Book Title: Auppatik Sutra
Author(s): Chandmal Karnavat
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक सूत्र प्रो. चांदगल कर्णावत अंगबाह्य उपांग आगमों में आँपपातिकसूत्र' की गणना प्रथम स्थान पर की जाती हैं। कई आगमों में वर्णित विषयों का इसमें निर्देश किया गया है। चम्पानगरी, पूर्णभद्र चैत्य, बनखण्ड आदि का इसने मनोहारी वर्णन है चमनरेश कर्णिक द्वारा भगवान महावीर के दर्शन करने संबंधी वर्णन भी विस्तार से हुआ है। इसमें द्वादशविध तप का भी विस्तृत विवेचन है। भौगोलिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भी इस आगन क अध्ययन उपयोगी है। समर्पित स्वाध्यायी प्रशिक्षक एवं सेवानिवृत्त प्रोफेसर श्री दमल जी कर्णावट ने औपपातिक सूत्र के विविध आयामों का दिग्दर्शन करवा है । - सम्पादक चतुर्दशपूर्वधर स्थविर प्रणीत 'उववाइय' या 'औपपातिक सूत्र' चारह उपांगों में प्रथम है। इसे आचारांग सूत्र का उपांग माना जाता है। आचार्य अभयदेव सूरि द्वारा रचित औपपातिक वृत्ति में एतद्विषयक उल्लेख किया गया है । आचारांग में वर्णित 'मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ' का विश्लेषण औपातिक में किया जाना इसका प्रमाण माना गया है। औपपातिक का नामकरण आचार्य अभयदेव के अनुसार 'उपपात में देव एवं नारकियों के जन्म तथा सिद्धिगमन के वर्णन से प्रस्तुत आगम का नाम औपपातिक है। (औपपातिक अभयदेववृत्ति) औपपातिक का संक्षिप्त परिचय - औपपातिक या उवत्राइय शब्द उपफत से बना है । उपपात का अर्थ 'जन्म' है। इस आगग में देव नारक एवं अन्य जीवों के उपपात या जन्म का वर्णन होने से यह औपपातिक कहलाया । प्रस्तुत आगम वर्णनप्रधान शैली में रचित है। संबंधित वर्णन विस्तार से हुए हैं, अत: यह अन्य आगमों के लिए संदर्भ माना जाता है। बीच में कुछ पद्य रचना होते हुए भी यह मुख्यत: गद्यात्मक रचना है। आगम का आरंभ चम्पानगरी के वर्णन से हुआ है। इसके बाद पूर्णभद्र चैत्य, वनखण्ड शिलापट्ट के शब्दचित्र युक्त सुन्दर वर्णन इसमें उपलब्ध हैं । आगम के पूर्वार्द्ध में उक्त वर्णनों के अनन्तर तीर्थंकर भगवान महावीर का चम्पा में पदार्पण, यहीं भगवान की शिष्य संपदा का ललित चित्रोपम वर्णन, आध्यात्मिकतापूर्ण वैराग्यांत्पादकता, महावीर के ज्ञानी. ध्यानी तपस्वी लन्धिसंपन्न साधु संघ का वर्णन, प्रसंगोपात्त अनशनादि १२ तपों के भेदोपभेदों का सुविस्तृत कथन, महाराजा कुणिक की दर्शनार्थ जाने की तैयारी, महारानियों की दर्शनार्थ प्रस्थान की तैयारी, प्रभु के समवसरण में देवों का आगमन, देव ऋद्धि का चित्रण, जनसमुदाय का चित्रण अत्यन्न मनोरम शैली व साहित्यिक शैली में निरूपित है आगम के उत्तरर्द्ध में गणधर गौतम की विभिन्न देवों आदि के उपपात (जन्म) संबंधी जिज्ञासाएँ और उनका समाधान, इसी प्रसंग में तत्कालीन परिव्राजकों की अनेक Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषपातिक सूत्र. ...... ... 247 परंपराओं का वर्णन, अम्बड़ मंन्यासो का विस्तृत वर्णन, समुद्घान एवं सिद्धावस्था का चित्रण उपलब्ध है। इस विस्तृत वर्णन में तत्कालीन समाज, राज्य व्यवस्था, शिल्प एवं कलाकौशल की जानकारी शोधार्थियों के लिए महत्त्वपूर्ण है। आगमिक विषय-वस्तु का विश्लेषण चम्पानगरी प्रस्तुत आगम का आरंभ गंगानगरी के सुरम्य , नित्रोपत्र वन से हुआ है, जहां बाद में तीर्थकर प्रभु महावीर का पटार्पण हुआ। चम्पा के वर्णनान्तर्गत नगरी के वैभव, समृद्धि एवं सुरक्षा के उल्लेख के साथ नागरिक जीवन, लहलहाती खेती, पशु-पक्षी, आमोद-प्रमोद के साधन, बाग बगीचे, कुएँ, नालाब--बावड़ियाँ, छोटे छोटे बांधों से सम्पन्न वह नगरी नंदन वन तुल्य प्रतीत होती थी। ऊँची विस्तृत गहरी खाई से युक्त परकोटे, सुदृढ़ द्वार, भवनों की सुन्दर कलात्मक कारीगरी, चौड़े तिराहेंचौराहे, नगर द्वार, तोरण, हाट बाजार, कमलों से युक्त जलाशय, शिल्प एवं वास्तुकला के सुन्दर नमनों से भरी पूरी श्री वह नगरी। वस्तुत: वह नगरी प्रेक्षणीय अभिरूप या मनोज्ञ और प्रतिरूप अर्थात मन में बस जाने योग्य थी। पूर्णभद्र चैत्त्य या यक्षायतन- जहां भगवान महावीर विराजे, वह पूर्णभद्र चैत्य प्राचीन एवं प्रसिद्ध था। वह छत्र , ध्वज, घंटा, पताका युक्त झंडियों से सुसज्जित था। वहां रोममय पिच्छियां सफाई हेतु थीं। गोबर निर्मित वेदिकाएं थी और चंदन चर्चित मंगल घट रखे थे। चंदन कलशों और तोरणों से द्वार सुसज्जित थे। उन पर लंबी पुष्पमालाएं लटक रही थी। अगर कुन्दुरूक लोबान की गमगमाती महक से सुरभित था। हास्य-विनोद का स्थान नर्तकों, कलाबाजों, पहलवानों आदि की उपस्थिति से प्रकट था। लौकिक दृष्टि से पूजा स्थल था वह। वनखण्ड- बनखण्ड अनेकविध वृक्षों से परिपूर्ण हरे-भरे पत्र, पुष्प, फूलफलों से युक्त सपन एवं रमणीय था। पक्षियों के कलरव से गुंजायमान था। वनखण्ड की पाटावली में अशोक वृक्ष विशिष्ट था। अनेक रथों यानों, डोलियों एवं पालखियों को ठहराने हेतु पर्याप्त स्थान था। वनखण्ड में कदम्बादि अनेक वृक्षों से घिग लताकुंज सभी ऋतुओं में खिलने वाले फूलों से सुरम्य था। शिलापट्ट-सिंहासनकृति था। चित्रांकित सुन्दर कला कारीगरी से युक्त था। चम्पानरेश कणिक, राजमहिषियां एवं दरबार- भगवान महावीर के यहाँ पधारने एवं विराजने के कारण चम्पानरेश कूणिक एवं उनके दरबार का वर्णन भी किया गया है। राजा कूणिक हिमवान पर्वत सदृश प्रजापालक, करुणाशील, यि यो, सम्मानित, पूजित पत राजलक्षणों से युक्त था। इन्द्र समान ऐश्वर्यवान, पितृतुल्य एवं पगक्रमी था। उसका भव्य प्रासाद, विशाल Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैन्य वर्णनीय था। राजमहिषियाँ भी सदाचारी, पतिव्रता एवं लावण्यमयी थी। कणिक के दरबार में विभिन्न अधिकारी, मंत्री आदि थे। उनमें गणनायक (जनसमूहों के नेता), तन्त्रपाल या उच्च आरक्षी अधिकारी, मांडलिक राजा, मांडलिक/ भूस्वामी, महामंत्री, अमात्य, सेठ, सेनापति आदि थे। दूत, सन्धिपाल (सीमारक्षक), सार्थवाह, विदेशों में व्यापाररत व्यवसायी आदि से उसका दरबार सुशोभित था। भगवान महावीर का पदार्पण- चम्पानगरी में श्रमण भगवान महावीर का पदार्पण हुआ। यहां शास्त्रकार ने तीर्थकर भगवान महावीर की शरीर सम्पदा का अत्यंत भावपूर्ण वर्णन किया है। वर्णन के प्रारंभ में 'नमुत्थुणं' के पाठ में वर्णित 'आइगराणं' से 'संयंसंबुद्धाणं' तक के विशेषणों, आध्यात्मिक विशेषताओं का वर्णन किया गया है जो पाठक के मन में अध्यात्मभावों का ज्वार सा उभारने में सक्षम है। तदनन्तर तीर्थकर महावीर की शरीर सम्पदा का सर्वाग वर्णन कोमलपदावली में चित्रोपत्र शैली में किया गया है। प्रभु के अंग- प्रत्यंगों के वर्णन के साथ तीर्थकर के शुभ लक्षणों तथा उसके वीतराग स्वरूप का मर्मस्पर्शी वर्णन शब्दचित्रों में प्रस्तुत किया गया है। साधु संघ और स्थविर समुदाय से परिवृत्त भगवान महावीर पूर्णभद्र चैत्य में अवग्रह लेकर ठहरे और संयम-तप में आत्मा को भावित करते हुए विराजे। यहीं शास्त्रकार ने प्रभु की सेवा में रहे हुए अन्तेवासी अणगारों का भी वर्णन किया है, जो हृदय में वैराग्यभाव की हिलोरें पैदा करता है। अनेक अणगार स्वाध्याय में, शेष ध्यान तथा धर्मकथा आदि में निरत थे। अनेक तपस्वी थे जो रत्नावली, कनकावली तप तथा श्रमण प्रतिमाओं की साधना में सलंग्न थे। वे ज्ञानी, तपस्वी एवं लब्धिसम्पन्न थे। समिति गुप्ति के धारक, गुप्तेन्द्रिय, गुप्त ब्रह्मचारी अनेक गुणों के धारक, हवन की गई अग्नि के समान तेजस्वी और जाज्वल्यमान थे, दीप्तिमान थे, साथ ही स्थविरों के वर्णन में बताया कि वे सर्वज्ञ नहीं, परन्तु सर्वज्ञ समान थे। इन गुणसंपन्न अणगारों को गुणशाला से शास्त्र को सजाया गया है। भगवान के दर्शनार्थ महाराज कुणिक व रानियों की तैयारी एवं प्रस्थान- नियुक्त कर्मचारियों से प्रभु महावीर के आगमन की सूचना पाकर महाराज कूणिक एवं राजरानियों ने तैयारी की। स्नान, मज्जन करके वस्त्राभूषण धारण किए। चतुरंगिणी सेना, सेनानायकों, मंत्रियों आदि कर्मचारियों को तैयारी एवं प्रस्थान का आदेश हुआ। सभी योग्य वेशभूषा में उपस्थित हुए। हाथी, घोड़े, रथ एवं पैदल चतुरंगिणी सेना तैयार थी। आठ मंगल श्री वत्स, जलकलश, छत्र-चंवर, विजय पताका आदि की विस्तृत सज्जा के साथ प्रस्थान का चित्रमय वर्णन प्रस्तुत किया गया है। देवदेवियों का एवं जनसमुदाय का आगमन दर्शन वन्दन- असुरकुमारों Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SNRN. EENNELS आदि के सुविस्तृत वर्णन में देवों के सुन्दर शरीर, वस्त्र, आभूषण, अंगोपांग रूप सज्जा का उल्लेख हुआ है। आलंकारिकतापूर्ण चित्रोपम काव्यमयी शैली में किया गया वर्णन मनोहारी बना है। यह प्रस्तुतीकरण देवों की ऋद्धि समृद्धि को दर्शाने वाला तथा उनके चिहों को बताने वाला है। अन्य भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी एवं वैमानिक देवों का वर्णन यथातथ्य किया गया है। जनसमुदाय भगवान के कल्याणकारी दर्शन, वन्दन, शंका समाधान का स्वर्ण अवसर पाकर आह्लादित था। अनेक राजा, राजकुमार, आरक्षक-अधिकारी, सुभटों, सैनिकों, मांडलिक, तलवर, कौटुम्बिक, श्रेष्ठी, सार्थवाह, तत्त्व निर्णय, संयम ग्रहण श्रावक धर्म स्वीकार करने की उत्कृष्ट भावनाओं से भरकर हाथी, घोड़े, पालकी आदि वाहनों पर प्रस्थित हुए। महाराज कूणिक, जनसमुदाय, देव सभी न अति दूर न अति निकट भगवान की सेवा में प्रस्तुत होकर पर्युपासना करने लगे। सुविस्तृत मनोहारी वर्णन क्यों? सहज ही प्रश्न खड़ा होता है कि लोकोत्तर शास्त्र में, आप्तवाणी रूप आगम में ऐसा कलात्मक भौतिक वस्तु जगत् का वर्णन क्यों किया गया? शास्त्रकार बताते हैं कि वस्तुजगत का वर्णन यथातथ्य रूप में प्रस्तुत करना निर्दोष है। (दशवैकालिक अ.७) भगवान जहां पधारे, उन स्थानों का दर्शनार्थी राजादि का यथातथ्य वर्णन परिचय की दृष्टि से दोषयुक्त नहीं माना गया। साथ ही राजा-महाराजा, देव-देवियों की इतनी ऋद्धि-समृद्धि भी त्यागियों के चरणों में झुकती है, यह दिखाना भी शास्त्रकार का अभीष्ट रहा होगा। अर्थात् आध्यात्मिक वैभव के चरणों में भौतिक वैभव का झुकना भौतिकता की निस्सारता को सिद्ध करता है। इसके साथ ही त्यागी तपस्वी मुनि श्मशान, खंडहर आदि में भी ठहरते हैं, उनके लिए भवन और वन समान है,वे समता के साधक भौतिकता से प्रभावित नहीं होते, यह प्रतिपादन भी सूत्र का लक्ष्य रहा है। इसके अतिरिक्त किसी विशेष प्रसंग से बाहर निकलते हुए राजा महाराजा, देव-देवियों और जनसमुदाय की समारोह पूर्वक प्रस्थान की परिपाटी भी रही है। अनशनादि तपों का वर्णन- भगवान महावीर के दीर्घतपस्वी जीवन एवं उनके अंलेवासी अणगारों की कठोर तपाराधना के प्रसंग में अनशनादि १२ तपों के भेदों का वर्णन इस आगम की विशेषता है। यहां कुछ तपों के विषय में संकेत करना वांछनीय होगा। अनशन तप- इस तप के दो प्रमुख भेद बताए गए- इत्वरिक और यावत्कथिक। इत्वरिक तप मर्यादित काल के लिए चउत्थभत्त से छ: मासी तष पर्यन्त होता है एवं यावत्कथिक में जीवनभर के लिए आहार त्याग होता है। यावन्कथिक में पादयोगमन संथाग़ एवं भक्तपणन प्रत्याख्यान होता है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |.250 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक पाटपोपगमन के भी व्याघानिम और निर्व्याघातिम भेद हैं। इसी प्रकार भक्तप्रत्याख्यान के व्याघातिम. निव्याघातिय भेद बताए हैं: व्याघ्रातिम का अर्थ व्याघात जैसे हिंसक पशु या दावानल आदि उपद्रव की उपस्थिति में आजीवन आहार त्याग। नियघानिम में उपद्रव न होने पर गृत्युकाल समीप जानकर आजीवन आहार त्याग। अवमोदारिका के दो भेद- द्रव्यवमारिका, भावअवमारिका। द्रव्यावमोदरिका में उपकरण एवं भक्त पान की मर्यादा होती है। भक्त पान में ८ ग्रास, १२,१६, २४, ३० एवं ३२ ग्राम की मर्यादा से आहार लेना होता है। भाव अवमोदारिका अनेक प्रकार को है, यथा- क्रोधादि कषायों की अल्पता या अभाव का अभ्यास। भिक्षाचर्या-अभिग्रह सहित द्रव्य, क्षेत्र . काल एवं भाव की अपेक्षा इसके ३० भेदों का उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार कायक्लेश में अनेक भेदों का उल्लेख प्राप्त होता है- एक ही प्रकार से बैठे या खड़े रहना। मासिकादि प्रतिमा स्वीकारना, कठोर आसन में रहना तथा थूक आने पर न थूकना. खुजली आने पर भी नहीं खुजालना, देह को कपड़े आदि से नहीं ढंकना परन्तु यह सब समभाव से कर्म-निर्जरा या आत्म-शुद्धि के लिए किया जाता आभ्यंतर तपों में विनय के ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि के भेटोपभेदों से कुल ४५ भेदों का उल्लेख मिलता है। ध्यान-आर्त और रौद्र ध्यान के ४ प्रकार एतं ४ लक्षणों के भेदों के साथ धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान के ४ भेट, ४ लक्षण, . आलम्बन एवं ४ अनुप्रेक्षाओं के क्रम से प्रत्येक के ४--४ भेट बताए गए है। पाठक इनका विस्तृत अध्ययन इस आगम से कर सकते हैं। तीर्थकर भगवान महावीर द्वारा धर्मदेशना– ३४ अतिशय युक्त तथा ३५ वाणी के गुणों सहित प्रभु महावीर ने उपस्थित देव-देवियों, जन समुदाय एवं राजा कृणिक आदि की विराट् परिषद् को स्यादवाद शैली में धर्मदेशना दी। प्रभु ने आगार, अणगार दो प्रकार के धर्म बताए। लोकालोक के अस्तित्व कथन के साथ जीवादि ९ तत्त्वों का कथन किया। भगवान ने बताय कि अटारह पाप त्यागने योग्य हैं सुकत सफलदायी एवं द्रष्कृत्य द:खदायी होने हैं। कर्मजनित आवरण के क्षीण होने से स्वस्थता एवं शांति प्राप्त होती है। प्रभु ने ४ गतियों के बंध के कारण भी बताए। निर्ग्रन्थ-प्रवचन प्रशिभेट करने वाला, अनुत्तर, अद्वितीय, संशद्ध एवं निर्दोष है तथा सर्वदुःखों का विनाशक है। इस मार्ग के साधक महर्द्धक देव या नक्ति के अधिकारी बनते हैं। भगवान महावीर से आगर-माणगार टो प्रकार के धर्म को सुनकर Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक सूत्र . . . . 251 उपस्थित जनसमदाय में से अनेक ने श्रमा धर्म और श्रावक धर्म स्वीकार किया। इन्द्रभूति गौतम की जिज्ञासा- आगम के इस उत्तरार्ध में इन्द्रभूति गणधर गैतम की जिज्ञासाओं का उल्लेख है, जिनका समाधान प्रभु महावीर ने किया। गणधर गौतम को जिज्ञासाएं जीवों के उपपान(जन्म) के विषय में हुई हैं। इनका विस्तृत उल्लेख सूत्र ६२ से आगम की समाप्ति पर्यन्त हुआ है। यहां उनका संकेत मात्र ही किया जा सकता है। उपपात में एकान्त बाल, क्लेशित, भद्रजन परिक्लेशित नारीवर्ग, द्विद्रव्यादि सेवी मनुष्यों के उपपात के वर्णन में प्रभु ने उनके आगामी जन्म, काल मर्यादा तथा आराधकविराधकान के विषय में समाधान किया है। इसके अतिरिक्ति उपपात में वानप्रस्थों, प्रवजित श्रमणों, परिव्राजकों, प्रत्यनीकों, आजीविकों, संज्ञी पंचेन्द्रिय, तियंचयोनि जीवों, निवों, अल्पांरभी आदि मनुष्यों, अनारंभी श्रमों, सर्वकामादि विरतों के उपपात संबंधी जिज्ञासाओं का सुन्दर समाधान भी यहां प्राप्त होता है। आचारांग सूत्र के 'मैं कौन कहां से आया, कहां जाना' के मूल विषय की विस्तृत व्याख्या के रूप में उपपपात का यह विस्तृत उल्लेख 'उववाइय' आगम को आवारांग का उपांग प्रमाणित करने की दृष्टि से उल्लेखनीय है। परिव्राजक परम्पराएँ- उपपात विषय के उल्लेख के अन्तर्गत परिव्राजक वर्ग की विभिन्न परम्पराओं का उल्लेख शोधार्थियों के लिए अतीव महन्वपूर्ण है। सांख्य, कापिल, भार्गव (भगुऋषि) एवं कृष्णा परिव्राजकों का उल्लेख हुआ है। इसके साथ ही आठ ब्राह्मण एवं आठ क्षत्रिय परिव्राजकों का उल्लेख प्राप्त होता है। इन परिव्राजकों के आचार, विचार, चर्या, पात्र, वेश, शुचि, विहार आदि का वर्णन किया गया है। यह वर्णन ७६ वें सूत्र से ८८ तक उपलब्ध है। वानप्रस्थ परम्पराएँ प्रस्तुत आगम के सूत्र ७४ में विभिन्न वानप्रस्थ परम्पराओं का उल्लेख मिलता है। गंगातट पर निवास करने वाले इन वानप्रस्थों की मूल पहिचान इनके नामों से बताई गई है जैसे होतृक-अग्नि में हवन करने वाले आदि। इनकी एक लम्बी सूची यहां दी गई है। इन्द्रभूति गनम गणधर की जिज्ञासा के समाधान स्वरूप प्रभु महावीर ने इनकं उत्पात आयुष्य तथा आराधक-अनारधक होने के विषय में कथन किया है। अम्बड़ परिव्राजक एवं उसके 700 अंतेवासी - अम्बड़ की श्रावक-धर्म की साधना. उसकी अवधि, वैक्रिय एवं वीर्यलब्धियां तथा उसकी प्रिंयधर्मिता एवं अरिहंत वीतराग देव के प्रति दृढ़ता का वर्णन प्राप्त होता है। यहां अंबड़ के उतरवर्ती भव भी बताए हैं। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी अंबड़ के 700 अंतेवासी किस प्रकार अदत्त न लेने के अपने व्रत की साधना में संथारापूर्वक पंडित मरण को प्राप्त होते हैं, यह उल्लेख मिलता है। समुद्घात एवं सिद्धावस्था- उपपात के साथ केवली समुद्घात का विस्तृत वर्णन तथा समुद्घात का स्वरूप वर्णन करके शास्त्रकार द्वारा सिद्ध अवस्था का स्वरूप बताया गया है। इसमें सिद्धों की अवगाहना, संहनन, संस्थान, तथा उनके परिवास का उल्लेख प्राप्त होता है। प्रस्तुत आगम की कतिपय विशेषताएँ * आप्तवाणी होने से आगम ज्ञान के प्रकाशस्तंभ होते हैं। वे अज्ञान अंधकार में भटकते मानव को ज्ञान का प्रकाश प्रदान कर कल्याण पथ पर अग्रसर करते हैं। उववाइय सूत्र नगरी के वर्णन, वनखंड के वर्णन आदि की दृष्टि से अन्य आगमों के लिए संदर्भ ग्रन्थ माना गया है। इसे आगम की मौलिक विशेषता माना गया है। नगर निर्माण, नगर सुरक्षा एवं व्यवस्था, जनजीवन, कला, शिल्प(वास्तु) एवं राज्यव्यवस्था की पर्याप्त सामग्री इस आगम में उपलब्ध है। इस दृष्टि से यह शोधार्थियों के लिए अतीव महत्त्वपूर्ण है। वानप्रस्थ एवं परिव्राजक परम्पराओं के उल्लेख इस आगम में विस्तार से किए गए हैं। ये इनकी आचार-विचार चर्या पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। सूत्र सूयगडांग के समय अधिकार में दार्शनिक दृष्टि से विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं का वर्णन है, जो सैद्धांतिकता पर प्रकाश डालते हैं। वानप्रस्थ एवं परिव्राजक परम्पराओं का अध्ययन शोधकर्ताओं के लिए महत्त्वपूर्ण वर्णनप्रधान एवं शब्दचित्र शैली में रचित यह आगम साहित्यिक रचना का उदाहरण है। इसके प्रणेता चतुर्दशपूर्वी स्थविर ने सिद्धान्तानुसार वर्णनप्रधान स्थलों एवं क्रियाकलापों का यथातथ्य वर्णन प्रस्तुत किया है। श्रमण जीवन एवं स्थविर जीवन के विस्तृत वर्णन के साथ तप-साधना का विस्तारपूर्वक उल्लेख इसकी अपनी विशेषता है। __ अंतत: यह आगम ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप के साधकों के लिए पठनीय, मननीय एवं आचरणीय है। - 35, अहिंसापुरी, उदयपुर (राज.)