Book Title: Hindi Bhakti Sahitya me Guru ka Swarup aur Mahattva
Author(s): Kishorilal Raigar
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/229957/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 89 हिन्दी-भक्ति-साहित्य में गुरु का स्वरूप एवं महत्त्व ___ डॉ. किशोरीलाल रैगर गुरु वह तत्त्व है जो अज्ञान का नाशकर परमात्म-पद से हमारा साक्षात्कार कराता है। सिद्ध एवं नाथों के साथ हिन्दी के भक्तिकालीन सन्त कवियों कबीर, नानक, रविदास, दादूदयाल, चरनदास, स्वामी शिवदयालसिंह, मीरां, सांई बुल्लेशाह, तुलसीदास आदि के काव्यों में निहित गुरु-महिमा को लेखक ने निपुणता से संयोजित किया है। आलेख से गुरु की उत्कृष्टता का सहज ही बोध होता है। -सम्पादक मनुष्य जन्म लेते ही सीखने की ओर प्रवृत्त होता है। संसार में वह जो कुछ भी ग्रहण करता है, . सीखता है। इसके लिए उसे गुरु की आवश्यकता होती है। वैसे तो संसार के जीवों की प्रथम गुरु उसकी जन्मदात्री 'माँ' होती है, क्योंकि बच्चा जन्मते ही माँ के सम्पर्क में आता है। अतः माँ ही उसे संसार रूपी पाठशाला में पहला पाठ पढ़ाती है। लेकिन जब बात अध्यात्म या भक्ति की आती है तो वहाँ गुरु का अर्थ एक विशिष्ट रूप में लिया जाता है। वेद, उपनिषद्, बौद्ध, जैन, सिद्ध, नाथ साहित्य में गुरु की महत्ता पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। सामान्य अर्थ में 'गुरु' वह है जो जीव को सांसारिक बंधनों से दूर कर उसे अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाये। हिन्दी साहित्य के मध्यकाल में भक्ति की जो पावन सरिता प्रवाहित हुई उसमें डुबकी लगाकर कई भक्त संसार सागर से पार हो गये। सवाल उठता है कि सांसारिक माया-मोह में डूबे जीव को पार लगाने वाला कौन है ? निःसन्देह वह गुरु ही है। चाहे भक्ति की सगुण धारा हो या निर्गुण धारा, दोनों पंथों में ही गुरु के स्वरूप और उसके माहात्म्य पर व्यापक रूप से प्रकाश डाला गया है। हिन्दी के निर्गुण साहित्य की परम्परा सिद्ध, नाथों से प्रारम्भ होकर संतों तक आती है। सिद्धों में सरहपा, शबरपा, लुहपा, डोम्भिपा, कुक्कुरिपा आदि कई प्रसिद्ध सिद्ध कवि हुए हैं। सिद्ध कई गुह्य विद्याओं के ज्ञाता थे। उनको सीखने के लिए समर्थ गुरु की अत्यन्त आवश्यकता पडती थी, क्योंकि वह अध्यात्म पथ पर आगे ले जाता है। सरहपा के बारे में प्रसिद्ध है कि उन्होंने गुरु-सेवा को महत्त्व दिया।' साधना का मार्ग अत्यन्त जटिल होता है, उसमें भटकने से बचने के लिए साधक को गुरु के पास जाना ही पड़ता है। सिद्ध कवि लुईपा ने कहा है - लुई भणई गुरु पुच्छेउ जाण। इसी तरह नाथ साहित्य में भी गुरु के माहात्म्य का विस्तृत वर्णन है। भक्तिमार्ग में अज्ञानी जीव को परमात्मा से मिलाने का सच्चामार्ग गुरु ही बता सकता है। गुरु जीव के अन्दर परमात्मा के प्रति प्रेम पैदा करके उनसे एकाकार होने का मार्ग बताता है, क्योंकि गुरु की कृपा से ही भक्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवाणी 10 जनवरी 2011 अन्तर्हृदय के कपाट खुलते हैं। 'आदिग्रंथ' में इस संबंध में कहा गया है- गुरु परसादी पाईएं अंतरि कपट खुलाही ।' 90 गुरु अर्जुनदेव ने तो यहाँ तक कहा है कि जीवात्मा को प्रेम-भक्ति का आधार बख्शने के लिए परमात्मा स्वयं साधु या गुरु के रूप में प्रकट होता है - 'अंध कूप ते काढनहारा। प्रेम भगति होवत निस्तारा | साध रूप अपना तनु धारिआ । महा अगति ते आपि उबारिआ ।। " शास्त्रों में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के रूप में मानकर साक्षात् परमब्रह्म कहा है। इसी बात को कबीरदास जी ने गुरु के पद को परमात्मा से भी बढ़कर बताते हुए कहा है - 'गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाया। बलिहारि गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय ।।" (कबीर) वास्तव में गुरु परमात्मा से भी बढ़कर होता है, क्योंकि गुरु की कृपा से ही परमात्मा का साक्षात्कार हो सकता है। अन्यथा जीव संसार रूपी सागर में भटकता रहता है। गुरु संसाररूपी ताले की कुंजी है। उनके ज्ञान की के बिना संसार का घुमावदार ताला नहीं खुल सकता। उसको गुरु अर्जुनदेव ने इस रूप में प्रकट किया है - 'जिस का ग्रिह तिनि दीआ ताला कुंजी गुरसउपाई। अनिक उपाव करे नहीं पावै बिनु सतिगुरु सरणाई ।। " तात्पर्य यह है कि संसार सागर से उतरने के चाहे कितने ही प्रयास कर लो, गुरु की कृपा और उसकी शरण में गये बिना सांसारिक जीवों की मुक्ति नहीं हो सकती। इसलिए 'आदि ग्रंथ' में तो गुरु नानक साहब स्पष्ट कहते हैं - 'ओ सतिगुरु प्रसादि' अर्थात् उस अकाल पुरुष का साक्षात्कार गुरु की कृपा से ही हो सकता है जो 'ओंकार' रूप है। गुरु कौन हो सकता है ? इसके संबंध में राधास्वामी सत्संग के गुरु महाराज सावन सिंह ने कहा है"गुरु से संतों का अभिप्राय अपने समय का जीवित गुरु है। पिछले समय में हो चुके महात्मा पूर्ण होने के बावजूद हमारी कोई सहायता नहीं कर सकते। . हमें ऐसे पूर्ण संत-सत्गुरु की जरुरत है, जो हमारी लिव अन्तर में नाम से जोड़ सके और जिसके ध्यान द्वारा हम अपने मन और आत्मा को अन्तर में एकाग्र करके परमात्मा के शब्द या नाम से जोड़ सकें। "" इस संबंध में दरिया साहब ने स्पष्ट कहा है - Jain Educationa International 'जिंदा गुरु निचे गो, वा गुरु सनदी हजूर । वा सनदी के देखते, जम भागे बड़ी दूर || ' For Personal and Private Use Only (दरिया) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 91 अर्थात् समय का जिंदा सत्गुरु ही समर्थ एवं सक्षम गुरु होता है। जिनको देखते ही काल भी भाग जाता है। इस बात को और भी अच्छी तरह से स्वामी शिवदयाल सिंह ने इन शब्दों में बयां किया है. - बिन गुरु वक्त भक्ति नाहि परवे, बिन भक्ति सतलोक न जावे।। वक्त गुरु जब लग नहिं मिलई । अनुरागी का काज न सर है ।। (सार बचन, स्वामी जी महाराज) संत कबीर ने तो अपनी साखियों, पदों और रमैनियों में गुरु के स्वरूप एवं उसके महत्त्व को विस्तृत रूप से रेखांकित किया है। उन्होंने 'सतगुरु सवाँन को सगा, साधि सहें न दाति', द्वारा स्पष्ट कहा है कि सतगुरु के समान इस संसार में कोई निकट सम्बंधी नहीं, क्योंकि वह जिस परम तत्त्व की खोज करता है उसको पूर्ण रूप से शिष्य में उंडेल देता है। इसलिए कबीर गुरु पर बार-बार बलिहारी होने की बात करते हैं। गुरु शिष्य को संसार के अंधानुकरण से मुक्त कर स्वयं ज्ञान का दीपक हाथ में लेकर ब्रह्म तत्त्व तक पहुंचता है। इस संबंध में कबीर की यह साखी देखिए - 'पीछें लागा जाह था, लोक वेद के साथि आगें थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाथि।।' (कबीर) उन्होंने आगे कहा है कि गुरु से भेंट होने पर शिष्य के हृदय में ज्ञान का प्रकाश हो जाता है। सद्गुरु सच्चे शूरवीर हैं। जिस प्रकार रणभूमि में सूर अपने विरोधी पक्ष को बाणों के प्रहार से परास्त कर देता है, उसी प्रकार सच्चा गुरु शब्द रूपी बाण से शिष्य को आत्मसाक्षात्कार करवाकर सारी मोह-माया से मुक्त कर देता है। 'कबीर ज्ञान गुदडी' में गुरु की महत्ता को विस्तार से प्रकट किया गया है - गुरुदेव बिन जीव की कल्पना न मिटै, गुरुदेव बिन जीव का भला नाहीं । गुरुदेव बिन जीव का तिमर नासै नहीं, समझि बिचारि ले मने माहीं । राह बारीक गुरुदेव तें पाइये, जन्म अनेक की अटक खोलै। कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिलै, जीव और सीव तब एक तोलै ॥ (कबीर ज्ञान गुदड़ी) Jain Educationa International कबीर के अनुसार गुरु योग की 'उनमन' अवस्था तक पहुंचाता है तथा मन की चंचल वृत्तियों को दूर कर उसे सांसारिकता से दूर करता है। इन्हीं भावों को कबीर इस साखी में प्रकट करते हैं हंसे न बोले उनमनीं, चंचल मेल्हया मारि। कहे कबीर भीतरी भिंद्या, सतगुरु के हथियार ।। (कबीर) कबीर ने कहा है कि सद्गुरु ने प्रेमरूपी तेल से परिपूर्ण एवं सदा प्रज्वलित रहने वाली ज्ञानवर्तिका से For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 युक्त उन्हें दिव्य दीपक प्रदान किया है, जिसके प्रकाश से संसार रूपी बाजार में उपयुक्त रीति से समस्त क्रयविक्रय कर लिया है। अतः अब वे इस बाजार में पुनः नहीं आयेंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि सतगुरु की कृपा से आवागमन से मुक्ति मिलती है - दीपक दीया तेल भरि, बाती दर्द अधट्टा पूरा किया बिसाहुणां, बहुरि न आंवौं हट्टा। (कबीर) गुरु महिमा को और भी स्पष्ट करते हुए कबीर कह रहे हैं - संसार के माया रूपी दीपक पर जीव रूपी अनेकानेक पतंगे आकर नष्ट हो जाते हैं, किन्तु ऐसे विरले ही हैं जो गुरु के ज्ञान और उनकी कृपा से उबर जाते हैं माया दीपक नर पतंग, धमि अमिइवै पडत। कहै कबीर गुरु ग्यान दें, एक आध उबरंत।। (कबीर) कबीर की दृष्टि में गुरु सच्चा और ज्ञानी होना चाहिए, क्योंकि जिस शिष्य का गुरु भी अंधा व अज्ञानी है तथा शिष्य भी पूर्ण रूपेण अंधा, मूढ़ है तो वे दोनों ही लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकेंगे। उन्होंने कहा है - ‘जा का गुरु भी अंधळा, चेला खरा, निरंधा अंधै अंधा ठेलिया, दून्यूं कूप पडत।।' । (कबीर) उन्होंने इसे एक जगह पर और भी स्पष्ट करते हुए कहा है कि - ना गुरु मिल्या न सिप भया, लालच खेल्या दाव। दून्यूं बूडे धार मैं, चदि पाथर की नाव।। (कबीर) दूसरी ओर जिन लोगों के चित्त भ्रममुक्त हैं, उन्हें यदि सद्गुरु मिल भी जायें तो क्या लाभ होगा। ऐसे भ्रमित लोग ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते, क्योंकि यदि वस्त्र को रंगने से पूर्व पुट देने में ही वह नष्ट हो जाये तो सुन्दर रंग देने में समर्थ मजीठ बेचारा क्या कर सकता है - सतगुरु मिल्या त का भया, जे मन पाड़ी भोळा पासि बिनंठा कप्पड़ा, का करै बिचारी चोळ।। (कबीर) कबीर ने कहा है कि सद्गुरु सच्चा शूरवीर है जो शिष्य को अपने प्रयत्नों से उसी प्रकार योग्य बना देता है, जैसे लोहार लोहे को पीट-पीट कर सुघड़ और सुडौल आकार प्रदान करता है तथा शिष्य को परीक्षा की अग्नि में तपा-तपाकर स्वर्णकार की भांति इस प्रकार योग्य बना देता है कि शिष्य कसौटी पर खरा उतारकर सोने के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी समान अपनी शुद्धता प्रकट कर ब्रह्म तत्व को प्राप्त कर ले - सतगुरु सांचा सूरिवां, तातैं लोहिं लुहार | कसणी दे कंचन किया, ताह लिया तवसार।। (कबीर) संत कबीर की तरह अन्य निर्गुण संतों ने भी गुरु की महिमा का सांगोपांग बखान किया है। गुरु रविदास की वाणी से इस कथन को और भी पुष्टता मिलती है। संत रविदास ने कहा है कि एकमात्र गुरु ही हमें सच्चे प्रेम की दीक्षा देकर भवसागर से पार करता है। गुरु ज्ञान का दीपक प्रदान कर उसे प्रज्वलित करते हुए शिष्य से परमात्मा की भक्ति करवाता है तथा उसे आवागमन के चक्र से मुक्त करता है - गुरु ग्यान दीपक दिया, बाती दह जलाय । रविदास हरि भगति कारने, जनम मरन विलमाय || ( रविदास) इसी तरह माया रूपी दीपक को जलता देखकर जीव रूपी पतंगा अंधा होकर उस पर टूट पड़ता है और उसमें जल मरता है। रविदास जी समझाते हैं कि गुरु का ज्ञान प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति इस मायाजाल से मुक्त नहीं हो सकता। संसार रूपी सागर को पार करने के लिए गुरु रूपी पतवार का सहारा अत्यावश्यक है - सागर दुतर अति, किधुं मूरिख यहु जान | रविदास गुरु पतवार है, नाम नाम करि जान ।। ( रविदास) 93 रविदास की मान्यता के अनुसार गुरु परमात्मा तक पहुंचने के सभी रहस्यों को जानता है, किन्तु कोई व्यक्ति सच्चे गुरु के चरणों में न जाकर षड्दर्शन, वेद, पुराणों को पढ़कर तत्त्वज्ञान की बात करता है तो वह अधूरा है। प्राणायाम करना, शून्य समाधि लगाना, कान फड़वाना, गेरुए वस्त्र लपेटे रहना सद्गुरु के लक्षण नहीं। सद्गुरु तो अन्तर की रूहानी खोज कराकर शिष्य को परमात्मा से मिलाता है। इस सम्बन्ध में यह पद द्रष्टव्य है - गुरु सभु रहसि अगमहि जानें। - ढूंढ़े काउ घट सास्त्रन मंह, किधुं कोउ वेद बखाने ।। Jain Educationa International सांस उसांस चढ़ावे बहु बिध, बैठहिं सूंनि समाधी....... कहि रविदास मिल्यो गुरु पूरौ, जिहि अंतर हरि मिलाने || (रविदास) रविदास कहते हैं कि सतगुरु सभी पिछले जन्मों के पापों को नष्ट कर शिष्य को सच्चा रास्ता दिखाते हैं। तथा कनक-कामिनी के बीच मग्न रहने वाले सांसारिक लोगों को रास्ता दिखाकर उनका उद्धार करते हैं। सच्चा गुरु सांसारिक सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवन-मरण, हर्ष-शोक की चिन्ता किए बिना निष्काम भाव से कर्त्तव्य पालन करता है तथा कमल के पत्ते के समान जल में रहते हुए भी जल से अछूता रहता है। वह करुणा और For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 | क्षमा की साक्षात् प्रतिमूर्ति होता है तथा सदैव परोपकार में लगा रहता है। यहाँ तक कि वह राग-द्वेष से ऊपर उठकर गुरु कहलाने की भी इच्छा नहीं रखता। इसलिए रविदास ऐसे सतगुरु के दर्शन पर बलिहारी जाते हैं। उनके चरण धोते हैं तथा चरणों में शीश झुकाते हैं, क्योंकि सतगुरु मिल जाता है तो वह जन्म-जन्म के कर्म बंधन को काट डालता है। इस वाणी में रविदास ने भावातिरेक होकर इन्हीं भावों को प्रकट किया है - आज दिवस लेउं बलिहारी, मेरे ग्रिह आयाराजाराम जी का प्यारा। आंगन बगड़, भुवन भयो पावन, हरिजन बैठे हरिजस गावन। करौ डंडोत अरुचरन पखारौं, तन-मन-धन संतन परवारौं। कथा करें अरू अरथ विचारें, आपतरें औरति को तारें।। __(रविदास) रविदास का कहना है कि सतगुरु का मिलाप होने पर जो सुख प्राप्त होता है उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। गुरु से भेंट होने पर जीव के प्रारब्ध कर्म कट जाते हैं तथा उसका वज्र कपाट खुल कर उसे प्रेमाभक्ति प्राप्त हो जाती है।रविदास कहते हैं - 'रवि प्रगास रजनी जूथा, गति जानत सम संसार। पारस मानों तांबो छुए, कनक होत नहीं बार।। परम परस गुरु भेटीए, पूरब लिखत लिळाट। उनमन मन मन ही मिले, छुटकत बजर कपाटा।' (रविदास) जीव संशय में पड़कर सांसारिक बंधनों में लिपटा रहता है, उसे सतगुरु ही मुक्त कर सकता है। दादूदयाल इस संबंध में कहते हैं सतगुरु मिलैं न संसार जाई, ये बंधन सब देई छुड़ाई। तब दादू परम गति पावै, सो निज मूरति माहिं लखावै।। __ (दादूदयाल) संत चरनदास के अनुसार भी सतगुरु जगत की समस्त व्याधियों से मुक्ति दिलाता है, ईश्वर-भक्ति में प्रेम उत्पन्न करता है तथा जीव को सभी दुःखों से दूर करता है - "गुरुही के परताप सूं, मिटै जगत की ब्याधा राग दोष दुःख ना रहै, उपजे प्रेम अगाध||' (चरनदास) गुरु सदैव शिष्य का हित साधने वाला, उसका मित्र तथा रहस्य की बातें बताने वाला है। स्वामी शिवदयाल सिंह जी इस भाव को इन शब्दों में प्रकट करते हैं - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95 || 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी गुरु है हितकारी तेरे। गुरु बिन कोई मित्र न है २।। गुरु फंद छुड़ावेजम के| गुरु मर्म लिखावें सम कै।। भौजल से पार उतारें। छिन-छिन में तुझे संवारें।। (सारबचन, स्वामी शिवदयालसिंह) प्रेममार्गी सूफी संतों ने भी गुरु की महत्ता का बखान बहुत ही आदरपूर्वक व्यापक रूप में किया है। उनकी मान्यता है कि बिना गुरु के निर्गुण ब्रह्म का रहस्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। जायसी बहुत ही प्रसिद्ध सूफी संत हुए हैं। उन्होंने 'पद्मावत' में गुरु के महत्त्व का बखान इस प्रकार से किया है - गुरु सुआ जेहि पंथ देखावा। बिन गुरु जगत को निरगुण पारवा।। (पद्मावत, जायसी) इसी तरह सूफीसत सुल्तान बाहू ने मुरशिद (गुरु) को रहमत का दरवाजा बताते हुए कहा है - मुरशद मैनूं हज्ज मक्के दा, रहमत दा दरवाजा हूँ। करां तवाफ़ दुआळे किबळे, हज्ज होवे नित्त ताजा हूँ।। (सुलतान बाहू) साईं बुल्लेशाह ने गुरु को साक्षात् खुदा के रूप में मानते हुए कहा है - मौला आदमी बण आया। ओह आया जग जगाया।। (साईं बुल्लेशाह) इस छोटे से कलमें में साईं बुल्लेशाह ने गुरु की महत्ता का पूरा बखान कर दिया है कि उस आदमी रूपी सतगुरु ने संसार को जगाया है। संतमत में गुरु को अत्यधिक प्रमुखता दी गई है, क्योंकि गुरु शिष्य को सिमरण की विधि सिखाकर नामदान देता है। बिना गुरु के सुमिरन करने वाले व्यक्ति को सावधान करते हुए कबीर कहते हैं कि - जो निगुरा सुमिरन करे, दिन में सौ सौ बार। नगर नायका सत करे, जरै कौन की लार।। (कबीर) सद्गुरु मोक्ष-मुक्ति का दाता होता है। आदिग्रंथ' में इस सम्बन्ध में कहा गया है गगन मध्य जो कँवल है, बाजत अनहद तूर। दळ हजार को कमळ है, पहुँच गुरु मत सूर।। (चरनदास) कहने का तात्पर्य यह है कि सद्गुरु के बताये मार्ग द्वारा ही उस परम पुरुष तक पहुंचा जा सकता है। दरिया साहब भी यही बात कहते हैं - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 जिनवाणी 10 जनवरी 2011 अनहद की धुनि करे बिचारा। ब्रह्म दृष्टि होय उजियारा| एह जो कोह गुरु ज्ञानी बूझे। सब्द आनहद आपुहि सूझे।। (दरिया) संतमत में परम पुरुष तक पहुँचने का अन्तर्मुखी रूहानी अभ्यास सद्गुरु ही सिखाता है, जिसको गुरुमंत्र, नाम-दान या गुरु का शब्द कहा जाता है। सूफी संत इसे 'कलमे का भेद' दिया जाना मानते हैं। वास्तव में रूहानी अभ्यास से गुरु का शब्द ही साक्षात् गुरु के रूप में प्रकट हो जाता है। सद्गुरु के दिए गए नाम में बड़ी शक्ति होती है। इसे महाराज सावन सिंह ने इस प्रकार समझाया है - सतगुरु का बख्शा सिमरन केवल लफ्ज ही नहीं होता। इसमें सतगुरु की शक्ति और दया शामिल होती है, जिस कारण यह सिमरन शीघ्र फलदायक होता है। इस सिमरन के द्वारा मन सहज ही अन्दर एकाग्र हो जाता है। सतगुरु द्वारा बख्शा गया सिमरन बन्दूक में से निकली गोली के समान प्रभाव डालता है, जबकि मन-मर्जी से किया गया सिमरन हाथ से फेंकी गई गोली के समान व्यर्थ चला जाता है। (संतमत सिद्धांतः महाराज सावन सिंह जी, राधास्वामी सत्संग, ब्यास, पृ 145) कहने का तात्पर्य यह है कि सतगुरु साक्षात् परम पुरुष के रूप में होते हैं, जो शिष्य को नामदान देकर उसकी रूहानी यात्रा में मार्गदर्शन करते हैं। ऐसे शिष्य का ही परदा खुलता है तथा फिर उसकी आवागमन से मुक्ति हो जाती है। नानक सतिगुरु भेटिए, पूरी होवे जुगति। हसंदिआखेळंदिया पैनंदिया खावंदिया विचे होवै मुकति।। (नानकदेव) सतगुरु शब्द के रूप में शिष्य को ऐसी अमृत जड़ी का पान करवाता है, जिसे पीकर शिष्य संसार सागर से पार उतर जाता है। सतगुरु के शब्द से काल भी डरता है। इस बात को संत कबीर ने और भी स्पष्ट करते हुए कहा है "गुरु ने मोहिं दीन्ही अजब जड़ी। सोजड़ी मोहिंप्यारी लगतु है, अमृत रसन भरी। (कबीर) इसी तरह उन्होंने और भी कहा है - सतगुरु एक जगत में गुरु हैं, सो भव से कडिहारा। कहे कबीर जगत के गुरुवा, मरि-मरि लें औतारा।। (कबीर) कबीर, रविदास व अन्य निर्गुण संतों ने अपने देहधारी गुरु को परमात्मा के रूप में माना है। इनके पदों में स्थान-स्थान पर अपने गुरु की प्रशंसा में अमोलक वचन कहे गये हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि भक्ति में गुरु का पद सबसे बड़ा है। सगुण भक्ति में भी सतगुरु को विशेष महत्त्व दिया गया है। मीरा, संत रविदास को अपना गुरु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97 | 10 जनवरी 2011 ] जिनवाणी मानते हुए कहती हैं कि उनकी कृपा से ही उनको ईश्वर के दर्शन हुए हैं - मीरा ने गोविन्द मिलायाजी, गुरु मिलिया रैदास। (मीरां) इसी तरह रैदास संत मिळे मोहि सतगुरु, दीन्हीं सुरत सहदानी। (मीरां) स्पष्ट है कि 'सुरत शब्द' का ज्ञान गुरु कृपा से ही होता है। उन्होंने एक पद में सतगुरु की महत्ता को दर्शाते हुए कहा है कि नव-विवाहित आत्मा जब प्रभु के धाम पहुँचती है तो अन्य सुहागिन आत्माएँ उससे पूछती हैं कि तू इतने समय तक कुँआरी क्यों रही ? आत्मा कहती है कि उसे अबतक सतगुरु नहीं मिले थे। सतगुरु ही उसके लिए वर ढूँढ़ कर, विवाह का लगन निश्चित करके उसका हाथ प्रभुरूपी वर के हाथ में दे सकते थे। अर्थात् प्रभु का मिलाप तब तक नहीं हो सकता जब तक सच्चा सद्गुरु नहीं मिलता - सुरता सवागण नार, कुंवारी क्यूँ रही। सतगुरु मिलिया नांय, कुंवारी बीरा यूं रही।। सतगुरु बेगि मिळाय, छिन में सात्वा सोडिया। झटपट लगन ळखाय, ब्याव बेगो छोड़िया।। (मीरां) मीरां ने सतगुरु को इस भवसागर से पार उतारने वाला कहा है, क्योंकि सतगुरु से जो नाम मिलता है, उस दुर्लभ पदार्थको पाकर संसार सागर से पार उतरा जा सकता है - पायो जी मैं तो राम रतन धन पायो। बस्तुअमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनायो।। सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तर आयो।। (मीरां) गोस्वामी तुलसीदास भी सद्गुरु को हरिरूप ही मानते हैं। उन्होंने अपनी सुप्रसिद्ध कृति ‘रामचरित मानस' में गुरु की वंदना करते हुए कहा है - बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि। महामोह तम पुंज जासु बचन रविकट निकट।। __ (रामचरित मानस, तुलसीदास) तुलसीदास ने गुरु के चरणकमलों की रज को संजीवनी जड़ी के समान माना है जो संसार के समस्त रोगों को नष्ट करती है। गुरु के चरणों की वह धूलि भक्त के मन के मैल को दूर करने वाली और उसका तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है - सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगळ मोद प्रसूती।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 || जन-मन मंजु मुकुर मळ हरनी। किटं तिलक गुन गन बस करनी।। (रामचरित मानस, तुलसीदास) उन्होंने गुरु के चरण नखों की ज्योति को मणियों के प्रकाश के समान बताया है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न होती है तथा शिष्य के अज्ञान रूपी अंधकार का नाश होता है। श्री गुरु पद नख मनि गनजोती। सुमिरत दिव्य दृष्टि हियँ होती। दळन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवह जासू।। (रामचरित मानस, तुलसीदास) उनके अनुसार गुरु कृपा से ही वे रामचरित मानस' लिख पाए हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि हिन्दी के भक्ति-साहित्य में गुरु के स्वरूप और उसकी महिमा का विस्तार से चित्रण हुआ है। चाहे सिद्ध साहित्य हो या नाथ साहित्य या फिर संत-साहित्य, सबमें गुरु को परमात्मा ही माना गया है। वह समय का देहधारी व्यक्ति होता है, स्वयं परमात्मा से मिला होता है तथा अपनी कृपा से वह शिष्य को नामदान देकर उसके समस्त पापों का विनाश करता है तथा संसार के आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक सभी त्रितापों का शमन करता है तथा अपने शिष्य के संसार के सभी बंधनों को समाप्त कर उसे अंधकार की कारा से छुटकारा दिलाता है। सतगुरु अपने नामदान से शिष्य को रूहानी यात्रा करवाता है तथा अंदर की धुन व प्रकाश से परिचित करवाता है। संत कबीर, नानक, रविदास, दादू, चरनदास, स्वामी शिवदयाल सिंह आदि सभी निर्गुण संतों, सूफी कवियों जायसी, साईं बुल्लेशाह, सुल्तान बाहु तथा सगुणधारा के तुलसीदास, भक्त कवयित्री मीराबाई ने सतगुरु की महिमा का भावातुर हृदय से बखान किया है, जो सिद्ध करता है कि सतगुरु की महिमा अनन्त है। वह संसार सागर को पार कर सकता है, क्योंकि गुरु ही साक्षात् परमात्मा के रूप में देह धारण करता है। सन्दर्भ: हिन्दी साहित्य का इतिहास : सं. डॉ. नगेन्द्र, पृ. 63 2. आदिग्रंथ पृ. 425 आदिग्रंथ, पृ. 1005 आदिग्रंथ पृ. 205 संतमत सिद्धांत व महाराज सावन सिंह, राधास्वामी सत्संग ब्यास, पृ. 12 एसोशिएट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, विश्वविद्यालय स्टाफ कॉलोनी, रेजीडेन्सी रोड़, जोधपुर-342011 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only