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December-2004
महाराज, सलुम्बर के महाराणा भी हुए है । गौरीशंकर हीराचन्द ओझा द्वारा लिखित "उदयपुर राज्य का इतिहास" के अनुसार महाराणा राजसिंह का पुत्र भीमसिंह ही इनका समकालीन है । महाराणा राजसिंह का देहावसान विक्रम संवत् १७३७ में हुआ था और उनके गद्दीनसीन महाराणा जयसिंह हुए थे । भीमसिंह चौथे नं० के पुत्र थे, अतः महाराणा की पदवी इनको प्राप्त न हो कर जयसिंह को प्राप्त हुई थी । ये भीमसिंह बड़े वीर थे । विक्रम सं. १७३७ में इन्होंने युद्ध में भी भाग लिया था । सम्भव है ये भीमसिंह समकालीन होने के कारण मेघविजयजी के भक्त, उपासक हों और १७४५ में कुण्डलिका के आधार से इनका भवष्यकाल भी कहा हो ।
अधिकार ४, ५, ६, ९, १०, ११ में क्रमशः उत्तमचन्द्र, मंत्री राजमल्ल, सोम श्रेष्ठि जयमल्ल, मूलराज, छत्रसिंह के नाम से भी प्रश्नकुण्डली बना कर फलादेश दिये गये है । ये लोग कहाँ के थे ? इस सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती हैं । महोपाध्यायजी का जनसम्पर्क अत्यन्त विशाल था । इसलिए यह नाम कल्पित तो नहीं है । सम्भवतः उनके विशिष्ट भक्त उपासक हो, अतः ये सारे नाम अन्वेषणीय हैं ।
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अधिकार ७वाँ महोपाध्याय मेघविजयजी से सबन्धित है । इसके मंगलाचरण में महोपाध्याय पद प्राप्ति के उल्लेख पर टिप्पणीकार ने लिखा है - "हे श्रीशंखेश्वरपार्श्व ! श्रिया कान्त्या महान् यः उपाधिर्धर्मचिन्तनरूपस्तत्र अभिषिक्तः व्यापारितो मेघो येन तत् सम्बोधनं, हे प्रभो ! तव भास्वदुदयज्योतिर्भरैर्मया प्रकाशे प्राप्ते विजयस्य अधिकारो वक्तव्यः " । इसके साथ विक्रम संवत् १७३१ भादवा सुदि तीज की प्रश्नकुण्डली पर विचार किया' है, अतः यह स्पष्ट है कि मेघविजयजी को विक्रम संवत् १७३९ या उसके पूर्व ही महोपाध्यायपद प्राप्त हो चुका था ।
इस ग्रन्थ में हस्तसंजीवन और उसकी टीका, केशवीय ज्योतिष ग्रन्थों आदि के उल्लेख भी प्राप्त होते है ।
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श्रीमेघविजयजी जगन्मान्य वासुदेव श्रीकृष्ण द्वारा अधिष्ठापित, पूजित और वन्दित भगवान् शंखेश्वरपार्श्वनाथ के अनन्य भक्त हैं और उन्हीं के कृपाप्रसाद के समस्त प्रकार के धर्मों का लाभ प्राप्त होता है ।
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