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________________ 3 नु नमो वीतरागाय पानी और वाणी मारते भी हैं और तारते भी हैं। एक मुख में से अन्दर जाती है, तो दूसरी मुख से बाहर निकलती है। विशेष बात तो यह है कि अन्दर गया हुआ पानी स्वास्थ्यकारक है, और विवेक में पगी हुई वाणी स्व और पर सभी के लिए हितकारी है। जिस प्रकार जीने के लिए पानी की आवश्यकता है, उसी प्रकार व्यावहारिक जीवन में वाणी की जरूरत है। दोनों में विकृति हानिकारक है। पानी किसी प्यासे व्यक्ति का जीवन बचा सकता है, वाणी किसी का जीवन संवार सकती है, बशर्ते वह शास्त्रोक्त हो । गुणानुराग कुलक श्री आचार्य सोमसुंदर सूरीश्वरजी द्वारा हम सभी को दी हुई शास्त्रसम्मत नसीहत है, जिसके द्वारा हम अपना जीवन संवार सकते है, अपना तथा अपनों का दृष्टिकोण बदलकर । आचार्य श्री सोमसुंदर सूरीश्वरजी हमें सिखलाते हैं कि वाणी की समग्र शक्ति किसी की भी निन्दा में न गंवा कर सुयोग व्यक्तियों एवं संविग्न मुनियों के सद्गुणों की पवित्र मन से प्रशंसा करने में लगानी चाहिए । परनिन्दा न कि सिर्फ़ इहलोक में, बल्कि परलोक में भी दुःख का कारण बनती है । आचार्य सोमसुंदर सूरीश्वरजी के हृदय की विशालता की एक बानगी देखें: स्वगच्छ (अपनी परम्परा) अथवा परगच्छ (भिन्न परम्परा), जहाँ कहीं भी बहुश्रुत (अत्यंत विद्वान् ) संविग्न (श्रमणोचित महाव्रतों का सम्यक् रूप से पालन करने वाले) मुनियों का दर्शन हो, वहाँ द्वेषभाव न रखकर, गच्छ भेद (परम्परा-भेद) आदि तुच्छ सीमाओं को लांघकर उनके सद्गुणों की सच्ची प्रशंसा करना मत भूलना । (गाथा २६ ) प्रस्तुत कुलक की प्रत्येक गाथा अनूठे, अकूत एवं अभूतपूर्व रहस्यों से भरी हुई है । इनमें सद्गुणों की महत्ता एवं आवश्यकता स्पष्ट रूप से दर्शायी गयी है । किसी गाथा ने गुणानुराग से गुण कैसे पाना यह सिखाया है, तो किसी गाथा में परनिन्दा की निन्दा की गई है । आचार्य महाराज का स्पष्ट निर्देश है कि स्वयं में विद्यमान क्रोध, मान, माया, लोभ एवं ईर्ष्या आदि को नष्ट करने का सबसे अच्छा उपाय हैपर - गुण स्तुति | इससे हमारे अन्तर में विद्यमान उन्हीं सद्गुणों के अंश स्फुरायमान हो जाते हैं, हमारी दृष्टि विशाल हो जाती है एवं विचारधारा व्यक्ति के धरातल से समष्टि के आकाश पर पहुँच जाती है । एक बार दृष्टि में औदार्य आ जाए, तो फिर क्या दुर्लभ है? यदि बहुत थोड़े में कहें, तो प्रस्तुत ग्रंथ का अभिधेय परगुण से स्वगुण में प्रवृत्ति । परगुणों का स्वयं में निरोपण और परगुण से वस्तुस्थिति को उसकी समग्रता में और विशालता में समझने की प्रक्रिया को आत्मसात् करना । परमपूज्य सिद्धान्त दिवाकर, गीतार्थ मूर्धन्य, वात्सल्यमूर्ति सुविशाल गच्छाधिपति आचार्य श्री जयघोषसूरीश्वरजी की सुन्दर प्रेरणा से मुझ निमित्त द्वारा इस ग्रन्थ का हिन्दी एवं अंग्रेजी पद्यानुवाद हुआ । वस्तुतः उनके आशीष के बिना यह सम्भव नहीं था । यह पुस्तक उनके सुझाव, मार्गदर्शन एवं प्रेरणा का फल है । उन्हें शत्-शत् नमन । यदि मुझ निमित्त द्वारा किए गए अनुवाद में कोई भी ग़लती हो, प्रमादवश या अज्ञानवश तो वह मेरी है । जो कुछ तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की वाणी के अनुसरण में है, सभी आचार्य श्री का हैं । यदि ग्रन्थ में कोई त्रुटियाँ हों, तो सुधी पाठक संशोधित करें। विदुषामनुचर मनीष मोदी
SR No.009491
Book TitleGunanurag Kulakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsundarsuri, Manish Modi
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2012
Total Pages34
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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