अभाव है। लेकिन अव्यक्त में चला जाना है, जिसमें कि वह अपने दृश्य प्रकटन के पूर्व जिस प्रकार रोग का अभाव, अभाव होते हुए भी सद्भूत है, उसे रही हई थी। बौद्ध दार्शनिक संघभद्र का भी यही निरूपण है कि अग्नि आरोग्य कहते हैं, उसी प्रकार तृष्णा का अभाव भी सद्भुत है उसे की उपमा से हमको यह कहने का अधिकार नहीं है कि निर्वाण अभाव सुख कहा जाता है। दूसरे उसे अभाव इसलिए भी कहा जाता है कि है।४७ मिलिन्दप्रश्न के अनुसार भी निर्वाण अस्ति धर्म (अस्थिधम्म) साधक में शाश्ववतवाद की मिथ्यादृष्टि भी उत्पन्न नहीं हो। राग का एकान्त सुख एवं अप्रतिभाग है, उसका लक्षण स्वरूपतः नहीं बताया प्रहाण होने से निर्वाण में मैं (अत्त) और मेरापन (अत्ता) नहीं होता, जा सकता किन्तु गुणत: दृष्टान्त के रूप में कहा जा सकता है कि इस दृष्टिकोण के आधार पर उसे अभाव कहा जाता है। निर्वाण राग जिस प्रकार जल प्यास को शान्त करता है, इसी प्रकार निर्वाण त्रिविध तथा अहं का पूर्ण विगलन है। लेकिन अहं या ममत्व की समाप्ति तृष्णा को शान्त करता है। निर्वाण को अकृत कहने से भी उसकी एकान्त को अभाव नहीं कहा जा सकता। निर्वाण की अभावात्मक कल्पना अभावात्मकता सिद्ध नहीं होती। आर्य (साधक) निर्वाण का उत्पाद 'अनत्त' शब्द का गलत अर्थ समझने से उत्पन्न हुई है। बौद्ध दर्शन नहीं करता फिर भी वह उसका साक्षात्कार (साक्षीकरोति) एवं प्रतिलाभ में अनात्म (अनत्त) शब्द आत्म (तत्व) का अभाव नहीं बताता वरन् (प्राप्नोति) करता है। वस्तुत: निर्वाण को अभावात्मक रूप में इसीलिए यह बताता है कि जगत में अपना या मेरा कोई नहीं है, अनात्म का कहा जाता है कि अनिर्वचनीय का निर्वचन करना भावात्मक भाषा की उपदेश आसक्ति प्रहाण के लिए, तृष्णा के क्षय के लिए है। निर्वाण अपेक्षा अभावात्मक भाषा अधिक युक्तिपूर्ण होता है। 'तत्त्व' का अभाव नहीं वरन् अपनेपन या अहं का अभाव है। वह निर्वाण की अनिर्वचनीयता-निर्वाण की अनिर्वचनीयता के वैयक्तिकता का अभाव है, व्यक्तित्व का नहीं, अनत्त (अनात्म) वाद सम्बन्ध में निम्न बुद्ध-वचन उपलब्ध हैं-"भिक्षुओं! न तो मैं उसे की पूर्णता यह बताने में है कि जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे अगति और न गति कहता हूँ, न स्थिति और न च्युति कहता हूँ, मेरा या अपना कहा जा सके। सभी अनात्म है। इस शिक्षा का सच्चा उसे उत्पत्ति भी नहीं कहता हूँ। वह न तो कहीं ठहरता है, न प्रवर्तित अर्थ यही है कि मेरा कुछ भी नहीं है। क्योंकि जहाँ मेरापन (अत्त होता है और न उसका कोई आधार है, यही दुःखों का अन्त है।४८ भाव) आता है वहाँ राग एवं तृष्णा का उदय होता है। स्व पर में भिक्षुओं! अनन्त ९ का समझना कठिन है, निर्वाण का समझना आसान अवस्थित होता है, आत्मदृष्टि (ममत्व) उत्पन्न होती है। लेकिन यही नहीं। ज्ञानी की तृष्णा नष्ट हो जाती है उसे (रागादिक्लेश) कुछ नहीं आत्मदृष्टि स्व का पर में अवस्थित होना अथवा राग एवं तृष्णा की है।५० जहाँ (निर्वाण) जल, पृथ्वी, अग्नि और वायु नहीं ठहरती, वहाँ वृत्ति बन्धन है, जो तृष्णा है, वही राग है; और जो राग है वही अपनापन न तो शुक्र और न आदित्य प्रकाश करते हैं। वहाँ चन्द्रमा की प्रभा है। निर्वाण में तृष्णा का क्षय होने से राग नहीं होता, राग नहीं होने भी नहीं है, न वहाँ अंधकार ही होता है। जब क्षीणाश्रव भिक्ष अपने से अपनापन (अत्ता) भी नहीं होता। बौद्ध निर्वाण की अभावात्मकता आपको जान लेता है तब रूप-अरूप तथा सुख-दुःख से छूट जाता का सही अर्थ इस अपनेपन का अभाव है, तत्त्व अभाव नहीं है। वस्तुतः है।५१ उदान का यह वचन हमें गीता के उस कथन की याद दिला तत्त्व लक्षण की दृष्टि से निर्वाण एक भावात्मक अवस्था है। मात्र देता है, जहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं जहाँ न पवन बहता है, न चन्द्र सूर्य वासनात्मक पर्यायों के अभाव के कारण ही वह अभाव कहा जाता प्रकाशित होते हैं, जहाँ जाने से पुन: इस संसार में आया नहीं जाता है। अत: प्रोफेसर कीथ और नलिनाक्षदत्त की यह मान्यता कि बौद्ध वही मेरा (आत्मा का) परम धाम (स्वस्थान) है।" निर्वाण अभाव नहीं है, बौद्ध विचारणा की मूल विचारदृष्टि के निकट बौद्ध निर्वाण की यह विशद विवेचना हमें इस निष्कर्ष पर ले ही है। यद्यपि बौद्ध निर्वाण एक भावात्मक तथ्य है, फिर भी भावात्मक जाती है कि प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन का निर्वाण अभावात्मक तथ्य नहीं भाषा उसका यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने में समर्थ नहीं है, क्योकि भाव था। इसके लिए निम्न तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं किसी पक्ष को बताता है और पक्ष के लिए प्रतिपक्ष की स्वीकृति अनिवार्य (१) निर्वाण यदि अभाव मात्र होता तो तृतीय आर्य सत्य कैसे है जबकि निर्वाण तो पक्षातिक्रांत है। निषेधमूलक कथन की यह विशेषता होता? क्योकि अभाव आर्य सत् का आलम्बन नहीं हो सकता। होती है कि उसके लिए किसी प्रतिपक्ष की स्वीकृति को आवश्यक (२) तृतीय आर्य सत्य का विषय द्रव्य सत् नहीं है तो उसके नहीं बढ़ा सकता। अत: अनिर्वचनीय का निर्वचन करने में निषेधात्मक उपदेश का क्या मूल होगा? भाषा का प्रयोग ही अधिक समीचीन है। इस निषेधात्मक विवेचन शैली (३) यदि निर्वाण मात्र निरोध या अभाव है तो उच्छेद-दृष्टि ने निर्वाण की अभावात्मक कल्पना को अधिक प्रबल बनाया है। वस्तुतः सम्यग्दृष्टि होगी लेकिन बुद्ध ने तो सदैव ही उच्छेद-दृष्टि को मिथ्या निर्वाण अनिर्वचनीय है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९७ जैन धर्म में मुक्ति की अवधारणा : एक तुलनात्मक अध्ययन कृत्स्न कर्मक्षयान् मोक्षः, तत्वार्थसूत्र, विवे०, पं० सुखलाल संधवी, २०. सुखमात्यन्तिकं यत्ताबुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्। -वही, ६/२१। प्रका०, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १९७६, १०१। २१. इनसाइक्लोपेडिया आफ इथिक्स एण्ड रिलीजन, संपा०, जेम्स २. बन्ध वियोगो मोक्ष:-अभिधानराजेन्द्रकोष, श्री विजय राजेन्द्र सूरि हैस्टिंग, प्रका०, टी०एण्ड टी० क्लार्क, एडिनबर्ग। जी, रतलाम, खण्ड ६, पृ० ४३१ २२. आस्पेक्टस ऑफ महायान इन रिलेशन टु हीनयान। ३. मुक्खो जीवस्स शुदद्ध रूचस्स-वही, खण्ड ६, पृ० ४३१ २३. द्रव्यं सत् प्रतिसंख्या निरोधः सत्यचतुष्टय-निर्देश-निर्द्धिष्टत्वात्, ४. तुलना कीजिए-(अ) आत्म मीमांसा (दलसुखभाई), पृ०६६-६७ मार्ग सत्येव इति वैभाषिकाः। -यशोमित्र-अभिधर्मकोष व्याख्या, (ब) ममेति वध्यते जन्तुर्नममेति प्रमुच्यते। - गरुड़ पुराण। पृ० १७। अव्वावाहं अवत्थाणं-अभिधानराजेन्द्रकोष, खण्ड ६, पृ०४३१। २४. बुद्धिस्ट निर्वाण, पृ० २७। ६. नियमसार, अनु० अगरसेन, अजिताश्रम, लखनऊ, १९६३, २५. आस्पेक्ट्स ऑफ महायान इन रिलेशन टु हीनयान, पृ० १६२ १७६-१७७। २६. सेंट्रल फिलॉसफी ऑफ बुद्धिज्म, टी०आर०वी० मूर्ति, प्रका० जॉर्ज, ७. विज्जदि केवलणाणं, केवलसोक्खं च केवलविरियं। एलेन एण्ड टी०क्लार्क, एडिनबर्ग १९५५, पृष्ठ १२९, केवलदिट्ठि अमुत्तं अत्थित्तं सप्पदेसत ।। -वही, १८१ पृ० २७२-७३। कुछ विद्वानों ने अगुरुलघुत्व का अर्थ न हल्का न भारी ऐसा भी २७. बुद्धिस्ट फिलासफी ऑफ युनिवर्सल फ्लक्स, सत्कारी मुखर्जी, किया है। प्रका०, कलकत्ता विश्वविद्यालय प्रेस १९३५, पृ० २५२। ९. प्रवचनसारोद्धार, संपा०, नेमिचन्द्रसूरि, निर्णय सागर प्रेस, बबई, २८. ए कम्परेटिव स्टेडी ऑफ दी कानसेप्ट ऑफ लिबरेशन इन इंडियन १९२२, द्वार २७६, गाथा १५९३-१५९४। फिलॉसफी, डॉ. अशोक कुमार लाड, प्रका० गिरधारी लाल १०. सदासिव सखो मक्कडि बुद्धौ णैयाइयो य वेसेसी। केशवदास, बुरहानपुर, पृ०६९।। ईसर मडलि दंसण विदूसणटुं कयं एदं ।। -गोम्मटसार (नेमिचन्द्र) (ब) बौद्ध दर्शन मीमांसा, आचार्य बलदेव उपाध्याय, प्रका०, संपा०, पं० खूबचन्द्र जैन, प्रका०, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, चौखम्बा विद्या भवन वाराणसी, १९७८, पृ० १४७। आगास, वि०सं० २०२२। २९. लंकावतारसूत्र, संपा०, श्री परशुराम शर्मा, मिथिला विद्यापीठ, से न दीहे, न हस्से, न वट्टे, न तंसे, न चउरंसे, न परिमंडले, न दरभंगा १९६३, २/६२। । किण्हे, न नीले, न लोहिते, न हालिद्दे, न सुकिल्ले, न सुरभिगन्धे, ३०. क्लेशज्ञेयावरण प्रहाणभपि मोक्ष सर्वज्ञात्वाघिगमार्थम।-स्थिरमति न दुब्भिगन्धे, न तिते, न कडुए, न कसाए, न अंबिले, न महुरे, त्रिशिंका विज्ञप्ति भाष्य, पृ० १५, उद्धृत-आचार्य बलदेव उपाध्याय, न कक्खड़े, न मउए, न गुरुए, न लहुए, न सीए, न उण्हे, न निद्धे, बौद्धदर्शनमीमांसा, पृष्ठ १३२। न लुक्खे, न काऊ, न रूहे, न संगे, न इत्थी, न पुरिसे, न अनहा, ३१. अचित्तोऽनुपलम्भो सो ज्ञानं लोकोत्तरं च तत्। आश्रयस्यपरावृतिद्विघासे न सद्दे, न रूवे, न गंधे, न रसे, न फासे। -आचारांगसूत्र, दौष्ठुल्य हानितः। -त्रिशिंका २९ संपा०, मधुकर मुनि, प्रका०, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, ३२. स एवानास्त्रवो धातुरचिन्त्यः कुशलो ध्रुवः।-त्रिशिंका ३० १९८०, १/५/६। 33. Acritical Survey of Indian Philosophy, Pub. - Motilal णवि दु:क्खं णवि सुक्खं णवि पीडा व विज्जदे बाहा । Banarasidas, Delhi, 1979, p. 109. णवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होई णिव्वाणं ।। ३४. बौद्ध दर्शन मीमांसा, पृष्ठ १२६-१३८। मोहो विम्हियो ण णिद्दाय। ३५. महायान सूत्रालंकार, सपां० एस०एस०बागची, प्रका० मिथिला त्थेव हवदि णिव्वाणं ।। -नियमसार, संपा० पं० परमेष्ठीदास विद्यापीठ, दरभंगा १९७०, ९/६० (महायान-शान्तिभिक्षु, पृष्ठ७३) न्यायतीर्थ, प्रका० दिग० जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, जयपुर, १९८८, ३६. भावाभाव परामर्शक्षयो निर्वाणं उच्यते। -माध्यमिककारिकावृति, अनु० अगरसेन, अजिताश्रम, लखनऊ, १९६३, १७८-१७९। पृष्ठ ५२४। १३. मनसा सह-तैत्तरीय २/९ –मुण्डक ३/१/८ (उद्धृत दी सेंट्रल फिलासफी ऑफ बुद्धीज्म (टी. आर. वी. मूर्ति) पृष्ठ १४. यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः। -गीता, गीताप्रेस, गोरखपुर, २७४। वि०सं० २०१८, १५/४। ३७. अप्रहीणमसम्प्राप्तमनुच्छिन्त्रमशाश्वतम्। १५. (अ) यं प्राप्य न निर्वतन्ते तद्धाम परमं मम। -वही, ८/२१। अनिरूद्धमनुत्पन्नमेतन्निर्वाणमुच्यते ।। -माध्यमिककारिकावृत्ति। (ब) यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम। -वही, १५/६। पृ० ५२१, उद्धृत आचार्य बलदेव उपाध्याय, बौद्ध दर्शन मीमांसा, (स) मामुपेत्य पुर्नजन्म दुःखालयमशाश्वतम्। पृष्ठ १३३। नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः। -वही, ८/१५। ३८. उदान अनु० जगदीश कश्यप, प्रका० महाबोधि सभा, सारनाथ १६. गीता-८/२०-२१ वाराणसी, ८/३ पृ० ११०-१११ (ऐसा ही वर्णन इतिवृत्तक १७. अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यत्ममुच्यते। -वही, ८/३। २/२/६ में भी है) १८. शान्तिं निर्वाणपरमां। -वही, ६/१५। ३९. धम्मपद, अनु० पं०राहुल सांकृत्यायन, प्रका०, बुद्ध विहार, १९. सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते। -वही, ६/२८ लखनऊ, २०३, २०४। १२. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ।। ४०. अमतं सन्ति निव्वाण पदमच्चुतं-सुत्तनिपात-पारायण वग्ग, अनु० ४८. उदान, अनु० जगदीश कश्यप, ८/१। भिक्षु धर्मरत्न, प्रका०, महाबोधिसभा, बनारस १९५०।। ४९. मूल पाली में, यहाँ पाठान्तर है–तीन पाठ मिलते हैं १. अनत्तं २. ४१. पदं सन्तं संखारूपसमं सुखं-धम्मपद, अनु० पं०राहुल सांकृत्यायन, अनत ३. अनन्तं। हमने यहाँ “अनन्त" शब्द का अर्थ ग्रहण किया ३६८। है। आदरणीय काश्यपजी ने अनत (अनात्म) पाठ को अधिक उपयुक्त ४२. इत्तिवुत्तक, धर्मरक्षित, प्रका०, महाबोधि सभा, सारनाथ बुद्धाब्द, माना है लेकिन अट्ठकथा में दोनों ही अर्थ लिए गए हैं। २४९९, २/२/६। ५०. उदान, अनु० जगदीश कश्यप, ८/३।। ४३. विशुद्धिमग्ग, अनु० भिक्षुधर्मरक्षित, प्रका०, महाबोधिसभा, वाराणसी ५१. यत्थ आपो न पठवी तेजो वायो न गाधति। १९५६, परिच्छेद १६, भाग २, पृ० ११९-१२१ (हिन्दी अनु० न तत्थ सुक्का जोतन्ति आदिच्चो नप्पकासति ।। - वही,१/१०। भिक्षु धर्मरक्षित) न तत्थ चन्दिमा भाति तमो तत्थ न विज्जति। ४४. उदान, अनु०, जगदीश कश्यप, प्रका० महाबोधि सभा, सारनाथ तुलना कीजिए-न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः। वाराणसी, पाटलिग्राम वर्ग ८/१०। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।। ४५. वही, ८/९। - गीता, वही, १/१० तथा गीताप्रेस, गोरखपुर, वि०सं० ४६. विशुद्धिमग्ग, अनु० भिक्षुधर्मरक्षित, परिच्छेद ८ एवं १६। २०१८, १५/६। ४७. बौद्ध धर्म दर्शन, पृ० २९४ पर उद्धृत। स्त्री, अन्यतैर्थिक एवं सवस्त्र की मुक्ति का प्रश्न यापनीय परम्परा के विशिष्ट सिद्धान्तों में स्त्रीमुक्ति, सग्रन्थमुक्ति परम्परा में भी उत्तराध्ययन की मान्यता थी और उसके अध्ययन-अध्यापन (गृहस्थमुक्ति) और अन्यतैर्थिकमुक्ति ऐसी अवधारणाएँ हैं, जो उसे की परम्परा उसमें लगभग नवीं शती तक जीवित रही है, क्योंकि दिगम्बर परम्परा से पृथक् करती हैं। एक और यापनीय संघ अचेलकत्व अपराजित ने अपनी भगवतीआराधना की टीका में उत्तराध्ययन से अनेक (दिगम्बरत्व) का समर्थक है, तो दूसरी ओर वह स्त्रीमुक्ति, सग्रन्थ गाथाएँ उद्धृत की हैं, जो क्वचित् पाठभेद के साथ वर्तमान उत्तराध्ययन (गृहस्थ) मुक्ति, अन्यतैर्थिक (अन्यलिंग) मुक्ति आदि का भी समर्थक में भी उपलब्ध हैं। समवायांग, नन्दीसूत्र आदि श्वेताम्बर मान्य आगमों है। यही बात उसे श्वेताम्बर आगमिक परम्परा के समीप खड़ा कर में अंगबाह्य के रूप में, तत्त्वार्थभाष्य के साथ-साथ तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर देती है। यद्यपि स्त्रीमुक्ति की अवधारणा तो श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन टीकाओं में एवं षट्खण्डागम की धवला टीका में भी प्रकीर्णक ग्रन्थ आगम साहित्य उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा आदि में भी उपस्थित रही के रूप में उत्तराध्ययन का उल्लेख पाया जाता है। पाश्चात्य विद्वानों है, फिर भी तार्किक रूप से इसका समर्थन सर्वप्रथम यापनीयों ने ही ने उत्तराध्ययन को ई०पू० तृतीय से ई०पू० प्रथम शती के मध्य की किया। ऐसा प्रतीत होता है कि स्त्रीमुक्ति निषेध के स्वर सर्वप्रथम पाँचवीं- रचना माना है। उत्तराध्ययन की अपेक्षा किंचित् परवर्ती श्वेताम्बर मान्य छठी शती में दक्षिण भारत में ही मुखर हुए और चूँकि यहाँ आगमिक आगम ज्ञाताधर्मकथा (ई०पू० प्रथम शती) में मल्लि नामक अध्याय परम्परा को मान्य करने वाला यापनीय संघ उपस्थित था, अत: उसे (ई० सन् प्रथम शती) में तथा अन्तकृद्दशांग के अनेक अध्ययनों में ही उसका प्रत्युत्तर देना पड़ा। स्त्रीमुक्ति के उल्लेख हैं। आगमिक व्याख्या आवश्यकचूर्णि (सातवीं श्वेताम्बरों को स्त्रीमुक्ति सम्बन्धी विवाद की जानकारी यापनीयों शती) में भी मरुदेवी की मुक्ति का उल्लेख पाया जाता है। इसके से प्राप्त हुई। श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र (आठवीं शती) ने सर्वप्रथम अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य यापनीय ग्रन्थ कषायप्राभृत एवं इस चर्चा को अपने ग्रन्थ ललितविस्तरा में यापनीय तन्त्र के उल्लेख षट्खण्डागम भी स्त्रीमुक्ति के समर्थक हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है के साथ उठाया है। इसके पूर्व, भाष्य और चूर्णि साहित्य में यह चर्चा कि ईस्वी सन् की पाँचवीं-छठी शताब्दी तक जैन परम्परा में कहीं अनुपलब्ध है। अत: सर्वप्रथम तो हमें यह देखना होगा कि इस तार्किक भी स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं था। स्त्रीमुक्ति एवं सग्रन्थ (सवस्त्र) की चर्चा के पहले स्त्रीमुक्ति से समर्थक और निषेधक निर्देश किन ग्रन्थों मुक्ति का सर्वप्रथम निषेध आचार्य कुन्दकुन्द ने सुत्तपाहुड में किया में मिलते हैं। सर्वप्रथम हमें उत्तराध्ययनसूत्र के अन्तिम अध्ययन (ई० है। यद्यपि यापनीय ग्रन्थ षट्खण्डागम भी सुत्तपाहुड का ही समकालीन पू० द्वितीय-प्रथम शती) में स्त्री की तद्भव मुक्ति का स्पष्ट उल्लेख ग्रन्थ माना जा सकता है, फिर भी उसमें स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं है, प्राप्त होता है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर परम्परा के अतिरिक्त यापनीय अपितु मूल ग्रन्थों में तो पर्याप्त मनुष्यनी (स्त्री) में चौदह गुणस्थानों