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जिनवाणी
10 जनवरी 2011
अन्तर्हृदय के कपाट खुलते हैं। 'आदिग्रंथ' में इस संबंध में कहा गया है- गुरु परसादी पाईएं अंतरि कपट
खुलाही ।'
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गुरु अर्जुनदेव ने तो यहाँ तक कहा है कि जीवात्मा को प्रेम-भक्ति का आधार बख्शने के लिए परमात्मा स्वयं साधु या गुरु के रूप में प्रकट होता है -
'अंध कूप ते काढनहारा। प्रेम भगति होवत निस्तारा |
साध रूप अपना तनु धारिआ । महा अगति ते आपि उबारिआ ।। "
शास्त्रों में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के रूप में मानकर साक्षात् परमब्रह्म कहा है। इसी बात को कबीरदास जी ने गुरु के पद को परमात्मा से भी बढ़कर बताते हुए कहा है -
'गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाया। बलिहारि गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय ।।"
(कबीर)
वास्तव में गुरु परमात्मा से भी बढ़कर होता है, क्योंकि गुरु की कृपा से ही परमात्मा का साक्षात्कार हो सकता है। अन्यथा जीव संसार रूपी सागर में भटकता रहता है। गुरु संसाररूपी ताले की कुंजी है। उनके ज्ञान की
के बिना संसार का घुमावदार ताला नहीं खुल सकता। उसको गुरु अर्जुनदेव ने इस रूप में प्रकट किया है - 'जिस का ग्रिह तिनि दीआ ताला कुंजी गुरसउपाई।
अनिक उपाव करे नहीं पावै बिनु सतिगुरु सरणाई ।। "
तात्पर्य यह है कि संसार सागर से उतरने के चाहे कितने ही प्रयास कर लो, गुरु की कृपा और उसकी शरण में गये बिना सांसारिक जीवों की मुक्ति नहीं हो सकती। इसलिए 'आदि ग्रंथ' में तो गुरु नानक साहब स्पष्ट कहते हैं - 'ओ सतिगुरु प्रसादि' अर्थात् उस अकाल पुरुष का साक्षात्कार गुरु की कृपा से ही हो सकता है जो 'ओंकार' रूप है।
गुरु कौन हो सकता है ? इसके संबंध में राधास्वामी सत्संग के गुरु महाराज सावन सिंह ने कहा है"गुरु से संतों का अभिप्राय अपने समय का जीवित गुरु है। पिछले समय में हो चुके महात्मा पूर्ण होने के बावजूद हमारी कोई सहायता नहीं कर सकते। . हमें ऐसे पूर्ण संत-सत्गुरु की जरुरत है, जो हमारी लिव अन्तर में नाम से जोड़ सके और जिसके ध्यान द्वारा हम अपने मन और आत्मा को अन्तर में एकाग्र करके परमात्मा के शब्द या नाम से जोड़ सकें। ""
इस संबंध में दरिया साहब ने स्पष्ट कहा है -
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'जिंदा गुरु निचे गो, वा गुरु सनदी हजूर । वा सनदी के देखते, जम भागे बड़ी दूर || '
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(दरिया)
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