________________
360pm
8080800005 506000000000 6 6600D.s00660000000000
ADDN0002
2018.0285
PRO
SRAENOG0200.000.
-
9001009
१५१०
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । क्लेश पैदा नहीं करता है?-किं नं क्लेश करः परिग्रह नदी पूरः । हैं किन्तु भीतरी परिग्रह से मुक्त नहीं हैं। इसीलिए उन्हें कोई प्रवृद्धिंगतः-(सिन्दूर प्रकरण ४१)" सूत्रकृतांग सूत्र की टीका में तो अपरिग्रही नहीं कहता। पशु-पक्षी आदि जीव भी बाह्य परिग्रह से यहाँ तक कहा है आचार्य श्रीलांकाचार्य ने कि-"परिग्रह (अज्ञानियों रहित हैं, फिर भी वे अपरिग्रही नहीं कहे जा सकते हैं। आभ्यंतर के लिए तो क्या) बुद्धिमानों के लिए भी मगर की तरह क्लेश एवं । परिग्रह से निर्बन्ध हुए बिना बाह्य परिग्रह से मुक्त होना न होना
विनाश का कारण है-'प्राज्ञस्थाऽपि परिग्रहो ग्राह हव क्लेशाय बराबर है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है-'जे सिया 20Dac नाशाय च'-१-१-१॥
सन्निहिकाये, गिही पव्वइए न से।' ६-१२ जो सदा संग्रह की भावना अध्यात्म चर्चा में बुद्धिमान उसे नहीं कहा जाता है जो विद्वान
रखता है, वह साधु नहीं किन्तु (साधु वेष में) गृहस्थ ही है।' है, अपितु उसे कहा जाता है जो अप्रमत्त अपरिग्रही हो। प्रमत्त
साधक बाह्याभ्यंतर परिग्रह का त्यागी होता है। यदि वह बाह्य व्यक्ति साधनों के अभाव को ही दुःख का कारण मानता है। इसलिए
परिग्रह तो त्यागे किन्तु आभ्यंतर परिग्रह न त्यागे तो वह साधना उसकी दृष्टि साधनों की प्राप्ति पर टिकी रहती है। परन्तु वह
पथ पर चलकर भी लक्ष्य को नहीं पा सकताहै। साधन को पाकर भी तृप्त नहीं होता है। होता भी है तो क्षणिक। आभ्यन्तर परिग्रह : तृष्णा-आभ्यन्तर परिग्रह का सामान्य अर्थ जैसे भूख लगी-भोजन ग्रहण किया। भोजन ग्रहण के समय तृप्ति है विषय-कषाय के प्रति ममत्व बुद्धि। “मनुष्य का मन अनेक चित्त का अनुभव तो अवश्य होता है, पर वह कितने समय तक टिकता वाला है। वह अपनी कामनाओं की पूर्ति ही करना चाहता है, एक है? प्यास लगी, पानी पीया, तृप्ति हुई, पर कितनी देर तक? तरह से छलनी को जल से भरना चाहता है-'अणेग चित्ता खल मकान का अभाव, बनाया खरीदा, अच्छा लगा, कितनी देर? कार । अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पूरइत्तए' (आचा. १-३-२)। कषाय खरीदने की इच्छा हुई, खरीदी, उपभोग किया, फिर बाद में और विषय से प्रेरित मनुष्य आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त नहीं हो अतृप्ति और जागी। ऊब गये कार में बैठे-बैठे। वास्तव में दुनियाँ | पाता है। क्योंकि ये इच्छाओं को प्रेरित करते रहते हैं। और सागर के समस्त साधन-परिग्रह वास्तविक सुख के हेतु हैं ही नहीं। ये की लहरों के समान प्रतिपल/ प्रतिसमय हजारों, लाखों इच्छाएँ सुखाभास देते हैं, उत्तेजना देते हैं जो सुखद लगती है। परन्तु उत्पन्न होती रहती हैं-नष्ट होती रहती हैं। उत्तरांध्ययन सूत्र में उत्तेजना सुखद हो नहीं सकती। मकान-दुकान-स्त्री-पूत्र-पद-पैसा- निर्देश है कि 'इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया ॥९-४७॥ इच्छाएँ प्रतिष्ठा आदि सभी परिग्रह के ही प्रकार हैं, जिनमें ममत्व/मूर्छा | आकाश के समान अनत्त हैं। जिनका कभी पार नहीं पाया जा दुःखदायी ही है।
सकता है। उत्पन्न होना और नष्ट होना इच्छाओं की नियति है। परिग्रह के भेद-परिग्रह के दो भेद किए गये हैं-बाह्य और
किन्तु मानव इन्हें पूर्ण करना चाहता है। पर वे कभी पूर्ण नहीं होती आभ्यन्तर। बाह्य परिग्रह में क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन,
हैं। कहा गया हैधान्य, दुपद, चौपद और कुविय धातु आदि चल-अचल सम्पत्ति को 'कसिणं पि जो इमं लोभ, पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स। गिना है, और आभ्यन्तर परिग्रह में
तेणावि से ण संतुस्से, इह दुप्पूरए इमे आया॥१६॥ 'मिच्छत्तवेदरागा, तहेव हासादिक या य छद्दोसा।
धन-धान्य से भरा हुआ यह समग्र विश्व भी यदि किसी एक चत्तारि तह कसाया, चउदस अब्भंतरा गंथा॥"
व्यक्ति को दे दिया जाय, तब भी वह उससे सन्तुष्ट नहीं हो 'मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति,
सकता-इस प्रकार आत्मा की यह तृष्णा बड़ी दुष्यूर है।'-क्योंकि भय, शोक, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ।'
"ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ होता है। और लाभ से लोभ
निरन्तर बढ़ता ही जाता है। जहा लाहो, तहा लोहो, लाहा लोहो दोनों प्रकार का परिग्रह चेतना में विमूढ़ता पैदा करता है।
पवड्ढई' उत्त. ८/१७/" अग्नि और तृष्णा में एक ही बात का बाह्याभ्यंतर दोनों रूप से निवृत्ति-त्याग किये बिना परिग्रह समाप्त
अन्तर है। अग्नि को थोड़े से जल से शान्त किया जा सकता है, नहीं होता है। परिग्रह का शाब्दिक अर्थ इसी बात का दर्शन कराता
किन्तु तृष्णा रूपी अग्नि को समस्त समुद्रों के जल से भी शान्त नहीं है कि चारों ओर से ग्रहण करना-पकड़ना। जो किसी भी वस्तु या
किया जा सकता हैव्यक्ति को समग्र रूप से आसक्त भाव से ग्रहण करता है, वह परिग्रही होता है। और अपरिग्रही आभ्यंतर परिग्रह से मुक्त होता
सक्का वण्ही णिवारेतुं, वारिणा जलितो बहिं। हुआ बाह्य परिग्रह से भी मुक्त हो जाता है। आभ्यंतर परिग्रह से
सव्वोदही जलेणावि, मोहग्गी दुण्णिवारओ॥ मुक्त होना अति आवश्यक है, क्योंकि बाह्य परिग्रह का त्याग
-ऋषि भा. ३/१०॥ सहज-सरल है किन्तु भीतरी परिग्रह का त्याग मुश्किल है। दरिद्री/ श्रमण प्रभु महावीर ने तृष्णा को भयंकर फल देने वाली विष भिखारी/साधनहीन व्यक्ति बाह्य परिग्रह से अवश्य मुक्त दिखाई देते की वेल कहा है-'भवतण्हा लया वुत्ता, भीमा भीम फलोदया
a6047
000
MI/
800030600DPas000-6DPE
FOYABPoegseDac