Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन रामायण 'पउमचरिउ' और हिन्दी रामायण 'मानस'
(डॉ. श्री लक्ष्मीनारायण दुबे)
था।
प्रभाव-सूत्र:
जीवन-सूत्र: जैन रामायण 'पउमचरिउ' (पद्मचरित्र) के रचयिता महाकवि स्वयंभू के समय में ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन धर्म ही भारत के स्वयंभू थे और हिन्दी रामायण "रामचरितमानस' के स्रष्टा गोस्वामी प्रधान धर्म थे । तुलसी के युग में इस्लाम का राजनैतिक प्रभुत्व तुलसीदास थे । स्वयंभू अपभ्रंश के वाल्मीकि थे तो तुलसी अवघी के । स्वयंभू के मूल स्रोत वाल्मीकि थे और तुलसी के भी वे ही
स्वयंभू के जीवन-काल के विषय में पर्याप्त मतभेद है । थे । स्वयंभू ने जिन कवियों का गुणगान किया था, उनमें अपभ्रंश
राहुलजी ने उनका जीवनकाल नवम शताब्दी के पूर्वार्द्ध में माना है के कवि सिर्फ चतुर्मुख हैं जिनका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है।
जबकि डॉ. भायाणी ने उन्हें नवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में माना है । चतुर्मुख का उल्लेख हरिषेण, पुष्पदंत और कनकामर ने भी किया
डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने उनका जन्म सन् ७७० बताया है । तुलसी था । तुलसी ने स्वयंभू की कहीं कोई चर्चा नहीं की है परन्तु
का जीवनकाल सन् १५८२-१६२८ की कालावधि को घेरता है । महामण्डित राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है : मालूम होता है, तुलसी
'पउम चरिउ' (सन् ८५०-६० के मध्य लिखा गया था जबकि बाबा ने स्वयंभू रामायण को जरूर देखा होगा, फिर आश्चर्य है कि
'रामचरित मानस' सन् १५७४-१५७७ में लिखा गया था ।) उन्होंने स्वयंभू की सीता की एकाध किरण भी अपनी सीता में क्यों नहीं डाल दी । तुलसी बाबा ने स्वयंभू-रामायण को देखा था, मेरी
तुलसी की धर्मपली रलावली के समान स्वयंभू की दो इस बात पर आपत्ति होसकती है, लेकिन मैं समझता हूं कि तुलसी
पलियां थीं जो कि सुशिक्षिता तथा काव्य-प्रेमी थीं । प्रथम पली बाबा ने 'क्वचिदन्यतोपि' से स्वयंभू रामायण की ओर ही संकेत
सामिअबूबा ने कवि को विद्याधर काण्ड लिखाने में मदद की थी। किया है | आखिर नाना पुराण, निगम, आगम और रामायण के
द्वितीय पत्नी आइच्चम्बा ने स्वयंभू को अयोध्या काण्ड लिखने में बाद ब्राह्मणों का कौनसा ग्रन्थ बाकी रह जाता है, जिसमें राम की
सहयोग दिया था । उनके एकमेव पुत्र त्रिभुवन ने उनकी तीन कथा आयी है । 'क्वचिदन्यतोपि' से तुलसी बाबा का मतलब है,
कृतियों के अंतिम अंशों को पूर्ण किया था और वह स्वयं को ब्राह्मणों के साहित्य से बाहर 'कहीं अन्यत्र से भी' और अन्यत्र इस
'महाकवि' कहता हुआ अपने पिता के सुकवित्व का उत्तराधिकारी जैन ग्रन्थ में रामकथा बड़े सुन्दर रूप में मौजूद है । जिस सौरौं या
घोषित करता था। उसने 'पंचमी चरिउ' ग्रन्थ को लिखा था । सूकर क्षेत्र में गोस्वामीजी ने राम की कथा सुनी, उसी सोरों में जैन
तुलसी उत्तर भारतवासी थे जबकि स्वयंभू दाक्षिणात्य । तुलसी घरों में स्वयंभू-रामायण पढ़ी जाती थी । रामभक्त रामानन्दी साधु
उत्तर- भारत का अधिक वर्णन करते थे जबकि स्वयंभू दक्षिण राम के पीछे जिस प्रकार पड़े थे, उससे यह बिल्कुल सम्भव है कि
भारत का । स्वयंभू अपने वर्णन में विन्ध्याचल से आगे कम ही उन्हें जैनों के यहां इस रामायण का पता लग गया हो। यह यद्यपि बढ़त थ । वस्तुतः स्वयभू विदर्भवासी थे | गोस्वामीजी से आठ सौ बरस पहले बना था किन्तु तद्भव शब्दों के दोनों महाकवियों की ख्याति अपने युग में फैल चुकी थी। प्राचुर्य तथा लेखकों-वाचकों के जब तब के शब्द - सुधार के कारण स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने अपने पिता को स्वयंभूदेव, कविराज, भी आसानी से समझ में आ सकता था (हिन्दी काव्य-धारा) । कविराज चक्रवर्तित, विद्वान्, कुन्दस चूड़ामणि आदि उपाधियों से डॉ. नेमिचन्द शास्त्री (हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन, भाग १)
अलंकृत किया था जिससे स्वयंभू की अपने समय में ख्याति, यश का भी अभिमत है कि हिन्दी साहित्य के अमर कवि तुलसीदास पर
तथा सम्मान की सूचना भी हमें मिलती है - तुलसी भी अपने समय स्वयंभ की 'पउमचरिउ' और 'भविसयव कहा' का अमिट प्रभाव म वाल्माक क अवतार धाषित हा चक था। पड़ा है । इतना सुनिश्चित है कि 'रामचरित मानस' के अनेक स्थल साहित्य-सूत्र : स्वयंभू की 'पउम चरिउ' रामायण से अत्यधिक प्रभावित हैं तथा
तुलसी ने द्वादश काव्य-ग्रन्थ लिखे थे । स्वयंभू-रचित तीन स्वयंभू की शैली का तुलसीदास ने अनेक स्थलों पर अनुकरण किया
ग्रन्थ 'पउम चरिउ', 'रिट्ठणेमि चरिउ' एवं 'स्वयंभू-कुन्द' बताये
जाते हैं । इनके अतिरिक्त स्वयंभू इसके विपरीत डॉ. उदयभानु सिंह (तुलसी-काव्य-मीमांसा). को 'सिरि पंचमी' और 'सुद्धय चरिय' का अभिमत है कि ब्राह्मण-परम्परा में लिखित ग्रन्थ ही तुलसी- की रचना का भी श्रेय दिया जाता साहित्य के स्रोत हैं । कुछ स्थलों पर बौद्ध-जैन राम-कथाओं से है । स्वयंभू ने सम्भवतः किसी तुलसी-वर्णित रामचरित का सादृश्य देखकर यह अनुमान कर लेना व्याकरण-ग्रन्थ की भी सृष्टि की ठीक नहीं है कि तुलसी ने उनसे प्रभावित होकर वस्तु-ग्रहण किया थी । जैन विद्वान् स्वयंभू को अलंकार है । दोनों के दृष्टिकोण में तात्विक भेद है।
तथा कोश-ग्रन्थ के रचयिता भी मानते हैं । स्वयंभू ने शायद कुल सात
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
(२४)
छद्मवेश, छद्मी, छली, छक्का नर भुवि जान । जयन्तसेन यह दुःखदा, छोडत पावो त्राण Lord
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थ लिखे थे । सप्तम ग्रन्थ का नाम 'सिरि-पंचमी कहा' है। स्वयंभू ने प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की वंदना से अपना काव्यारम्भ उनकी 'सप्त जिव्हा' वास्तव में उनके सात ग्रन्थ थे -
किया है - गजंति ताम्ब कइमच कुंजरा लक्ख-लक्खण-बिहीणा ।
णमह णव-कमल-कोमल-मणहर-वर-वहल कांति-सोहिल्लं । जा सच-दीह-जीहं सयंभु-सीहंण पेच्छिति ॥
उसहस्स पाय कमले स-सुरासुरं वन्दियं सिरसां ।। "स्वयंभू-छन्द" का प्रकाशन सर्वप्रथम हुआ । इसमें आठ तुलसी पार्वती-शंकर के मंगलाचरण से 'मानस' का श्रीगणेश करते अध्याय हैं जिनमें प्रथम तीन अध्यायों में प्राकृत 'कुन्दों' तथा । परवर्ती पांच अध्यायों में अपभ्रंश कुंदों का वर्णन है । स्वयंभू ने
भिवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणी । अपने इस ग्रन्थ से राजशेखर, हेमचन्द्र आदि को प्रभावित किया था।
याम्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थमीश्वरम् ।। स्वयंभू को अमर-शाश्वत बनाने वाली रचनाएं 'पउमचरिउ'
'पउमचरिउ' तथा 'मानस' के कतिपय कथा सूत्र भी तथा 'रिट्ठणेमिचरिउ' हैं | जैन-परिपाटी में 'पद्म' श्रीराम का
अवलोकनीय हैं। स्वयंभू राम वनवास में सीता के वियोग में गज परिचायक है । स्वयंभू जैन रामकथा गायक विमलसरि की परम्परा से मृग-नैनी सीता की बात पूछते हैंके कवि थे । उन्होंने इस कथा को अनेक अभिधानों से उद्भासित हे कुंजर कामिणि-गह-गमज । कहेकंहि मि दिह जइ मिगणयण ।। किया था यथा - पोमचरिय, रामायण पुराण, रामायण, रामएवचरिय,
'मानस' के राम भी इसी प्रकार पूछते-फिरते दिखायी देते रामचरिय, रामायणकाव, राघवचरिय, रामकहा इत्यादि । 'पउम चरिउ' पांच काण्डों में विभाजित है जबकि 'रामचरित मानस' सप्त सोपानों में । 'पउम चरिउ' में कुल मिलाकर ९० संधियां हैं - "हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी । तुम देखी सीता मृग नैनी ।। विद्याधर काण्ड - २०, अयोध्याकाण्ड - २२, सुन्दरकाण्ड - १४, स्वयंभू के राम नीलकमलों को सीता के नयन समझते हैं तो कहीं युद्धकाण्ड - २१ तथा उत्तरकाण्ड - १३ संधियां | समूचे ग्रन्थ में अशोक को सीता की बांह मान बैठते हैं - कुल १२६९ कडवक हैं । 'रिट्ठणेमेचरिउ' स्वयंभू का सबसे बड़ा
णिय-पाड़िर वेण वैयारियउ । जाणइ सीयएं हक्कारियउ । ग्रन्थ है । इसमें १८ हजार श्लोक हैं । इसमें ४ काण्ड और १२० संधियां है।
कत्थइ दिट्टई इन्दीवरहं । जणइ घण-णयणई दीहरहे । मान्यता-सूत्रः
कत्थइ असोय-तरू हल्लियउ | जानाइ घण-वाहा-डौल्लियउ । म स्वयंभू और तुलसी रामकथा के सूत्र से सम्बद्ध थे । दोनों में वणु सयलु गवेसवि सयल महि । पल्लट्ठ पडीवउ दासरहि ।। लगभग ७५० वर्षों का अंतर था । दोनों के काव्य-सिद्धातों में तुलसी के राम की भी यही स्थिति है । उनको ऐसा प्रतीत अंतर दिखायी पड़ता है । स्वयंभूने शाश्वत कीर्ति और अभिव्यंजना होता है कि मानों सीता के अंग-प्रत्यंगों से ईर्ष्या करने वाले खंजन, को अपने लक्ष्य स्वीकार किये थे
मृग, कुंद, कमल आदि इस समय प्रमुदित हैं - पुणु अथाणउ पाय मि रामायण काई । सान्तसता-मारी
खंजन सुक कपोत मृग मीना । मधुप निकर कोकिला प्रवीना ।। णिम्मल पुण्य पवित्र-कह-क्विण आढप्पड़ । शमी
कुंद कली दाडिम दामिनी । कमल सरद ससि अहिमामिनी ॥ जैण समाणिज्जंतेण थिर किचणु विपढप्पढ़ ॥ णार
बरुन पास मनोज धनुहंसा । गज के हरि निज सुनत प्रसंसा ॥ तुलसी के काव्योद्देश्य में राम के स्तवन के साथ आत्मकल्याण
श्रीफल कनक कदलि हरसाहीं । नेक न संक सकुच मनमाहीं ॥ तथा परहित निहित था -
सुनु जानकी तोहि बिनु आजु । हरषे सकल पाइ जनु राजू ।। एहि महं रघुपति काम उदारा, अति पावन पुरान स्मृति सारा ।
स्वयंभू ने सीता के असहाय करुण-क्रन्दन को मार्मिक रूप में प्रस्तुत मंगलभवन अमंगलहारी, उमा सहित, जेहि जपत मुरारी ॥ किया है -
स्वयंभू को राम-कथा जैन-परम्परा से प्राप्त हुई । भगवान हउंपावेण एण अवगपणेवि । णिय तिहवणु अ-मणूसउ मण्णे वि ।। महावीर स्वामी, गौतम गणधर, सुधर्मा प्रभव, कीर्तिधर और आचार्य रविषेणसे यह धारा उन्हें मिली । तुलसी को स्वयंभू शिव से
अह महं कवणु णेइ कन्दन्ती । प्राप्त हुई । स्वयंभू रविषेण को अपना मुखिया मानते थे -
नक्खण राम-वे विजइ हुन्ती ।।
हा हा दसरह माण गुणोवहि । बद्धमाण-मुह-कुहर विणिग्गय । राम-कहा-णइ एह कमागय ।।
हा हा जणय जणय अवतीयहि ॥ पच्छर इन्तमुह-आयरिएं । पुणु धम्मेण गुणालंकिएं ।
हा अपराइएं हा हा केक्कह । पुणु पहवे संसाराराएं । किचिहरेण अणुचरवाएं ॥
हा सुप्पेहें सुमिचें सुन्दर-मह ॥ पुण रविषेणायरिय पसाएं । बुहिए अवगाहिय कइराएं ॥ हा सुतहण भरह भरहेसर ।
हा भामष्कुल भाइ सहोयर ॥
(२५)
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education Interational
चोरी, चुगली, चाटुकी, चालाकी ये चार । जयन्तसेन तजो करो, पापों का परिहार Hy.org
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
हा हा पुणु वि राम हा लक्खण को सुमरमि कहो कहपि अ लक्खण ||
को संववध मह को सुहि कहीं दुक्खु महन्त उ
जहिं जहिं जामि हउं त त जि पएसु पतिचउ ॥ यही स्थिति 'मानस' में भी है
हा जग एक बीर रघुराया । केहि अपराध विसारेहु दाया || आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक ॥ हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा । सो फलु पायउं कान्हेउ रोसा ।। विपति मोरिको प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा ॥ सीता के विलाप सुनि भारी । भये चराचर जीव दुखारी ॥
अहिंसा मूलक जैन धर्म के अनुयायी होने के कारण स्वयंभू कहीं भी आखेट का वर्णन नहीं करते परंतु युद्ध-वर्णन में उनका उत्साह अमित है और उन्होंने प्रचुर युद्ध-वर्णन प्रस्तुत किये हैं। उनमें वस्तु-वर्णन तथा गणना की प्रवृत्ति का आधिक्य है । वे वृक्षों के नामों की लम्बी सूची प्रस्तुत करते हैं। उनकी प्रवृत्ति मन्दोदरी तथा सीता के नख-शिख वर्णन में बड़ी रमी है । यह स्थिति तुलसी की नहीं है। दोनों कवियों में धार्मिक भावना की प्रधानता है । स्वयंभू ने जैन धर्म के आचारात्मक तथा विचारात्मक दोनों पक्षों का निरूपण किया है । स्वयंभू के रामचन्द्र प्रभु जिनकी स्तुति करते हैं
म
1
जय तु गइ तुरुं मद्द तु सरपु तुहुं माया यप्पु तुहुं बन्धु जणु ।। तुहुं परम-पक्खु परमति-हरू । तुहुं सहबहुं परहुं पराहियरू || तुहुं दंसणे णाणे चरिचे थिउ । तुहुं सयल-सुरासुरैहि णमिउ ॥ सिद्धनो मन्ते तुहुं वायरणें । सज्झाएं झाणे तुहुं तव चरणें ॥ अरहन्तुं वुदु तुहुं हरि हरूर वि तुहुं अण्णाण तमोह- रिउ । तुहुं सुहुम निरंजण परमणु तुहुं रवि वम्भु सयम्भु सिउ ॥
स्वयंभू का दृष्टिकोण उदार तथा सहिष्णू था । उन्होंने कहीं भी ब्राह्मण धर्म की निन्दा नहीं की। उन्होंने हिन्दु देवताओं, अवतारों तथा भगवान बुद्ध का नाम सम्मान के साथ लिया है । उन्होंने अपने धर्म का प्रचार अवश्य किया है परंतु परनिन्दा में वे नहीं पड़े ।
नारी-सूत्र :
स्वयंभू के समस्त पात्र जैन धर्मावलम्बी हैं । उनके समस्त नारी पात्र 'जिन भक्त' हैं। तुलसी ने अपने नारी पात्रों में जिस उदात्तता के अंश की समाविष्ट किया था, उसका अभाव स्वयंभू में दिखायी पड़ता है। स्वयंभू ने सुप्रभा, अपरम्मा, अंजना, कल्याण, माला आदि अनेक नारी पात्रों की नूतन सृष्टि की है।
स्वयंभू की कौशल्या 'अपराजिता' है । उसमें सिर्फ पुत्र-प्रेम है । तुलसी के मातृत्व तथा मार्मिकता का उसमें अभाव है। तुलसी की कैकयी स्वयंभू की कैकयी से अधिक प्राणवान् है । 'पउम चरिउ' में सुमित्रा सामान्य नारी है। स्वयंभू की उपरंभा की अतीव कामासक्ति को तुलसी का मर्यादावादी कवि कभी स्वीकार नहीं
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ विश्लेषण
करता । नारी के विषय में दोनों महाकवियों के समान विचार हैं। अहो साहस पमण्ड पहु मुयवि ज महिल काइ तं पुरिसु णवि । दुम्मलि जि भीसण जम-णयरि । दुम्बहिल जि असणि जगत-यरि ॥ (स्वयंभू)
काह न पावक जारि सके, का न समुद्र समाइ । का न करे अबला प्रबल, कैहि जग कालु न खाइ ॥
स्वयंभू का नारी-चित्रण स्थूल, परिपाटीगत तथा औपचारिक है। उसमें तुलसीकी सी कलात्मक तथा मनोवैज्ञानिकता नहीं है । तुलसी का रावण संयत है परन्तु स्वयंभू का रावण सीता के प्रति अपनी कामुकतापूर्ण मनोवृत्ति तथा चेष्टाओं का प्रदर्शन करता दिखायी देता है । वह चोर की भांति सीता का सौन्दर्य निहारता है और उससे श्रीराम को प्राप्त होने वाले भौतिक आनन्द की कल्पना में डूबकर ईर्ष्यालु हो जाता है । विराग प्रधान होने के कारण स्त्रीरति की बुराई से जैन धर्म भरा पड़ा है। स्वयंभू ने नारी के सौन्दर्य की नश्वरता का रूप बारम्बार उद्घाटित किया है । चरितकाव्य-सूत्र :
'पउम चरिउ' और 'मानस' दोनों चरितकाव्य हैं। दोनों को पौराणिक शैली के महाकाव्यों की श्रेणी में स्थान दिया गया है। स्वयंभू ने अपने नायक श्रीराम में मनुष्यत्व अधिक देखा है और इस दृष्टि से ये आधुनिक काल के माइकेल मधुसूदन दत्त के अधिक निकट दिखायी देते हैं। इसके विपरीत तुलसी के राम परब्रह्म परमेश्वर हैं । स्वयंभू का कवि हृदय रावण में जितना रमा है, उतना राम में नहीं । स्वयंभू सीता का रूप-सौन्दर्य इस प्रकार नख - शिख के रूप में उपस्थित करते हैं
सुकइ-कह-व्व सु-सन्धि-सु सन्धि य । सु-पय सु-वयज सु सद्द सुवद्धिय ॥ धिर - कलहंस-गमण गइ - मंधर । किस मज्झारे णियम्बे सु-वित्थर । रोमावलि मयरहरूतिणि । णं पिम्पिति-रिंकोलि विलिपणी ॥ अहिणव-हुंड, पिंड-पील-त्थण । णं मयगल उर-खंम णिसुंमण || रेहइ वयण- कमलु अलंकउ । णं माणस-सरे वियसिउ पंकउ || सु-ललिय-लोलण ललिय-पसण्णह । णं वरइत्त मिलिय वर- कण्णइ ॥ घोस मुट्ठिहि वेणि महाहणि चंदन-तयहि सलइ णं णाहणि ॥
(२६)
FIF
तुलसी का सौन्दर्य वर्णन आंतरिक तथा सात्विक है। सुन्दरता कहुं सुन्दर करई । छबिगृह दीपसिखा जनु बरई । सब उपमा कवि रहे जुठारी । केहि पटतरो विदेहकुमारी ।
ST
कुन्छ
और
सिय वरनिऊ तेइ उपमा देई । कुकवि कहार अजसु को लेई । जें पटतरिय तीय सम सीया । जग असि जुवति को कमनीया
टंटाटिक टिक टनटनी, टीपस राखणहार । जयन्तसेन यहाँ सभी पाते दुःख अपार ||.org
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
जें कबि सुधा पयोनिधि होई । परम रूपमय कच्छपु सोई। सोमा रजु मंदरू सिंगाऊ । मपै पानि पंकज निज मारू ।
एहिविधि उपजै लच्छि तव सुन्दरता सुखमूल । यो तदपि संकोच समेत कवि कहहिं सीय समतूल ॥ स्वयंभू में तुलसी के समक्ष सामाजिकता तथा समाजअनुशासन का अभाव है। 'पउम चरिउ' में विभीषण जनक और दशरथ को मरवाने का असफल प्रयास करता है | भामण्डल अपनी भगिनी सीता पर कामासक्त हो जाता है । रावण सीता को वायुयान में बिठाकर लंका घुमाता है । ये सब स्वयंभू की आश्चर्यजनक उद्भावानएं हैं।
स्वयंभू ने रावण को दशमुखी राक्षस न मानकर विद्याधर वंशी माना है । उनके सभी पात्र जन्मतः जैन मतानुयायी हैं । स्वयंभू के लक्ष्मण रावण का वध करते हैं क्योंकि वे वासुदेव हैं। स्वयंभू ने राम-कथा-साहित्य के श्रृंगारी रूप का मार्ग प्रशस्त किया था । तुलसी ने रामकथा को घर-घर में गुंजायमान कर दिया और उसके शाश्वत आदर्शों से जनता प्रेरणा पाने लगी । स्वयंभू राज्याश्रित कवि थे परंतु तुलसी अपने चार चने में ही मस्त रहे और कमी किसी राजा की परवाह नहीं की । संरचना के दृष्टिकोण से स्वयंभू तुलसी को प्रभावित करते हैं | स्वयंभू में रसात्मकता मिलती है तो तुलसी में रमणीयता । प्रतिबिम्ब सूत्र :
तुलसी ने महर्षि वाल्मीकि (रामायण) तथा वेद व्यास (महाभारत) की तो वन्दना की है परन्तु स्वयंभू का कहीं नाम नहीं लिया -
सीताराम-गुण ग्राम पुण्यारण्य-विहारणौ । वन्दे विशुद्ध विज्ञानौ कवीश्वर कपीश्वरौ ||
और
किन व्यास आदि कवि पुंगव नाना। जिन सादर हरि सुजस बखाना ॥
तुलसी के समान स्वयंभू ने भी अपने पूर्वज कवियों का ऋण स्वीकार किया है । तुलसी ने बिना किसी का नाम लिये प्राकृतकवियों का स्तवन किया है -
जे प्राकृत कवि परम सयाने । जात भाषा जिन्ह हरि चरित बखाने । डॉ. शम्भूनाथसिंह (हिन्दी महाकाव्य का स्वरूप-विकास) ने इस प्रसंग में लिखा है कि यहां प्राकृत कवि का अभिप्राय प्राकृत और अपभ्रंश में रामकथा लिखने वाले विमलसूरि, स्वयंभू, पुष्पदेव आदि कवियों से है । रामचरित मानस की भाषा और शैली पर स्वयंभू का प्रभाव तो स्पष्ट दिखाई देता है।
तुलसी ने 'मानस' की समाप्ति की पुष्पिका में लिखा है - या पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गम । श्रीमद्रामपदाजभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम् ।
मत्वा तद्रघुनाथनाम निरतं स्वान्तस्तमः शान्तये ।
भाषाबद्धमिदंचकार तुलसीदासस्तथा मानसम् ॥ कतिपय टीकाकारों ने 'कृतं सुकविना श्रीशम्भुना' से संकेतार्थ निकाला है कि सुकवि स्वयंभू ने पहले जिस दुर्गम रामायण की सृष्टि की थी, उसी को तुलसी ने 'मानस' के रूप में भाषाबद्ध कर दिया। लिया डा. संकटा प्रसाद उपाध्याय (कवि स्वयंभू) की भी सम्मति है कि स्वयंभू ने तुलसी को प्रभावित किया था परंतु वे धार्मिक बाधा के कारण स्वयंभ का नामोल्लेख नहीं कर सके । तलसी वर्णाश्रम-विरोधी किसी अन्य धर्म अथवा उसके उन्नायक कवि का नाम नहीं लेना चाहते थे।
" स्वयंभू-रामायण तथा तुलसी-मानस में अनेक स्थलों में साम्य दिखायी पड़ता है । स्वयंभू ने अपने काव्य सरिता वाले रूपक में लिखा है कि यह अक्षर व्यास के जल-समूह से मनोहर सुन्दर अलंकार तथा छंद रूप मछलियों से आपूर्ण और लम्बे समास रूपी प्रवाह से अंकित है । यह संस्कृत और प्राकृत रूपी पुलिनों से शोभित देशी भाषा रूपी दो कूलों से उज्ज्वल हैं । इसमें कहीं-कहीं घन शब्द रूपी शिला-तल हैं । कहीं-कहीं यह अनेक अर्थरूपी तरंगों से अस्त-व्यस्त-सी हो गई है । यह शताधिक आश्वासन रूपी तीर्थों से सम्मानित है -
अक्खर-बास-जलोह मनोहर | सु-अलंकार हन्व मच्छोदर ।। दीह समास पवाहावकिय । सक्कय-पायय-पुलिणा लंकिय ।। देसी-भासा-उभय-तहुज्जल | क वि दुक्कर-घण-सद्द-सिलायल ।
अत्थ-वहल-कल्लोलाणिट्ठिय । आसासय-सम-तूह-परिट्ठिय ॥ तुलसी का काव्य-सरोवर-रूपक इस प्रकार है - सप्त प्रबंध सुमग सोपाना । ग्यान नयन निरावत मन माना । रघुपति महिमा अगुन अबाधा । वरनव सोइ वर वारि अगाधा । रामसीय जस सलिल सुधासम । उपमा बीचि विलास मनोरम ॥ पुरइन सधन चारु चौपाई । जुगुति मंजु मनि सीय सुहाई ।। छंद सोरठा सुन्दर दोहा । सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा ॥ अरथ अनूप सुभाव सुभासा । सोइ पराग मकरन्द सुवासा ।। सुकृत पुंज मंजुल अलि माला । ग्यान विराग विचार मराला ॥ धुनि अवरेव कवित गुन जाती । मीन मनोहर जे बहु भांती । अरथ धरम कामादिक चारी । कहब ज्ञान विज्ञान विचारी ॥ नवरस जप तप जोग विरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा ।। 'पउम चरिउ' में राम-कथा का श्रीगणेश श्रेणिक की शंका से होता
को परमेसर पर-सासणेहि सुबह विवरेरी। काकी
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
(२७)
दयाहीन दागी तथा, दुर्गुण देखन हार । जयन्तसेन तजो सदा, ये दुःख के दातार || .
www.jairneidlary.org
Jain Education Interational
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________ कहें जिण-सासणे केम थिय कइ राघव-केरी // करन चहउं रघुपति गुनगाहा / लघुमति मोरि चरित अवगाहा / / वह आगे व्यंग्य करता है डूब न एकउ अंग उपाऊ | मन मति रंक मनोरथ राऊ / / जइ राम हों तिहुअणु उवरें माइ / तो रावणु कहि तिय लेवि मति अति नीच ऊंचि रुचि आछी / चहिअ अमिख जग जुरइ न जाइ / 'मानस' में भी पार्वती शंका करती है काछी // जो नृप तनय त ब्रह्म किमि, नारि-विरह मति मोरि / छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई / सुनिहहिं बालवचन मन लाई / / देखि चरित महिमा सुनत, भ्रमति बुद्धि अति मोरि // जो बालक कह तोतरि बाता / सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता / भरद्वाज की जिज्ञासा भी इसी प्रकार है - जन हंसहहिं कूर कुटिल कुविचारी / जे पर दूषन भूषन धारी / / प्रभु सोइ राम कि अमर कोइ जाहि जगत त्रिपुरारि। सत्य धाम सर्वज्ञ तुम्ह करहु विवेक विचारि // भाव भेद रख मेव अपारा | कवित दोष गुन विविध प्रकारा / 'पउम चरिउ' में श्रेणिक की शंका के निवारण हेतु गणधर गौतम कवित विवेक एक नहिं मोरे / सत्य कहउं लिखि कागद कोरे / / राम-कथा का उद्भव इस प्रकार निरूपित करते हैं - "भविरायसकहा' की निम्न पंक्तियों में भी बड़ी समानता है - बद्धमाण मुह कुहर विणिग्गय / राम-कहा णह एह कमागय // सुणिमित्तं जा अई तासु ताम / गय पथहिणत्ति उड्डेवि साम / एह राम कह सरि सोहन्ती / गणहर देवहि दिट्ठवहन्ती / / वायंगि सुत्ति सहसहइ वाउ / पिय मेलावह कुलकुल काउ // पच्छइ हन्दमूइ-आयरिए / पुण धम्मेण गुणा लंकरिए / वामउ किलकिंचिउ लावएण / वाहिणउ अंगु नरिसिउ मएण // पुणु पहवे संसारा राएं / कित्ति हरेण अणुत्तर बाएं // दाहिणउ लोयणु फंदह सुवाहु / णं पणइ एण मग्गेण जाहु // पुणु रविषेणायरि पसाएँ / बुद्धि ए अवगाहिय कइराएं // तुलसी ने भी उसी भाव की सम्पुष्टि की है - 'मानस' में राम-कथा की यह परिपाटी निरूपित हैं - दाहिन काग सुखेत सुहावा / नकुल वरस सब काहुन पावा / संभु कीन्ह यह चरित सुहावा / बहुरि कृपा करि उमहिं सुनावा // सानुकूल वह त्रिविध बयारी / सघट सबाल पाव वर नारी / / सोइ सिव कागमुसुंडिहिं दीन्हा / राम-भगति अधिकारी चीन्हा / / लोवा फिरि-फिरि दरस दिखावा / सुरभी सम्मुख शिशुहि आवा / / तेहि सन जागवलिक पुनि पावा | तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा // मृगमाला दाहिन दिशि आई / मंगल गन जनु दीन्ह दिखाई / / में मुनि निज गुरु सन सुनी कथा सो सूकर खेत / निष्कर्ष सूत्र: समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउ अचेत / / 'पउमचरिउ' जैन संस्कृति से ओतप्रोत राम-काव्य है / उसने स्वयंभू के आत्मनिवेदन और तुलसी के आत्मनिवेदन में 'मानस' को यत्र-तत्र प्रभावित किया है / स्वयंभू ओज के कवि काफी भावसादश्य हैं / 'पउम चरिउ' में स्वयंभू कहते हैं - थे / उनकी सबसे बड़ी देन सीता का चरित्र चित्रण है / तुलसी ने बुह-यण संयमु पहं विण्णवह / महु सरिसउ अण्ण णाहि कुमइ // समूचे भारतीय मानस को प्रभावित किया है / वे अपने कृतित्व तथा साहित्य-स्रोतों के विषय में बड़े ईमानदार थे / हिन्दी का युग वायम्भु कयाइ ण जाणि यउ / णउ विधि-सुत्त वक्खाणियउ || आते-आते उनका कोई नामलेवा नहीं रह गया था / किसी ने णा णिसुणिन पंच महाय कव्वु / णउ मरहु ण लक्खणु कुंदु सब्बु।। उनका स्तवन नहीं किया / इसका कारण था कि हिन्दी में आभारणउ वुज्झिउ पिंगल-पच्छारू / णउ भामह दंडीय लंकारू / प्रदर्शन की परिपाटी समाप्त हो गयी थी / इसके एकमेव अपवाद महाकवि गोस्वामी तुलसीदास थे जिन्होंने अपने पूर्व प्रमुख कवियों वे वे साय तो वि णउ परिह रमि / बरि रयडा वुत्तु क्षब्बु करमि // का तर्पण किया है / अन्य किसी कवि ने अपने पूर्ववर्ती कवियों सामाणमास छुड मा विहडउ / छुडु आगम-जुत्ति किंपि धडउ // का स्मरण नहीं किया / राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने 'साकेत' में कुडु होति सु हासिय वयणाई / गामेल्ल-मास परिहरणाई // रामकाव्य के गायकों तथा पुरस्कर्ताओं का सादर नामोल्लेख किया एहु सज्जण लोमहु किउ विणउ / ज अबुहु पदरिसिउ अप्पणउ // S 'पउम चरिउ' और 'रामचरित जं एवंबि रूसाइ कोवि खलु / तहो हत्युत्थल्लिड लेउ छलु / / मानस' भारतीय साहित्य की वह पिसुणे कि अब्मत्थिएण, जसु कोवि ण रूच्चइ / अनूठी, अप्रतिम तथा प्रौढ़ किं छण-इन्दु मरूगाहे, ण कंपंतु विभुच्चइ // उपलब्धियां हैं जिन्होंने रामकथा तथा रामकाव्य को युगांतर प्रदान किया तुलसी ने भी अपनी लघुता प्रदर्शित की हैनिज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं / तातें विनय करउं सब पाहीं / / श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (28) प्रेमी आत्मजा अंगना; मित्र बंधु परिवार / जयन्तसेन सभी साथ, रह जलकमल विचार ||