________________ | अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर महात्मा गाँधी द्वारा प्रवर्त्तमान इस सर्वोदय सिद्धान्त को विनोबा 'अपरिग्रहवाद' निषेध करता है। अपरिग्रहवाद अहिंसक राह से भावे ने आगे बढ़ाया और भूदान, सम्पत्तिदान, ग्रामदान, समयदान, समाजवाद की मंजिल पाने का निर्देश करता है। जीवनदानादि द्वारा सामाजिक विषमता को मिटाने का प्रयास किया समतावादी समाज रचना-पूँजीपति और शोषितों का जो संघर्ष गया। अपरिग्रह भी विषमता को मिटाकर समता की स्थापना है, वह है पदार्थों के परिग्रह को लेकर। एक ओर जीवन के करता है। आवश्यक साधनों का ढेर लगता चला गया और दूसरी ओर अपरिग्रह और समाजवाद-पदार्थ उपभोग के लिए है, संग्रह के / अभावों की खाई निर्मित होती गयी। ऐसी स्थिति में जो संघर्ष की लिए नहीं। उपभोग के लिए कोई मनाही नहीं है। किन्तु जब पदार्थों स्थिति बनती है, उससे शांति नहीं अपितु अशांति का ही निर्माण का संग्रह व्यक्ति द्वारा आवश्यकता से अधिक किया जाता है तब होता है। द्वंद्व/संघर्ष की इस स्थिति में भी मनुष्य को अपना विवेक समाज में विषमता की स्थिति बनती है। और जब विषमता की नहीं खोना चाहिए। विवेक दीपक से विषमता का अंधकार नष्ट स्थिति सीमातिक्रान्त हो जाती है तब संघर्ष और हिंसा का प्रादुर्भाव करके समता का प्रकाश फैलाना चाहिए। विवेक विकलता में होता है। ऐसे में मानव समाज दो विभागों में बंट जाता है-अमीर विषमता नष्ट नहीं होती है अपितु और अधिक बढ़ती ही है। किन्तु और गरीब। शोषक और शोषित। जब समता का आंचल थाम लिया जाता है तब शांति की वर्षा होने अमीर-गरीब/शोषक-शोषित का संघर्ष युग-युगान्तर से चला आ लगती है। समता/समभाव अपरिग्रहवाद की पहली शर्त है क्योंकि रहा है और इसको मिटाने के लिए 'समाजवाद' की स्थापना भी की समभाव के बिना 'अपरिग्रहवाद' फल नहीं सकता। अनासक्त गयी। समाजवाद सिद्धान्त रूस से गतिशील हुआ। जिसमें समान हक स्थिति समभाव से ही संभव है। अपरिग्रह समतावाद की स्थापना की बात कही गयी और शोषित अपने हक की प्राप्ति के लिए करता है। समतावादी समाज की संरचना से ही अपरिग्रहवाद संघर्ष के रास्ते हिंसा के मैदान में आ डटे। इसकी परिणति यह हुई फलता-फूलता है और मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय कि समाजवाद एक हिंसक आन्दोलन में परिवर्तित हो गया। तथा अन्तर्राष्ट्रीय द्वन्द्व/संघर्ष का विसर्जन होकर आनंद की बहार समाजवाद की परिकल्पना का मूल भी 'अपरिग्रहवाद' ही रहा है। का सर्जन होता है। किन्तु जिस मार्ग का अवलम्बन समाजवाद ने लिया, उस मार्ग का 000000000000 00000000000000000 वि 20-30.9020-0-800 मानव-संस्कृति के विकास में श्रमण संस्कृति (जैन धारा) की भूमिका DOBAL way00:00:09/9869 -डॉ. रवीन्द्र जैन डी. लिट o ka DAESARG. प्रास्ताविक-मानव जाति का संस्कृत (परिष्कृत) भावात्मक एवं दिया जाता है। अतः स्पष्ट है कि संस्कृति मानव को ऊँचा उठाने रूपात्मक कृतिपुंज संस्कृति है। संस्कृति चिर विकासशील एवं वाली कृतियों का समन्वय है।" अविभाज्य है। संस्कृति को सम्पूर्ण मानव जाति की समन्वयात्मकता संस्कृति की परिभाषा-प्रायः अंग्रेजी भाषा के कल्चर शब्द के एवं अखण्डता के फलक पर रखकर ही पूर्णतया समझा जा सकता पर्याय के रूप में संस्कृति शब्द समझा जाता है। जिस प्रकार है। सम्पूर्ण मानव जाति एक अविभाज्य इकाई है; उसे धर्म, भूमि एग्रीकल्चर अपनी भावात्मक एकता को प्राप्त कर कल्चर बन गया; और जाति आदि की संकीर्ण सीमा में रखकर आंशिक एवं भ्रामक / अथवा कल्चर अपनी स्थूलता में एग्रीकल्चर बन गया, हमारी रूप से ही समझा जा सकता है। अल्वर्ट आइन्स्टाइन का कथन है भौतिक जिजीविषा भी अन्ततः परिष्कृत होकर कल्चर बनी। कि, “संस्कृति का पौधा अत्यन्त सुकुमार होता है। अनेक प्रयत्नों और सावधानियों के बाद ही वह किसी समाज में फूलता-फलता है। संस्कृति शब्द में भी कृषि या कृष्टि निहित है। बंगाल में कृष्टि उसके लिए व्यक्ति का अभिमान, राष्ट्र का अभिमान और जाति का शब्द का प्रयोग आज भी कृषि के लिए होता है। आशय यह है कि अभिमान सबको तिलांजलि देनी पड़ती है। संस्कृति के अन्तर्गत पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों में जो आत्यन्तिक स्थिति है वह मानव जाति का समग्र जीवन गर्भित है, परन्तु प्रमुख रूप से उसकी / Jएक ही है; वे मूलतः एक हैं। कालिक प्रभाव से पश्चिम ने यथार्थ, भावनात्मक एकता, नैतिक एवं कलात्मक जिजीविषा को स्थान उपयोगिता एवं इहलौकिकता को अधिक महत्त्व दिया तो पौर्वात्य य%e0 Gio 2DDSGS 9.03.00 pacetarigrat 500000000000 900000 700:00:00 50006Regi SC000. 00 0000000000