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ग्रन्थ लिखे थे । सप्तम ग्रन्थ का नाम 'सिरि-पंचमी कहा' है। स्वयंभू ने प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की वंदना से अपना काव्यारम्भ उनकी 'सप्त जिव्हा' वास्तव में उनके सात ग्रन्थ थे -
किया है - गजंति ताम्ब कइमच कुंजरा लक्ख-लक्खण-बिहीणा ।
णमह णव-कमल-कोमल-मणहर-वर-वहल कांति-सोहिल्लं । जा सच-दीह-जीहं सयंभु-सीहंण पेच्छिति ॥
उसहस्स पाय कमले स-सुरासुरं वन्दियं सिरसां ।। "स्वयंभू-छन्द" का प्रकाशन सर्वप्रथम हुआ । इसमें आठ तुलसी पार्वती-शंकर के मंगलाचरण से 'मानस' का श्रीगणेश करते अध्याय हैं जिनमें प्रथम तीन अध्यायों में प्राकृत 'कुन्दों' तथा । परवर्ती पांच अध्यायों में अपभ्रंश कुंदों का वर्णन है । स्वयंभू ने
भिवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणी । अपने इस ग्रन्थ से राजशेखर, हेमचन्द्र आदि को प्रभावित किया था।
याम्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थमीश्वरम् ।। स्वयंभू को अमर-शाश्वत बनाने वाली रचनाएं 'पउमचरिउ'
'पउमचरिउ' तथा 'मानस' के कतिपय कथा सूत्र भी तथा 'रिट्ठणेमिचरिउ' हैं | जैन-परिपाटी में 'पद्म' श्रीराम का
अवलोकनीय हैं। स्वयंभू राम वनवास में सीता के वियोग में गज परिचायक है । स्वयंभू जैन रामकथा गायक विमलसरि की परम्परा से मृग-नैनी सीता की बात पूछते हैंके कवि थे । उन्होंने इस कथा को अनेक अभिधानों से उद्भासित हे कुंजर कामिणि-गह-गमज । कहेकंहि मि दिह जइ मिगणयण ।। किया था यथा - पोमचरिय, रामायण पुराण, रामायण, रामएवचरिय,
'मानस' के राम भी इसी प्रकार पूछते-फिरते दिखायी देते रामचरिय, रामायणकाव, राघवचरिय, रामकहा इत्यादि । 'पउम चरिउ' पांच काण्डों में विभाजित है जबकि 'रामचरित मानस' सप्त सोपानों में । 'पउम चरिउ' में कुल मिलाकर ९० संधियां हैं - "हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी । तुम देखी सीता मृग नैनी ।। विद्याधर काण्ड - २०, अयोध्याकाण्ड - २२, सुन्दरकाण्ड - १४, स्वयंभू के राम नीलकमलों को सीता के नयन समझते हैं तो कहीं युद्धकाण्ड - २१ तथा उत्तरकाण्ड - १३ संधियां | समूचे ग्रन्थ में अशोक को सीता की बांह मान बैठते हैं - कुल १२६९ कडवक हैं । 'रिट्ठणेमेचरिउ' स्वयंभू का सबसे बड़ा
णिय-पाड़िर वेण वैयारियउ । जाणइ सीयएं हक्कारियउ । ग्रन्थ है । इसमें १८ हजार श्लोक हैं । इसमें ४ काण्ड और १२० संधियां है।
कत्थइ दिट्टई इन्दीवरहं । जणइ घण-णयणई दीहरहे । मान्यता-सूत्रः
कत्थइ असोय-तरू हल्लियउ | जानाइ घण-वाहा-डौल्लियउ । म स्वयंभू और तुलसी रामकथा के सूत्र से सम्बद्ध थे । दोनों में वणु सयलु गवेसवि सयल महि । पल्लट्ठ पडीवउ दासरहि ।। लगभग ७५० वर्षों का अंतर था । दोनों के काव्य-सिद्धातों में तुलसी के राम की भी यही स्थिति है । उनको ऐसा प्रतीत अंतर दिखायी पड़ता है । स्वयंभूने शाश्वत कीर्ति और अभिव्यंजना होता है कि मानों सीता के अंग-प्रत्यंगों से ईर्ष्या करने वाले खंजन, को अपने लक्ष्य स्वीकार किये थे
मृग, कुंद, कमल आदि इस समय प्रमुदित हैं - पुणु अथाणउ पाय मि रामायण काई । सान्तसता-मारी
खंजन सुक कपोत मृग मीना । मधुप निकर कोकिला प्रवीना ।। णिम्मल पुण्य पवित्र-कह-क्विण आढप्पड़ । शमी
कुंद कली दाडिम दामिनी । कमल सरद ससि अहिमामिनी ॥ जैण समाणिज्जंतेण थिर किचणु विपढप्पढ़ ॥ णार
बरुन पास मनोज धनुहंसा । गज के हरि निज सुनत प्रसंसा ॥ तुलसी के काव्योद्देश्य में राम के स्तवन के साथ आत्मकल्याण
श्रीफल कनक कदलि हरसाहीं । नेक न संक सकुच मनमाहीं ॥ तथा परहित निहित था -
सुनु जानकी तोहि बिनु आजु । हरषे सकल पाइ जनु राजू ।। एहि महं रघुपति काम उदारा, अति पावन पुरान स्मृति सारा ।
स्वयंभू ने सीता के असहाय करुण-क्रन्दन को मार्मिक रूप में प्रस्तुत मंगलभवन अमंगलहारी, उमा सहित, जेहि जपत मुरारी ॥ किया है -
स्वयंभू को राम-कथा जैन-परम्परा से प्राप्त हुई । भगवान हउंपावेण एण अवगपणेवि । णिय तिहवणु अ-मणूसउ मण्णे वि ।। महावीर स्वामी, गौतम गणधर, सुधर्मा प्रभव, कीर्तिधर और आचार्य रविषेणसे यह धारा उन्हें मिली । तुलसी को स्वयंभू शिव से
अह महं कवणु णेइ कन्दन्ती । प्राप्त हुई । स्वयंभू रविषेण को अपना मुखिया मानते थे -
नक्खण राम-वे विजइ हुन्ती ।।
हा हा दसरह माण गुणोवहि । बद्धमाण-मुह-कुहर विणिग्गय । राम-कहा-णइ एह कमागय ।।
हा हा जणय जणय अवतीयहि ॥ पच्छर इन्तमुह-आयरिएं । पुणु धम्मेण गुणालंकिएं ।
हा अपराइएं हा हा केक्कह । पुणु पहवे संसाराराएं । किचिहरेण अणुचरवाएं ॥
हा सुप्पेहें सुमिचें सुन्दर-मह ॥ पुण रविषेणायरिय पसाएं । बुहिए अवगाहिय कइराएं ॥ हा सुतहण भरह भरहेसर ।
हा भामष्कुल भाइ सहोयर ॥
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श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education Interational
चोरी, चुगली, चाटुकी, चालाकी ये चार । जयन्तसेन तजो करो, पापों का परिहार Hy.org
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