Book Title: Aparigraha se Dwandwa Visarjan Samtavadi Samaj Rachna
Author(s): Prakashchandramuni
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/210093/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ otoo 0000000 ५०८ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ आज के विज्ञान ने इस बात को प्रमाणित कर दिया है कि प्रभाव वाली रही तो व्यक्ति के शरीर से निकली तरंगों का वर्तुल भिन्न-भिन्न प्रकार की तरंगों से भिन्न-भिन्न प्रकार के कई कार्य किये काला, नीला, कबूतर के पंख के रंग जैसा बनेगा और उसका जा सकते हैं। छोटा-सा टी. वी. का रिमोट कन्ट्रोलर ही अपने में से बाहरी प्रभाव भी उसी अनुरूप होगा। यदि मौन जप की भाव धारा अलग-अलग अगोचर तरंगों को निकालकर टी. वी. के रंग, शुभ, शुभकर्म, शुभ विचार की अथवा अरुण लेश्या, पीत लेश्या आवाज, चैनल आदि-आदि बदल सकता है। ओसीलेटर यंत्र की अथवा शुक्ल लेश्या के प्रभाव की रही तो उसके शरीर से निकली अगोचर तरंगें समुद्र की चट्टान का पता दे सकती है, तरंगों से तरंगों का पर्तुल लाल, पीला, श्वेत बनेगा। शरीर में ऑपरेशन किये जा सकते हैं इसी प्रकार साधक द्वारा जप भाष्य से प्रारंभ किया जाकर उपांशु किया जाने के बाद में भिन्न-भिन्न प्रकार के जप द्वारा अपने में एकीकृत ऊर्जा से मानस जप किया जा सकता है। अभ्यास से उसे अजपा जप में भी भिन्न-भिन्न मंत्रों में वर्णित कार्य किये जा सकते हैं। आवश्यकता है परिवर्तित किया जा सकता है। इसके लिये श्रद्धा, संकल्प, दृढ़ता, उन्हें विधिवत् करने की। एकाग्रता, तन्मयता, नियमितता, त्याग, परिश्रम विधिवत्ता आदिपूर्वाचार्यों ने अलग-अलग ध्वनियों से निकलने वाली तरंगों के आदि की आवश्यकता है। अलग-अलग प्रभाव जाने और उसी के आधार पर अलग-अलग जपयोग ध्यान व समाधि के लिये सोपान है। आर्त ध्यान, रौद्र । मंत्र, क्रियाएं आदि बनाये जिनके प्रभावों के बारे में कई बार ध्यान से मुक्त कराकर धर्म ध्यान में प्रविष्ट करता है जो परिणाम देखने, सुनने और समाचार पत्रों में पढ़ने में आता है। में शुक्ल ध्यान का हेतु बनता है। मौन जप की भाव धारा यदि हिंसा, कपट, प्रवंचना, प्रमाद, } पताआलस्य की अर्थात् कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या के / भानपुरा (म. प्र.) ४५८ ७७५ अपरिग्रह से द्वंद्व विसर्जन : समतावादी समाज रचना -मुनि प्रकाशचन्द्र 'निर्भय' (मालव केसरी, गुरुदेव श्री सौभाग्यमल जी म. सा. के शिष्य) प्रवर्तमान इस वैज्ञानिक यन्त्र युग में विविध विकसित का प्रकाश नहीं अपितु हिंसा की ज्वाला ही भड़कती है। हिंसा के सुख-साधनों की जैसे-जैसे बढ़ोत्तरी होती जा रही है, वैसे-वैसे पीछे परिग्रह/तृष्णा का ही हाथ है और अहिंसा की पीठ पर मनुष्य का जीवन अशान्ति/असन्तुष्टि/संघर्ष/द्वंद्व से भरता चला जा, अपरिग्रह/संविभाग का। रहा है। अधिकाधिक सुविधा सम्पन्न साधनों की अविराम दौड़ में अहिंसा और अपरिग्रह-विश्ववंद्य, अहिंसा के अवतार, श्रमण लगा मानव भन, क्षणभर को भी ठहर कर इसकी अन्तिम परिणति भगवान श्री महावीर स्वामी ने पंच व्रतात्मक जिन धर्म का क्या होगी, इसके लिए सोचना/चिंतन करना नहीं चाहता है। संप्राप्त प्रतिपादन किया है-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इंधन से अग्नि के समान मानव मन तृप्त होने की बजाय और सामान्य दृष्टि से ये सब भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैं किन्तु विशेष । अधिक अतृप्त बनकर जीवन विकास के स्थान पर जीवन विनाश दृष्टि से-चिंतन की मनोभूमि पर ये विलग नहीं, एक-दूसरे से के द्वार को खोल रहा है। मानव समाज में जहाँ एक ओर साधन संलग्न हैं। एक-दूसरे के प्रपूरक हैं। इनमें से न कोई एक समर्थ है। सम्पन्न मानव वर्ग बढ़ रहा है, उससे भी अनेकगुण वर्धित दैनिक 1 और न कोई अन्य कमजोर। ये सबके सब समर्थ हैं, एक स्थान पर साधन से रहित मानव वर्ग बढ़ता जा रहा है। दो वर्ग में विभिन्न खड़े हैं। एक व्रत की उपेक्षा अन्य की उपेक्षा का कारण बन जाती मानव समाज द्वंद्व/संघर्ष का कारण बन रहा है। क्योंकि एक ओर है, एक के सम्पूर्ण परिपालन की अवस्था में सभी का आराधन हो विपुल साधनों के ढेर पर बैठा मानव समाज स्वर्गीय सुख की सांसें जाता है। अहिंसा के विकास बिन्दु से प्रारंभ हुई जीवन यात्रा से रहा है, तो दूसरी ओर साधन अभाव की अग्नि से पीड़ित } अपरिग्रह के शिखर पर पहुँचकर शोभायमान होती है, तो मानव समाज दुःख की आहें भर रहा है। ऐसी स्थिति में अपरिग्रह से उद्गमित जीवन यात्रा अहिंसा के विराट् सागर पर मानव-मानव के बीच हिंसक संघर्ष/द्वंद्व होने लगे तो क्या आश्चर्य पूर्ण होती है। शेष तीन व्रत-सत्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्य यात्रा को है? कुछ भी तो नहीं। तृष्णा की इस जाज्वल्यमान अग्नि से अहिंसा । पूर्णतया गतिशील बनाये रखने में सामर्थ्य प्रदान करते हैं। / 52.0 2000 1056hsaas 60306088058 GOSSOSIO 20ReddehaRINAAT०.394866600 0900906 yo200 -. 500RS 0760 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर अहिंसा और अपरिग्रह को लेकर जैनागमों और जैनदर्शन के अनेकानेक ग्रन्थों में जैन तत्व मनीषियों / प्राज्ञों/चिन्तकों/मननको ने विशद् चर्चा / ऊहापोह किया है। विभिन्न दृष्टिकोणों से इनको देखा परखा और निष्कर्ष के रूप में यह दृष्टिगत किया है कि'अहिंसा अपरिग्रह की पीठ पर खड़ी है और अपरिग्रह अहिंसा के बिना असंभव है। अर्थात् वे दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों पहलू की जीवन्तता अत्यावश्यक है। सामान्यतया हम देखते हैं कि हमारे चारों ओर अहिंसा पर बहुत-सी चर्चाएँ / संगोष्ठियाँ / सेमिनार आयोजित होते रहते हैं। जिनमें अहिंसा का सूक्ष्मतम चिंतन और स्वरूप उजागर किया जाता है। किन्तु अपरिग्रह को गीण या दरकिनार कर दिया जाता है जबकि वस्तु सत्य यह है-अहिंसा अपरिग्रह के बिना सफल हो नहीं सकती हिंसा का जन्म ही परिग्रह की भूमि पर ही होता है। जैनागमों में प्रसिद्ध आगम सूत्रकृतांग सूत्र की चूर्णि में स्पष्ट उद्घोष है आरम्भपूर्वको परिग्रहः" (१-२-२) तथा मरणसमाथि नामक ग्रंथ में कहा है-अत्योमूल अणत्थाणं' (६०३) 'अर्थ (परिग्रह) अनर्थ का मूल कारण है।' अहिंसक बनने की पहली शर्त है अपरिग्रही बनना। विश्व के समस्त धर्मों में जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है। जिसने त्यागी जीवन पर अधिकाधिक बल देते हुए 'त्यागीधर्म' का मार्गदर्शन किया है। निवृत्ति प्रधान धर्म ही जैनधर्म है। त्याग की भूमि पर ही जैनधर्म खड़ा है । निवृत्ति का अर्थ है 'लौटना'-'किससे लौटना ?'-'अशुभ और परभाव से लीटना! वस्तुतः त्याग के बिना अशुभ से लौटा नहीं जा सकता है। जैन साधक की क्रियाओं में 'प्रतिक्रमण' एक महत्वपूर्ण क्रिया है। जिसमें आत्मा अशुभ से निवृत्त होकर शुभ में स्थित होती है जैसे अशुभ अशुचियुक्त पदार्थ व्यक्ति अपने पास न तो रखना चाहता है, न ऐसे स्थान पर रूकना चाहता है जहाँ अशुचि-अशुभता हो। ठीक वैसे ही जैन धर्म का कथन है कि अशुभ विचारों के त्याग के बिना और निवृत्ति मार्ग ग्रहण किये बिना जीवन का निर्माण नहीं होता है पदार्थ त्याग के साथ-साथ अशुभ विचारों का त्याग भी अत्यावश्यक है। क्योंकि विचारों में ही सबसे पहले शुभाशुभ / हिंसाहिंसा का जन्म होता है। विचारों की दूषितता ही हिंसा तथा परिग्रह को जन्म देती है। अपरिग्रह और वीतराग जैनधर्म और दर्शन के प्रणेता तीर्थंकर भगवान को माना जाता है। जिनके लिए एक विशेष शब्द का प्रयोग किया जाता है। वह शब्द है-'वीतराग'। वीतराग शब्द दो शब्दों के योग से बना है = वीत + राग। अर्थात् बीत गया / चला गया है राग भाव जिसका, वह है बीतराग राग का अर्थ है ममता / आसक्ति / अपनत्व / जहाँ-जहाँ जिस-जिस व्यक्ति या वस्तु में ममता है, आसक्ति है, अपनापन है, वहाँ-वहाँ रागभाव है। और जहाँ-जहाँ रागभाव है, यहाँ-वहाँ हिंसा है परिग्रह है। ममत्वहीन होना अपरिग्रही होना। = ५०९ अपरिग्रही होना वीतरागी होनां वीतरागी होना अप्रमत्त / जागृत होना अप्रमत्त जागृत होना अहिंसक होना। कहने का अर्थ यही हैं कि "जो ममत्व बुद्धि का परित्याग कर सकता है, वही ममत्व = परिग्रह का त्याग कर सकता है-'जे ममाहयमहं जहाइ, से जहाइ ममाहये।' (आचारांग - १-२-६)। = = = मूर्च्छा ही परिग्रह- यस्तुतः वस्तु या व्यक्ति परिग्रह नहीं है। परिग्रह है रागभाव तत्वार्थ सूत्र में आचार्य उमास्वाति ने कहा है कि 'मूर्च्छा परिग्रहः ।' जिसे आगम के इस सूत्र से समर्थित किया जा सकता है-'मुच्छा परिग्गहो वृत्तो ।' (दश. ६/२१ ) । प्रथमरति के ग्रन्थ कर्ता ने भी यही बात कही है- 'अध्यात्मविदो मूर्च्छा परिग्रह वर्णयन्ति । मूर्च्छा का अर्थ है विचारमूढ़ता। मूर्च्छा शब्द दिखने में बहुत छोटा शब्द है, किन्तु यह अपने भीतर समस्त संसार के द्वंद्व को समेटे हुए हैं। मद्यपान के बाद व्यक्ति की बेभान चेतना के समान ही विमूढ़ व्यक्ति की अवस्था होती है। विमूढावस्था में व्यक्ति कर्तव्याकर्तव्य के विचार से रहित हो जाता और विवेकविकल बन जाता है। विवेकविकल व्यक्ति संसार के महाजाल में बँधता हुआ बंधन से अनजान रहता है। क्योंकि वह परिग्रह को ही दुःख मुक्ति का साधन मान लेता है। 'पर' को 'स्व' मानना ही तो मूर्च्छा है। पर में रमणना कर्मजाल का पाश है। प्रश्न व्याकरण सूत्र में यही कहा गया है- 'नत्थि एरिसो पासो पडिबन्धो अत्थि सव्व जीवाणं सव्व लोए' (१-५) अर्थात् संसार में परिग्रह के समान प्राणियों के लिए दूसरा कोई जाल एवं बन्धन नहीं है।' परिग्रह दुःखदायी - परिग्रह दुःख मुक्ति का उपाय नहीं है। अपितु यह तो दुःख के अथाह सागर में धकेलने वाला है। परन्तु ममत्व / मूर्च्छा टूटे बिना जागरण भाव नहीं होता। मूर्च्छा-प्रमत्तावस्था है। प्रमत्त व्यक्ति विषयासक्त होता है- 'जे प्रमत्ते गुणट्ठिए'-आचा. १-१-४१" और विषयों में लीन व्यक्ति जिनसे अर्थात् भोगों या वस्तुओं में सुख की अभिलाषा रखते हैं, वे वस्तुतः सुख के हेतु नहीं है-'जेण सिया तेण णो सिया'- आचा. १२.४। प्रमादी व्यक्ति संसार में कभी भी सुख का मार्ग नहीं पकड़ पाता है। वह तो सदा दुःख का मार्ग ही ग्रहण करता है और फिर सदा पग-पग पर भयभीत बना रहता है-'सव्वओ पमत्तस्स भयं-१-३-४।' प्रमत्त जीव जागरण के अभाव में परिग्रह को नहीं छोड़ता है जैसे-जैसे वह संग्रहवत्ति में आसक्त होता है वैसे-वैसे यह संसार में अपने प्रति बैर को बढ़ाता जाता है- परिग्गह निविट्ठाणं, वेरं तेसिं पवट्ठई-सूत्र. १-९-३।' और स्वयंमेव दुःखी होता है। आचारांग सूत्र में भ्रमण भगवान महावीर फरमाते है- 'आसं च छंदं च विगिंच धीरे। तुम चेव सल्लनमाहड्ड । - (१-२-४) अर्थात् हे धीर पुरुष! आशा तृष्णा और स्वच्छंदता का त्याग कर। तू स्वयं ही इन काँटों को मन में रखकर दुःखी हो रहा है। "नदी के वेग की तरह परिग्रह भी क्या क्या Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360pm 8080800005 506000000000 6 6600D.s00660000000000 ADDN0002 2018.0285 PRO SRAENOG0200.000. - 9001009 १५१० उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । क्लेश पैदा नहीं करता है?-किं नं क्लेश करः परिग्रह नदी पूरः । हैं किन्तु भीतरी परिग्रह से मुक्त नहीं हैं। इसीलिए उन्हें कोई प्रवृद्धिंगतः-(सिन्दूर प्रकरण ४१)" सूत्रकृतांग सूत्र की टीका में तो अपरिग्रही नहीं कहता। पशु-पक्षी आदि जीव भी बाह्य परिग्रह से यहाँ तक कहा है आचार्य श्रीलांकाचार्य ने कि-"परिग्रह (अज्ञानियों रहित हैं, फिर भी वे अपरिग्रही नहीं कहे जा सकते हैं। आभ्यंतर के लिए तो क्या) बुद्धिमानों के लिए भी मगर की तरह क्लेश एवं । परिग्रह से निर्बन्ध हुए बिना बाह्य परिग्रह से मुक्त होना न होना विनाश का कारण है-'प्राज्ञस्थाऽपि परिग्रहो ग्राह हव क्लेशाय बराबर है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है-'जे सिया 20Dac नाशाय च'-१-१-१॥ सन्निहिकाये, गिही पव्वइए न से।' ६-१२ जो सदा संग्रह की भावना अध्यात्म चर्चा में बुद्धिमान उसे नहीं कहा जाता है जो विद्वान रखता है, वह साधु नहीं किन्तु (साधु वेष में) गृहस्थ ही है।' है, अपितु उसे कहा जाता है जो अप्रमत्त अपरिग्रही हो। प्रमत्त साधक बाह्याभ्यंतर परिग्रह का त्यागी होता है। यदि वह बाह्य व्यक्ति साधनों के अभाव को ही दुःख का कारण मानता है। इसलिए परिग्रह तो त्यागे किन्तु आभ्यंतर परिग्रह न त्यागे तो वह साधना उसकी दृष्टि साधनों की प्राप्ति पर टिकी रहती है। परन्तु वह पथ पर चलकर भी लक्ष्य को नहीं पा सकताहै। साधन को पाकर भी तृप्त नहीं होता है। होता भी है तो क्षणिक। आभ्यन्तर परिग्रह : तृष्णा-आभ्यन्तर परिग्रह का सामान्य अर्थ जैसे भूख लगी-भोजन ग्रहण किया। भोजन ग्रहण के समय तृप्ति है विषय-कषाय के प्रति ममत्व बुद्धि। “मनुष्य का मन अनेक चित्त का अनुभव तो अवश्य होता है, पर वह कितने समय तक टिकता वाला है। वह अपनी कामनाओं की पूर्ति ही करना चाहता है, एक है? प्यास लगी, पानी पीया, तृप्ति हुई, पर कितनी देर तक? तरह से छलनी को जल से भरना चाहता है-'अणेग चित्ता खल मकान का अभाव, बनाया खरीदा, अच्छा लगा, कितनी देर? कार । अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पूरइत्तए' (आचा. १-३-२)। कषाय खरीदने की इच्छा हुई, खरीदी, उपभोग किया, फिर बाद में और विषय से प्रेरित मनुष्य आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त नहीं हो अतृप्ति और जागी। ऊब गये कार में बैठे-बैठे। वास्तव में दुनियाँ | पाता है। क्योंकि ये इच्छाओं को प्रेरित करते रहते हैं। और सागर के समस्त साधन-परिग्रह वास्तविक सुख के हेतु हैं ही नहीं। ये की लहरों के समान प्रतिपल/ प्रतिसमय हजारों, लाखों इच्छाएँ सुखाभास देते हैं, उत्तेजना देते हैं जो सुखद लगती है। परन्तु उत्पन्न होती रहती हैं-नष्ट होती रहती हैं। उत्तरांध्ययन सूत्र में उत्तेजना सुखद हो नहीं सकती। मकान-दुकान-स्त्री-पूत्र-पद-पैसा- निर्देश है कि 'इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया ॥९-४७॥ इच्छाएँ प्रतिष्ठा आदि सभी परिग्रह के ही प्रकार हैं, जिनमें ममत्व/मूर्छा | आकाश के समान अनत्त हैं। जिनका कभी पार नहीं पाया जा दुःखदायी ही है। सकता है। उत्पन्न होना और नष्ट होना इच्छाओं की नियति है। परिग्रह के भेद-परिग्रह के दो भेद किए गये हैं-बाह्य और किन्तु मानव इन्हें पूर्ण करना चाहता है। पर वे कभी पूर्ण नहीं होती आभ्यन्तर। बाह्य परिग्रह में क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, हैं। कहा गया हैधान्य, दुपद, चौपद और कुविय धातु आदि चल-अचल सम्पत्ति को 'कसिणं पि जो इमं लोभ, पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स। गिना है, और आभ्यन्तर परिग्रह में तेणावि से ण संतुस्से, इह दुप्पूरए इमे आया॥१६॥ 'मिच्छत्तवेदरागा, तहेव हासादिक या य छद्दोसा। धन-धान्य से भरा हुआ यह समग्र विश्व भी यदि किसी एक चत्तारि तह कसाया, चउदस अब्भंतरा गंथा॥" व्यक्ति को दे दिया जाय, तब भी वह उससे सन्तुष्ट नहीं हो 'मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, सकता-इस प्रकार आत्मा की यह तृष्णा बड़ी दुष्यूर है।'-क्योंकि भय, शोक, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ।' "ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ होता है। और लाभ से लोभ निरन्तर बढ़ता ही जाता है। जहा लाहो, तहा लोहो, लाहा लोहो दोनों प्रकार का परिग्रह चेतना में विमूढ़ता पैदा करता है। पवड्ढई' उत्त. ८/१७/" अग्नि और तृष्णा में एक ही बात का बाह्याभ्यंतर दोनों रूप से निवृत्ति-त्याग किये बिना परिग्रह समाप्त अन्तर है। अग्नि को थोड़े से जल से शान्त किया जा सकता है, नहीं होता है। परिग्रह का शाब्दिक अर्थ इसी बात का दर्शन कराता किन्तु तृष्णा रूपी अग्नि को समस्त समुद्रों के जल से भी शान्त नहीं है कि चारों ओर से ग्रहण करना-पकड़ना। जो किसी भी वस्तु या किया जा सकता हैव्यक्ति को समग्र रूप से आसक्त भाव से ग्रहण करता है, वह परिग्रही होता है। और अपरिग्रही आभ्यंतर परिग्रह से मुक्त होता सक्का वण्ही णिवारेतुं, वारिणा जलितो बहिं। हुआ बाह्य परिग्रह से भी मुक्त हो जाता है। आभ्यंतर परिग्रह से सव्वोदही जलेणावि, मोहग्गी दुण्णिवारओ॥ मुक्त होना अति आवश्यक है, क्योंकि बाह्य परिग्रह का त्याग -ऋषि भा. ३/१०॥ सहज-सरल है किन्तु भीतरी परिग्रह का त्याग मुश्किल है। दरिद्री/ श्रमण प्रभु महावीर ने तृष्णा को भयंकर फल देने वाली विष भिखारी/साधनहीन व्यक्ति बाह्य परिग्रह से अवश्य मुक्त दिखाई देते की वेल कहा है-'भवतण्हा लया वुत्ता, भीमा भीम फलोदया a6047 000 MI/ 800030600DPas000-6DPE FOYABPoegseDac Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PadoDC 3 000000000000000000000000000000000000000000000000000 करेगा? POOD.. Joeso । अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर ५११ उत्त. ८३/४४।। फिर भी मनुष्य परिग्रह में सुख मानता है। किन्तु कंस ने भी अपने पिता उग्रसेन को इसी राज्यलिप्सा के कारण मनीषी विद्वान कहते हैं कि 'रोटी, पानी, कपड़ा, घर, आभूषण, कारावास में बन्द किया था व स्वयं राज्यसिंहासन पर आसीन हुआ स्त्री, सन्तान एवं हन्डियों के इष्ट शब्दादि विषयों की अभिलाषा में था। व्याकुल बने हुए संसारी जीव स्वस्थता का स्वाद कैसे ले और भी ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास गगन पर प्राप्त हो सकते हैं ? सकते हैं। इसी परिग्रह के कारण भाई-भाई में, पिता-पुत्र में, प्रथममशन पान प्राप्ति वाञ्छादिहस्ता, पति-पत्नी में द्वन्द्व होते देखे गए हैं। घर के टुकड़े भी इसी तृष्णा स्तदनु वसनवेश्माऽलकृति व्यग्रचित्ताः। की बढ़ती हुई बाढ़ के कारण होते हैं। हरे-भरे घर उजड़ते हुए देखे जा सकते हैं। इस परिग्रह ने क्या नहीं किया? “अर्थमनर्थम परिणयनमपत्यावाप्ति मिष्टेन्द्रियार्थान, भावयनित्यम्।" विनोबा ने कहा है यह अर्थ अनर्थ की खान है। सततमभिलषन्ताः स्वस्थतां क्वानुवीरन् । समस्त पापों का मूल है। या यों कहें कि यही अर्थ या लोभ पाप का -शान्त सुधारस-कारुण्य भावना। बाप है। लोभी व्यक्ति अन्धा ही होता है। उसे अपना भला-बुरा भी बाह्याभ्यंतर परिग्रह संसार के समस्त दुःखों से बचाने में दिखाई नहीं देता तो वह देश, समाज व राष्ट्र का क्या उत्थान असमर्थ है। क्योंकि जो कार्य जिसका नहीं है, वह उस कार्य को कैसे कर सकता है ? परिग्रह तो संसार में द्वंद्व कराने वाला है। अनासक्त-अनिच्छक = अपरिग्रही-परिग्रह की इतनी चर्चा के वह द्वंद्व से मुक्त करने में असक्षम है। तृष्णा के वशीभूत बनी बाद अब अपरिग्रह पर भी एक दृष्टि निक्षेप करें। आचार्य हेमचन्द्र दुनिया 'जर-जोरू और जमीन' के लिए अनेकों बार रक्त-रंजित ने अपने इतिहास प्रसिद्ध ग्रंथ 'त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित' में कहा है-'सर्वभावेषु मूर्छायास्त्यागः स्यादपरिग्रहः। अर्थात् सभी पदार्थों पर से आसक्ति हटा लेना ही अपरिग्रह है।' जहाँ ममत्व/आसक्ति परिग्रह परिग्रह के ऐतिहासिक उदाहरण-जैन इतिहास में मगधेश का हेतु है, वहाँ निमर्मत्व/अनासक्ति अपरिग्रह का। ममत्वशील प्राणी कौणिक और चेटक का विराट् युद्ध प्रसिद्ध है। जिसमें लाखों की संसार में भटकते हैं-'ममाइ लुंपइ वाले।' सूत्र. १-१-१-४। और सैना का घमासान हुआ। इस भीषण नर संग्राम के पीछे एक ही आचारांग सूत्र में कहा गया है कि अधिक मिलने पर भी संग्रह न कारण था-हार और हाथी को हस्तगत करना। मगध सम्राट करे और परिग्रह वृत्ति से अपने को दूर रखे-'बहुपि लद्धं न निहे, श्रेणिक के राजपुत्रों में जब राज्य का बटवारा हुआ, तब एक परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्किज्सा॥ १-१-५१ परिग्रह कर्म बेशकीमती हार और हस्तिराज हाथी हल-विहल भाइयों को प्राप्त बन्ध/इन्द्व/संघर्ष का कारण है और अपरिग्रह मुक्ति का। हुआ। कौणिक की पत्नी ने जब हार-हाथी को देखा, तब वह दोनों मनुष्य को जीवन जीने के लिए, जीवन निर्वाह की साधन पर मोहित हो गयी। उसने मगधेश कौणिक से कहा-'हार-हाथी के सामग्री अवश्य चाहिए। इससे भी इन्कार किया ही नहीं जा सकता बिना यह राज्य सूना है।' बस कौणिक के मन में हार-हाथी का है। ऐसे में कुछ परिग्रह की उपस्थित अवश्य हो ही जाती है। अतः परिग्रह जाग उठा और जिसका परिणाम लाखों की संख्या में क्या करे? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए विशेषावश्यक सूत्र के नर-संहार के रूप में आया। भाष्यकार कहते हैं कि 'गंथोऽगंथो व मओ मुच्छा, मुच्छाहि बौद्ध साहित्य में कलिंग युद्ध प्रसिद्ध है जो सम्राट अशोक ने । निच्छयओ। २५७३ 'निश्चय दृष्टि से विश्व की प्रत्येक वस्तु परिग्रह लड़ा था। कलिंग युद्ध राज्य लिप्सा का ही एक उदाहरण है। भी है और अपरिग्रह भी। यदि मूर्छा है तो परिग्रह है और यदि मूर्छा नहीं है तो अपरिग्रह।+सूत्रपाहुड में कहा है-'अप्पगाहा, महाभारत भी राज्यलिप्सा को प्रस्तुत करता है। समुद्दसलिले सचेल अत्थेण-२७ ग्राह्य वस्तु में से भी अल्प रामायण स्त्री परिग्रह का संकेत करती है। (आवश्यकतानुसार) ही ग्रहण करना चाहिए। जैसे समुद्र के अथाह सम्राट औरंगजेब द्वारा अपने पिता शाहजहाँ को कैदखाने में जल में से अपने वस्त्र धोने के योग्य अल्प जल ही ग्रहण किया बंद करना और भाइयों का वध करना राज्य-परिग्रह का ही तो जाता है। एसा वृत्ति वाला साधक/मनुष्य अपरिग्रही कहलाता है। प्रतिफल है। आवश्यकतानुसार अपरिग्रह भाव से ग्राह्य वस्तु का ग्रहण अपरिग्रह की कोटि में ही आता है। जैसाकि कहा है-'अपरिग्गहसंवुडेण सिकन्दर की दिकविजय के पीछे धनलिप्सा और जगत सम्राट लोगंमि बिहरियव्वं ॥ प्रश्न २/३ 'अपने को अपरिग्रह भावना से बनने की भावना ही तो थी। संवृत बनाकर लोक में विचरण करना चाहिए।' मगधेश कौणिक ने भी राज्य लोभ से अपने जनक सम्राट अपरिग्रह अर्थात् अनिच्छाभाव का जागरण/अनिच्छा से इच्छा श्रेणिक को काराग्रह में बंद कर दिया था। को जीता जा सकता है। और सुख पाया जा सकता है-'तम्हा उज्यपाएनन्यायालय भएकरण्याकरण गएमा Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dog AE . 05.00 TEACE 10: 0806-00.000000002 00P 00 20 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ / Sod इच्छामणिच्छाए जिणित्ता सुहमेधति ऋषिभा. 40/91 इच्छा व द्वन्द्व/संघर्ष की परिस्थितियां बनी हैं। और इस संघर्ष/द्वन्द्व को आकांक्षाओं से रहित व्यक्ति फिर चाहे वह 'भूमि पर सोये, भिक्षा / वाधित करने में अगर कोई समर्थ है, तो वह है 'अपरिग्रह'। का भोजन करे, पुराने/जीर्ण कपड़े पहने और वन में रहे वह अपरिग्रह = अनासक्त भाव से जीवन जीने वाला न स्वयं निस्पृही चक्रवर्ती से अधिक सुख भोगता है दुःखी होता है और न किसी को दुःख देता है। अपरिग्रही तो 'मित्ती भूशय्या भक्ष्यमशनं, जीर्णवासो वनं गृहम् / मे सव्व भूएसु' इस आगमिक सूत्र को ही अपने जीवन का आदर्श तथापि निःस्पृहस्याहो! चक्रिणोष्यधिकंसुखम् ॥ज्ञानसार। मानता है। अपरिग्रह मेरे-तेरे के द्वन्द्व से ऊपर उठकर तेरा-मेरा, अपरिग्रह = जागरण-मूर्छा परिग्रह है। जागरण अपरिग्रह है। मेरा-तेरा, न मेरा, न तेरा और न मेरा और न मेरा इस स्वर्णाक्षर जागरण कहते हैं अप्रमत्त अवस्था को। अप्रमत्त व्यक्ति दुःख सूत्र से प्रवर्तित होता है। जब इतनी विशाल-विराट् भावना हृदय की निवारण का उपाय बाह्य जगत में नहीं देखकर अपने आपमें/भीतर भावभूमि पर अंकुरित होने लगती है तब मानव, मानव का भेद देखता है। जो अपने भीतर में खोजता है उसे मार्ग अवश्य मिलता नहीं होता और चारों ओर समरसता का प्रवाह बहने लगता है। है मुक्ति का। जो भी जीवनगत दुःख है, वह कहीं बाहर से, किसी अपरिग्रही ही अकिंचन जीवन जीता हुआ एक ऐसे अविरल संदेश अन्य से हमारे पास नहीं आया, अपितु वह अपने अन्दर से ही को प्रचारित करता है कि जो पूर्ण मानव समाज की संरचना में प्रकट हुआ है। और अन्दर से ही दुःख-मुक्ति का उपाय हस्तगत सहायक बनता है। जैन धर्म के 24 ही तीर्थंकरों का जीवन अपरिग्रहता की एक बेजोड़ और आदर्श मिशाल है। जिन्होंने स्वयं होगा। जीवनगत साधनों के अभाव की पूर्ति करना दु:ख के बाह्य मुक्ति का हेतु है तो अभाव क्यों है? हम कारण को ही नष्ट करना अपरिग्रही जीवन जीकर मानव समाज को जागृत किया है कि आन्तरिक मुक्ति है। परिग्रहावस्था में प्रमत्तावस्था में अभाव की पूर्ति प्राणी-प्राणी में कोई अन्तर नहीं है। सब सुख और शांति के चाहक हैं। सबका अपना अधिकार है कि वे सुखी जीवन जीएँ। जैन की जाती है, जबकि अपरिग्रहावस्था/अप्रमत्तावस्था में मूल कारण को ही निर्मूल किया जाता है। प्रमत्त व्यक्ति साधन की उपलब्धि में तीर्थंकरों के इस जीवन्त जीवन संदेश से ही इस तथ्य की पुष्टि होती है-अपरिग्रह ही प्रेम का निर्माण करता है और द्वन्द्व का ही दुःख के निवारण का हेतु मानकर साधनों की प्राप्ति में तत्पर विसर्जन। जीवन जीने की आवश्यक वस्तु परिग्रह नहीं है अपितु बनता है, किन्तु वह सोच नहीं पाता है कि साधन की उपलब्धि अनावश्यक/अन्य के हक की वस्तुओं का वृथा संग्रह ही परिग्रह है। दु-खवृद्धि का कारण भी हो सकती है। जैसे-जैसे यह भ्रमणा टूटती वृथा और अनावश्यक परिग्रह का विसर्जन ही अपरिग्रह का है कि बाह्य परिग्रह सुख का कारण है, वैसे-वैसे अप्रमत्त स्थिति आधार बनता हुआ मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और बनती जाती है। भ्रमणा का टूटना ही अपरिग्रह है-जागरण है। अन्तर्राष्ट्रीय द्वन्द्व का विनाशक बनता है। जब साधनों का संविभाग अपरिग्रह से द्वन्द्व विसर्जन-परिग्रह-अपरिग्रह/मूर्छा-जागरण की होगा तब द्वन्द्व/संघर्ष की उत्पत्ति कैसे होगी? संविभाग करना इतनी लम्बी चर्चा के बाद अब हमें यह चिन्तन करना है कि सुख-साधनों का बाह्य परिग्रह का, सुख का राजमार्ग है। अपरिग्रह-जागरण भाव क्या कार्य करता है? इसका क्या निष्कर्ष / उत्तराध्ययन सूत्र में श्रमण भगवान महावीर प्रभु ने यही स्पष्ट घोष है ? अपरिग्रह की स्थिति जब मानव जीवन में प्रकट होती है तब उसका चिंतन सद्गामी होता है और सच्चिंतन के प्रकाश में व्यक्ति 'असंविभागी न हु तस्स मोक्खो।' यह अनुभव/महसूस करने लग जाता है कि वस्तुतः परिग्रह ही मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष/ अर्थात् स्वयं के साधनों और अधिकारों का संविभाग करे। द्वन्द्व का जनक है। क्योंकि परिग्रह ममत्व और आसक्तभाव को पैदा | इसके बिना मुक्ति नहीं। करने वाले हैं। जब-जब भी व्यक्ति के मन में ममत्व-आसक्त भाव अपरिग्रह और सर्वोदय-चरम तीर्थंकर वर्धमान महावीर प्रभु उठता है, तब-तब निश्चित संघर्ष-द्वन्द्व भी पैदा होता ही है। चाहे द्वारा प्रवर्तित 'अपरिग्रह' का स्वरूप ही सर्वोदय सिद्धान्त का फिर बाह्य परिग्रह की स्थिति हो या आभ्यन्तर परिग्रह की। हमें आधारभूत रहा है। भारतवर्ष के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने सर्वोदय प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है कि ममत्व-आसक्तशील स्वयं दुःख की सिद्धान्त की स्थापना की। सर्वोदय का शाब्दिक अर्थ है 'सबका अनुभूति करता हुआ अन्य परिवारादि को भी दुःख में ढकेलने का / उदय !' कोई भी पिछड़ा न रहे, सबको अपना अधिकार मिलना प्रयास करता है। बाह्य परिग्रह की आसक्ति ही मानव-मानव में, चाहिए। महात्मा गाँधी के इस सर्वोदय शब्द का बीज भी जैन दर्शन परिवार में, समाज और राष्ट्र में विग्रह पैदा करती है। हर व्यक्ति, के 'संविभाग' शब्द में या अपरिग्रह शब्द में मिलता है। यदि इसी समाज और राष्ट्र चाहता है कि बस में ही प्रमुख रहूँ, मेरी ही सत्ता शब्द को ढूँढेंगे तो वह जैनाचार्य समन्तभद्र के द्वारा प्रयुक्त किया हो, मेरा ही वर्चस्व हो, स्वामित्व हो और शेष सर्व हमसे नीचे स्थित रहें। प्रत्येक व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की इस भावना से ही 'सर्वापदान्तकर निरन्तं, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव।' SATARA 200 तु 00.0 त लवार PARAGAON लाल BOARDaddaliandindermatohd890-92 6900-33 0 00 wale parinage polya. DODODDO 0696580 0000000000000.hto... Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर महात्मा गाँधी द्वारा प्रवर्त्तमान इस सर्वोदय सिद्धान्त को विनोबा 'अपरिग्रहवाद' निषेध करता है। अपरिग्रहवाद अहिंसक राह से भावे ने आगे बढ़ाया और भूदान, सम्पत्तिदान, ग्रामदान, समयदान, समाजवाद की मंजिल पाने का निर्देश करता है। जीवनदानादि द्वारा सामाजिक विषमता को मिटाने का प्रयास किया समतावादी समाज रचना-पूँजीपति और शोषितों का जो संघर्ष गया। अपरिग्रह भी विषमता को मिटाकर समता की स्थापना है, वह है पदार्थों के परिग्रह को लेकर। एक ओर जीवन के करता है। आवश्यक साधनों का ढेर लगता चला गया और दूसरी ओर अपरिग्रह और समाजवाद-पदार्थ उपभोग के लिए है, संग्रह के / अभावों की खाई निर्मित होती गयी। ऐसी स्थिति में जो संघर्ष की लिए नहीं। उपभोग के लिए कोई मनाही नहीं है। किन्तु जब पदार्थों स्थिति बनती है, उससे शांति नहीं अपितु अशांति का ही निर्माण का संग्रह व्यक्ति द्वारा आवश्यकता से अधिक किया जाता है तब होता है। द्वंद्व/संघर्ष की इस स्थिति में भी मनुष्य को अपना विवेक समाज में विषमता की स्थिति बनती है। और जब विषमता की नहीं खोना चाहिए। विवेक दीपक से विषमता का अंधकार नष्ट स्थिति सीमातिक्रान्त हो जाती है तब संघर्ष और हिंसा का प्रादुर्भाव करके समता का प्रकाश फैलाना चाहिए। विवेक विकलता में होता है। ऐसे में मानव समाज दो विभागों में बंट जाता है-अमीर विषमता नष्ट नहीं होती है अपितु और अधिक बढ़ती ही है। किन्तु और गरीब। शोषक और शोषित। जब समता का आंचल थाम लिया जाता है तब शांति की वर्षा होने अमीर-गरीब/शोषक-शोषित का संघर्ष युग-युगान्तर से चला आ लगती है। समता/समभाव अपरिग्रहवाद की पहली शर्त है क्योंकि रहा है और इसको मिटाने के लिए 'समाजवाद' की स्थापना भी की समभाव के बिना 'अपरिग्रहवाद' फल नहीं सकता। अनासक्त गयी। समाजवाद सिद्धान्त रूस से गतिशील हुआ। जिसमें समान हक स्थिति समभाव से ही संभव है। अपरिग्रह समतावाद की स्थापना की बात कही गयी और शोषित अपने हक की प्राप्ति के लिए करता है। समतावादी समाज की संरचना से ही अपरिग्रहवाद संघर्ष के रास्ते हिंसा के मैदान में आ डटे। इसकी परिणति यह हुई फलता-फूलता है और मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय कि समाजवाद एक हिंसक आन्दोलन में परिवर्तित हो गया। तथा अन्तर्राष्ट्रीय द्वन्द्व/संघर्ष का विसर्जन होकर आनंद की बहार समाजवाद की परिकल्पना का मूल भी 'अपरिग्रहवाद' ही रहा है। का सर्जन होता है। किन्तु जिस मार्ग का अवलम्बन समाजवाद ने लिया, उस मार्ग का 000000000000 00000000000000000 वि 20-30.9020-0-800 मानव-संस्कृति के विकास में श्रमण संस्कृति (जैन धारा) की भूमिका DOBAL way00:00:09/9869 -डॉ. रवीन्द्र जैन डी. लिट o ka DAESARG. प्रास्ताविक-मानव जाति का संस्कृत (परिष्कृत) भावात्मक एवं दिया जाता है। अतः स्पष्ट है कि संस्कृति मानव को ऊँचा उठाने रूपात्मक कृतिपुंज संस्कृति है। संस्कृति चिर विकासशील एवं वाली कृतियों का समन्वय है।" अविभाज्य है। संस्कृति को सम्पूर्ण मानव जाति की समन्वयात्मकता संस्कृति की परिभाषा-प्रायः अंग्रेजी भाषा के कल्चर शब्द के एवं अखण्डता के फलक पर रखकर ही पूर्णतया समझा जा सकता पर्याय के रूप में संस्कृति शब्द समझा जाता है। जिस प्रकार है। सम्पूर्ण मानव जाति एक अविभाज्य इकाई है; उसे धर्म, भूमि एग्रीकल्चर अपनी भावात्मक एकता को प्राप्त कर कल्चर बन गया; और जाति आदि की संकीर्ण सीमा में रखकर आंशिक एवं भ्रामक / अथवा कल्चर अपनी स्थूलता में एग्रीकल्चर बन गया, हमारी रूप से ही समझा जा सकता है। अल्वर्ट आइन्स्टाइन का कथन है भौतिक जिजीविषा भी अन्ततः परिष्कृत होकर कल्चर बनी। कि, “संस्कृति का पौधा अत्यन्त सुकुमार होता है। अनेक प्रयत्नों और सावधानियों के बाद ही वह किसी समाज में फूलता-फलता है। संस्कृति शब्द में भी कृषि या कृष्टि निहित है। बंगाल में कृष्टि उसके लिए व्यक्ति का अभिमान, राष्ट्र का अभिमान और जाति का शब्द का प्रयोग आज भी कृषि के लिए होता है। आशय यह है कि अभिमान सबको तिलांजलि देनी पड़ती है। संस्कृति के अन्तर्गत पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों में जो आत्यन्तिक स्थिति है वह मानव जाति का समग्र जीवन गर्भित है, परन्तु प्रमुख रूप से उसकी / Jएक ही है; वे मूलतः एक हैं। कालिक प्रभाव से पश्चिम ने यथार्थ, भावनात्मक एकता, नैतिक एवं कलात्मक जिजीविषा को स्थान उपयोगिता एवं इहलौकिकता को अधिक महत्त्व दिया तो पौर्वात्य य%e0 Gio 2DDSGS 9.03.00 pacetarigrat 500000000000 900000 700:00:00 50006Regi SC000. 00 0000000000