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अनेक उद्भावनायें प्रस्तुत की हैं। यहाँ संक्षेप में इन आचार्यों के योगदान की चर्चा की जा रही है।
जैन-आचार्यों का
संस्कृत काव्यशास्त्र
हेमचन्द्र ऐसे जन-आचार्य हैं, जिन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इन्होंने अपनी सेवा और साधना से विद्वत्परम्परा की सर्जना की। इनका जन्म 1090 ई. में गुजरात प्रान्त के धुन्धुका ग्राम में वैश्य वंश में हुआ था। इनके पिता का नाम चचिभ और माता का नाम चाहिणी या पाहिणी था। दीक्षित होने के पहले इनका नाम चङ्गदेव था । इन्होंने आठ वर्ष की अवस्था में देवचन्द्रसूरि से जैन-धर्म की दीक्षा ग्रहण की। इक्कीस वर्ष की अवस्था में 'सूरि' पद प्राप्त होने पर ये 'हेमचन्द्र' नाम से प्रसिद्ध हुए।
में योगदान
डा० अमरनाथ पाण्डेय
जयसिंह सिद्धराज (1093.1143 ई.) और कुमारपाल (1143-1173 ई.) से आचार्य हेमचन्द्र को अत्यधिक सम्मान मिला था। हेमचन्द्र के अनेक योग्य शिष्य थे, जिनमें रामचन्द्र, गुणचन्द्र, वर्धमानगणि, महेन्द्रसरि, देवचन्द्रमुनि, यशश्चन्द्रगणि आदि थे। हेमचन्द्र ने व्याकरण, साहित्य, दर्शन आदि के क्षेत्र में
महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इनका काव्यशास्त्र विषयक संस्कृत-साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में जैनों का ग्रन्थ 'काव्यानुशासन' अत्यधिक प्रसिद्ध है। इस पर योगदान रहा है। काव्यशास्त्र के क्षेत्र में भी उनकी लेखक की अपनी टीका है । इस ग्रन्थ के तीन भाग हैंसेवा महनीय है । ऐसे अनेक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने सूत्र (गद्य), वृत्ति और उदाहरण । सूत्रभाग का नाम काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों की सूक्ष्म परीक्षा की है और काव्यानुशासन, वृत्तिभाग का नाम अलङ्कारचूडामणि
1. हेमचन्द्र के जीवन के सम्बन्ध में विशेष ज्ञान के लिए द्रष्टव्य-प्रभाचन्द्र विरचित प्रभावकचरित,
मेरुतुङ्गसूरि विरचित प्रबन्धचिन्तामणि, राजशेखरसूरि विरचित प्रवन्धकोष, सोमप्रभसूरि विरचित कुमारपालप्रतिबोध, बूलर-कृत 'लाइफ ऑफ हेमचन्द्र' आदि ।
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तथा उदाहरणभाग का नाम विवेक है । इसमें आठ
विद्यात्रयीचणमचुम्बितकाव्यतन्द्र अध्याय हैं। प्रथम में काव्य के उद्देश्य, हेतु आदि, द्वितीय कस्तं न वेद सुकृती किल रामचन्द्रम् ।। में रस, तृतीय में दोष, चतुर्थ में गुण, पञ्चम में शब्दा
रामचन्द्र 'प्रबन्धशतकर्ता' के रूप में प्रसिद्ध हैं। लङ्कार, षष्ठ में अर्थालङ्कार, सप्तम में नायक-नायिका
इनकी 39 कृतियों का पता चलता है, जिनमें नाट्यदर्पण, के गुण और प्रकार तथा अष्टम में दृश्य और श्रव्य
नलविलासनाटक, निर्भयभीमव्यायोग, सत्यहरिश्चन्द्र काव्य के भेदोपभेदों तथा लक्षणों का निरूपण हुआ है।
' नाटक, कुमारविहारशतक, कौमुदीमित्राणन्द आदि काव्यानुशासन के अतिरिक्त इनके ग्रन्थ सिद्धम- अमुख ह।
रामचन्द्र और गूणचन्द्र ने नाटयदर्पण की रचना मन, द्वयाश्रय महाकाव्य, सप्तसन्धान महाकाव्य, की है। नाट्यदर्पण चार विवेकों में विभक्त है। इसमें विषष्टिशलाकापुरुषचरित, प्रमाणमीमांसा आदि हैं। कारिकाएँ हैं और उन पर ग्रन्थकारों की विवति है।
इसमें दशरूपकों के अतिरिक्त दो संङ्कीर्ण भेदों-नाटिका हेमचन्द्र के शिष्यों में रामचन्द्र और गणचन्द्र प्रति- और प्रकरणी का भी निरूपण हुआ है। भा सम्पन्न विद्वान् थे । रामचन्द्र के जीवन का अन्त दुःखमय था, क्योंकि ये अन्धे हो गये थे । जर्यासह
ग्रन्थकारों ने अनेक स्थलों पर दशरूपककार के सिद्धराज ने रामचन्द्र को 'कविकटारमल्ल' उपाधि से
मत का खण्डन किया है। अलकृत किया था। रामचन्द्र-न्याय, व्याकरण और
दशरूपककार के अनुसार नाटक का नायक धीरोनाहित्य में निष्णात थे। उन्होंने रघुविलास की प्रस्ताबना
दात्त होना चाहिए,, किन्तु नाट्यदर्पण के आचार्यों के में अपने को 'विद्यात्रयीचण' कहा है
अनुसार धीरललित भी नाटक का नायक हो सकता है।'
'पञ्चप्रबन्धमिषपञ्चमुखानकेन विद्वन्मनःसदसि नृत्यति यस्य कीतिः ।
दशरूपककार अमात्य को धीरप्रशान्त नायक मानते हैं। रामचन्द्र और गुणचन्द्र अमात्य को धीरोदात्त
2. नाट्यदर्पण (दिल्ली विश्वविद्यालय का संस्करण) की प्रस्तावना, पृ. 16 3. 'अभिगम्य गुणयुक्तो धीरोदात्तः प्रतापवान् । ___ कीतिकामो महोत्साहस्त्रय्यास्त्राता महीपतिः ॥'.
दशरूपक (चौ. सं.) 3/22-23 4. 'ये तु नाटकस्य नेतारं धीरोदात्तमेव प्रतिजानते, न ते मुनिनयाध्यवगाहिनः । नाटकेषु धीरललितादीनामपि ___नायकना दर्शनात कविसमयबाह्याश्च । नाट्यदर्पण 1/7 की विवृति । 5. अथ प्रकरणे वृत्तमुत्पाद्य लोकसंश्रयम् ।
अमात्यविप्रवणिजामेकं कुर्याच्च नायकम् ॥ धीरप्रशान्तं सापायं धर्मकामार्थतत्परम् । दशरूपक 3139-40
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मानते हैं। वे दशरूपककार द्वारा दिये गये अमात्य के प्रमाचन्द्राचार्य के प्रभावक चरित से ज्ञात होता है 'धीरप्रशान्त' विशेषण को ठीक नहीं मानते।
कि वाग्भट ने अपने धन से जैन-मन्दिर का निर्माण
कराया था, जिसमें श्रीमहावीर की प्रतिष्ठा संवत् ग्रन्थकारों ने अनेक स्थलों पर धनञ्जय के मत
1 179 में की गयी थीका उल्लेख अन्ये, केचित आदि के द्वारा किया है।
अथास्ति बाहडो नाम धनवान धामिकाग्रणीः । नाट्यदर्पणकारों ने मम्मट के भी मत का खण्डन
गरूपादान् प्रणम्याथ चक्र विज्ञापनामसौ ॥ किया है मम्मट ने अङ्ग-रस के अतिविस्तार को रस- आदिश्यतामतिश्लाध्यं कृत्यं यत्र धनं व्यये । दोष माना है ओर हयग्रीववध के हयग्रीव-वर्णन को प्रभूराहालये जैने द्रव्यस्य सफलो व्ययः ।। उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है ।' नाट्यदर्पण के शतकादशके साष्टसप्ततौ विक्रमार्कतः । आचार्यों की मान्यता है कि यह वृत्त (कथा) का दोष वत्सराणां व्यतिक्रान्ते श्रीमुनिचन्द्रसूरयः ॥ है, रस का दोष नहीं।'
आराधनाविधिश्रीष्ठं कृत्वा प्रायोपवेशनम् ।
शमपीयुषकल्लोलप्लतास्ते त्रिदिवं ययुः । रामचन्द्र और गुणचन्द्र के मौलिक विचार अनेक
वत्सरे तत्र चैकेन पूर्णे श्रीदेवसूरिभिः । स्थानों पर उपलब्ध होते हैं। उनका परीक्षण और
श्रीवीरस्य प्रतिष्ठां स बाहडोऽकारयन्मुदा ।। मूल्याङ्कन स्वतन्त्र निबन्ध का विषय हैं।
वाग्भट का निवासस्थान अणहिल्लपट्टन बतलाया जैन-आचार्य वाग्भट (प्रथम) जयसिंह सिद्धराज जाता है । वाग्भटालङ्कार के अधोलिखित श्लोक से के मन्त्री थे। इनका प्राकृत-नाम बाहड था और इनके वाग्भट की जैन-धर्म के प्रति श्रद्धा और आस्था प्रकट पिता का नाम सोम था
होती हैबम्भण्डसुतिसम्पुडमुक्तिअमणिणो पहासमूहव्व । श्रियं दिशतु बो देवः श्रीनाभेयजिनः सदा । सिरि बाहड त्ति तणओ आसि बहो तस्स सोमस्स ॥
मोक्षमार्ग सतां ब्र ते यदागमपदावली ॥'10
6. 'सचिवो राज्यचिन्तकः । अयं वणिरविप्रयोर्मध्यपात्यपि धीरोदात्त--धीरप्रशान्तौ प्रकरणे नेतारौ भवत
इति प्रतिपादनार्थ पृथगुपात्तः । यस्त्वमात्य नेतारम्यूपगम्य धीरप्रशान्तनायकमिति 'प्रतरणं' विशेषयति,
स वृद्धसम्प्रदायवन्ध्यः ।' नाट्यदर्पण 211 की विवृति । 7. काव्यप्रकाश (झलकीकर की टीका से समन्वित, 1950 ई.), पृ. 441 । 8. 'केचिदत्र हयग्रीववधे हयग्रीववर्णनमुदाहरन्ति ।स पुनर्वृत्तदोषो वृत्तनायकस्याल्पवर्णनात् । तत्र हि वीरो ___रसः । स विशेषतो वध्यस्य शौर्यविभूत्यतिशयवर्णनेन भूष्यत इति । नाट्यदर्पण 3123 की विवृति ।
9. वाग्भटालङ्कार (चौ. सं.), 41147 10. वही 1।1। इस पर देखिए-सिंहदेवर्गाण की टीका, जिसमें उन्होंने अतिशयचतुष्टय तथा रत्नत्रय का
निर्देश किया है।
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वाग्भट ने वाग्मटालङ्कार की रचना की है। इसमें काव्यालङ्कारसूत्राणि स्वानि किञ्चिद् विवण्महे । पाँच परिच्छेद हैं । इसमें काव्यफल, काव्योत्पत्ति, तन्मनस्तन्मर्याकृत्य विभाव्यं कोविदोत्तमैः ॥ काव्यशरीर, दोष, गुण, अलङ्कार और रस के विषय
___ अलङ्कारमहोदधि आठ तरङ्गों में विभक्त है। प्रथम में संक्षेप में विचार किया गया है। प्रथम परिच्छेद में
में काव्यप्रयोजन आदि, द्वितीय में शब्द-वैचित्र्य, तृतीय 26 श्लोक, द्वितीय में 29 श्लोक, तृतीय में 181 श्लोक,
में ध्वनिनिर्णय, चतुर्थ में गणीभूतव्यङ ग्य, पञ्चम में चतुर्थ में 152 श्लोक, और पञ्चम में 33 श्लोक हैं।
दोष, षष्ठ में गुण, सप्तम में शब्दालङ्कार और अष्टम नरेन्द्रप्रभसरि ने मन्त्रीश्वर वस्तपाल की प्रेरणा में अर्थालङ्कार का निरूपण हुआ है। से अलङ्कारमहोदधि की रचना 1225-26 ई. में की।। अजितसेन ने अलङ्गारचिन्तामणि और शङ्गारराजशेखरसूरि ने न्यायकन्दलीपज्जिकाप्रशस्ति में नरेन्द्र
मञ्जरी की रचना की शङ्गारमञ्जरी छोटी रचना प्रभसूरि को अलङ्कारमहोदधि का कर्ता बतलाया है-----
है । अजितसेन ने शृङ्गारमजरी की रचना 1245 ई.
के लगभग और अलङ्कारचिन्तामणि की रचना 1250तस्य गुरोः प्रियशिष्यः प्रभुनरेन्द्रप्रभः प्रभानाट्यः ।
1260 ई. में की। अलङ्कारचिन्तामणि का प्रकाशन योऽलङ्कारमहोदधिमकरोत् काकुत्स्थकेलि च ॥12
भारतीय ज्ञानपीठ से 1973 ई. में हुआ है। डॉ.
नेमिचन्द्र शास्त्री ने विस्तृत भूमिका और अनुवाद के नरचन्द्रसूरि नरेन्द्रप्रभसूरि के गुरू थे। नरेन्द्रप्रभसूरि
साथ इस ग्रन्थ का सम्पादन किया है। इसमें पाँच ने गुरू की आज्ञा पर श्रीवस्तुपाल की प्रसन्नता के लिए
परिच्छेद हैं । प्रथम (106 इलोक) का नाव अलङ्कारमहोदधि का निर्माण किया
कविशिक्षाप्ररूपण, द्वितीय (1891 श्लोक) का नाम तन्मे मातिसविस्तरं कविकलासर्वस्वगर्वोदर ।
चित्रालङ्कारप्ररूपण, तृतीय (41 श्लोक) का नाम शास्त्रं ब्रूत किमप्यनन्यसदृशं बोधाय दुर्मेधसाम् ।
यमकादिवचन, चतुर्थ (345 श्लोक) का नाम अर्थाइत्यभ्यर्थनया प्रतीतमनसः श्रीवस्तुपालस्य ते ।
लङ्कारविवरण तथा पञ्चम (406 श्लोक) का नाम
रसादिनिरूपण है। श्रीमन्तो नरचन्द्रसूरिगुरवः साहित्यतत्त्वं जगुः ।। तेषां निदेशादथ सद्गुरुणां श्रीवस्तुपालस्य मुदे तदेतत्। अरिसिंह तथा अमरचन्द्र की कृति काव्यकल्पलता चकार लिप्यक्षरसंनिविष्टं सूरिनरेन्द्रप्रभनामधेयः ॥ के नाम से प्रसिद्ध है । अरिसिंह ने इसके सूत्रों की रचना
अलङ्कारमहोदधि (ओरियन्टल इन्स्टीट्यूट बड़ोदा सं. 1942 ई.) के अन्तिम श्लोक में ग्रन्थ का रचनाकाल संवत् 1282 दिया गया है'नयनवसुसूरि (1282) वर्षे निष्पन्नायाः प्रमाणमेतस्याः । अजनि समस्रचतुष्टयमनुष्टुभामुपरि पण्चशती ।'
इस इलोक से ग्रन्थ का प्रमाण 4500 श्लोक ज्ञात होता है। 12. वही, प्रस्तावना, पृ. 16 । 13. वही, 1118.20 14. अलङ्कारचिन्तामणि की प्रस्तावना, प. 33-341
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की है और अमरचन्द्र ने वत्ति । अमरचन्द्र ने अल. ड्रारमहोदधि के परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित हुआ है। कारप्रबोध की भी रचना की। अरिसिंह और अमर- इसमें आठ अध्याय हैं। प्रथम में काव्यफलहेतु, द्वितीय चन्द्र का समय त्रयोदश शताब्दी है।
में शब्दार्थ, तृतीय में शब्दार्थदोष, चतुर्थ में गुण, पञ्चम
में शब्दालङ्कार, षष्ठ में अर्थालङ्कार, सप्तम में रीति वाग्भट (द्वितीय) नामक एक अन्य जैन-आचार्य
और अष्टम में रस का निरूपण हुआ है। इसकी श्लोकहुए हैं। ये वाग्भटालङ्कार के कर्ता वाग्भट से भिन्न
सख्या 132 है। आठ अध्यायों में क्रमशः 5, 15, हैं। इनका समय सम्भवतः चतुर्दश शताब्दी है । इनके 24. 13. 13.49,5 और 8 श्लोक हैं। पिता का नाम नेमिकूमार था और का माता नाम वसुन्धरा । ये राधापुर में रहते थे । इन्होंने काव्यानुशासन की
मन्त्रिमण्डन श्रीमाल वंश में उत्पन्न हुए थे। इनका रचना की।"काव्यानुशासन वाग्भट की अलङ्कारतिलक
समय विक्रमीय पन्द्रहवीं शताब्दी है। इन्होंने अलङ्कारटीका के साथ निर्णयसागर से प्रकाशित हो चुका है।
मण्डन नामक ग्रन्थ की रचना की। इसमें पाँच परिच्छेद
हैं । काव्यमण्डन-चम्पूमण्डन-शङ्गारमण्डन-सङ्गीतमन्डनइसके सूत्र गद्य में हैं । यह ग्रन्थ पाँच अध्यायों में
सारस्वतमण्डन-कादम्बरीमण्डन-चन्द्रविजय आदि भी विभक्त है । प्रथम में काव्यप्रयोजन, काव्यहेतु, द्वितीय में दोष-गुण, तृतीय में अर्थालङ्कार, चतुर्थ में शब्दा
इनकी रचनाएं बतलायी जाती हैं। लङ्कार तथा पञ्चम में रस, नायक-नायिकाओं के प्रकार और रस-दोषों का विवेचन हआ है। वाग्भट ने अपनी
अणुरत्नमण्डन या रत्नमण्डनगणि (15वीं शताब्दी) टीका में विभिन्न प्रदेशों, नदियों, वक्षों और अनेक
. ने कविशिक्षाविषयक ग्रन्थ 'जल्पकल्पलता' की रचना
की। इनकी अन्य कृति मुग्धमेधाकर है, जिसमें मुख्य विशिष्ट वस्तुओं का स्थल-स्थल पर उल्लेख किया है। इन्होंने छन्दोऽनुशासन तथा ऋषभदेवचरित की भी र
___ रूप से अलङ्कारों का विवेचन किया गया है। रचना की थी।
जयमकलाचार्य-कृत कविशिक्षा और आचार्य भावदेवसूरि ने काव्यालङ्कारसार नामक लघुकाय विनयचन्द्र-कृत कविशिक्षा में कवियों के लिए आवश्यक ग्रन्थ की रचना की । यह नरेन्द्रप्रभसूरि-विरचित अल- निर्देशों का प्रतिपादन हुआ है ।
15. अलङ्कारमहोदाधि की प्रस्तावना; पृ. 20 । 16, 17. 'नव्यानेकमहाप्रबन्धरचनाचातुर्य विस्फजित
स्फारोदारयशः प्रचारसततव्याकीर्णबिश्वत्रयः । श्रीमन्नेमिकुमारसूनुरखिलप्रज्ञालुचूडामणिः काव्यानामनुशासनं वरमिदं चक्र कविर्वाग्भटः ।।
काव्यानुशासन (निर्णयसागर सं., 1915 ई0) का अन्तिम श्लोक । 18. कृष्णमाचार्य, हिस्ट्री ऑफ क्लैसिकल संस्कृत लिटरेचर, पृ. 7641 19. अलङ्गारमहोदधि की प्रस्तावना। 20. कृष्णमाचार्य, हिस्ट्री ऑफ क्लैसिकल संस्कृत लिटरेचर, 4 780 ।
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जैन- टीकाकार
अनेक जैन आचार्यों ने काव्यशास्त्र के उत्कृष्ट ग्रन्थों पर टीकाओं की रचना की है ।
वादसिंह ने दण्डी के काव्यादर्श की टीका की 122 रुद्रट के काव्यालङ्कार के कई जैन टीकाकार हुए हैं । नमिसाधु काव्यालङ्कार के प्रसिद्ध टीकाकार हैं । इनके शीलभद्र थे । इन्होंने अपनी टीका की रचना गुरू 1069 ई. में की -
एवं रुद्रटकाव्यालङ्कतिटिप्पणकविरचनात् पुण्यम् । यदवापि मया तस्मान्मनः परोपकृतिरति भूयात् ॥ थारापद्रपुरीय गच्छतिलकः पाण्डित्य सीमाभवत्सूरिभूरिगुणकमन्दिरमिह श्रीशालिभद्राभिधः । तत्पादाम्बुजषट्पदेन नमिना सङ्क्षेपसम्प्रेक्षिणः ghat मुग्धधियोऽधिकृत्य रचितं सट्टिप्पणं लहवदः ॥ पञ्चविंशतिसंयुक्तैरेकादशसमाशतैः ।
विक्रमात् समतिक्रान्तः प्रावृषीदं समर्थितम् ॥ 23
25. गुणानपेक्षिगी यस्मिन्नर्थालङ्कारतत्परा ।
21.,
22. अलङ्कारमहोदधि की प्रस्तावना ।
23. काव्यालंकार की नमिसाधु- कृत टीका के अन्तिम श्लोक |
24. काणे, संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास ( मोतीलाल सं., 1966 ई.), पृ. 197-98 और अलङ्कारमहोदधि
की प्रस्तावना |
काव्यालङ्कार के अन्य जैन - टीकाकार आशाधर हैं। इन्होंने अपने पिता का नाम सल्लक्षण और पुत्र का नाम छाड बतलाया है । इन्होंने टीका की रचना 1239-43 ई. में की। इनकी अन्य रचनाएँ हैं - अमरकोश की टीका, वाग्मट कृत अष्टाङ्गहृदय की टीका, त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र, रत्नत्रयविधानशास्त्र आदि 124
काव्यप्रकाश की सबसे प्राचीन टीका माणिक्यचन्द्रकृत सङ्केत है। माणिवयचन्द्र सागरेन्दु के शिष्य थे । इन्होंने टीका की रचना 1159 ई. में को 25 माणिक्यचन्द्र गुर्जर देश के निवासी थे । इनकी टीका में किसी टीका या टीकाकार के नाम का उल्लेख नहीं मिलता । अभिधावृत्तिमातृकाकार मुकुल और सरस्वतीकण्ठाभरणकार भोजराज का उल्लेख मिलता है 1 26
प्रौढापि जायते बुद्धिः सङ्केतः सोऽयमद्भुतः ॥1॥
मदमदन तुषारक्षेपपूषाबिभूषा जिनवदनसरोजावासिवागीश्वरीया ।
26. वही, पृ. 21।
27. अलङ्कारमहोदधि की प्रस्तावना ।
गुणरत्नगणि ने काव्यप्रकाश की सारदीपिका नामक टीका की रचना की तथा भानुचन्द्र सिद्धचन्द्र ने काव्यप्रकाशविवृति का प्रणयन किया |22
द्य मुखमरिवलतर्क ग्रन्थपङ्क रुहाणां तदनु समजनि श्रीसागरेन्दुर्मुनीन्द्रः ॥10॥
माणिक्यचन्द्राचार्येण तदङ्घ्रिकमलालिना ।
काव्यप्रकाशसङ्क ेतः स्वान्योपकृतये कृतः || lin
रसवक्त्रग्रहाधीशवत्सरे ( संवत् 1216) मासि माधवे ।
काव्ये काव्यप्रकाशस्य सङ्कतोऽयं समर्थितः ॥12॥
काव्यप्रकाश (झलकीकर की टीका) की प्रस्तावना के पृ. 21-22 पर सङ्केत के श्लोक उद्धृत ।
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________________ अनेक जैनों ने वाग्भटालङ्कार की टीका की / वाग्भटालङ्कार के अन्य जैन-टीकाकार हैं-जिनसिंहदेवगणि की टीका चौखम्बा विद्याभवन से प्रकाशित वर्धनसूरि, क्षेमहंसगणि, ज्ञानप्रमोदगणि, वादिराज, (1957 ई.) हुई है। इन्होंने मुग्धजनों के प्रबोध और राजहंसोपाध्याय, समयसुन्दर आदि / अपनी स्मृति की वृद्धि के लिए टीका की रचना की आजड ने सरस्वतीकण्ठाभरण तथा जिनप्रभ, शिववाग्भटकवीन्द्ररचितालंकृतिसत्राणि किमपि विवणोमि / चन्द्र, विनय रत्न, विद्यासागर आदि ने धर्मदास-कृत मुग्धजनबोधहेतोः स्वस्य स्मृतिजननवृद्ध्यै च // विदग्धमुखमण्डन की टीका की। 28. काव्यालङ्कार की टीका के प्रारम्भ में द्वितीय श्लोक / 29. अलङ्कारमहोदधि की प्रस्तावना, प. 19 तथा कृष्णमाचार्य-कृत हिस्ट्री ऑफ क्लै सिकल संस्कृत लिटरेचर, पृ. 762-63 / 30. अलङ्कारमहोदधि की प्रस्तावना / 255