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हर्षपुरीयगच्छ अपरनाम मलधारीगच्छ
का संक्षिप्त इतिहास
__शिव प्रसाद निर्ग्रन्थ परम्परा के श्वेताम्बर सम्प्रदाय में पूर्वमध्यकालीन सुविहितमार्गीय गच्छों में हर्षपुरीयगच्छ अपरनाम मलधारगच्छ का विशिष्ट स्थान है। जैसा कि इसके नाम से ही विदित होता है यह गच्छ राजस्थान में हर्षपुर नामक स्थान से उद्भूत हुआ माना जाता है। प्रस्तुत गच्छ की गुर्वावली में जयसिंहसूरि का नाम इस गच्छ के आदिम आचार्य के रूप में मिलता है । उनके शिष्य अभयदेवसूरि हुए जिन्हें चौलुक्य नरेश कर्ण (वि.सं. ११२०-११५०/ईस्वी सन् १०६४-१०९४) से मलधारी बिरुद प्राप्त हुआ था। बाद में यही बिरुद इस गच्छ के एक नाम के रूप में प्रचलित हो गया। कर्ण का उत्तराधिकारी जयसिंह सिद्धराज (वि.सं. ११५०-११९९/ईस्वी सन् १०९४-११४३) भी इनका बड़ा सम्मान करता था। इन्हीं के उपदेश से शाकम्भरी के चाहमान नरेश पृथ्वीराज 'प्रथम' ने रणथम्भौर के जैन मंदिर पर स्वर्णकलश चढ़ाया था। गोपगिरि (ग्वालियर) के राजा भुवनपाल (विक्रम सम्वत् की १२वीं शती का छठा दशक) और सौराष्ट्र का राजा राखेंगार पर भी इनका प्रभाव था। अभयदेवसूरि के शिष्य, विभिन्न ग्रन्थों के रचनाकार प्रसिद्ध विद्वान आचार्य हेमचन्द्रसूरि हुए। अपनी कृतियों की अन्त्यप्रशस्ति में इन्होंने स्वयं को प्रश्नवाहनकुल, मध्यमशाखा और हर्षपुरीयगच्छ के मुनि के रूप में बतलाया है। उनके शिष्य परिवार में विजयसिंहसूरि, श्रीचन्द्रसूरि, विबुधचन्द्रसूरि, लक्ष्मणगणि और आगे चलकर मुनिचन्द्रसूरि, देवभद्रसूरि, देवप्रभसूरि, यशोभद्रसूरि, नरचन्द्रसूरि, नरेन्द्रप्रभसूरि पद्मप्रभसूरि,
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श्रीतिलकसूरि, राजशेखरसूरि, वाचनाचार्य सुधाकलश आदि कई विद्वान् आचार्य एवं मुनि हुए
हैं।
इस गच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिये साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं । साहित्यिक साक्ष्यों के अन्तर्गत इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा बड़ी संख्या में रची गयी कृतियों की प्रशस्तियां अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । इसके अतिरिक्त इस गच्छ की एक पट्टावली भी मिलती है, जो सद्गुरूपद्धति के नाम से जानी जाती है । इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा वि.सं. ११९० से वि.सं. १६९९ तक प्रतिष्ठापित १०० से अधिक सलेख जिनप्रतिमायें मिलती हैं। साम्प्रत लेख में उक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर इस गच्छ के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
अनुयोगद्वारवृत्ति:संस्कृत भाषा में ५९०० श्लोकों में निबद्ध यह कृति मलधारगच्छीय हेमचन्द्रसूरि की रचना है । इसकी प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरू-परम्परा का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है :
जयसिंहसूरि
अभयदेवसूरि
हेमचन्द्रसूरि (अनुयोगद्वारवृत्ति के रचनाकार)
हेमचन्द्रसूरि विरचित विशेषावश्यक भाष्यबृहवृत्ति के अन्त में भी यही प्रशस्ति मिलती है। उनके द्वारा रचित आवश्यक प्रदेशव्याख्यावृत्ति, आवश्यकटिप्पन, शतक विवरण, उपदेशमालावृत्ति आदि रचनायें मिलती हैं, जिनके बारे में आगे यथास्थान विवरण दिया गया है।
धर्मोपदेशमालावृत्ति:मलधारगच्छीय हेमचन्द्रसूरि के शिष्य विजयसिंह सूरि ने वि.सं. ११९१, ई. सन् ११३५ में उक्त कृति की रचना की । इसकी प्रशस्ति में वृत्तिकार ने अपनी गुरू-परम्परा का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है :
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जयसिंह
अभयदेवसूरि
चन्द्रसूर
विजयसिंहसूरि (वि.सं. १९९१ / ई. सन् ११३५ में धर्मोपदेशमालावृत्ति के रचनाकार) मुनिसुव्रतचरित :
यह प्राकृत भाषा में इस तीर्थंकर के जीवन पर लिखी गयी एक मात्र कृति है, जो मलधारगच्छीय प्रसिद्ध आचार्य श्रीचन्द्रसूरि द्वारा वि.सं. १९९३ / ई. सन् ११३७ में रची गयी है 1 इसकी प्रथमादर्श प्रति आचार्य के गुरू-भ्राता विबुधचन्द्रसूरि द्वारा लिखी गयी । ग्रन्थ की प्रशस्तिर में ग्रन्थाकार ने अपनी गुरू-परम्परा के साथ अपने गुरू- भ्राता के इस सहयोग का भी उल्लेख किया है :
जयसिंहसूर
अभयदेवसूरि
हेमचन्द्रसूरि
श्रीचन्द्रसूरि (वि.सं. १९९३/ई. सन् ११३७ में मुनिसुव्रतचरित के रचनाकार)
विबुधचन्द्रसूरि
( मुनिसुव्रतचरित की प्रथमादर्शप्रति के लेखक)
सुपासनाहचरिय:
प्राकृत भाषा में ८००० गाथाओं में निबद्ध यह कृति वि.सं. १९९९ / ई. सन् १९४३ में
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मलधारगच्छीय लक्ष्मणगणि द्वारा रची गयी है । इसकी प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने अपनी गुरु-परम्परा का इस प्रकार उल्लेख किया है :
जयसिंहसूर
अभयदेव सूर
हेमचन्द्र सूर
लक्ष्मणगणि (वि.सं. १९९९ / ई. सन् १९४३ में सुपासनाहचरिय के रचनाकार)
संग्रहणीवृत्ति :
यह मलधारगच्छीय श्रीचन्द्रसूरि के शिष्य देवभद्रसूरि की कृति है । इसकी प्रशस्ति५ के अन्तर्गत ग्रन्थकार ने अपनी गुरू-परम्परा का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है :
अभयदेवसूर
चन्द्रसूरि
श्रीचन्द्रसूरि
देवभद्रसूरि (संग्रहणीवृत्ति के रचनाकार)
यह कृति वि.सं. की १३वीं शती के प्रथम अथवा द्वितीय दशक की रचना मानी जा सकती है ।
पाण्डवचरितमहाकाव्य :
यह लोकप्रसिद्ध पाण्डवों के जीवनचरित पर जैन परम्परा पर आधारित ८ हजार श्लोकों की रचना है । इसके रचनाकार मलधारगच्छीय देवप्रभसूरि हैं । ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि ग्रन्थकार ने अपने ज्येष्ठ गुरू- भ्राता देवानन्दसूरि के अनुरोध पर यह रचना की । इस कार्य में उन्हें अपने एक अन्य गुरुभ्राता यशोभद्रसूरि और शिष्य नरचन्द्रसूरि से भी सहायता प्राप्त हुई ।
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प्रशस्ति६ में उल्लिखित ग्रन्थकार की गुरू-परम्परा इस प्रकार है :
अभयदेवसूरि
हेमचन्द्रसूरि
विजय सिंह सूरि
श्रीचन्द्रसूरि
मुनिचन्द्रसूरि
देवानन्दसूरि
देवप्रभसूरि (पाण्डवचरितमहाकाव्य की (पाण्डवचरितमहाकाव्य के रचना के प्रेरक)
रचनाकार)
यशोभद्रसूरि (ग्रन्थलेखन में सहायक)
नरचन्द्रसूरि (ग्रन्थलेखन में सहायक)
ग्रन्थकार ने ग्रन्थ की प्रशस्ति के अन्तर्गत रचनाकाल का उल्लेख नहीं किया है किन्तु श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई ने उपलब्ध अन्य साक्ष्यों के आधार पर इसे वि.सं. १२७०/ई. सन् १२१४ के आस-पास रचित बतलाया है जो उचित प्रतीत होता है।
कथारत्नसागर :यह देवप्रभसूरि के शिष्य प्रसिद्ध ग्रन्थकार नरचन्द्रसूरि की रचना है। इसकी प्रशस्ति७ में ग्रन्थकार ने अपनी गुरू-परम्परा इस प्रकार दी है :
अभयदेवसूरि
हेमचन्द्रसूरि
श्रीचन्द्रसूरि
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मुनिचन्द्रसूरि
देवानन्दसूरि
देवप्रभसूरि
यशोभद्रसूरि
नरचन्द्रसूरि (कथारत्नसागर के रचनाकार)
इसका एक नाम कथारत्नाकर भी मिलता है। जैन धर्म सम्बन्धी कथानक सुनने की वस्तुपाल की उत्कंठा को शांत करने के लिए नरचन्द्रसूरि ने इसकी रचना की। इस कृति की वि.सं. १३१९/ई. सन् १२५३ की लिखी गयी एक ताड़पत्र की प्रति पाटन स्थित संघवीपाडा ग्रन्थभण्डार में संरक्षित है। नरचंद्रसूरि महामात्य वस्तुपाल के मातृपक्ष के गुरू थे। उनके द्वारा रचित प्राकृतदीपिकाप्रबोध, अनर्घराघवटिप्पन, ज्योतिषसार आदि कई अन्य कृतियां भी मिलती है। वस्तुपाल के गिरनार के दो लेखों के पद्यांश भी नरचन्द्रसूरि द्वारा रचित हैं और वस्तुपालप्रशस्ति भी इन्हीं की कृति है।
अलंकारमहोदधि :महामात्य वस्तुपाल के अनुरोध एवं मलधारगच्छीय आचार्य नरचन्द्रसूरि के आदेश से उनके शिष्य नरेन्द्रप्रभसूरि ने वि.सं. १२८० में अलंकारमहोदधि तथा वि.सं. १२८२/ई. १२२६ में इस पर वृत्ति की रचना की । इसकी प्रशस्ति८ में उन्होंने अपनी गुरू-परम्परा का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है:
अभयदेवसूरि
हेमचन्द्रसूरि
श्रीचन्द्रसूरि
मुनिचन्द्रसूरि
देवानन्दसूरि
देवप्रभसूरि
यशोभद्रसूरि
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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नरचन्द्रसूरि
नरेन्द्रप्रभसूरि (वि.सं. १२८२/ई. सन् १२२६ में अलंकारमहोदधिवृत्ति के रचनाकार)
न्यायकंदलीपंजिका:यह मलधारगच्छीय प्रसिद्ध आचार्य राजशेखरसूरि द्वारा वि.सं. १३८५/ई. सन् १३२९ में रची गयी है। इसकी प्रशस्ति९ में उन्होंने अपनी लम्बी गुरू-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है :
अभयदेवसूरि
हेमचन्द्रसूरि
श्रीचन्द्रसूरि
मुनिचन्द्रसूरि
देवप्रभसूरि
नरचन्द्रसूरि
पद्मदेवसूरि
श्रीतिलकसूरि
राजशेखरसूरि (वि.सं. १३८५/ ई. सन् १३२९ में न्यायकंदलीपंजिका के रचनाकार)
संगीतोपनिषत्सारोद्धार :यह मलधारगच्छीय वाचनाचार्यसुधाकलश द्वारा वि.सं. १४०६/ई. सन् १३५० में रची गयी ६१० श्लोकों की रचना है। यह ६ अध्यायों में विभक्त है। इसकी प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने अपनी लम्बी गुरू-परम्परा का परिचय न देते हुए अपने पूर्वज अभयदेवसूरि तथा उनकी परम्परा में हुए श्रीतिलकसूरि एवं उनके शिष्य राजशेखरसूरि का अपने गुरू के रूप में उल्लेख किया है हर्षपुरीयगच्छ अपरनाम मलधारीगच्छ का संक्षिप्त इतिहास
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मलधारी अभयदेवसूरि
श्रीतिलकसूरि
राजशेखरसूरि
सुधाकलश (वि.सं. १४०६/ई. सन् १३५० में संगीतोपनिषत् सारोद्धार के रचयिता)
उक्त साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर हर्षपुरीयगच्छ अपरनाम मलधारगच्छ के मुनिजनों की गरू-परम्परा की एक तालिका इस प्रकार निर्मित होती है:
द्रष्टव्य-तालिका क्रमांक - १
जयसिंहसूरि
अभयदेवसूरि
हेमचन्द्रसूरि
विजय सिंह सूरि श्रीचन्द्रसूरि (वि.सं. विबुधचन्द्रसूरि लक्ष्मणगणि (वि.सं. (वि.सं. ११९१/ई. सन् ११९३/ई. सन् ११३७ मुनिसुव्रतस्वामिचरित ११९९/ई. सन् ११४३ ११३५ में में मुनिसुव्रतस्वामि- के लेखन में सहायक) में सुपासनाहचरिय धर्मोपदेशमालावृत्ति चरित के रचनाकार)
के रचनाकार) के रचनाकार)
मुनिचन्द्रसूरि
देवभद्रसूरि (संग्रहणीवृत्ति के
रचनाकार) श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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देवानन्दसूरि (पाण्डवचरितमहाकाव्य की रचना के प्रेरक)
यशोभद्रसूरि (पाण्डवचरितमहाकाव्य की रचना में सहायक)
नरेन्द्रप्रभसूरि (वि.सं. १२८२/ ई. सं. १२२६ में अलंकारमहोदधि के रचनाकार)
देवप्रभसूर (पाण्डवचरितमहाकाव्य के रचनाकार)
हर्षपुरीयगच्छ अपरनाम मलधारीगच्छ का संक्षिप्त इतिहास
नरचन्द्रसूरि (कथारत्नाकर के रचनाकार)
श्रीतिलकसूरि
राजशेखरसूरि (वि.सं. १३८५/ई.सन् १३२९ में न्यायकंदलीपंजिका के रचनाकार)
पद्मदेवसूरि
मलधारगच्छीय मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित १०० से अधिक सलेख जिन प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं, जो वि.सं. ११९०/ई. सन् १९३४ से वि.सं. १६९९ / ई. सन् १६४३ तक की है। इनमें से वि.सं. ११९० से वि.सं. १४१५ तक के प्रतिमालेखों का विवरण इस प्रकार है :
सुधाकलश (वि.सं. १४०६ / ई.सन् १३५० में संगीतोपनिषत्सारोद्धार के रचनाकार)
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क्र.सं. तिथि/ प्रतिष्ठापक प्रतिमालेख/ प्राप्तिस्थान
प्राप्तिस्थान संदर्भ ग्रन्थ मिति आचार्य का स्तम्भलेख
नाम ११९०
जिन प्रतिमा पर - एम.ए ढांकी और उत्कीर्ण खंडित
लक्ष्मण भोजक लेख
शत्रुजय गिरिना केटलाक अप्रकट प्रतिमा लेख'सम्बोधि' वर्ष ७, अंक १-४ पृष्ठ
१३-२५, लेखांक ५ २- १२३४- वादि २ पूर्णचन्द्रसूरि पार्श्वनाथ की चीराखाना जै.ले.सं. भाग २,
प्रतिमा पर स्थित जैन लेखांक १८७५
उत्कीर्ण लेख मंदिर, दिल्ली ३- १२५९ वैशाख देवाणंदसूरि पार्श्वनाथ की धर्मनाथ का वही, भाग १, लेखांक सुदि ३ बुधवार
प्रतिमा पर पंचायती उत्कीर्ण लेख मंदिर, बड़ा
बाजार,
कलकत्ता ४- १२८८ फाल्गुन नरचन्द्रसूरि स्तम्भलेख वस्तुपाल द्वारा प्रा. जै. ले. सं, भाग २, सुदि १०
निर्मित लेखांक ३९ बुधवार
आदिनाथ जिनालय,
गिरनार
गिरनार
५- १२८८" नरचन्द्रसूरि स्तम्भलेख ६- १२८८” नरेन्द्रप्रभसूरि स्तम्भलेख ७ १२९८ फाल्गुन नरचन्द्रसूरि पाषाणखंड पर
वदि १४ के शिष्य उत्कीर्ण लेख रविवार माणिक्य
चन्द्रसूरि
वही, लेखांक ४० वही, लेखांक ४१ जे.एएस.ओ.बी. जिल्द ३०, खंड १,१९५५ ई.
पृष्ठ १००-११४
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८- १३२१ फाल्गुन प्रभाणंदसूरि नेमिनाथ की गढ़ मण्डप अ.प्रा.जै.ले.सं. लेखांक सुदि १२
प्रतिमा पर लूणवसही, २५३
उत्कीर्ण लेख आबू ९- १३३७ वैशाख प्रभाणंदसूरि महावीर की चन्द्रप्रभ जै.ले.सं. भाग-३, सुदि ३ शनिवार
प्रतिमा पर जिनालय, लेखांक २२३१
उत्कीर्ण लेख जैसलमेर १०- १३४४ ज्येष्ठ रत्नदेवसूरि पार्श्वनाथ की महावीर वही, भाग-२, लेखांक वदि ४ शुक्रवार
प्रतिमा का लेख जिनालय, डीसा - २०९९ ११- १३५२ वैशाख पञवसूरि शीतलनाथ की मनमोहन जै.धा.प्र.ले.सं. भाग २, वदि ५ सोमवार के शिष्य श्री प्रतिमा का लेख पार्श्वनाथ लेखांक २७९ तिलकसूरि
जिनालय,
मीयागाम १२- १३७१ माघ श्रीतिलकसूरि शांतिनाथ की मुनिसुव्रत वही भाग २, लेखांक __ सुदि १४
प्रतिमा का लेख जिनालय, ५१९ सोमवार
खारवाडो,
खंभात १३- १३७५ माघ श्री शीतलनाथ की मुनिसुव्रत वही भाग २, लेखांक सुदि ९ तिलकसूरी प्रतिमा का लेख जिनालय, १०२८
खारवाडो,
खंभात १४- १३७८ मिति
मुनिसुव्रत की विमलवसही, प्रा.जै.ले.सं. भाग २, विहीन
प्रतिमा का लेख आबू लेखांक १४४ १५- १३७८ मिति- "
महावीर की विमलवसही, वही, लेखांक १४५ विहीन
प्रतिमा का लेख आबू १६ १३७८ मिति
अस्पष्ट प्रेमचन्द्रमोदी जै.ले.सं. भाग १, विहीन
की टोंक, लेखांक ६८४ शत्रुजय
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१७ १३८० वैशाख
वदि ५ गुरूवार
१८
१३८० माघ सुदि ६ सोमवार
"
वि.सं. १३८६ माघ वदि २ वि.सं. १३९३ पौष वदि २ वि.सं. १३९३ फाल्गुन सुदि २
वि.सं. १४०९ फाल्गुन वदि २ वि.सं. १४१५ ज्येष्ठ वदि १३
पार्श्वनाथ की
धातु प्रतिमा का लेख
चन्द्रप्रभ की
प्रतिमा का लेख
शांतिनाथ रा.प्र.ले.सं., लेखांक ४९
जिनालय
राधनपुर
महावीर
जिनालय,
बीकानेर
पद्मदेवसूरि के प्रशिष्य और श्रीतिलकसूरि के शिष्य राजशेखरसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित ५ सलेख जिन प्रतिमायें मिलती हैं। इनका विवरण इस प्रकार है:
बी. जै. ले. सं., लेखांक ३१३
प्रा. ले. सं, लेखांक ६२ बी. जै. ले. सं, लेखांक ३५८ वही, लेखांक १४४२ वही, लेखांक ४४५
मलधारगच्छीय प्रतिमालेखों की सूची में वि.सं. १२५९ के प्रतिमालेख में प्रतिमा प्रतिष्ठापक मलधारी देवानन्दसूरि का नाम आ चुका है। जैसा कि प्रारम्भ में कहा जा चुक है मलधारी देवप्रभसूरि कृत पाण्डवचरित की प्रशस्ति में भी ग्रन्थकार के ज्येष्ठ गुरूभ्राता और ग्रन्थ की रचना के प्रेरक के रूप में देवानन्दसूरि का नाम मिलता है । पाण्डवचरित का रचनाकाल वि.सं. १२७०/ ई. सन् १२१४ माना जाता है । १२ अतः समसामयिकता के आधार पर उक्त प्रशस्ति में उल्लिखित देवानन्दसूरि और वि.सं. १२५९ / ई. सन् १२०३ में पार्श्वनाथ की प्रतिमा के प्रतिष्ठापक देवानन्दसूरि एक ही व्यक्ति माने जा सकते हैं
1
बी. जै..सं. लेखांक
१२१४
महामात्य वस्तुपाल द्वारा निर्मित गिरनार स्थित आदिनाथ जिनालय के वि.सं. १२८८ / ई. सन् १२३२ के दो अभिलेखों के रचनाकार नरचन्द्रसूरि और यहीं स्थित इसी तिथि के एक अन्य अभिलेख के रचनाकार नरेन्द्रप्रभसूरि महामात्य वस्तुपाल के मातृपक्ष के गुरू नरचन्द्रसूरि १३ और उनके शिष्य नरेन्द्रप्रभसूरि से अभिन्न हैं । यही बात वि. सं. १२९८ / ई. सन् १२४२ के लेख में उल्लिखित माणिक्यचन्द्रसूरि के गुरू नरचन्द्रसूरि के बारे में भी कही जा सकती है।
इसी प्रकार वि.सं. १३५२ / ईस्वी सन् १२९६ से वि.सं. १३८० / ई. सन् १३३४ तक के प्रतिमालेखों में उल्लिखित पद्मतिलकसूरि के शिष्य श्रीतिलकसूरि एवं वि.सं. १३८६/ई. सन् १३३० से वि.सं. १४९५ / ई. सन् १३५९ तक के प्रतिमालेखों में उल्लिखित उनके शिष्य राजशेखरसूरि समसामयिकता के आधार पर मलधारगच्छीय प्रसिद्ध आचार्य राजशेखरसूरि और उनके गुरू श्रीतिलकसूरि से अभिन्न माने जा सकते हैं।
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उक्त अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर मलधारगच्छीय मुनिजनों की गुरू- परम्परा की पूर्वोक्ति तालिका को जो वृद्धि गत स्वरूप प्राप्त होता है, वह इस प्रकार है :
द्रष्टव्य- तालिका क्रमांक - २
जयसिंहसूर
अभयदेवसूर
हेमचन्द्रसूर
विजय सिंह सूरि (वि.सं. ११९१/ई. सन् १९३५ में
धर्मोपदेश
मालावृत्ति के
रचनाकार)
श्रीचन्द्रसूरि
विबुधचन्द्रसूरि
(वि.सं. १९९३ / ई. मुनिसुव्रतस्वामिचरित के लेखन में सहायक)
सन् ११३७ में मुनिसुव्रतस्वामि
चरित के
रचनाकार)
देवानन्दसूरि (पाण्डवचरित महाकाव्य की रचना के प्रेरक, वि.सं. १२५९ में पार्श्वनाथ की प्रतिमा के प्रतिष्ठापक)
मुनिचन्द्रसूरि
यशोभद्रसू (पाण्डवचरित
हर्षपुरीयगच्छ अपरनाम मलधारीगच्छ का संक्षिप्त इतिहास
लक्ष्मणगण
(वि.सं. १९९९ / ई.
सन् १९४३ में
सुपासनाहचरिय के रचनाकार)
देवभद्रसूरि (संग्रहणीवृत्ति के
रचनाकार)
देवप्रभसू (पाण्डवचरित
महाकाव्य की रचना में महाकाव्य के रचनाकार)
सहायक)
नरचन्द्रसूरि (कथारत्नाकर के रचनाकार, वि.सं. १२८८ में महामात्य
वस्तुपाल की गिरनार प्रशस्ति के लेखक)
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नरेन्द्रप्रभसूर (वि.सं. १२८२/ ई. सन् १२२६ में अलंकारमहोदधि के रचनाकार)
विजयसिंहसूर
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माणिक्यचन्द्रसूरि (वि.सं. १२९८/ई. सं. १२४२ के शत्रुंजय के प्रशस्ति लेख में उल्लिखित)
सुधाकलश (वि.सं. १४०६ / ई.सन् १३५० में संगीतोपनिषत्सारोद्धार के रचयिता)
जैसा कि प्रारम्भ में कहा गया है इस गच्छ की सद्गुरूपद्धति१४ नामक एक गुर्वावली भी मिलती है। प्राकृत भाषा में २६ गाथाओं में रची गयी यह कृति वि.सं. की १४वीं शती की रचना मानी जा सकती है। इसमें अभयदेवसूरि से लेकर पद्मदेवसूरि तक के मुनिजनों की गुरू- परम्परा इस प्रकार दी गयी है :
अभयदेवसूर
चन्द्रसूर
श्रीचन्द्रसूरि
पद्मदेवसूरि
श्रीतिलकसूरि (वि.सं. १३५२-८० प्रतिमालेख)
राजशेखरसूरि (वि.सं. १३८६-१३१४ प्रतिमालेख अनेक ग्रन्थों के
रचनाकार)
मुनिचन्द्रसूरि हरिभद्रसूरि मानदेवसूरि सिद्धसूरि महेन्द्रसूरि
विबुधचन्द्रसूरि
देवभद्रसूरि
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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देवानन्दसूरि नेमिचन्द्रसूरि यशोभद्रसूरि
देवप्रभसूरि
नरचन्द्रसूरि
माणिक्यचन्द्रसूरि
नरेन्द्रप्रभसूरि रत्नप्रभसूरि प्रभानन्दसूरि पद्मदेवसूरि
..... ग्रन्थप्रशस्तियों से जहां श्रीचन्द्रसूरि के केवल दो शिष्यों- मुनिचन्द्रसूरि और देवभद्रसूरि के बारे में ही जानकारी प्राप्त हो पाती है, वहीं इस गुर्वावली से ज्ञात होता है कि उनके अतिरिक्त श्रीचन्द्रसूरि के हरिभद्रसूरि सिद्धसूरि, मानदेवसूरि आदि शिष्य भी थे । यही बात मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य नेमिचन्द्रसूरि के बारे में भी कही जा सकती है। इसी प्रकार इस गुर्वावली में उल्लिखित नरचन्द्रसूरि के सभी शिष्यों के नाम साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात हो जाते हैं। वस्तुत: इस गच्छ के इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से यह गुर्वावली अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
__ मलधारगच्छ से सम्बद्ध १५वीं-१६वीं शती की जिन प्रतिमाओं की संख्या पूर्व की शताब्दियों की अपेक्षा अधिक है। इन पर उत्कीर्ण लेखों से इस गच्छ के विभिन्न मुनिजनों के नाम ज्ञात होते हैं, तथापि उनमें से कुछ के पूर्वापर सम्बन्ध ही निश्चित हो पाते हैं । इनका विवरण इस प्रकार है:
१. मतिसागरसूरि (वि.सं. १४५८-१४७९) ३ प्रतिमालेख २. मतिसागरसूरि के पट्टधर विद्यासागरसूरि (वि.सं. १४७६-१४८८) ७ प्रतिमालेख ३. विद्यासागरसूरि के पट्टधर गुणसुन्दरसूरि (वि.सं. १४९७-१५२९) ४३ प्रतिमालेख ४. गुणसुन्दरसूरि के पट्टधर गुणनिधानसूरि (वि.सं. १५२९-१५३६) ८ प्रतिमालेख ५. गुणनिधानसूरि के पट्टधर गुणसागरसूरि (वि.सं. १५४३-१५४६) २ प्रतिमालेख
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६. गुणसागरसूरि के शिष्य? लक्ष्मीसागरसूरि (वि.सं. १५४९-१५७२) ६ प्रतिमालेख
मलधारगच्छीय गुणसुन्दरसूरि के शिष्य सर्वसुन्दरसूरि ने वि.सं. १५१०/ईस्वी सन् १४५४ में हंसराजवत्सराज चौपाई' की रचना की। यह मलधारगच्छ से सम्बद्ध वि. सम्वत् की १६वीं शती का एक मात्र साहित्यिक साक्ष्य माना जा सकता है।
__ जैसा कि अभिलेखीय साक्ष्यों के अन्तर्गत हम देख चुके हैं वि.सं. १४९७ से वि.सं. १५२९ तक के ४३ प्रतिमालेखों में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में गुणसुन्दरसूरि का नाम मिलता है। हंसराजवत्सराजचौपाई के रचनाकार सर्वसुन्दरसूरि ने भी अपने गुरू का यही नाम दिया है, अत: समसामयिकता के आधार पर दोनों साक्ष्यों में उल्लिखित गुणसुन्दरसूरि एक ही व्यक्ति माने जा सकते हैं।
_ वि.सं. की १५वीं शती के उत्तरार्ध और १६वीं शती तक के मलधारगच्छ से सम्बद्ध साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर गुरू-शिष्य परम्परा की जो तालिका निर्मित होती है, वह इस प्रकार है:
मतिसागरसूरि (वि.सं. १४५८-१४७९) प्रतिमालेख
विद्यासागरसूरि (वि.सं. १४७६-१४८८) प्रतिमालेख
गुणसुन्दरसूरि (वि.सं. १४९७-१५२९) प्रतिमालेख
सर्वसुन्दरसूरि (वि.सं. १५१० में हंसराजवत्सराजचौपाई अपरनाम कथा
संग्रह के रचनाकार)
गुणनिधानसूरि (वि.सं. १५२९-१५३६) प्रतिमालेख
गुणसागरसूरि (वि.सं. १५४३-१५४६)
प्रतिमालेख
लक्ष्मीसागरसूरि (वि.सं. १५४९-१५७२) प्रतिमालेख
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वि.सं. की १६वीं शती के अंतिम चरण से मलधारगच्छ से सम्बद्ध साक्ष्यों की विरलता इस गच्छ के अनुयायियों की घटती हुई संख्या का परिचायक है । वि.सं. की १७वीं शती के इस गच्छ से सम्बद्ध मात्र दो साक्ष्य मिलते हैं। इनमें प्रथम है सिन्दूरप्रकरवृत्ति ६ जो मलधारगच्छीय गुणनिधानसूरि के शिष्य गुणकीर्तिसूरि द्वारा वि.सं. १६६७/ईस्वी सन् १६११ में रची गयी है। इसी प्रकार वि.सं. १६९९ के प्रतिमालेख में इस गच्छ के महिमाराजसूरि के शिष्य कल्याणराजसूरि का प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में उल्लेख मिलता है । यह मलगरगच्छ का उल्लेख करने वाला अंतिम उपलब्ध साक्ष्य है। यद्यपि इनसे वि.सं. की १७वीं शती के अन्त तक मलधारगच्छ का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध होता है , तथापि वह अपने पूर्व गौरवमय स्थिति से च्युत हो चुका था और वि.सं. की १८वीं शती से इस गच्छ के अनुयायी ज्ञातियों को हम तपागच्छ से
सम्बद्ध पाते हैं।१८
इस गच्छ के प्रमुख आचार्यों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
अभयदेवसूरि : श्वेताम्बर परम्परा में अभयदेवसूरि नामक कई आचार्य हो चुके हैं। विवेच्य अभयदेवसूरि प्रश्नवाहनकुल व मध्यमाशाखा से सम्बद्ध हर्षपुरीयगच्छ के आचार्य जयसिंहसूरि के शिष्य थे। प्रस्तुत लेख के प्रारम्भ में इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा रचित जिन ग्रन्थों की प्रशस्तियों का विवरण दिया जा चुका है, उन सभी में इनके मनिजीवन के बारे में महत्वपूर्ण विवरण संकलित है।१९ चौलुक्य नरेश कर्ण (वि.सं. ११२०-११५०) ने इनकी निस्पृहता और त्याग से प्रभावित होकर इन्हें "मलधारि" विरुद् प्रदान किया। कर्ण का उत्तराधिकारी जयसिंहसिद्धराज (वि.सं. ११५०-११९९) भी इनका बड़ा सम्मान करता था। इनके उपदेश से उसने अपने राज्य में पर्युषण और अन्य विशेष अवसरों पर पशुबलि निषिद्ध कर दी थी। गोपगिरि के राजा भुवनपाल (वि.सं. की १२वीं शती का छठा दशक) और सौराष्ट्र के राजा राखेंगार पर भी इनका प्रभाव था। अपनी आयुष को क्षीण जानकर इन्होंने ४५ दिन तक अनशन किया और अणहिलपुरपत्तन में स्वर्गवासी हुए। इनकी शवयात्रा प्रात: काल प्रारम्भ हुई और तीसरे प्रहर दाहस्थल तक पहुंची । जयसिंह सिद्धराज ने अपने परिजनों के साथ राजप्रासाद की छत पर से इनकी अंतिम यात्रा का अवलोकन किया। इनके पट्टधर हेमचन्द्रसूरि हुये।
हेमचन्द्रसूरि :जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है आप हर्षपुरीयगच्छालंकार अभयदेवसूरि के शिष्य और हर्षपुरीयगच्छ अपरनाम मलधारीगच्छ का संक्षिप्त इतिहास
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पट्टधर थे । श्रीचन्द्रसूरि विरचित मुनिसुव्रतचरित (रचनाकाल वि.सं. १९९३/ई. सन् ११३७) एवं राजशेखरसूरि कृत प्राकृतदयाश्रयवृत्ति' की प्रशस्तियों से इनके सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। विशेषावश्यक भाष्यबृहद् वृत्ति (रचनाकाल वि.सं. १९७० / ई. सन् १११४) की प्रशस्ति में इन्होंने स्वरचित ९ ग्रन्थों का उल्लेख किया है, २२ जो इस प्रकार हैं :
१. आवश्यक टिप्पण
३. अनुयोगद्वारवृत्ति ५. उपदेशमालावृत्ति
७. भवभावनासूत्र ९. नन्दिटिप्पण
.२१
आवश्यक टिप्पण :
४६०० श्लोकों की यह कृति आचार्य हरिभद्रसूरि विरचित आवश्यकवृत्ति पर लिखी गयी है। इसे आवश्यकवृत्तिप्रदेशव्याख्या के नाम से भी जाना जाता है । इस पर हेमचन्द्रसूरि ही एक शिष्य एवं पट्टधर श्रीचन्द्रसूरि ने एक और टिप्पण लिखा है जो प्रदेशव्याख्याटिप्पण के नाम से प्रसिद्ध है ।
२. शतक विवरण
४. उपदेशमालासूत्र
६. जीवसमासविवरण ८. भवभावना विवरण
शिवशर्मसूरि विरचित प्राचीन पंचम कर्मग्रन्थ शतक पर मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने संस्कृत भाषा में ३७४० श्लोक प्रमाण वृत्ति अथवा विवरण की रचना की। जैसलमेर के ग्रन्थ भंडार में १३वीं - १४वीं शती की इसकी कई प्रतियां संरक्षित हैं ।
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शतक विवरण :
:
अनुयोगद्वारवृत्ति :
यह अनुयोगद्वार के मूलपाठ पर ५९०० श्लोकों में रची गयी है। इसमें सूत्रों के पदों का सरल व संक्षिप्त अर्थ दिया गया है । कलकत्ता, बम्बई एवं पाटन से इसके चार संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
२३
उपदेशमालासूत्र :
सुभाष और
के रूप में रचित जैन मनीषियों की अनेक कृतियां मिलती हैं । यह कृति भी उसी कोटि में मानी गयी है। इसमें सदाचार और लोकव्यवहार का उपदेश देने के लिए स्वतंत्र रूप से अनेक सुभाषित पदों का निर्माण किया गया है, जिसमें जैन धर्मसम्मत आचारों और
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विचारों के उपदेश प्रस्तुत किये गये हैं । रचनाकार ने अपनी इस कृति पर वि.सं. १९७५ / ई. सन् १११९ में वृत्ति की भी रचना की है । पाटण के जैन ग्रन्थ भंडारों में इसकी कई प्रतियां संरक्षित हैं । जैन श्रेयस्कर मंडल, मेहसाणा से ई. सन् १९११ में यह प्रकाशित भी हो चुकी हैं।
जीवसमासविवरण :
आचार्य हेमचन्द्रसूरि द्वारा रचित यह कृति ६६२७ श्लोकों में निबद्ध है। इसकी स्वयं ग्रन्थकार द्वारा लिखी गयी एक ताड़पत्रीय प्रति खंभात के शांतिनाथ जैन भंडार में संरक्षित है । इस प्रति से ज्ञात होता है कि यह चौलुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज के शासनकाल में वि.सं. ११६४ / ई. सन् १९०८ में पाटण में लिखी गयी ।
भवभावनासूत्र :
जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट होता है इसमें भवभावना अर्थात् संसारभावना का वर्णन किया गया है। इसके अन्तर्गत ५३१ गाथायें है। इसमें भवभावना के साथ साथ अन्य ११ भावनाओं का भी प्रसंगवश निरूपण किया गया है।
ग्रन्थकार ने अपनी इस कृति पर वि.सं. १९७० / ई. सन् १९१४ में वृत्ति की रचना की । यह १२९५० श्लोकों में निबद्ध है। इस वृत्ति के अधिकांश भाग में नेमिनाथ एवं भुवनभानु के चरित्र आते हैं । यह कृति स्वोपज्ञ टीका के साथ ऋषभदेव जी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम द्वारा दो भागों में प्रकाशित हो चुकी है।
नंदी टिप्पण :
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है ग्रन्थकार ने विशेषावश्यक भाष्यबृहद्वृत्ति की प्रशस्ति में स्वरचित ग्रन्थों में इसका भी उल्लेख किया है । परन्तु इसकी कोई प्रति अभी तक प्राप्त नहीं हो सकी है।
विशेषावश्यक भाष्यबृहद्वृत्ति :
यह हेमचन्द्रसूरि की बृहत्तम कृति है, इसके अन्तर्गत २८००० श्लोक है। उसमें विशेषावश्यक भाष्य के विषयों का सरल एवं सुबोध रूप से प्रतिपादन किया गया है। इस टीका के कारण विशेषावश्यकभाष्य के पठन-पाठन में अत्यधिक वृद्धि हुई। इसके अंत से दो यी प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि यह वि.सं. १९७५ / ई. सन् १९१९ में पूर्ण की गयी।
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विजयसिंह सूरि :__ आप हेमचन्द्रसूरि के शिष्य थे। श्रीचन्द्रसूरि कृत मुनिसुव्रतस्वामीचरित (रचनाकाल वि.सं. ११९३/ई. सन् ११३७), लक्ष्मणगणिविरचित सुपासनाहचरित (रचनाकाल वि.सं. ११९९/ई. सन् ११४३), नरचन्द्रसूरि द्वारा रचित कथारत्नसागर एवं देवप्रभसूरिकृत पाण्डवचरितमहाकाव्य की प्रशस्तियों में इनका सादर उल्लेख है। कृष्णर्षिगच्छीय जयसिंह सूरिविरचित धर्मोपदेशमाला (रचनाकाल वि.सं. ९१५/ई. सन् ८५९) पर इन्होंने वि.सं. ११९१/ई. सन् ११३५ में १४४७१ श्लोक परिमाण संस्कृत भाषा में विवरण की रचना की। इसके अन्तर्गत कथाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है।
श्रीचन्द्रसूरि :आप विजयसिंहसूरि के लघु गुरूभ्राता और मलधारी हेमचन्द्रसूरि के पट्टधर थे। इन्होंने वि.सं. ११९३/ई. सन् ११३७ में प्राकृत भाषा में मुनिसुव्रतस्वामिचरित की रचना की। यह प्राकृत भाषा में उक्त तीर्थंकर पर लिखी गयी एक मात्र कृति है। इसकी प्रशस्ति के अन्तर्गत ग्रन्थकार ने अपनी गुरू-परम्परा का अत्यन्त विस्तार के साथ परिचय दिया है। इनकी दूसरी महत्वपूर्ण कृति है संग्रहणीरत्नसूत्र, जिस पर इनके शिष्य देवभद्रसूरि ने साढ़े तीन हजार श्लोक प्रमाण वृत्ति की रचना की । वि.सं. १२२२/ई. सन् ११६६ में इन्होंने अपने गुरू की कृति आवश्यकप्रदेशव्याख्या पर टिप्पण की रचना की ।२६ लघुक्षेत्रसमास भी इन्हीं की कृति
है।२७
लक्ष्मणगणि:आप भी मलधारी आचार्य हेमचन्द्रसूरि के शिष्य थे। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है इन्होंने वि.सं. ११९९/ई. सन् ११४३ में प्राकृत भाषा में सुपासनाहचरिय की रचना की। इसके अतिरिक्त इन्होंने अपने गुरू को विशेषावश्यकभाष्यबृहवृत्ति के लेखन में सहायता दी।२८ यह बात उक्त ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होती है।
देवभद्रसूरि :जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है ये श्रीचन्द्रसूरि के शिष्य थे। इन्होंने अपने गुरू की कृति संग्रहणीरत्नसूत्र पर वृत्ति की रचना की। न्यायावतारटिप्पनक और बृहत्क्षेत्रसमासटिप्पणिका (रचनाकाल वि.सं. १२३३/ई. सन् ११७७) भी इन्हीं की कृति है। १७८
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देवप्रभसूरि :आप मलधारगच्छीय श्रीचन्द्रसूरि के प्रशिष्य और मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य थे। इनके द्वारा रचित पाण्डवचरित का पूर्व में उल्लेख किया गया है। इसमें १८ सर्ग हैं । इसका कथानक लोकप्रसिद्ध पाण्डवों के चरित्र पर आधारित है, जो कि जैन परम्परा के अनुसार वर्णित है । यह एक वीर रस प्रधान काव्य है। पाण्डवचरित के कथानक का आधार षष्ठांगोपनिषद् त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित तथा कुछ अन्य ग्रन्थ हैं, यह बात स्वयं ग्रन्थकर्ता ने ग्रन्थ के १८वें सर्ग के २८०वें पद्य में कही है। इसके अतिरिक्त मृगावतीचरित अपरनाम धर्मशास्त्रसार, सुदर्शनाचरित, काकुस्थकेलि आदि भी इन्हीं की कृतियां हैं।
नरचन्द्रसूरि :जैसा कि प्रारम्भ में कहा जा चुका है ये मलधारी देवप्रभसूरि के शिष्य और महामात्य वस्तुपाल के मातृपक्ष के गुरू थे। ये कई बार वस्तुपाल के साथ तीर्थयात्रा पर भी गये थे। महामात्य के अनुरोध पर इन्होंने १५ तरंगों में कथारत्नसागर की रचना की। इसमें तप, दान, अहिंसा आदि सम्बन्धी कथायें दी गयी हैं। इसका एक नाम कथारत्नाकर भी मिलता है। वि.सं. १३१९ में लिखी गयी इस ग्रन्थ की एक प्रति पाटण के संघवीपाड़ा ग्रन्थ भंडार में संरक्षित है। इसके अतिरिक्त इन्होंने प्राकृतप्रबोधदीपिका, अनर्घराघवटिप्पण, ज्योतिषसार अपरनाम नारचन्द्रज्योतिष, साधारणजिनस्तव आदि की भी रचना की और अपने गुरू देवप्रभसूरि के पाण्डवचरित तथा नागेन्द्रगच्छीय उदयप्रभसूरि के धर्माभ्युदयमहाकाव्य का संशोधन किया।३२ महामात्य वस्तुपाल के वि.सं. १२८८ के गिरनार के दो लेखों के पद्यांश२३ तथा २६ श्लोकों की वस्तुपालप्रशस्ति भी इन्होंने ही लिखी है।२४
नरेन्द्रप्रभसूरि :ये मलधारी नरचन्द्रसूरि के शिष्य एवं पट्टधर थे। महामात्य वस्तुपाल के अनुरोध एवं अपने गुरू के आदेश पर इन्होंने वि.सं. १२८० में अलंकारमहोदधि की रचना की। यह आठ तरंगों में विभक्त है । इसके अन्तर्गत कुल ३०४ पद्य हैं। यह अलंकारविषयक ग्रन्थ है । वि.सं. १२८२ में इन्होंने अपनी उक्त कृति पर वृत्ति की रचना की जो ४५०० श्लोक परिमाण है।३५ इसके अतिरिक्त विवेककलिका, विवेकपादप, वस्तुपाल की क्रमश: ३७ और १०४ श्लोकों की प्रशस्तियां तथावस्तुपाल द्वारा निर्मित गिरनार स्थित आदिनाथ जिनालय के वि.सं. १२८८ के एक शिलालेख का पद्यांश भी इन्हीं की कृति है।
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राजशेखर सूरि :आप मलधारगच्छीय नरेन्द्रप्रभसूरि के पट्टधर पद्मतिलकसूरि के प्रशिष्य तथा श्रातिलकसरि के शिष्य थे। न्यायकंदलीपंजिका (वि.सं. १३८५/ई. सन् १३२९), प्राकृतद्वयाश्रयवृत्ति (वि.सं. १३८६/ई. सन् १३३०) तथा प्रबन्धकोश अपरनाम चतुर्विशंतिप्रबन्ध (वि.सं. १४०५/ई. सन् १३४९) इनकी प्रमुख कृतियां हैं। इनके अतिरिक्त इन्होंने स्याद्वादकलिका, रत्नकरावतारिकापंजिका, कौतुककथा और नेमिनाथफागु की भी रचना की।३९ वि.सं. १३८६ से वि.सं. १४१५ तक इनके द्वारा प्रतिष्ठापित ५ उपलब्ध जिन प्रतिमाओं का पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है।
इनके शिष्य सुधाकलश द्वारा रचित दो कृतियां मिलती हैं, इनमें प्रथम है संगीतोपनिषत्सारोद्धार जो वि.सं. १४०६/ईस्वी सन् १३५० में रचा गया है । इसकी प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि यह ग्रन्थकार द्वारा वि.सं. १३८०/ई. सन् १३२४ में लिखी गयी संगीतोपनिषत् का संक्षिप्त रूप है । ५० गाथाओं में रचित एकाक्षरनाममाला इनकी दूसरी उपलब्ध कृति है।
सन्दर्भ
1. Muni Punya Vijaya - Catalogue or Palm-Leaf Mss in the Shanti Natha Jain Bhandar, Cambay Vol. I, G.O.S. No. 135, Baroda 1961 A.D. pp. 66-67 2. P Petarson - Search of Sanskrit Mss Vol. V. Bombay- 1896 A.D. pp. 88-89 C.D Dalal - A Descriptive Catalogue of Manuscripts in the Jain Bhandars at Pattan Vol. I. G.O.S. No. LXXVI, Baroda- 1937 A.D. pp. 311-313 २. मुनिसुव्रतस्वामिचरित संपा. प. श्री रूपेन्द्र कुमार पगारिया, लालभाई दलपत भाई ग्रन्थांक १०६, अहमदाबाद, १९८९ ईस्वी, पृ. ३३७-३४१. ४. सुपासनाहचरिय संपा. पं. हरगोविन्ददाय, जैन विविध साहित्य शास्त्रमाला, ग्रन्थांक १२, बनारस, १५१८ ई, प्रशस्ति. 5. Muni Punya Vijaya - Catalogue or Palm-Leaf Mss in the Shanti Natha Jain Bhandar, Cambay Vol || G.O.S. No. 149, Baroda 1966 A.D. pp. 243-244 6. Ibid, pp. 374-376. Muni Punya Vijaya - New Catalogue of Sanskrit and Prakrit Mss १८०
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:Jesalmer Collection, L.D. Series No. 36, 1972 A.D. pp. 177
7. C.D. Dalal - A Descriptive Catlogue of Mss in the Jain Bhandars at Pattan P. 14
८. अंलकारमहोदधि संपा. पं. लालचन्द भगवानदास गांधी, गायकवाड़ प्राच्य ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ९५ बड़ोदरा १९४२ ईस्वी, प्रशस्ति, पृ. ३३९-३४०.
९. पं. लालचन्द भगवानदास गांधी - ऐतिहासिक लेख संग्रह सयाजीराव साहित्यमाला, पुष्प-३३५, बडोदरा, १९६२ ईस्वी. पृ. ७६-७७
10. A.P. Shah - Catalogue of Sanskrit and Prakrit Mss Muni Shree Punya Vijayji's Collection, Vol. II, L.D. Series No. 5, Ahmedabad - 1965 A.D. pp. 217-218.
Sangitopanisat-Saroddhara Ed. U.P. Shah, G.O.S. No. 133, Baroda- 1961
A.D.
११. द्रष्टव्य-संदर्भ क्रमांक- ६
१२. मोहनलाल दलीचंद देसाई - जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, बम्बई, १९३३ ई. पू. ३८९.
१३. भोगीलाल सांडेसरा- महामात्य वस्तुपाल का साहित्यमण्डल और संस्कृत साहित्य में उसकी देन सन्मान प्रकाशन नं. १५, वाराणसी १९५९ ईस्वी पृ. ३८९.
14. P. Petarson - Search of Sanskrit Mss Vol. V pp. 95-97
१५. देसाई, पूर्वोक्त, पृ. ५१४.
16. H.D. Velankar Jinaratnakosa, Bhandarkar Oriental Research Institute, Government Oriental -
Series, Class C. No. 4, Poona, 1944 A.D. p. 442.
१७. पूरनचन्द नाहर- संपा. जैन लेख संग्रह भाग २, कलकत्ता १९२७ ईस्वी लेखांक १८९९.
१८. त्रिपुटी महाराज - जैन परम्परानो इतिहास भाग - २, चारित्रस्मारक ग्रन्थमाला ग्रन्थांक ५४, अहमदाबाद, १९६० ईस्वी, पृ. ३३८.
१९. पं. लालचन्द भगवानदास गांधी - ऐतिहासिक लेख संग्रह, पृ. १७-४९
तथा
श्रीचन्द्रसूरिविरचित मुनिसुव्रतस्वामिचरित की प्रशस्ति
२०. दृष्टव्य- संदर्भ क्रमांक- ३
२१. पं. लालचन्द भगवानदास गांधी- पूर्वोक्त, पृ. ७६
२२. मोहनलाल मेहता - जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग-३
पार्श्वनाथ विद्याश्रम ग्रन्थमाला ग्रन्थांक ११, वाराणसी १९६७ ईस्वी प्र. २४२
हर्षपुरीयगच्छ अपरनाम मलधारीगच्छ का संक्षिप्त इतिहास
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________________ 23. वही, पृ. 243 24. पं. लालचंद भगवानदास गांधी, पूर्वोक्त, पृ.८०-८१ 25. जिनरत्नकोश, पृ. 410 26-27. वही, पृ. 38. 28. गांधी, पूर्वोक्त, पृ. 123. 29. द्रष्टव्य- संदर्भ क्रमांक 6. 31. द्रष्टव्य- संदर्भ क्रमांक 7 32. सांडेसरा, पूर्वोक्त, पृ. 102-104 33. मुनि जिनविजय- प्राचीन जैन लेखसंग्रह भाग 2, भावनगर, 1921, ईस्वी, लेखांक 39-2, 42-5. 34. अलंकारमहोदधि संपा.-पं. लालचंद भगवानदास गांधी, परिशिष्ट क्रमांक 4, पृ. 401-403. 35. सांडेसरा, पूर्वोक्त, पृ. 104-106. 36. अलंकारमहोदधि परिशिष्ट- क्रमांक 5-6, पृ. 404-416 37. मुनि जिनविजय, पूर्वोक्त, लेखांक 41-4 38. प्रबन्धकोश संपा. मुनि जिनविजय, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक 6 शान्तिनिकेतन, 1935 ईस्वी 39. मोहनलाल दलीचंद देसाई, पूर्वोक्त, पृ. 437. संकेत सूची जै.ले.सं.- जैन लेख संग्रह संपा. पूरनचन्द नाहर प्रा.जै.ले.सं.- प्राचीन जैन लेख संग्रह- संपा. मुनिजिनविजय अ.प्रा.जै.ले.सं.- अर्बुदप्राचीन जैन लेख संदोह- संपा. मुनिजयन्तविजय जै.धा.प्र.ले.सं.- जैन धातु प्रतिमालेख संग्रह- संपा. मुनि बुद्धिसागर प्रा.ले.सं.- प्राचीन लेख संग्रह- संपा. विजयधर्मसूरि बी.जे.लेसं.- बीकानेर जैन लेख संग्रह- संपा. अगरचन्द नाहटा जे.ए.एस.ओ.वी.- जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बाम्बे / 182 श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ