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महो० मेघविजयजी प्रणीत नवीन एवं दुर्लभ ग्रन्थ धर्मलाभशास्त्र
म. विनयसागर
राजस्थान-धरा के अलंकार, विविध विधाओं के ग्रन्थ-सर्जक महोपाध्याय मेघविजयजी १८वीं शताब्दी के अग्रगण्य विद्वान् हैं । ये तपागच्छ परम्परा के श्रीकृपाविजयजी के शिष्य थे और तत्कालीन गच्छनायक श्रीविजयप्रभसूरि के अनन्य चरण-सेवक और भक्त कवि थे । इनके सम्बन्ध में खोज करते हुए एक विशद लेख मैंने सन् १९६८ में लिखा था । इस लेख में मैंने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार किया था । इसमें मैंने इनके द्वारा सजित महाकाव्य, पादपूर्ति-साहित्य, चरित्रग्रन्थ, विज्ञप्तिपत्र-काव्य, व्याकरण, न्याय, सामुद्रिक, रमल, वर्षाज्ञान, टीकाग्रन्थ, स्तोत्रसाहित्य एवं स्वाध्यायसाहित्य पर संक्षिप्त विचार करते हुए ग्रन्थों का परिचय दिया था। यह मेरा लेख "श्री मरुधरकेसरी मुनिश्री मिश्रीमलजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ" में सन् १९६८ में प्रकाशित हुआ था ।
गत वर्षों में शोध करते हुए मुझे धर्मलाभशास्त्र । सामुद्रिकप्रदीप की प्रति भी प्राप्त हुई । इस प्रति का परिचय निम्न है - साईज २५.५ x ११ सेमी., पत्रसंख्या ३९, प्रतिपृष्ठ पंक्तिसंख्या १९, प्रतिपंक्ति अक्षरसंख्या ५५ हैं । १०वा पत्र खण्डित एवं आधा अप्राप्त है । लेखन-पुष्पिका नहीं है, लेखनप्रशस्ति न होने पर भी रचनाकाल के निकट की ही प्रतीत होती है । प्रति शुद्ध एवं संशोधित है और टिप्पणयुक्त है । टिप्पण पर्यायवाची न होकर ग्रन्थ के विचारों को परिपुष्ट करने वाले है।।
ग्रन्थ नाम - ग्रन्थ के प्रत्येक अधिकार और पुष्पिका में "धर्मलाभशास्त्रे" लिखा गया है, किन्तु १४वें अधिकार की पुष्पिका में "धर्मलाभशास्त्रे सामुद्रिकप्रदीपे" प्राप्त है । वैसे धर्मलाभ शब्द समस्त श्वेताम्बर मूर्तिपूजक मुनियों का आशीर्वादवाक्य है । यह ग्रन्थ प्रश्नशास्त्र से सम्बन्ध रखता है। मंगलाचरण श्लोक १७ के आधार से प्रश्नकर्ता के प्रश्न पर कुण्डली बना कर फलादेश लिखा गया है । अनिष्टनिवारण के लिए
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सर्वतोभद्र यन्त्र, मन्त्र तन्त्र, राशिगत तीर्थंकर आदि की साधना, उपासना विधि के द्वारा मनोभिलषित सिद्धि अर्थात् धर्म का लाभ, वृद्धि आदि प्राप्ति का इसमें विधान किया गया है । धर्मलाभ अंगी बन कर और समस्त साधनों को अंग मानकर इसकी सिद्धि का विवेचन होने से " धर्मलाभशास्त्र" नाम उपयुक्त प्रतीत होता है । "सामुद्रिक प्रदीप" नाम पर विचार करें तो सामुद्रिक शब्द मान्यतया हस्तरेखा - ज्ञान का द्योतक है। सामुद्रिक शब्द के विशेष और व्यापक अर्थ पर विचार किया जाये तो सामुद्रिक - प्रदीप नाम भी युक्तिसंगत हो सकता है। इसमें प्रचलित सामुद्रिक अर्थात हस्तरेखा शास्त्र का विवेचन / विचार नहीं के समान है । अतः कर्त्ता का अभिलषित नाम धर्मलाभशास्त्र ही उपयुक्त प्रतीत होता है ।
महो० मेघविजयजी
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इनका साहित्यसर्जनाकाल १७०९ से १७६० तक का तो है ही । ये व्याकरण, काव्य, पादपूर्ति - साहित्य अनेकार्थीकोश आदि के दुर्घर्ष विद्वान् थे । इन विषयों के विद्वान् होते हुए भी ये वर्षा-विज्ञान, हस्तरेखा-विज्ञान फलित- ज्योतिष - विज्ञान और मन्त्र-तन्त्र यन्त्र साहित्य के भी असाधारण विद्वान् थे ।
कवि ने इस ग्रन्थ में रचना - संवत् और रचनास्थान का उल्लेख नहीं किया है । हाँ, रचना - प्रशस्ति पद्य ३ में आचार्य विजयप्रभसूरि के पट्टधर आचार्य विजयरत्नसूरि का नामोल्लेख किया । "पट्टावली समुच्चय भाग १ " पृष्ठ १६२ और १७६ में इनका आचार्यकाल १७३२ से १७७३ माना है, जबकि डॉ. शिवप्रसाद ने "तपागच्छ का इतिहास" में इनका आचार्यकाल १७४९ से १७७४ माना है । इस ग्रन्थ में अधिकांशतः संवत् १७४५ वर्ष की ही प्रश्न कुण्डलिकाएँ है, इसके पश्चात् की नहीं है । अतः इसका निर्माणकाल १७४५ के आस-पास ही मानना समीचीन होगा ।
छठाँ अधिकार राजा भीम की प्रश्न कुण्डली से सम्बन्धित है । पूर्ववर्ती और परवर्ती अनेक भीमसिंह हुए है । सीसोदिया राणा भीमसिंह, महाराणा अमरसिंह का पुत्र भीमसिंह, महाराणा राजसिंह का पुत्र भीमसिंह, महाराणा भीमसिंह और जोधपुर के महाराजा, कोटा के महाराजा, बागोर के
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महाराज, सलुम्बर के महाराणा भी हुए है । गौरीशंकर हीराचन्द ओझा द्वारा लिखित "उदयपुर राज्य का इतिहास" के अनुसार महाराणा राजसिंह का पुत्र भीमसिंह ही इनका समकालीन है । महाराणा राजसिंह का देहावसान विक्रम संवत् १७३७ में हुआ था और उनके गद्दीनसीन महाराणा जयसिंह हुए थे । भीमसिंह चौथे नं० के पुत्र थे, अतः महाराणा की पदवी इनको प्राप्त न हो कर जयसिंह को प्राप्त हुई थी । ये भीमसिंह बड़े वीर थे । विक्रम सं. १७३७ में इन्होंने युद्ध में भी भाग लिया था । सम्भव है ये भीमसिंह समकालीन होने के कारण मेघविजयजी के भक्त, उपासक हों और १७४५ में कुण्डलिका के आधार से इनका भवष्यकाल भी कहा हो ।
अधिकार ४, ५, ६, ९, १०, ११ में क्रमशः उत्तमचन्द्र, मंत्री राजमल्ल, सोम श्रेष्ठि जयमल्ल, मूलराज, छत्रसिंह के नाम से भी प्रश्नकुण्डली बना कर फलादेश दिये गये है । ये लोग कहाँ के थे ? इस सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती हैं । महोपाध्यायजी का जनसम्पर्क अत्यन्त विशाल था । इसलिए यह नाम कल्पित तो नहीं है । सम्भवतः उनके विशिष्ट भक्त उपासक हो, अतः ये सारे नाम अन्वेषणीय हैं ।
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अधिकार ७वाँ महोपाध्याय मेघविजयजी से सबन्धित है । इसके मंगलाचरण में महोपाध्याय पद प्राप्ति के उल्लेख पर टिप्पणीकार ने लिखा है - "हे श्रीशंखेश्वरपार्श्व ! श्रिया कान्त्या महान् यः उपाधिर्धर्मचिन्तनरूपस्तत्र अभिषिक्तः व्यापारितो मेघो येन तत् सम्बोधनं, हे प्रभो ! तव भास्वदुदयज्योतिर्भरैर्मया प्रकाशे प्राप्ते विजयस्य अधिकारो वक्तव्यः " । इसके साथ विक्रम संवत् १७३१ भादवा सुदि तीज की प्रश्नकुण्डली पर विचार किया' है, अतः यह स्पष्ट है कि मेघविजयजी को विक्रम संवत् १७३९ या उसके पूर्व ही महोपाध्यायपद प्राप्त हो चुका था ।
इस ग्रन्थ में हस्तसंजीवन और उसकी टीका, केशवीय ज्योतिष ग्रन्थों आदि के उल्लेख भी प्राप्त होते है ।
श्रीमेघविजयजी जगन्मान्य वासुदेव श्रीकृष्ण द्वारा अधिष्ठापित, पूजित और वन्दित भगवान् शंखेश्वरपार्श्वनाथ के अनन्य भक्त हैं और उन्हीं के कृपाप्रसाद के समस्त प्रकार के धर्मों का लाभ प्राप्त होता है ।
ज्ञानसमुद्र और
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प्रश्नकुण्डलिकाओं पर आधारित यह धर्मलाभशास्त्र ग्रन्थ अभी तक अप्राप्त रहा है । फलित - ज्ञान और ज्योतिर्विज्ञान की दृष्टि से यह ग्रन्थ अध्ययन योग्य है, अत्यन्त उपयोगी है और प्रकाशन योग्य है ।
इस ग्रन्थ का आद्यन्त भाग प्रत्येक अधिकार के साथ प्रस्तुत है :ग्रन्थ का मंगलाचरण प्रथम अधिकार
ॐ नमः सिद्धरूपाय, श्रीनाभितनुजन्मने । अर्हते केवलज्ञाय, पुरुषोत्तमतेजसे ॥१॥ ओंकाररूपध्येयोऽर्हशङ्गेश्वरप्रतिष्ठितः । श्रीपार्श्वः केशवैश्चक-धरैः पूज्यः श्रियेऽस्तु सः ॥२॥ दशावतारैर्यो गेयः श्रेयः श्रीपरमेश्वरः । इष्टः श्रीधर्मलाभाय भूयाद्भव्यतनूभृताम् ॥३॥ श्री सहस्रांशुना न्यस्तं यथा ज्योतिर्गणाधिपे । तथा श्रीपार्श्वपूजो स्वं ज्योतिः स्फुरति केशवे ||४|| दशावतारस्तेनैव श्रीकृष्णस्त्रिजगतप्रियः । अश्वसेनाभिनन्दी च भविष्यति जिनेश्वरः ॥५॥
श्रीवर्धमानस्तेजोभिर्वर्धमानः शिवाय नः । यद्धर्मलाभाद्वर्षर्तु- मासपक्षदिनाः सुखाः ||६|| यस्य सेवार्चन ध्यानै- ग्रहाश्चन्द्रार्यमादयः । ज्योतिर्युक्ता राशिबद्धा नृणां वश्या इव श्रिये ॥७॥ अम्भोधिर्बोधिवारीणां गौतमस्तमसां भिदे । गणाधिनायको जीयाद् गर्जदजमहाध्वनिः ॥८ जीयासुस्ते तपागच्छे श्रीपूज्या विजयप्रभाः । यैः कृपाधर्मविजयैः कृताऽर्हच्छासनोन्नतिः ॥९॥ ये पूर्वं लब्धजन्मानः पूज्या श्रीउदयप्रभाः । दैवज्ञां केशवाद्याश्च ते प्रसीदन्तु भूसुराः ॥ १०॥ केशवा रसिकाग्रण्यः केशवास्तार्किकेश्वराः । केशवा ज्योतिषे साक्षाज्ज्योतिष्मन्तस्तमोहराः || ११||
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स्याद्रूपं लक्षणं भावश्चात्य प्रकृतिरीतयः । सहजो रूपतत्त्वं च धर्मः सर्गो निसर्गवत् ॥१२॥ शीलं सतत्त्वसंसिद्धिरित्याद्यैर्नामभिः स्मृतः । धर्मस्वभावस्तल्लाभस्ततः स भव उच्यते ॥१३॥ त्रिपद्यामपि तत्पूर्वमुत्पादः प्रतिपादितः । श्रीचतुर्दशपूर्वेषु तथा भगवताऽर्हता ॥१४॥ पञ्चमांगे चतुः पद्यां पूर्वमुत्पादसूचनम् । तज्जन्मपत्रात् सर्वस्य स्वभावः प्रकटीभवेत् ॥१५।। चिदानन्दमयं सौख्यमक्षयं लभ्यतेऽङ्गिभिः । यद्धर्मलाभात् सुगमं तन्नृजन्माऽत्र साध्य ॥१६|| वर्षर्तुमासपक्षाहस्तिथिवारोडुनाडिका । लग्नराशियुजः खेटा ज्ञेया द्वारैः पुरागतैः ॥१७।। वर्ष मास: पक्षतिथी घटीत्यावर्षकं मतम् । पञ्चकं धर्मलाभज्ञैः शेषं तु परिशेषतः ॥१८॥ दिनमानं विनिर्णीय पूर्व लग्नं प्रसाधयेत् । षड्वर्गशुद्धेनानेन धर्मलाभो ध्रुवं भवेत् ॥१९।। यः स्याज्ज्योतिःशास्त्र-चूडामणि-सामुद्रिकादिषु । वेत्ता प्राज्ञस्तथाभ्यासी धर्मलाभोऽस्य निश्चितः ।।२०।। क्रियाजप-तप:सक्तो व्यक्तो रक्तः सुरार्चने । इष्टं स्मरन् गुरुं ध्यायेत् धर्म स लभते सुधीः ॥२१॥ प्रश्ने भतभवद्भावि-दिनत्रयं विलिख्यते । वर्तमानतिथिर्वारभयोगघटिकान्वितम् ॥२२॥ लेख्या वेलार्कसंक्रान्तेरुद्भवस्य घटीपलैः । . भुक्ता भोग्यास्तदीयांशाः स्पष्टतांशादिका विधोः ॥२३॥ सर्वतोभद्रयन्त्रस्य स्पर्शः कार्योऽत्र नाणकैः । फलनामापि च ग्राह्यं धार्यं चित्तेऽवधानतः ॥२४॥
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श्रीशङ्केश्वरपार्हिन् विवस्वानेष शाश्वत: ।
यत्प्रभावाद्धर्मलाभेऽधिकारः प्रथमोऽभवत् ॥२५॥ प्रथमाधिकार पुष्पिका
इति श्रीधर्मलाभे महोपाध्यायमेघविजयगणि-प्रकटीकृते प्रथमोऽधिकारः सम्पूर्णः ।। (७ ए) द्वितीयाधिकार मंगलाचरण
नत्वा श्रीपरमं ज्योतिःस्वरूपं पार्श्वमीश्वरम् । अज्ञातजन्मनः पुंसो धर्मलाभं निदर्शये ॥१॥ हस्तसंजीवनग्रन्थ-वृत्तौ श्लोकचतुष्टयम् ।
इष्टोपदिष्टं तद्व्याख्या सोदाहरणमुच्यते ॥२।। द्वितीयाधिकार प्रशस्ति
इत्येवं भुवनेश्वरस्य भगवत्पार्श्वस्य नाम्नः स्फुरत्सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया ।। मन्त्राध्यक्षवणिक्षु पारस इति ख्यातस्य लक्ष्मीपतेस्तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुर्द्वितीयः श्रिये ||१||
इति श्रीधर्मलाभे शास्त्रे महोपाध्यायमेघविजयगणिना प्रकटीकृते द्वितीयोऽधिकारः ॥ (१२ बी) तृतीयाधिकार मंगलाचरण
अथाधिकारः पुरुषोत्तमस्य प्रारभ्यते केशवलभ्यनाम्ना ।
पार्श्वप्रभोः शाश्वतभास्वतोऽस्मिन् शङ्केश्वरस्य प्रणिधानधाम्ना ॥१॥ तृतीयाधिकार प्रशस्ति
इत्येवं पुरुषोत्तमस्य भगवत्पार्श्वस्य शद्धेश्वरस्याह्वानस्य निवेशनेन विदितः श्रीकेशवस्याप्ययम् ॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया
तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुस्तृतीयः श्रिये ॥१॥ (१६ ए) चतुर्थाधिकार मंगलाचरण
अथाधिकारः प्रारभ्यः श्रीपार्श्वेशप्रभावतः । श्रीमदुत्तमचन्द्रस्य वाङ्मयाचिर्बलान्मया ॥१॥
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चतुर्थाधिकार प्रशस्ति
नाम्नेत्युत्तमचन्द्रकस्य भगवत्पार्श्वस्य शङ्केश्वरस्याह्वानस्य निवेशनेन विदितः श्रीकेशवस्याप्ययम् ॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया
तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुश्चतुर्थः श्रिये ॥१॥ (१८ बी) पंचमाधिकार मंगलाचरण
श्रीकेशवस्थापितमूर्तितेजः-प्रौढस्य शङ्केश्वरपार्श्वभानोः ।
प्रभाभरान् मन्त्रिणि राजमल्ले-ऽधिकाधिकारप्रतिपत्तिरस्तु ।।१।। पंचमाधिकार प्रशस्ति
श्रीशङ्केश्वरचारुरूपभगवत्पार्श्वस्य भास्वत्प्रभोः, शुश्रूषो भुवि राजमल्ल विलसन् नाम्नि श्रिया केशवे ॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया
तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुः श्रिये पञ्चमः ॥ (२१ बी) षष्ठोधिकार मंगलाचरण
श्रीशङ्केश्वरपार्श्वस्य भास्वत: तेजसांजसा । श्रीकेशवाचितस्यौच्चैः प्रकाशः शाश्वतोऽस्तु मे ॥ इह भीमभुजौजसा जगद्विजयख्यातिधरक्षमापतेः ।
प्रकटीकृतधर्मलाभधीरधिकारः प्रतिपाद्यतेऽधुना ॥ षष्ठोधिकार प्रशस्ति
श्रीशङ्केश्वरचारुरूपभगवत्पाāश भास्वत् प्रभो । शुश्रूषोस्तव साधुभीमविजयख्याते श्रिया केशवे ॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया ।
तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुःश्रिये षण्मितः ॥ (२५ बी) सप्तमोधिकार मंगलाचरण
श्रीशकेश्वरपार्श्वभास्वदुदयज्योतिभरैः श्रीमहोपाध्यायाद्यभिषिक्तमेघविजयस्यात्राधिकारस्तव । मिथ्याज्ञानतमोविनाशनकृते प्राप्से प्रकाशे मया, वक्तव्यः शुचिनव्यभव्यसुमनोऽम्भोजन्मबोधाशया ॥
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सप्तमोधिकार प्रशस्ति
श्रीशङ्केश्वरपार्श्वशाश्वतरवेः श्रीकेशवार्चाभृतः । शुश्रूषोस्तव वर्णमेघविजयस्यौन्नत्यभावो भुवि ॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया
तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुः श्रिये सप्तमः ।। (२८ बी) अष्टमोधिकार मंगलाचरण
नेत्रानन्दनकारिणा भगवता पाइँन शकेश्वरेत्याह्वानेन कलाभरैः कुवलयोल्लासं सदा कुर्वता । त्रैलोक्ये प्रतिभासिते समुचितः सोमाधिकारोधुना,
प्रारभ्यः किल सभ्यकेशवप्रियाश्रीधर्मलाभाप्तये ॥ (२८ बी) अष्टमोधिकार प्रशस्ति
श्रीशकेश्वरपार्श्वशाश्वतरवे: श्रीकेशवार्चाभृतः । शुश्रूषोस्तव भक्तमेघविजय श्रीसोमनाम्नः सदा ॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया ।
तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुः श्रियेऽप्यष्टमः ॥ (३२ ए) नवमोधिकार मंगलाचरण
श्रेष्ठा ज्येष्ठामल्लधर्मानुभावो, भावायैषां भाव्यते केशवाज़: ।
पाश्वो भास्वानेव शोश्वराख्य-स्तस्माद्विश्वे शाश्वतोऽस्तु प्रकाशः ।। (३२ ए) नवमोधिकार प्रशस्ति
श्रीशद्वेश्वरपार्श्वशाश्वतरवेः श्रीकेशवार्चाभृतः । शुश्रूषोस्तव भक्तमेघविजय ज्येष्ठादिमल्लस्य सः ॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो भया
तत्राभूदधिकार एष नवमो हेतुर्यशःसम्पदाम् ॥ (३५ बी) दशमोधिकार मंगलाचरण
अथ श्रीमूलराजस्य पार्श्वभास्वत्प्रसादतः ।
साध्यते धर्मलाभोऽयं केशवाभ्युदिताऽध्वना । (३५ बी) दशमोधिकार प्रशस्ति
प्रभास्वत्केशवार्चस्य श्रीमेघविजयधुतेः । मूलराज धर्मलाभः प्रोक्तः श्रीपार्श्वभास्वतः ॥ (३६ ए)
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एकादशोधिकार मंगलाचरण
अथोच्यते धर्मलाभ-श्छनसिंहस्य तेजसा ।
श्रीपार्श्वभास्वतोऽय॑स्य केशवेनोदितश्रिया ।। (३६ ए) एकादशोधिकार प्रशस्ति
श्रीशङ्केश्वरपार्श्वस्य भास्वत: केशवार्चनात् ।
प्रभावाद्धर्मलाभोत्राऽसाधि साधुरसाधिकः ॥ (३६ ए) द्वादशोधिकार मंगलाचरण
अथ केशवसेव्यस्य प्रभावात् पार्श्वभास्वतः ।।
धर्मलाभः कन्यकायाः कन्यते धन्यया धिया ॥ (३६ बी) द्वादशोधिकार प्रशस्ति
एवं केशवपूज्यस्य प्रभोः पार्श्वस्य तेजसा ।
असाधि साधिकधिया धर्मलाभोऽधुना स्त्रियाः ॥ (३७ ए) त्रयोदशोधिकार मंगलाचरण
श्रीकेशवस्थापितपार्श्वभर्तुः प्रभाकृतः शुद्धमहःप्रकाशात् । सत्या युवत्या अपि धर्मलाभ: श्राद्ध्याः प्रसाध्योऽथ गुणाभिधायाः ॥
(३७ ए) त्रयोदशोधिकार प्रशस्ति
जीयात् शङ्केश्वरः पाऊ भास्वानिव सदोदयी ।
प्रभावाद्धर्मलाभोऽत्र द्वितीयः साधित: स्त्रियाः ॥१३।। (३८ ए) चतुर्दशोधिकार मंगलाचरण
प्रणम्य शकेश्वरपार्श्वभर्तुः मूर्ति सदा केशवपूजनीया । स्त्रियास्तृतीयोप्यथ धर्मलाभः प्रकाश्यते सुप्रभयैव भानोः ॥१३॥
(३८ ए) चतुर्दशोधिकार प्रशस्ति
श्रीशङ्केश्वरपार्श्वभास्वदुदितप्रौढ़प्रभोल्लासतः, कामिन्या: समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभोदयः ।
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________________ 10 अनुसंधान-३० चातुर्येण चतुर्दशोऽयमभवत् तत्राधिकारः शुभः, ग्रन्थे केशव एव तद् विजयतां मौलोऽत्र हेतुः श्रिये // 14 // (39 ए) रचना प्रशस्ति मत्वैवं भुवि धर्मलाभवचनं धीरैः परं दुर्लभं तत्प्राप्तावपि धर्मलाभविधिना साध्यं शिवोपार्जनम् / सम्यग्दर्शनबोधसाधुचरणान्यस्यायनं संस्मृतं सर्वज्ञैः जिनभास्करैः समुदितैः सिद्धिप्रतिष्ठाधरैः // 2 // जीयासुर्विजयप्रभाः, सुगुरवः श्रीमत्तपागच्छपास्तत्पट्टे विजयादिरनगणभृत् सूर्याश्च सूर्यादिमाः / तद्राज्ये कवयः कृपादिविजयास्तेषां सुशिष्यो व्यधात् शास्त्रं बालहिताय मेघविजयोपाध्यायसंज्ञः श्रिये // 3 // यदत्र किञ्चिल्लिखितं प्रमादा-दुत्सूत्रमास्थाय बलं स्वबुद्धेः / तज्जैन भक्तैः परिशोध्य साध्यः सद्धर्मलाभो ह्यनया दिशैव // 4 / उपाध्यायैरेवं ननु विरचितं मेघविजयैस्तपागच्छे स्वच्छे रसमयमिदं वाङ्मयमिह / बहूनां लोकानामुपकृतिविधौ तत्परतरैरमुष्मान्नैपुण्यात्समवहितपुण्याद् विजयताम् // 5 // द्वे सहस्त्रे पञ्चशतान्यस्य मानमनुष्टुभाम् / श्रीधर्मलाभशास्त्रस्य ज्ञातव्यं भव्यधीधनैः // 6 // सूर्याचन्द्रमसौ यावद् यावन्मेरुर्महीधरः / श्रीजैनं शास्त्रं यावत् तावद् ग्रन्थः प्रवर्तताम् // 7 // इतिश्रीधर्मलाभशास्त्रे सामुद्रिकप्रदीपे महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिप्रकटिते चतुर्दशोऽधिकारः पूर्णः / पूर्णे च तस्मिन् ग्रन्थोपि पूर्णः ॥श्री:।।