Book Title: Gunanurag Kulakam
Author(s): Somsundarsuri, Manish Modi
Publisher: Divya Darshan Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 णमो र णं समणस्स भगवओ महावीरस्स कुलक- सानुवाद सान्वय श्रीसोमसुन्दरसूरीश्वरविरचित श्री गुणानुराग- कुलकम् -: आशिर्वाद : प. पू. सिद्धान्तदिवाकर, सुविशाल गच्छाधिपति जयघोष सूरीश्वरजी महाराजा GUNANURAGA-KULAKAM Collection of Related Verses on Appreciating the Good Qualities of Others. Prakrit verses by Acarya Somasundara Suri Hindi and English translations by Manish Modi Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 नु नमो वीतरागाय पानी और वाणी मारते भी हैं और तारते भी हैं। एक मुख में से अन्दर जाती है, तो दूसरी मुख से बाहर निकलती है। विशेष बात तो यह है कि अन्दर गया हुआ पानी स्वास्थ्यकारक है, और विवेक में पगी हुई वाणी स्व और पर सभी के लिए हितकारी है। जिस प्रकार जीने के लिए पानी की आवश्यकता है, उसी प्रकार व्यावहारिक जीवन में वाणी की जरूरत है। दोनों में विकृति हानिकारक है। पानी किसी प्यासे व्यक्ति का जीवन बचा सकता है, वाणी किसी का जीवन संवार सकती है, बशर्ते वह शास्त्रोक्त हो । गुणानुराग कुलक श्री आचार्य सोमसुंदर सूरीश्वरजी द्वारा हम सभी को दी हुई शास्त्रसम्मत नसीहत है, जिसके द्वारा हम अपना जीवन संवार सकते है, अपना तथा अपनों का दृष्टिकोण बदलकर । आचार्य श्री सोमसुंदर सूरीश्वरजी हमें सिखलाते हैं कि वाणी की समग्र शक्ति किसी की भी निन्दा में न गंवा कर सुयोग व्यक्तियों एवं संविग्न मुनियों के सद्गुणों की पवित्र मन से प्रशंसा करने में लगानी चाहिए । परनिन्दा न कि सिर्फ़ इहलोक में, बल्कि परलोक में भी दुःख का कारण बनती है । आचार्य सोमसुंदर सूरीश्वरजी के हृदय की विशालता की एक बानगी देखें: स्वगच्छ (अपनी परम्परा) अथवा परगच्छ (भिन्न परम्परा), जहाँ कहीं भी बहुश्रुत (अत्यंत विद्वान् ) संविग्न (श्रमणोचित महाव्रतों का सम्यक् रूप से पालन करने वाले) मुनियों का दर्शन हो, वहाँ द्वेषभाव न रखकर, गच्छ भेद (परम्परा-भेद) आदि तुच्छ सीमाओं को लांघकर उनके सद्गुणों की सच्ची प्रशंसा करना मत भूलना । (गाथा २६ ) प्रस्तुत कुलक की प्रत्येक गाथा अनूठे, अकूत एवं अभूतपूर्व रहस्यों से भरी हुई है । इनमें सद्गुणों की महत्ता एवं आवश्यकता स्पष्ट रूप से दर्शायी गयी है । किसी गाथा ने गुणानुराग से गुण कैसे पाना यह सिखाया है, तो किसी गाथा में परनिन्दा की निन्दा की गई है । आचार्य महाराज का स्पष्ट निर्देश है कि स्वयं में विद्यमान क्रोध, मान, माया, लोभ एवं ईर्ष्या आदि को नष्ट करने का सबसे अच्छा उपाय हैपर - गुण स्तुति | इससे हमारे अन्तर में विद्यमान उन्हीं सद्गुणों के अंश स्फुरायमान हो जाते हैं, हमारी दृष्टि विशाल हो जाती है एवं विचारधारा व्यक्ति के धरातल से समष्टि के आकाश पर पहुँच जाती है । एक बार दृष्टि में औदार्य आ जाए, तो फिर क्या दुर्लभ है? यदि बहुत थोड़े में कहें, तो प्रस्तुत ग्रंथ का अभिधेय परगुण से स्वगुण में प्रवृत्ति । परगुणों का स्वयं में निरोपण और परगुण से वस्तुस्थिति को उसकी समग्रता में और विशालता में समझने की प्रक्रिया को आत्मसात् करना । परमपूज्य सिद्धान्त दिवाकर, गीतार्थ मूर्धन्य, वात्सल्यमूर्ति सुविशाल गच्छाधिपति आचार्य श्री जयघोषसूरीश्वरजी की सुन्दर प्रेरणा से मुझ निमित्त द्वारा इस ग्रन्थ का हिन्दी एवं अंग्रेजी पद्यानुवाद हुआ । वस्तुतः उनके आशीष के बिना यह सम्भव नहीं था । यह पुस्तक उनके सुझाव, मार्गदर्शन एवं प्रेरणा का फल है । उन्हें शत्-शत् नमन । यदि मुझ निमित्त द्वारा किए गए अनुवाद में कोई भी ग़लती हो, प्रमादवश या अज्ञानवश तो वह मेरी है । जो कुछ तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की वाणी के अनुसरण में है, सभी आचार्य श्री का हैं । यदि ग्रन्थ में कोई त्रुटियाँ हों, तो सुधी पाठक संशोधित करें। विदुषामनुचर मनीष मोदी Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमोचन प्रथमावृत्ति कीमत प्रकाशक प्राप्ति स्थान अक्षरजोडणी मुद्रक 3 2012 1 Rs. 30/ : दिव्यदर्शन ट्रस्ट 39, कलिकुंड सोसायटी धोळका, जि. अमदावाद - 387810 www. jainonline.org हिन्दी ग्रन्थ कार्यालय 9, हीराबाग़, सी. पी. टैंक मुम्बई 400 004 क्रिएटीव पेज सेटर्स 9869008907 पारस प्रिन्ट्स 32, सिंघ इन्डस्ट्रीयल एस्टेट नं. 3 राम मन्दिर रोड, गोरेगांव (वेस्ट) मुम्बई 400 104 - 9. "सयलकल्लाणनिलयं, परगुणगहणसरुवं, नमिऊण तित्थनाहपयकमलं । भणामि सोहग्गसिरिजणयं" ॥१॥ जो स्वयं समस्त कल्याण के निलय हैं, ऐसे जिनेश्वरों के चरणारविन्द को नमन कर, मैं सौभाग्य का सृजन करनेवाले पर-गुणग्रहण के स्वरूप को बताता हूँ । 1. Worshiping the lotus-like feet of the Jinas Who are the abode of all that is auspicious I now state the true way of Appreciating and imbibing good qualities from others. This increases the possibility of attaining liberation. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. "गुणागुराओ आतित्थयरपयाओ, निवसई हिययम्मि जस्स पुरिसस्स । न दुल्लहा तस्स रिद्धिओ" ||२|| के हृदय जिस पुरुष सच्या अनुराग बसा हो, उसके लिए तमाम ऋद्धियाँ तो क्या, तीर्थकर पद भी दुर्लभ नहीं ! में उत्तम गुणों के प्रति 2. All accomplishments, even becoming a Jina Is possible for one whose heart is full of The ability to appreciate the good qualities of others. ३. "ते धन्ना ते पुन्ना, जेसिं गुणानुराओ, ते पणामो हविज्ज मह निच्चं । अकित्तिमो होइ अणवरयं ॥३॥ जिनके हृदयकमल निरंतर ही सगुणों के प्रति अनुराग से प्रफुल्लित रहते हैं, वे धन्य हैं, पुण्यवान हैं और प्रणम्य हैं। 3. I always bow in obeisance To the blessed and meritorious ones Who have the natural, inborn and constant ability Of appreciating the good qualities of others. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ४. "किं बहुणा भणिएणं, इक्कं गुणानुरायं, किं वा तविएणं कि वा दाणेणं । सिक्खह सुक्खाणं कुलभवणं" ||४|| क्या होगा अत्यधिक पढ़ने से, तप करने से और दान से१ एक सगुणानुराग को हृदयंगम करने का प्रयास करो क्योंकि गुणानुराग सभी सुखों का भवन है । 4. What is the use of excessive study, penance and benevolence? Focus exclusively on attaining one thing: The ability to appreciate the good qualities of others. This ability is the abode of all happiness. ५. "जड़ चरसि तवं विउलं, न धरसि गुणानुरायं, पदसि सुयं करिसि विविहकट्ठाई । परेसु ता निष्फलं सयलं” ॥५॥ हे जीव, यदि तू गुणीजनों के सगुणों के प्रति सच्या अनुराग नहीं रखता, तो.. तेरे द्वारा किये गए विपुल तप, स्वाध्याय तथा कायक्लेश निष्कल हैं । 5. Penance, study and self-denial are fruitless, If you lack the ability To appreciate the good qualities of others. 5 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सोउणं गुणुक्करिसं, अन्नस्स करेसि मच्छरं जइवि। ता नूणं संसारे, पराहवं सहसि सव्वत्थ" ॥६॥ "गुणवंताणं नराणं, इसाभरतिमिरपूरिओ भणसि । जई कहवि दोसलेसं, ता भमिसि भवे अपारम्मि" ॥७॥ सुनकर यदि दूसरों के सगुणों का बखान यदि तुझे ईर्ष्या हो जावे, तो तेरी हार पक्की है। ७. गर ईर्ष्या है तुझमें भी, जान लेना अवश्य अभी परनिन्दा जो करी कभी, भटकेगा तू यहीं-यहीं। 6. If you feel envy upon hearing the good qualities of others, You are certain to meet with defeat wherever you go. 7. O living being full of darkness and envy, When you criticise the virtuous ones, You are certain to wander endlessly in samsara. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जं अब्भसेड़ जीवो, गुणं च दोसं च इत्थ जम्मम्मि। तं परलोए पावइ, अब्भासेणं पुणो तेणं" ॥८॥ “जो जंपइ परदोसे, गुणसयभरिओवि मच्छरभरेणं। सो विउसाणमसारो, पलालपुंजव्व पडिभाइ" ॥९॥ ८. ९. जो तू सोचेगा सदा-सदा, पावेगा भव-भव में वही-वही । जी देखेगा सो पावेगा । गुण देखेगा गुण पावैगा, दोष देवेगा दोष पावेगा। होगे गुणों के पुंज भी, परनिन्दा जी करोगे, तो विद्वज्जन तुमको भूसे का देर समझेंगे । 8. All the good and bad qualities that we practise in this life, Can be attained in our next life through diligent efforts. 9. Despite being endowed with hundreds of virtues, One who badmouths others Is treated like a bale of straw by the learned ones. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जो परदोसे गिण्हइ, संतासंतेवि दुट्ठभावेणं । सो अप्पाणं बंधेइ, पावेण निरत्थएणावि" ॥१०॥ "तं नियमा मुत्तव्वं, जत्तो उपजए कसायग्गी । तं वत्थु धारिजा, जेणोवसमो कसायाणं" ॥१११. ११. छोड़ी उसे जो कषाय बढ़ाए, स्वीकारी उसे जो कषाय हरे। १०. दोष मदोगे जो दूसरों पर, चाहे सच्ये ही या शूठे, बाँधोगे तुम अपने निज की, निरर्थक पापों के बोश से । 10. Driven by nastiness, one who derives pleasure In revealing others' flaws, Weighs down his soul with sinful karmas. 11. Necessarily give up those actions That cause passions to rise. And take up those which quell the passions. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जइ इच्छह गुरुयत्तं, तिहुयणमज्झम्मि अप्पणो नियमा। ता सव्वपयत्तेणं, परदोसविवजणं कुजा" ॥१२॥ "चउहा पसंसणिज्जा, पुरिसा सव्वुत्तमुत्तमा लोए । उत्तमउत्तम उत्तम, मज्झिमभावा य सव्वेसिं" ॥१३॥ १२. जी चाही तीन लोक मैं नाम Dजे तुम्हारा, तो परदोष न सोचना, न देखना, न करना कभी। १३. चार भाँत के लोग जगत में होते सबसे प्रशंसित, सर्वोत्तमोत्तम, उत्तमोत्तम, उत्तम और मध्यम । ( 12. If you truly wish to become the master of the three worlds, Stop looking at others' flaws. 13. Four types of people are praiseworthy in this world: Supremely Excellent Excellent Good Average Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जे अहमअहम अहमा, गुरुकम्मा धम्मवज्जिया लोए। ते वि य न निंदणिज्जा, किंतु दया तेसु कायव्वा" ॥१४॥ "पच्चंगुब्भडजुव्वणवंतीणं, सुरहिसारदेहाणं । जुवईणं मज्झगओ, सव्वुत्तमरुववंतीणं" ॥१५॥ सर्वोत्तमोत्तम पुरुष १५,१६. नवयौवन हो, सुगन्धित तन हो, रिखला चहकता जो चितवन हो ऐसी नारियों के बीच रहकर भी ... १४. और बचें जो सारे जग में, ही वे अधम या अधमाधम, कमी से भ्रमित या धर्म से रहित, निन्दा उनकी कभी मत करना दयाभाव तुम उनपर रखना। ___14. Do not berate or criticise even those Who are heavily engulfed in karmas and bereft of piety: Depraved and Supremely Depraved. Treat them with compassion. X Conduct of the Supremely Excellent Ones 15, 16. Despite living amongst the most beautiful women, Bursting with youth, beauty and fragrance... One who is celibate from birth Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "आजम्मबंभयारी, मणवयणकाएहिं जो धरइ सीलं । सव्वुत्तमुत्तमो पुण, सो पुरिसो सव्वनमणिज्जो" ॥१६॥ "एवंविहजुवइगओ, जो रागी हुज कहवि इगसमयं । बीयसमयम्मि निंदइ, तं पावं सव्वभावेणं" ॥१७|| उत्तमोत्तम पुरुष १७,१८. अत्यंत सुन्दर स्त्रियों के बीच रहकर भी जिसके, मन मैं पलभर भी जो विकार आवे तुरत पछता कर उसे हटावे । ...जी तनिक भी विचलित ना होता हो तीन करण से जो पाले है शीलव्रत वही पुरुष सर्वोत्तमोत्तम है। Conduct of the Excellent Ones / And follows the vow of celibacy through mind, speech and body, Is Supremely Excellent and deserves universal praise. 17, 18. He may be momentarily affected by feelings of attachment Upon seeing the most gorgeous women, But recovers the very next moment And criticises his transgression from the bottom of his heart. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 "जम्मम्मि तम्मि न पुणो, सो होइ उत्तमोत्तम हविज्ज रागो मणम्मि जस्स कया। रुवो पुरिसो महासत्तो" ||१८|| प्रायश्चित्त की गंगा में नहावे और फिर सावधान निर्विकार हो जावे वह मानुस उत्तमोत्तम कहलावे । He shall bathe in the river of atonement, And shall never again allow his mind to be attracted. Such a person is Excellent. “पिच्छड़ जुवइरुवं, जो न चरड़ अकज्जं, १९. मणसा चिंतेड़ अहव खणमेगं । पत्थिज्जंतो वि इत्थिहिं" ||१९|| उत्तम पुरुष जो युवती के रूप को निरखे हिय में अपने राग ले आवे लेकिन मौका पाकर भी वह कभी न खोटा काम करे सौ मानुस उत्तम कहलावे । Conduct of the Good 19. He may gaze at young women, And even feel momentary attraction. But does not indulge in immoral conduct, Even when the opportunity presents itself. 12 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “साहु वा सङ्को वा, सदारसंतोससायरो हुज्जा ।। सो उत्तमो मणुस्सो, नायव्वो थोवसंसारों" ॥२०॥ "पुरिसत्थेसु पवट्टइ, ___ जो पुरिसो धम्म-अत्थपमुहेसु । अनुन्नमनाबाह, मज्झिमरुवो हवइ एसो" ॥२१।। मध्यम पुरुष २१. धर्म, अर्थ, काम जो सैवे, सतत मोक्ष की भावना भाये सौ मानव मध्यम कहलाये। उत्तम पुरुष जोगी ही, साधक हो, दुनियादारी से जुदा हो, भक्त हो, गृहस्थ हो, दुनियादारी में फँसा हो, जो भी आवक स्वदारसंतोष में आस्था रखे सी उत्तम है, और उसका अल्प संसार शेष है। २०. 20. Amonk, Or a layman completely faithful towards his spouse, Both are good persons and shall wander in samsara for only a short while. NB Jain ascetics practise complete and absolute chastity. Laypersons do not. But a layman who is completely faithful to his spouse also deserves to be held in esteem. Conduct of the Average 21. One who makes unceasing efforts in the four fields __of endeavour, Dharma kpiety), Artha {profit}, Kama {pleasure and Moksha {liberation}, Is the Average person. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "एएसिं पुरिसाणं जइ गुणगहणं करेसि बहुमाणा । ता आसन्नसिवसुहो, __होसि तुम नत्थि संदेहो" ॥२२॥ "पासत्थाइसु अहुणा, संजमसिढिल्लेसु मुक्कजोगेसु । नो गरिहा कायव्वा, नेव पसंसा सहामज्झे" ॥२३।। २३. २२. इन पुरुषों से जो सादर गुणग्रहण का भाव रखेगा सो मानव बहुत जल्द ही शिव सुख की पायेगा। कोई साधु असंयमी हो, या फिर स्वच्छंद हो तो भी, कभी न उसकी निन्दा करना. ना ही सभा में गुण गाना। 22. If you make efforts to respectfully appreciate the good qualities of such persons, (The Supremely Excellent, the Excellent, the Good and ___the Average), Then you shall doubtlessly attain the bliss of liberation very soon. 23. You should not criticise or excoriate those monks, Who are lax in self-control and unrestrained in conduct. Nor should you praise them in public. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 "काऊण तेसु करुणं, जइ मन्नइ तो पयासए मग्गं । अह रुसइ तो नियमा, न तेसिं दोसं पयासए" ||२४|| २४. ऐसे साधु पर करुणा रखना, माने तो सन्मार्ग पर लाना, न माने तो निन्दा भत करना । 24. If monks with lax conduct are willing to listen you, Show them the right path. Else, if the mere mention of the right path angers them, Do not pronounce their faults, show compassion. "संपइ दुसमसमए, बहुमाणो कायव्वो, 29. दीसइ थोवो वि जस्स धम्मगुणो । तस्स या धम्मबुद्धि” ||२५|| आज के दुष्कर जीवन में जहाँ धर्म की किरण दिली वहीं उसका बहुमान करो । 25. In this difficult world, wherever you find even a little goodness, Treat it with great respect and look upon it with a positive attitude. 15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 "जउ परगच्छि सगच्छे, सिं गुणानुरायं, जे संविग्गा बहुस्सुया मुणिणो । मा मुंचसु मच्छरपहओ" ||२६|| २६. साधु चाहे अपने संघ का हो या हो दूसरे संघ का, जहाँ भी दिखे उत्तम साधु गुणानुवाद चूकना । से मत 26. Whether they belong to your gaccha (ascetic lineage) or another, Never let envy stop you from appreciating the good qualities of monks Who are highly learned and fearful of samsara. "गुणरयणमंडियाणं, सुलहा अन्नभवम्मिय, 20. बहुमाणं जो करेइ सुद्धमणो । तस्स गुणा हुंति नियमेणं” ||२७|| जो हो स्वच्छ चित्त वाला, गुणीजनों का सो पावेगा उनके वे गुण परभव में, यह निश्चित है। 27. It is certain, That one who most sincerely admires the good qualities of others, Who are studded with the gems of good qualities, Shall attain their qualities in the next birth. 16 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 "एवं गुणानुरायं, सोमसुंद सम्मं जो धरइ धरणिमज्झम्मि । सो पावइ सव्वनमणिजं ॥२८॥ २८. जो धारण करें गुणानुराग, सो पावें मोक्षकल बड़भाग । 28. Anyone on earth who follows the habit Of truly appreciating the good qualities of others, Shall be worshiped by all And shall attain the somasundara {luminous and beautiful} State of Liberation. 17