Book Title: Ajmer Samiparvi Shektra ke Katipay Upekshit Hindi Sahityakar
Author(s): Kantisagar
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education मुनि श्रीकान्तिसागर अजमेर समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार भारतीय इतिहास के निर्माण में अजयमेरु-अजयगढ़ अजमेर की अपनी विशिष्ट देन रही है. इस भूखंड का अतीत अत्यन्त गौरवमय रहा है. मध्यकाल आते-आते तो यह दिल्ली आगरा के साथ ही सम्पूर्ण भारतीय राजनीति और संस्कृति का प्रेरक केन्द्र हो गया. धार्मिक दृष्टि से अजमेर का महत्व अक्षुण्ण है. राजा अजयपाल, आचार्य श्री जिनदत्तसूरिजी और सूफी संत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती से संबद्ध धर्ममूलक कथाएं आज भी जनमानस में अनुप्राणित हैं. दरगाह ख्वाजा साहब और पुष्करजी मुसलमान और हिन्दुओं के पुण्य तीर्थस्थल स्थानीय धार्मिक विभूति के रूप में मान्य हैं. राजपूत संस्कृति और आर्यधर्म का गढ़ समझा जानेवाला यह संस्कृत एवम् हिन्दी साहित्यकारों की कर्मभूमि रहा है. हिन्दी राम्रो साहित्यका आदि ग्रंथ पृथ्वीराज रासो की प्रणवनभूमि एवम् अन्तिम आर्यसम्राट् चौहानकुततिलक पृथ्वीराज की क्रीडास्थली के रूप में अजमेर हिन्दी भाषा और साहित्य के इतिहास में सर्वज्ञात रहा है. किसी समय परम सारस्वतोपासकों का यहां अच्छा संगम था, देश के दिग्गज विद्वान् शास्त्रार्थार्थ यहाँ आया करते थे. सं० १२३६ का खरतर गच्छीय श्री जिनपतिसूरि और पद्मप्रभ का सफल शास्त्रार्थ इतिहासविश्रुत है. प्राचीन जैन संस्कृति की दृष्टि से सूचित भूखण्ड विशिष्ट महत्त्व रखता है. प्रश्नवाह्नकुलीय आचार्यों की परम्परा हर्षपुर से संबद्ध रही है जो बाद में चंद्रगच्छ या राजगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई. प्रद्युम्नसूरि इस शाखा के ऐसे आचार्य हुए जिनने सपादलक्ष और त्रिभुवनगिरि के नरेशों को अपनी चारित्रिक और औपदेशिक शक्ति से प्रभावित कर जैन धर्मानुयायी बनाया. इनकी परम्परा ने भारतीय तत्त्वज्ञान की गुत्थियें सुलझाने वाले दार्शनिक साहित्य की सृष्टि की जिसके प्रतीकसम 'वादमहार्णव' को उपस्थित किया जा सकता है. यह हर्षपुर अजमेर मण्डल में ही अवस्थित है. कहा जाता है इसे राजा अल्लट की रानी ने बसाया था. कहने का तात्पर्य है कि अजमेर जब नहीं बसा था इसके पूर्व से ही जैन संस्कृति का संबंध इस भूमि से रहता आया है. आगे चलकर यह संबंध और भी घनिष्ठतर होता गया और मध्यकाल के बाद तो अजमेर जैन श्रद्धालुओं का केन्द्र ही बन गया. यद्यपि आज इस नगर की विशेष ख्याति जैन समाज में आचार्य श्रीजिनदत्त सूरिजी के निर्माणस्थल के कारण ही है, पर यदि इसका समुचित वैज्ञानिक दृष्टि से पुनर्मूल्यांकन किया जाय तो अनेक सांस्कृतिक नव्य तथ्य उपलब्ध किये जा सकते हैं. यद्यपि अजमेर पर स्व० हरविलास शारदा ने आंग्ल भाषा में एक कृति प्रस्तुत की है, पर आज नव्य शोध द्वारा जो नूतन सूचनाएं प्राप्त हैं, उनके आधार पर परिमार्जन अपेक्षित है. व्यापक दृष्टिकोण से इस नगर और तत्सन्निकटवर्ती भूभागों का तथ्यपूर्ण वर्णन अद्यतन शैली में वांछनीय है. सीमित अन्वेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि ज्ञात से भी अज्ञात महान् है. यह तो मैं केवल साहित्यिक अपेक्षा से ही कह रहा हूं, पुरातात्त्विक दृष्टि से तो इस का और भी महत्त्व हो सकता है. अजमेर के समीप जयपुर मार्ग पर किशनगढ़ अवस्थित है. वह लगभग तीन शताब्दियों से भारतीय संस्कृति, साहित्य और चित्रकला का अनुपम केन्द्र रहा है. आगामी पंक्तियों से स्पष्ट होगा कि वहां के नरेशों ने इनके विकास के लिये Personale Only watelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iiiiiiiiiiiiivinin ८२६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ श्रध्याय कितना श्रम किया था. आश्रित कवि और चित्रकारों को प्रोत्साहित कर जो मूल्यवान् सांस्कृतिक ज्योति प्रज्वलित की उसके प्रकाश से आज भी हम प्रकाशित हो रहे हैं. इस नगर की ख्याति हिन्दी साहित्य में केवल संतप्रवर नागरीदासजी-सांवतसिंह के कारण ही रही है, पर अन्वेषण से सिद्ध हो गया है कि वहां की साहित्यिक परम्परा इससे भी प्राचीन और अधिक प्रेरक रही है. नागरीदासजी के पूर्वजों ने जो साहित्यिक साधना की करवाई उसका समुचित मूल्यांकन आजतक हिन्दी भाषा और साहित्य के इतिहासकारों ने नहीं किया है, वह सर्वथा निर्दोष नहीं है जैसा कि 'मध्यकालीन हिन्दी कवयित्रियां" के छत्रकुंबरवाले प्रसंग से प्रमाणित है. नागरीदास का साहित्य 'नागर समुच्चय' में प्रकाशित है, पर शोध करने पर इनकी स्फुट रचना अन्य भी उपलब्ध है. किशनगढ़ के ही एक मुस्लिम विद्वान् श्री फ़ैयाज़ अली सा० ने नागरीदास पर विशद अनुसंधान कर शोध-प्रबंध प्रस्तुत किया है (यद्यपि यह रचना इन पंक्तियों के लेखक की दृष्टि में नहीं आई.) जैन इतिहास के साधनों से पता चलता है कि किशनगढ़ का जैन दृष्टि से भी कम महत्त्व नहीं है. जब से वह नगर बसा तभी से जैनों का इससे निकट का संबंध रहा है. राजकीय उच्चपदों पर जैन आरूढ़ रहे हैं. इससे भी महत्त्व की बात यह है कि किशनगढ़ का राजकीय सरस्वती भण्डार जैन साहित्य की दृष्टि से बहुत ही समृद्ध है. उपाध्याय मेघविजयजी, आचार्य श्री जिनरंगसूरिजी आदि उद्भट मुनिपुंगवों ने वहां निवास कर न केवल साहित्य साधना ही की, अपितु अपने उच्च विचारों से स्थानीय जन-मानस को भी अनुप्राणित किया, राजकीय परिवार को भी उपकृत किया, यद्यपि वहां का राजपरिवार परम वैष्णव रहा है तथापि वह पर मतसहिष्णु था. जब आचार्यों को विज्ञप्तिपत्र प्रेषित किये जाते थे उनमें राज-परिवार के मुख्य सदस्य के भी हस्ताक्षर अनिवार्य थे. लोकागच्छीय प्रवृतियों का भी किशनगढ़ केन्द्र रहा है. कई जाचायों के स्वर्गवास आचार्य पद और चातुर्मास हुए हैं जिनका उल्लेख लेखक के 'लोकाशाह परम्परा और उसका अज्ञात साहित्य' नामक निबंध में अन्यत्र किया जा चुका है. आज भी लोंकागच्छ के उपाश्रय स्थानक में अवशिष्ट ज्ञान भंडार है. किसी युग में यहां उनके तीन ज्ञानभंडार थे, पर असावधानी से उनका अभिधानात्मक अस्तित्त्व ही शेष रह गया. जिसे जो कृति प्रति पसन्द आई, वही उठाकर चलता बना, तिजोरियों की चाभी संभालनेवालों की दृष्टि में ज्ञानमूलक सामग्री का महत्त्व ही क्या हो सकता है ? 1 अद्यावधि हिन्दी साहित्य के जितने भी इतिहास लिखे गये हैं वे तब तक पूर्ण नहीं कहे जा सकते हो सकते जब तक हिन्दी क्षेत्र से संबद्ध सभी अंचलों का वैज्ञानिक दृष्टि से साहित्यिक सर्वेक्षण न कर लिया जाय. आज हमारे सम्मुख हिन्दी और ग्रंथकारों के विषय में जो भ्रान्तियां हैं इसका कारण भी इसी आंचलिक सर्वेक्षण का अभाव ही है. परिणामस्वरूप कई महत्त्वपूर्ण रचनाएं और रचनाकार आजतक हमारे हिन्दी साहित्य के इतिहास के निर्माताओं की दृष्टि में नहीं आ सके हैं. परम पूज्य उपाध्याय श्री सुखसागरजी महाराज सा० और साहित्यप्रेमी मुनिवर श्री मंगलसागरजी महाराज साहब की छत्रछाया में जयपुर से अजमेर आते हुए आंचलिक साहित्यिक सर्वेक्षण का उथला-सा प्रयास किया तो मुझे कतिपय ऐसे विशिष्ट ग्रंथ और ग्रंथकार मिल गये जो हिन्दी भाषा और साहित्य की दृष्टि से बड़े महत्त्व के प्रमाणित हुए. आज तक किसी भी हिन्दी शोधार्थी की निगाह नहीं गई. सूचित अंचल के जो दो-चार ग्रंथकार — जैसे राजसिंह, ब्रजदासी, नागरीदास आदि सामने आये उनकी रचनाएं भी उपेक्षित रह गईं और इस प्रकार वे सही मूल्यांकन से वंचित रह गये. यहां उन ज्ञात रचनाकारों के अज्ञात ग्रंथों का तथा सर्वथा अज्ञात रचनाकारों के अज्ञात ग्रंथों का विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है. ज्ञात कृतिकारों में आचार्य श्री जिनरंगसूरिजी महाराजा राजसिंह, ब्रजदासीबांकावती, विजयकीत्ति का समावेश होता है और अज्ञात रचनाकार हैं महाराजा रूपसिंह महाराजा मानसिंह, महाराजा विडदसिंह, महाराजा कल्याणसिंह, महाराजा पृथ्वीसिंह तत्पुत्र जवानसिंह, महाराजा यज्ञनारायणसिंह, कविवर नानिंग, पंचायण, जसराज भाट और प्रेम या परमसुख. 1 जो विज्ञप्ति पत्र किशनगढ़ से प्रेषित किये जाते रहे हैं उनका समावेश स्वतंत्र कृतिकारों में नहीं किया है, केवल उल्लेख मात्र कर दिया है. यहां प्रसंगत: सूचित कर देना आवश्यक जान पड़ता है कि अजमेर समीपवर्ती रूपनगर, मसौदा www.jary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि कान्तिसागर : अजमेर - समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ८२७ भिणाय में भी कई ग्रंथ लिखे गये मिले हैं जिनका उल्लेख निबंध - विस्तारभय से यहां नहीं कर सका हूं, विशिष्ट नवोपलब्ध साहित्य और साहित्कारों का संक्षेप में परिचय इस प्रकार है : आचार्य श्री जिनरंगसूरिजी — यह खरतरगच्छ के प्रभावशाली आचार्य थे. इनका जन्म राजलदेसर में हुआ, पर साहित्यिक दृष्टि से किशनगढ़ और अजमेर से घनिष्ठ सम्पर्क रहा है, बल्कि कहना चाहिए किशनगढ़ तो इनकी धार्मिक और सांस्कृतिक साधना का केन्द्र ही था। वर्षों वे वहाँ रहे और अपनी चारित्रिक सौरभ से जन-मानस को प्रभावित करते रहे. आज भी किशनगढ़ में इनका उपाश्रय विद्यमान है जिसमें हस्तलिखित प्रतियों का अच्छा संग्रह है, इसकी तालिका बाफणा परिवार में है. वर्षों से ज्ञान भंडार न तो खुला है और न कभी किसी ने यहाँ तक कि संरक्षक ने भी- - देखने का कष्ट किया है. नहीं कहा जा सकता है कि वह आज ग्रंथों की दृष्टि से समृद्ध भी है या नहीं ? इन आचार्य के समय में किसी बात को लेकर आपसी वैमनस्य फैल गया था जिसका संतोषकारक समाधान अजमेर में हुआ और वहीं पर इनको भट्टारक पद से अभिहित किया गया. इसमें खरतरगच्छीय मुनि रत्नसोम का प्रमुख हाथ रहा. यद्यपि समझौता अधिक समय तक स्थायी नहीं रह सका. कहा जाता है कि अजमेर के तात्कालिक शासन ने इन्हें एक आज्ञापत्र प्रदान किया था कि इनकी मान्यता ७ प्रान्तों में बनी रहे. यह अच्छे कवि और प्रभावसम्पन्न वाग्मी थे. इनकी 'रंग बहुत्तरी' प्रबोध बावनी ( रचनाकाल सं० १७३१ मृगशीर्ष शुक्ल २ गुरुवार) नवतत्व बालावबोध एवम् स्तुतिपरक रचनायें उपलब्ध हैं. दो रचनाओं का सम्बन्ध किशनगढ़ से रहा है. सौभाग्य पंचमी चौपाई का प्रणयन सं० १७३८ में किशनगढ़ में किया गया था जिसका विवरण 'जैनगुर्जर कविओ' में दिया गया है. यहां पर इनकी एक अज्ञात और अन्यत्र अनुल्लिखित कृति का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है जिसका परिगुम्फन सं० १७३७ माह शुक्ला ५ गुरुवार को किशनगढ़ में हुआ था. इस की मूलप्रति मेरे निजी संग्रह में सुरक्षित है धर्मदत्त चुतः पदी आदिभाग अन्त भाग Jain Exucation temation श्रीजिनाय नमः श्री आदीसर आदि जिन आदि सकल अवतार | विघन हरण वांछित करण प्रणमुं प्रभु पद सार ॥ १ ॥ श्रीखरतरगच्छ श्रीजिनदत्तजी युगप्रधान पद धार पंचनदी साधी बाधा घणी कीरति करि विस्तार ॥ श्री जिनकुलसूरीसर मन परत घर नेह अटवी पांणी पावइ आविनइ अतिशय देषिउ एह || पट्टानुक्रम तेहनइ देहनइ श्रीजिनचंद्रसूरिंद | पातिशाह अकबर प्रतिबोधीयो महिमावंत मुणिंद ॥ तसु पाटइ वाटइ सुरतरु समउ श्रीजिनसिंहसूरीस । मनवंछित फलदायक वायके सेवीजइ निसदीस ॥ पाट प्रभाकर साकर सारसी मीठी जेहनी वाणि । श्रीजिनराजमूरीसर जांणीय पंडित चतुर सुजाण । तसु सीसई जिनरंगइ रंगसुं कीधउ चरित मति सार । सुणतां भणतां पहुइज्यो सदा श्रीसंघनइ जयकार | Personal e Or wwwiiviimin Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय कीरति तेहनी विजय हुवइ घणउं सहजइ ह सौभाग । साधु तणां गुण गावइ जे सदां मनमई आणी राग ।। संवत सतरई सइंतीसे समइ माह पांचमी गुरुवार । सुकुलपक्ष श्रीकीशनगढ़ रच्यउ चरित भलउ सुषकार ।। इति श्री दानाधिकारे श्रीधर्मदत्त चतुःपदी समाप्ता ।। संवत १७३८ वर्षे श्रावणमासे कृष्णपक्षे दशम्यां तिथौ उपाध्याय श्रीप्रीतिविजय गणि तत्शिष्य पंडितप्रवर प्रीतिसुंदरमुनि सहितेन प्रीतिलाभेनाले खि, श्रीकृष्णगढ़ मध्ये, लेखक पाठकयोरिति ।। (अन्य हस्ताक्षरों से) श्रीबृहत्खरतरगच्छाधिपति भट्टारक श्रीजिन राजसूरिराजपट्टोदयाचल सहस्रकिरणावतार भट्टारक जिनरंगसूरि विरचिता श्री धवलचन्द्र भूपाल श्रेष्ठि धर्मदत्तचुतःपदी संपूर्णा जाता सा वाच्यमाना ज्ञानफलदा भवतु । श्रेयः सदा भूयात् ॥ -पत्र सं० ४६. किशनगढ़-राज-परिवार को हिन्दी साहित्य सेवा महाराजा किशनसिंहजी ने सं० १६६६ में किशनगढ़ बसाया था. प्रारम्भ से ही राज-परिवार का संबंध वल्लभकुल से रहा है. कहा जाता है कि वल्लभाचार्य का मूल चित्र आज भी किशनगढ़ के दुर्गस्थित मंदिर में श्रद्धा-केन्द्र बना हुआ है. संगीत, साहित्य और कला के उन्नयन में राज-परिवार का उल्लेखनीय सहयोग रहा है. कृष्णभक्ति का प्राबल्य होने से यहां एक समय उच्चकोटि के कवियों और विद्वानों का खासा जमघट था. नरेश स्वयं केवल साहित्य और कला के पारखी ही नहीं, अपितु कवि, विद्वान् और चित्रकार भी थे. हिन्दी भाषा के माध्यम से यहाँ के राज-परिवार ने कृष्णभक्तिपरक साहित्य प्रचुर परिमाण में रचा-रचवाया, जिसका समुचित मूल्यांकन आजतक नहीं हो पाया है. सच कहा जाय तो जिस नरेश या महारानी का साहित्य बाहर गया उससे तो तात्कालिक विद्वनमंडली प्रभावित हुई, पर जिनकी कृतियां राज-परिवार तक ही सीमित रहीं उनका उल्लेख अन्यत्र नहीं मिलता. अद्यतन प्रकाशित हिन्दी राजस्थानी भाषा और साहित्य के इतिहासों में जहाँ प्रसंगवश किशनगढ़ राज-परिवार की सांस्कृतिक सेवाओं का उल्लेख किया गया है वहां केवल राजसिंह, ब्रजदासी, नागरीदास-सांवतसिंह, बनीठनी, सुंदरकवरी और छत्रकुवरी को ही याद किया गया है. अन्य कवि-नरेशों का नाम तक नहीं है. मुझे अपनी गवेषणा के आधार पर कहना चाहिए कि जिन नरेशों की रचनाओं का उल्लेख सूचित कृतियों में किया गया है वह भी त्रुटिपूर्ण है. कारण कि इनकी अन्य रचनायें उपलब्ध हैं जिनका साहित्यिक दृष्टि से विशिष्ट महत्त्व है. अज्ञात रचनाकारों के संबंध में किचित् भी न लिखे जाने का कारण यही जान पड़ता है कि ये अन्धकार में रहीं. नहीं कहा जा सकता कि ज्ञात से भी अभी और कितनी अज्ञात सामग्री दबी पड़ी होगी ! यहाँ पर किशनगढ़ीय राज-परिवार के उन व्यक्तियों की रचनाओं का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है जो ज्ञात साहित्यिक होते हुए भी जिनकी कृतियां अज्ञात हैं. अज्ञात कवि-नरेशों की रचनाओं पर विचार अपेक्षित है. ज्ञात रचनाकारों में महाराजा राजसिंह, ब्रजदासी आदि हैं और अज्ञात कवियों में रूपसिहजी, मानसिंहजी, बिड़ दसिंहजी, कल्याणसिंहजी, पृथ्वीसिंहजी, जवानसिंहजी, मदनसिंहजी और यज्ञनारायणसिंहजी प्रमुख हैं. किशनगढ़ के आश्रित कवियों में अभी तक हम केवल बद से ही परिचित रहे हैं, पर अन्वेषण करने पर विदित हुआ कि वहाँ और भी कवि रहा करते थे. जिसमें नानिंग भी एक थे. यदि तत्रस्थित राज्याश्रित कवियों पर विशद अनुशीलन किया जाय तो सरलतासे एक स्वतंत्र ग्रंथ ही बन सकता है. महाराजा रूपसिंहजी-(राज्यकाल सं० १७००-१५) इन पंक्तियों के लेखक के संग्रह में 'किशनगढ़ राज्य के महाराजाओं के बनाये हुए पद संग्रह' की एक पाण्डुलिपि १. बहुत कम विक्ष जानते हैं कि नागरोदासजी-सवितसिंह जी भक्त होने के साथ कुशल चित्रकार भी थे. - HTAX ININNAININNINITENINNINNI ammemorary.org Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि कान्तिसागर : अजमेर-समीपवर्ती-क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ८२६ सुरक्षित है. इसमें कृष्णसिंहजी से लगाकर यज्ञनारायणसिंहजी तक के महाराजाओं के पदों का सुंदर संकलन है. महाराजा रूपसिंहजी के पूर्ववर्तीय नरेशों के नाम के आगे स्थान रिक्त है. इससे ज्ञात होता है कि इनकी रचनाएं संग्रहीत नहीं हो सकी हैं, पर वे कवि अवश्य रहे होंगे. कम से कम अपने इष्टदेव की स्तुति तो रची ही होगी ! इस संकलन में महाराजा रूपसिंहजी के कृष्णभक्तिपरक ५ पद सुरक्षित हैं. आगे छूटे हुए स्थान से कल्पना करनी पड़ती है कि और भी पद रहे होंगे जिन्हें संग्रहकार न लिख सका था. सूचित नरेश के पद भले ही साहित्यिक दृष्टि से विशेष महत्त्व न रखते हों, पर रचना की शृंखला की एक कडी तो हैं ही. एक पद उद्धत किया जा रहा है मैं कैसे आऊं दामिनि मोहि डरावत जब-जब गवन करों दिशि प्रीतम चमकत चक्र चलावत बे चातुर आतुर अति सजनी रजनी यों बिरमावत गावत गवन पवन चलि चंचल अंचल रहत न पावत सुनि पिय बचन चतुर चल आये भामिनि सों मन भावत रूपसिंह प्रभु नगधर नागर मिलि मलार सुर गावत महाराजा मानसिंह जी [राज्य काल-१७१५-१७६३] —ये स्वाभिमानी बीरपुंगव और पूर्वजों के प्रति पूर्ण आस्थावान् थे. भगवद्भक्ति के साथ परम व्यवहारकुशल और विद्वज्जनों के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखते थे. इन्हीं की प्रेरणा से कविवर वृंद ने सं० १७६२ में “व च नि का" की रचना की थी. इनको स्वतन्त्र रचना उपलब्ध नहीं है, पर १०० से अधिक स्फुट पद और ख्याल इन पंक्तियों के लेखक के संग्रह में सुरक्षित हैं. कृष्णभक्तिमूलक गेय पद-साहित्य से पता चलता है, इन्हें साहित्य से गम्भीर अनुराग था, काव्यगत सौंदर्य इस बात का परिचायक है. लाक्षणिक ग्रंथों के अतिरिक्त अपने सम्प्रदाय के सूक्ष्म सिद्धांतों से भी अभिज्ञ थे. कहीं-कहीं पदों में सिद्धांतों की चर्चा है. यह कहना व्यर्थ है कि ये परम संगीतज्ञ भी थे. राजस्थानी और व्रज भाषाओं पर इनका समान अधिकार था. राजस्थान में प्रचलित लोकगीतों की देशियों का पदों में आकस्मिक रूप से अच्छा सा संग्रह हो गया है. जैसा कि ऊपर कहा गया है कि इन्हें पूर्वगौरव का बड़ा ख्याल रहता था. पदसंग्रह में भक्तिमूलक पदों का धार्मिक और आध्यात्मिक मूल्य तो है ही, पर सबसे बड़ा आवश्यक अंश है.-वल्लभाचार्य और उनके परवर्ती आचार्यों की ऐतिहासिक स्तुतियां. इनका किस घराने से सम्बन्ध था, वल्लभाचार्य की भारत में कहां-कहां कौन-सी शाखाएं हैं और उनकी पट्टपरम्परा क्या रही है आदि बातों का विस्तार इतिहास के साधन की ओर संकेत करता है. यहाँ प्रसंगवश सूचित कर देना आवश्यक जान पड़ता है कि महाराजा मानसिंह के समय में किशनगढ की सांस्कृतिक चेतना प्रबुद्ध व्यक्तियों को आकृष्ट किये हुए थी, बड़े-बड़े जैन विद्वान् उन दिनों यहाँ पर साहित्यिक रचनाएं किया करते थे. उपध्याय मेघविजय जी का तो यह सारस्वत साधना-स्थान ही था. राजसिंह जी तक बह रहे. मानसिंहजी से इनका वैयक्तिक सम्बन्ध था जैसा कि तत्रस्थ राजकीय चित्र से विदित होता है. महाराजा राजसिंह- [राज्य काल १७६३-१८०५] ये महाराजा मानसिंह के पुत्र और सुप्रसिद्ध राजर्षि सावंतसिंहजीनागरीदास जी के पिता थे. अभी तक इनकी तीन-बाहुविलास, राजप्रकाश और रसपायनायक रचनाओं का पता लगा है, साहित्यक इतिहासों में इन्हीं का उल्लेख मिलता है. खोज करने पर इनकी और भी कृतियां उपलब्ध हुई हैं. राजसिंह का जन्म सं०-१७३० पौष सुदि १२ को हुआ था. इनके समय में किसनगढ सभी दृष्टियों से उन्नत और आकर्षण का केन्द्र था. दूर-दूर तक ख्याति थी. इनके कविताकाल पर प्रकाश नहीं पड़ सका है. जिन इतिहासलेखकों ने इनकी कृतियों का संकेत दिया है वे भी इन पर मौन ही हैं. पर यह सच है कि इन्हें कविता से गहरी अभिरुचि थी. इनकी कृतियों का रचना काल भी ज्ञात नहीं है, एक कृति में, जिसका उल्लेख आगे की पंक्तियों में किया गया है, रचनाकाल सं० १७८८ है, पर वह तो इनकी प्रौढावस्था का परिचायक है. मुझे सं० १७६० का एक हस्तलिखित गुटका MOROTO.de GDIA HAKIRATNA SHOENENANENESENOSYRPRENASENASISENENOSEN Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३० . मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय मिला है जिसके लेखक हैं कविवर वृद के सुपुत्र कवीश्वर वल्लभ. ढाका में इसकी प्रतिलिपि की गई थी. सूचित गुटके में महाराजा राजसिंह की कुमारावस्था में प्रणीत दोहे लिखे हैं जिसके उपरि भाग में इन शब्दों का उल्लेख है “अथ दूहा महाराजि कंवर श्री राजसिंह जी रा कहीया छ." प्रतिलिपिकाल से इतना तो स्पष्ट ही है कि सं० १७६० से पूर्व ही इनने कविता लिखना प्रारम्भ कर दिया था. इनकी रचनाओं के एक बड़े चोपड़े में कुछ कवित्त 'माजि साहिबां रा कहीया छै" माँजी सा० से तात्पर्य इनकी माता से ही होना चाहिए. इनकी रचनाओं का विवरण इस प्रकार है. श्रीगणेशाय नमः अथ दुहा महाराजीकवार श्रीराजसिंघजी रा कहीया छै---- काम सुभट बादर कहै विरहनि के उर दाह । संनाह बारि लैं सिंधु त भए सेत ते स्याह ।।१।। बूंद बांद घनयंद को चपला कर तरवार । गाज अरावा साथि लैं विरहनिकू सजि मार ।।२।। जगनू चमकत जामगी धूवांधार सौ रात । गाज अरावा छुटि सधन, मार-मार के जात ।।३।। रति मनौंज तुम मैं कहूं पर्यो न अंतर ओट । दुःखदाई जाने कहा मेरे जियकी चोट ॥४।। x २ बज विलास या रसपायनायक-रसपायनायक इनकी अन्यत्र उल्लिखित कृति है, मेरे संग्रह में इसकी जो प्रति है उसमें प्रारम्भ में तो रसपायनायक नाम आता है पर अन्त भाग में और मध्यवर्ती भाग में कई स्थानों पर इसका नाम 'ब्रजविलास' आया है. अतः जब तक रसपायनायक की अन्य प्रति सम्मुख न हो तब तक निश्चित नहीं कहा जा सकता है कि दोनों कृति एक ही है या भिन्न ? आलोचित कृति तीन भागों में विभक्त है, प्रथम भाग में आवश्यक मंगलाचरण, कविवचन और विवेक-अविवेक के बाद कवि ने रुक्मिणीहरण कथा का विस्तार किया है. इसे इतिहास की संज्ञा से अभिहित किया गया है. दूसरे भाग में नायक और नाइका का वर्णन प्रस्तुत है. तीसरे भाग में अन्य प्रासंगिक विषयों का स्फुट वर्णन है. ग्रंथ में कवि ने अपनी बात के समर्थन के लिए बंद के पुत्र वल्लभ रचित "वल्लभ विलास" के पद्य उद्धृत किये हैं. वल्लभ राजसिंह के समय में अपनी जवानी पर थे. उन दिनों वह ढाका से लौट आये थे. कवि ने इस रचना में इतिहास शब्द को इतना रूढ़ बना दिया है कि सामान्य वर्णन को भी इतिहास की संज्ञा दी गई है. इस कृति का रचनाकाल इन शब्दों में लिखकर बाद में काट दिया है. सतरासै अरु ठयासियै सुदी दसमी ससिवार । चैतमास पुरहुतपुर ग्रंथ लयौ अवतार ।। इस कृति का आदि और अन्त भाग इस प्रकार है. श्रीगणेशाय नमः दोहा श्रीगोपाल सहाय हैं महा छैलपति राज । गुर गनपति सरस्वति सुनौं, देहु विद्या वर आज ॥१॥ जातौं हौं चाहत कह्यौ नायक भेद अनूप । ग्रंथ रीति बरनी कबिन यह नायक रस भूप ।।२।। REACHISARGANJ RRA A JainEdbcamera ForeDelibrary.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि कान्तिसागर : अजमेर-समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ३१ wwwwwwwwwwww श्रोता सुनहु सुजांन तुम, नायक कहत जताय । वीर धीर बिन छैल ता नायकता नहीं पाय ।।३।। अन्त भाग चरन कमल नगधरन के रहो सदा मो सीस । राजसिंघ करि बीनती मागत है ब्रज ईस ।। ब्रजविलास रन रंग को दीजै दृग हिय ध्यांन । जुगल सरूप अनूप छवि सुन्दर परम सुजांन ।। सरस रीति गिरिवर पुहमी, तरवर सघन तमाल । षरितु छाकै प्रेम रस रसमय जुगल रसाल ।। गुन बरनन गोपाल कै रसमय बीर सिंगार । चित चंचल निहचल करहु समुभी यह सुषकार ।। स्फुट भक्तिभूलक पद-राजसिंह कवित्व-प्रतिभा से मण्डित राजवी थे, एक ओर इनकी जहाँ स्वतन्त्र कृतियां मिलती हैं, तो दूसरी ओर कृष्णभक्तिमूलक स्फुट पद भी पाये जाते हैं. ३१ पद तो एक ही गुटके में प्रतिलिपित हैं. जन्माष्टमी विजयादशमी, फूलडोल, होली, नृसिंह चतुर्दशी, दीपावली, राधाष्टमी, राम नवमी और गोवर्द्धन आदि प्रसंगों को लक्षित कर इन पदों की रचना की गई है. इनकी प्रतिभा को देखते हुए पता चलता है कि और पद होने चाहिएं. उपलब्ध पदसंग्रह से एक पद उद्धृत किया जा रहा है. चन्द ते इत गोकुल चन्दहि प्रगटत होड़ परी उतहि चकोरी इतकों गौरी तन मन लखि बिसरी उतकों भोगी इत ऋषि योगी महा मोद मन माने उत दै अमृत इत पंचामृत लखो प्रगट नहि छान उत दुजराज इतै ब्रजराजा दोऊ सुर राज सुहाई पाप कर्म वे धर्म कर्म ये निगम पुरानन गाई गोपी बाल तहाँ सब बालक दूध दही विस्तारे राजसिंह प्रभु बजकी जीवन भक्ति जगत निस्तारे जिस गुटके में महाराजा राजसिंह की कृतियां प्रतिलिपित हैं उसमें सं० १७८७ की लिखी “राजा पंचक कथा' भी आलेखित है. पर उसमें कर्ता का नाम नहीं है. केवल हाशिये पर “महाराजि राजसिंह क्रत कथा" उल्लेख है. जबतक इनकी दूसरी नामवाली प्रति नहीं मिल जाती तबतक इसे राजसिंह कृत मानना युक्ति संगत नहीं. इस कृति में पांच प्रकार के---धर्मपाल, सिद्ध सुभट, धनसंचय, नारी कवच और अधम राजाओं की प्रकृति का वर्णन है, कथाओं का विस्तार औपदेशिक शैली का परिचायक है. राजाओं को प्रजा का पालन किस प्रकार करना चाहिए और किन-किन परिस्थितियों में राजा को क्या-क्या कदम उठाने चाहिये आदि बातों का विस्तार है. भक्ति का पुट इतना लगा है जैसे कोई भक्तिमूलक रचना ही हो. विद्वानों से अनुरोध है कि इसकी और प्रति कहीं उपलब्ध हो तो प्रकाश डालें १. इसका विवरण इस प्रकार हैआदि भाग दोहा श्रीगुरु गनपति सारदा सदा सहाय गुपाल । दास भावसौं हरि भजे तिनके प्रभु प्रतिपाल ।।१।। WITH Jain Edu Non int forary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educ wwww wwww ww ८३२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय स्फुट कवित्त - इसमें संदेह नहीं कि महाराजा राजसिंह नैसर्गिक कवि थे. बाल्यकाल से ही कविता में प्रवृत्ति रही हैअतः अनुमान था कि एक ओर जहां इनकी स्वतन्त्र रचनाएँ मिलती है वहां दूसरी ओर इनका स्फुट कवितादि का साहित्य भी मिलना चाहिए, क्योंकि कवि हृदय और उर्वर मस्तिष्क सामान्य निमित्त पाकर भी फूट पड़ता है. वृंद के वंशज और अपने युग के किशनगढ के प्रतिभासम्पन्न कवि खुशराम या मगनीराम द्वारा सं० १८७८ में प्रतिलिपित उन्हीं के पूर्वज एवम् राजसिंह के समकालीन कवि वल्लभ रचित " वल्लभविलास " की प्रति सुरक्षित है. इसके अंतिम भाग में ३० कवित्त आलेखित हैं जिनके शीर्ष स्थान पर "श्री महाराजाधिराज श्री राजसिंघ जी रा कह्या कवित्त" यह पंक्ति लिखी है. पर कवित्त में कहीं भी न तो इनका नाम है और न ही इनकी छाप है. उदाहरण स्वरूप एक कवित्त उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं किया जा सकता है करो जिन सोर वह ठाढो चित चोर एरी पेम फेम जोर जोर डरो दिन चोर मैं । फिर चहुं ओर यहही पोर गहो करा जोर पायो आज भोर पर्यो सबीन की जोर मैं | मान को मोर यह नन्द को किशोर जब भुजन सौं जोर राषो घर मार मैं । देहूं फोर को तुम्हें कहत निहोर सपी कोरक मरोर याकी देषो नैंन कोरमें ||१|| इसी गुटके में आगे २१ कवित्त और हैं जिनके आगे टिप्पणी है " श्रीमाजी साहिबां रा कह्या दोहा " संभवतः ये पद्य ब्रजदासी के हो ? ब्रजदासी - बांकावतो - महाराजा राजसिंह की धर्मपत्नी और कछवाहा सरदार बांकावत आनन्द सिंह की पुत्री थीं. इनका जन्म लगभग सं० १७६० में हुआ था. बांकावत की पुत्री होने के कारण इन्हें बांकावतीजी भी कहते हैं. यों तो इनने अपने आपको स्वरचनाओं में ब्रजदासी के नाम से अभिहित किया है, पर कतिपय पद्यों में 'बांकी' छाप भी पाई जाती है. जैसा कि आगामी पंक्तियों से फलित होगा. इनका पाणिग्रहण संस्कार वृन्दावन में महाराजा राजसिंह के साथ सं० १७७८ में हुआ था जैसा कि वह स्वयं स्वकृति 'सालव जुद्ध' में इन शब्दों में स्वीकार करती है : अन्त भाग वृन्दावन के मांहि जहां चैनघाट की ठौर | पांनिग्रह्न तिहि ठां भयो बांधि रीति मुष्य कृपा गुरु जांनियें बहुरचौं पुरी पांनिग्रहन सुभ ठौर भी सु भौं सबै सौं मौर ।।१६२ ।। प्रभाव । सुभाय ।। १६३ ।। सालव जुद्ध, स्व-संग्रहस्थ प्रति से उद्धृत हरिजन हरिकों भजत है रसनां नांम महेस । श्रवन कथा सतसंग मैं निज तन नम्र बिसेस ॥२॥ कुल मारग जो वेद गति चलिये सोई चाल । भूठि झूठि तजि जगत की तबै कृपाल गुपाल ।। ११७।। पंच नृपनकी यह कथा सूछिम कही बनाय । श्रीनगधर उर धारिये सो है सीस ॥ इति श्री पंचम राजा अधम सहाय ।। ११८ । संपूर्ण | संवत १८८७ मागसर सुदि ३ चन्द्रबासरे लिपिकृतं स्वेताम्बर नानिंग || शुभं भवतु ॥ श्री ॥ प्रतिलिपिकार नानिंग स्वयं कवि और सुलेखक थे. इनके द्वारा प्रतिलिपित साहित्य किशनगढ़ के राजकीय सरस्वती भण्डार में विद्यमान है. www.orary.org Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि कान्तिसागर : अजमेर-समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार: ८३३ . ब्रजदासी किशनगढ़ की पारम्परिक सांस्कृतिक ज्योति की एक किरण थीं. उन्हें साहित्यिक अध्ययन में उल्लेखनीय अभिरुचि थी. किशनगढ़ के राजकीय सरस्वती भंडार में शताधिक हस्तलिखित प्रतियां हैं जिनकी पुष्पिकाओं में सूचित किया गया है कि ये सब इन्हीं के लिये लिखी गई हैं. यद्यपि ऐसी कृतियों में अधिकांशतः धार्मिक हैं, पर नाइका भेद, चिकित्सा, लक्षण ग्रंथ, पिंगल आदि विषयों का भी इनमें अन्तर्भाव हो जाता है. भागवत और उज्वलनीलमणि, रामायण और भक्तमाला जैसी कृतियों को सुन्दर चित्रों से सुसज्जित करवाया गया है जो उनकी कलात्मक अभिरुचि का प्रमाण है. किशनगढ़ी शैली के चित्रों का, राजस्थानी चित्रों में अपना स्वतन्त्र स्थान है, बल्कि स्पष्ट कहा जाय तो सर्वाधिक आकर्षणशक्ति इसी शैली के चित्रों में हैं. वल्लभाचार्य और उनकी परम्परा के लगभग सभी आचार्यों, भक्तों और तदनुयायी संतों के प्रामाणिक और नयनाभिराम चित्रों का जैसा संग्रह किशनगढ़ में है वैसा अन्यत्र दुर्लभ ही है. जो चित्र ब्रजदासी के लिए विशेष रूप से कलाकारों ने तैयार किये थे उन पर चित्र-काल और भावसूचक टिप्पणी विद्यमान है. ब्रजदासी की साहित्यिक साधना के परिणाम स्वरूप अभी तक केवल भागवतानुवाद की ही चर्चा रही है. मिश्रबंधु विनोद, मध्यकालीन हिन्दी कवयित्रियाँ (ले० डा० सावित्री सिन्हा) और अन्य तथाकथित इतिहासों में इनकी यही रचना स्थान पाती रही है. हिन्दी कवियित्रियों में यही प्रथम अनुवादिका है जिसने भागवत का अनुवाद गेय परम्परानुसार न कर प्रबन्धात्मक शैली को अपनाया है. डा० सावित्री सिन्हा ने अपने शोध ग्रंथ में ब्रजदासी और भागवतानुवाद पर संक्षेप में, पर सार गभित प्रकाश डाला है. मथुरावासी पं. जवाहरलालजी चतुर्वेदी ने भी 'सम्मेलन पत्रिका" के वर्ष ४६, सं० १, पृष्ठ ७५-८१ में ब्रजदासी भागवत पर विचार व्यक्त किये हैं. पर चतुर्वेदीजी ने इस लहजे में भागवतानुवाद का उल्लेख किया है जैसे सर्वप्रथम ही यह कृति प्रकाश में आ रही है, पर बात ऐसी नहीं है. इतः पूर्व कई स्थानों में उल्लिखित हो चुकी है. सम्मेलनपत्रिका में भागवत के अनुवादकों की जो सूची दी है उसमें नागरीदास का नाम नहीं है, जब कि होना चाहिए था. अस्तु. नव्य कृतियाँ-यहां ब्रजदासी की अज्ञात कृतियों का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है. इन पंक्तियों के लेखक को अपनी साहित्यिक-शोधयात्रा में सालव जुद्ध, आशीष संग्रह एवम् स्फुट कवित्त उपलब्ध हुए हैं. सालव जुद्ध में पौराणिक प्रसंग को लेकर इनने अपनी काव्यप्रतिभा का प्रदर्शन किया है. रचना भक्तिरस से ओतप्रोत है. इससे पता चलता है कि वह न केवल सफल अनुवादिका ही थीं अपितु स्वतन्त्र ग्रंथकर्ती भी थीं. सूचित कृति का विवरण इस प्रकार है श्रीगणेशायनमः, श्रीराधेकप्ण जयति, श्रीगुरुभ्यो नमः __ अथ सालवजुद्ध लिष्यते गुरु दयाल कीजै कृपा निज आश्रम मो जांनि । भई इच्छा जस कहन की जो हरि जसकी षांनि ।।१।। हरि गुन को कहिकै सकै कौंन कहन सामर्थ । सैस महेस सुरेस हू अजहं लहत न अर्थ ।।२।। पंग चहत परबत चढ्यौ सूर दिव्य द्रग पाय । चुहा सिंधु चाहत तिर्यो हूं जु चहत गुन गाय ॥३॥ जिहको जस चाहत कियौ सौ अब होहू सहाय । गुरु मुष तै आज्ञा लहैं तब हौं करौं उपाय ।।४।। गवरी नंद आनन्द जुत सिव सुत सिद्धि गनेस । जय जय सुरगन नमत हूं जय जय सबें रिषेस ।।५।। श्रीव्रषभानकुमारी तुम नंदलाल तुम प्रांन । यह इच्छा पूरन करौ मो मति मंद हि जांन ।।६।। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय गुन अनन्त गोपाल के कोऊ न पावत पार । मैं मति अपनी समझ कछु कहूं संभारि बिचार ।।७।। छप्पय भए सिरी हरिव्यास अवतार प्रगट जग । लाल लाडिली प्रेम रंग रस हिय मैं जगमग ।। सेवत कुवर गुपाल लाल महा रूप रसाला । निस दिन कान्ह सुजांन हिये वास्यौ प्रतिपाला ।। दुर गाहि ताहि दिच्छा दई किते पार करि करि दये । ब्रजदास दासी तुम सरन है श्रीहरिव्यास जय जय जए ॥८॥ परसराम गुरु महासकल गोपाल लडायौ । श्रीसर्चेसुर नाम रहै हिय नित प्रति छायो । रांम-रौंम की जात भूलि सुधि प्रेम रंग मैं । झलकत जुगलकिशोर माधुरी अंग अंग मैं ।। निहच प्रतीति रस रीति सों लषि सरबेसुर रस रसमें । व्रषभान लली ब्रज लाडली अरु गुपाल हिय में वस ।।६।। दोहा तिनकै पाट प्रसिद्ध महिं जोति जगत हरिवंस । रंग रंगे गोपाल के सुरगन करत प्रसंस ।।१०।। श्रीनारायनदेव जग प्रगट रसिक सिर मौर । लाल लाडिली रंग बिन हिय मैं ध्यान न और ।।११।। महा मदंध जग के नृपति तिनके अंकुस रिषिराज । करे साध परबोध करि यह जग जगी अवाज ।।१२।। काम क्रोध को दंड है तजी लोभ की टेव। जय जय जग में सब भई जयत नरांइनदेव ॥१३॥ छप्पै तिनके रिष रिषराज सिरी बृदावन प्रगटे । ज्यौं तिनुका धनसार तुही करि मनसुलपट ।। तन मन प्राण गुपाल नैन धन रूप रसालं । बंध्यौ रहत नित नित चरन हरि प्रीत हि जालं ।। सुभ ज्ञान ध्यान पूजन जुगति भगति भाव मन वच कियो । तिन बैर तीन कलिजुग मांहि सरबेसुर परचा दियौ ।।१४।। बेद स्मृति जे अंग बहुरि सासत्र सब गनिय । गनीय सबै पुरान सबै क्रम जुत नित भनिय ।। संध्या सुमरन मंत्र तंत्र जो कछु चलि आवै । लाल लडती रुंग सुजस हित सौं हिय छावै ॥ जग जीव जिते उद्धार को श्रीवृदावन अवतरे । बांके कृपाल गोपाल हरि प्रगट जगत अपने करे ।।१५।। * * * * * * * * * * 0000 H !!!! !! !! !! For Private !!!!!!! Personal use only ! !!!!!! !!!! ! ! !!! Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनि कान्तिसागर : अजमेर-समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ८३५ अन्त: दोहा यह प्रसंग ऐसौ कह्यौ मैं मो मति उपमांन । कृष्ण सुजस कौं कहि सके ऐसौ कौंन सुजान ॥१६६।। तामैं मो मति मंद है अरु अति चित्त अजान ।१७०।। यह विचार कीनों सु मैं गुरु कृपा उर आँन । कृपासिंधु तुम जुगल हो कीजै मो हिय बास । ब्रजदासी बिनती करत यह धरि हिय में आस ॥१७१।। निगमबोद यमुना तटे उत्तर दिसि के ठांहि । यह पोथी कीनी लिखी इन्द्रप्रस्थ के मांहि ।।१७२।। संवत सतरा सै समैं बरस तियास्यो मान । मंगसर वदि एकादशी मास चैत सुभ जान ।।१७३।। ॥ इति श्री सालवजुद्ध सम्पूर्ण ।। इसकी रचना सं० १७८३ में दिल्ली में निगमबोध घाट पर हुई. इस प्रतिलिपि का काल सं० १७८७ है. आशीष संग्रह : यह नाम मैंने दिया है. वस्तुत: इसका नाम क्या रहा होगा ? नहीं कहा जा सकता, कारण कि कृति अपूर्ण ही उपलब्ध हुई है. इसमें विवाह के प्रसंग पर भिन्न-भिन्न जातियों द्वारा दी जानेवाली आशीर्वादमूलक वचनावलियों का संग्रह है, इसीलिए यह नाम रख लिया गया है. खण्डित प्रति में मालनी, चित्रकार, चितेरी, गंधी, गंधिनी, नायण, दरजण, तंबोलण, ढाढी, ढाढण, ग्वालन, भांडण, रंगरेजन, कुंभारी, मनिहारन और मेहतरानी की आशीषों का संकलन है. कतिपय पद्यों में ब्रजदासी का नाम भी आया है ब्रजदासि प्रांन किय वारन, कह जु बजदासियं बसो जु ध्यान वासियं, —मालण की आशीस, भई वारनै कुवरि पद बार-बार ब्रजदासी, –चतेरा की देवा की आशीष, दासी निज सुन्दर मन, –ढांढण के देवा की आशीष, ब्रजदासी पावै यहै जुगल भगति की चाही –ढाढी के पढवा की वंशावली, पाठकों की जानकारी के लिए एक आशीष उद्घ त करना समुचित होगा---- अथ चतेरे की देवाकी श्राशीष छंद भुजंगी नृपं भांनकै आज उछव अपार भई हैं कुवारं लडेती उदारं । लजें मेघ ऐसे जबे हैं जिसानं तिहु लौक आनन्द छायो अमानं ।। बधाई बधाई बरसांन छाई लली होत सोभा रवि बंस पाई। दए दांन ऐसे महाराज भानं भए हैं कंगालं नृपालं समानं ।। abenavigowan . . . . . . . . . . . . . . . . . . . JainEdugandhntirora..... . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ............ . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ..nirgfrinaeefergne . . . . . . . . . . . . . n . . e . . . . . . . . . . . . . . . . ... . . . . . .. . . . . . . . . . . . . . .. . . . . . ... . . . . . . ... . . . . . . . . . . . varanelibrary.org . . . . . . . . . Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय wwamannawwwww पढे चारणं भाट बाहं उभारं लहै नेग नेगी विना वार पारं । सुनी बात येहं जब नंदराय सबै गोकलं हर्ष बाढ्यौ अथाहं ।। रणंबास जुक्तं बरसांन आए भयौ चित्त चाह्यौ बजे है बधाए । जुथं-जुत्थ गोपी नृपं द्वार आवै करं भेट लीनै महा सोभ पावै ।। चलै धाय धायं सुरंजी लगावै चितं मोद छाई हसँ औ हसावै । मिले नंद भानं भए हैं षसालं मिल्यो मेल चाह्यौ रंगीनं रसालं ।। बरसांन मांनी दुधं मेह वर्षे धन्यं कीत्तिकुषेतिहु लोक हर्षे । दधि दूध को दोम च्यों भान ठाम, रमैंक जमकै करें खेल षामं ।। बड़े भाग नेगी यह द्यौस पायौ लली द्वै कुलं को कलसं चढायौ । भई स्यांम ते है लली की सगाई सुनौं सासरे पीहरं सोभ पाई ।। अब ह विबाहं लली लाल केरो वृषभांनि हों सुकृतं जन्म केरो। दोहा अब वह दिन कब होय जब महारंग की भीर । बैठे दंपति सेज पं देषि रचौं तसबीर ।। स्फुट कविता-सं० १७८७ के गुटके में "बांकी" छाप के कतिपय कवित्त प्रतिलिपित हैं. ये सब बांकांवती के ही जान पड़ते हैं. इनकी संख्या ६ है. आगे स्थान छुटा हुआ है. संभव है प्रतिलिपि करते समय छूट गये हों, एक कवित्त उद्धृत किया जा रहा है नैन पिया के लगे तित ही उतही अबलं मन आप ढरौंगी। काजर टीकी करौं तिहंकी सषि सौतिन सौं कछु लाजि डरोगी ।। 'बांकी' रहौ सब ही जगसौं लषि प्रीतम कौं नित चित्त ठरौंगी । वाहि रची सुरुची हम हूं हौतौ प्यारे की प्यारी सौं प्यार करौंगी। सुदरकुवरी बाई-ये उपर्युक्त बांकावती की पुत्री थी इनका जन्म सं १७६१ कार्तिक शुक्ला ६ को हुआ था. यह भी अपने माता पिता के समान कवित्व-प्रतिभा से मंडित थी. तात्कालिक राजकीय वैषम्य के कारण २१ वर्ष तक अविवाहित रहीं. सं० १८१२ में इनका विवाह रूपनगर के खीचीवंशीय राजकुमार बलवंतसिंह के साथ सम्पन्न हुआ. पर दुर्भाग्य ने इनका साथ नहीं छोड़ा. पितृगृह तो क्लेश का स्थान था ही पर अब तो स्वसुर-गृह भी अशान्ति का केन्द्र बन गया, कारण कि इनके (पति ?) सिंधिया सरदारों द्वारा बन्दी बना लिए थे. बाद में मुक्त करवा दिये गये थे. इनकी प्राप्त समस्त रचनाओं का विवरणात्मक परिचय डा० सावित्री सिन्हा ने अपने 'मध्यकालीन हिन्दी कवयित्रियाँ' नामक शोध प्रंबंध में दिया है. वहाँ ग्रन्थ-रचना काल विषयक कतिपय भ्रांन्तियां हो गई हैं जिनका परिमार्जन प्रसंगवश कर देना आवश्यक जान पड़ता है. इसके पहिले मैं सूचित कर दूं कि सन् १९५४ में जब ग्वालियर में था तब वहाँ के साहित्यानुरागी श्री भालेरावजी के संग्रह में एक बड़ा चौपड़ा देखने में आया था जिसमें सुन्दरकुंवरि बाई के समस्त ग्रंथ प्रतिलिपित थे. मैंने उनका विवरण ले लिया, उसी के आधार पर यहाँ संशोधन प्रस्तुत किया जा रहा है. उपर्यक्त शोध-प्रबन्ध में भावनाप्रकाश का रचनाकाल सं० १८४५ माना गया है जो ठीक नहीं जान पड़ता, ग्वालियर वाली प्रति में प्रणयन समय सं १८४६ बताया गया है संवत यह नव दनसैं गुणंचास उपरंत । साकै सत्रहसैरु पुनि चउदह लहौ गनंत ॥ 25 WO INirahu ORDDITIES DI Fro nu MIT O Jain Educsi Gavatta Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि कान्तिसागर : अजमेर-समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ३७ माघ मासके सुकल पष तिथ पंचमि बुधवार । संपूरन यह ग्रंथ किय सुन्दरकुवरि विचार ॥८३।। सार संग्रह का रचनाकाल भी सूचित शोध प्रबन्ध में सं० १८४५ बताया गया है जब कि स्व० भालेरावजी की प्रति स० १८४७ सूचित किया है संवत सुभ षट त्रगुन से सैतालीस उपरत । प्रेम संपुट का निर्माण-काल भी डा० सावित्री सिन्हा ने सं० १८४८ माना है जब कि वस्तुतः इसका स्रजन समय सं० १८४५ है. संवत अठारह सै जु है पैंतालीसा जानू । साकै सत्रहसै रु दस सिद्धारथ सुप्रमान ॥५४।। महा मास वैसाष सुद पूर्नवासि तिथ जास । वार मंगलिय भौंममो पूरन ग्रंथ प्रकास ।।५५॥ छत्रकु वरि बाई-ये सुप्रसिद्ध संतप्रवर श्री नागरीदासकी पौत्री और सरदारसिंहजी की पुत्री थीं. किशनगढ़ राजपरिवार की कृष्णकीतिगायिका कन्याओं में इनका स्थान भी प्रमुख है. प्रेमविनोद इनकी सुन्दर काव्य-कृति है. डा. सावित्री सिन्हा ने इन पर भी आलोचनात्मक प्रकाश डाला है, परन्तु प्रमादवश संवतों में ऐसी भ्रान्तियाँ घर कर गई हैं जिनका संशोधन आवश्यक है, वर्ना भ्रामक परम्परा आगे फैल सकती है. बात यह है कि उक्त शोध प्रबन्ध पृ० १६८ पर इनका परिचय देते हुए सूचित किया है'छत्रकुवरि बाई नागरोदासजी के पुत्र सरदारसिंह की पुत्री थीं. इनका विवाह सं० १७३१ में कांठडे के गोपालसिंह जी खीची से हुआ था. विवाह में इनकी आयु लगभग सोलह वर्ष की तो अवश्य रही ही होगी, अत: इनका जन्म सं० १७१५ के लगभग माना जा सकता है ..... -मध्यकालीन हिन्दी कवयित्रियाँ पृ० १६८ उपर्युक्त पंक्तियों में जो संवत् प्रयुक्त हुए हैं, सर्वथा असत्य हैं. कारण इनका जन्म सं०१७१५ में कैसे माना जा सकता है. उन दिनों तो महाराजा राजसिंह का भी जन्म नहीं हुआ था जो नागरीदासजी के पिता थे. राजसिंह के सं० १८०५ में स्वर्गवासी हो जाने पर तो राजपरिवार में सत्ता के लिए महान् संघर्ष छिड़ गया था, सरदारसिंह का राज्यत्वकाल सं० १८१२ से सं० १८२३ तक का रहा है. १७२५ और १७३१ में राजसिंह के पूर्ववर्ती महाराजा मानसिंह का का शासन था. संवतों की यह भूल विदुषी लेखिका से न जाने कैसे हो गई है. सच बात तो यह जान पड़ती है कि १८ के स्थान पर सर्वत्र १७ अंक लिख दिया है. थोड़ी सी असावधानी से कितनी बड़ी भ्रान्ति फैल जाती है. इसी भूल के परिणाम स्वरूप ही शोध-प्रबन्ध में छत्रकुंवरि रचित 'प्रेम विनोद' का रचना समय भी १७४५ दे दिया है जब कि होना चाहिए था सं० १८४५, जैसा कि कवयित्री स्वयं स्वीकार करती है संवत है नव दन सै पैंतालीस वढंत । साकै सत्रह सै रु दस सिद्धारथ सु कहंत ॥ मास असाढ सुकुल पष तीज बृहस्पतवार । संपूरन यह वारता कीनी मन अनुसार ।। इन पंवितयों के ऊपर का भाग शोधप्रबन्ध में उद्धृत किया गया है, यदि लेखिका स्वल्प ध्यान देतीं तो यह भ्रमपूर्ण बातें लिखने का अवसर न आता. यहाँ पर एक बात का स्पष्टीकरण आवश्यक जान पड़ता है कि यों तो किशनगढ़ का राज-परिवार वल्लभकुलीन रहा है पर महारानियों द्वारा रचित कृतियों में सर्वत्र मंगलाचरण में निम्बार्क सम्प्रदाय के आचार्यों के नाम आते रहे हैं. Palam AWARDOया TOPINIATTAimum I ndianhitraTRTS SOMDIDI HALININATA N DARI HASMITATUS Jain Educa Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय इससे विदित होता है कि पुरुष वर्ग वल्लभकुलीन था और नारी समुदाय सलेमाबाद स्थित निम्बार्क गद्दी का उपासक था, वैष्णव शाखा में यह परम्परा रही है कि पुरुष और नारियों का गुरु-घराना एक नहीं हो सकता. महाराजा बिड़दसिंहजी-(राज्य काल सं० १८३८-१८४५) इनके स्फुट पद्यों के अतिरिक्त गीतगोविंद की गद्य-पद्यात्मक टीका पाई जाती है. ३०० पत्रों की विशद् हिन्दी टीका के देखने से पता चलता है कि शायद ही कोई इतनी विशद वृत्ति हो. इनके निर्माण में महाराजा ने तत्काल में वहाँ निवास करनेवाले बिहार प्रदेश के सुप्रसिद्ध विज्ञ और विवेचनकार श्री हरिचरणदास से प्रर्याप्त सहायता ली है. एक रघुनाथ भट्ट का नाम भी आता है जो संभवतः 'गोविंद लीलामृत' के प्रणेता हों ?. विड़दसिंह के समय में भी विद्वान् और कवि समाहत होते थे. एक और वृन्द के वंशजों का सांस्कृतिक दृष्टि से किशनगढ़ में प्रभुत्व था तो दूसरी ओर बाहिर के विद्वान् भी आकर वहां निवास करने में अपने को गौरवान्वित समझते थे. चाहे राजनैतिक उत्पात कितने ही आये हों पर साहित्यिक सरिता के प्रवाह में शैथिल्य नहीं आया. खेद की बात इतनी ही है कि वहाँ के अन्य कविओं पर अन्वेषण नहीं हो पाया है. यदि वहाँ का राजकीय सरस्वती भण्डार विशिष्ट दृष्टि से टटोला जाय तो संभव है वहाँ की सांस्कृतिक चेतना के दर्शन हो सकेंगे. कल्याणसिंहजी-(राज्य काल सं० १८५४-६५) महामहोपाध्याय श्री विश्वेश्वरनाथ जी रेऊ रचित 'मारवाड़ के इतिहास' में प्रदत्त इनके काल में और मुन्शी देवीप्रसादजी कृत में 'राज रसनामृत' में सूचित समय में वैषम्य है, पर उस पर विचार का यह स्थान नहीं. कल्याणसिंहजी के स्फुट पद मिले हैं. एक उद्धृत किया जा रहा है राग वसंत, ताल धमार रति पति दे दुख करि रतिपति सौं तू तो मेरी प्यारी और प्यारे हू की प्यारी उठि चलि गजगति सौ दूती के वचन सुनि-सुनि मुसक्यानी भूषन वसन सौंधौं लियो बहो भांति सौं कल्याण के प्रभु गिरधरन धरक धाय लई अति उर सौं महाराजा पृथ्वीसिंहजी-(राज्यकाल सं० १८९७-१९३६) ये फतहगढ़ की शाखा से गोद आये थे. इनका केवल एक ही पद प्राप्त है जिसमें वल्लभाचार्य की परम्परा का उल्लेख है. महाराजा का विशद् वर्णन प्राप्त नहीं है, पर अन्यान्य ऐतिहासिक सम सामयिक साधनों से सिद्ध है कि उस समय राज-परिवार में ज्ञान की चेतना उन्नति के शिखर पर थी. महाराज कुमारों को भी साहित्यिक शिक्षा दिलवाने का विशिष्ट प्रबंध था, तभी तो वह आगे चलकर स्वतंत्र ग्रंथकार प्रमाणित हुए. महाराजा पृथ्वीसिंह का एक पद इस प्रकार है : वंशावली श्रीमहाप्रभु वल्लभ प्रगट तिन सुत विठलनाथ । जिनके गिरधरजी प्रगट उनके गोपीनाथ । श्रीप्रभुजी जिनके भये विठ्ठलनाथ प्रमान । उन सुत वल्लभजी भये फिर श्री विठ्ठलनाथ । करि करुणा या करन महीं मोकू कियो सनाथ । जिनके सुत रणछोडजी हैं कुंवरन सिरमौर । इनको वंश वधो बहुत यह आशिष करू कर जोर । जवानसिंहजी—यह उपर्युक्त महाराजा पृथ्वीसिंहजी के द्वितीय पुत्र थे. इनका कविताकाल सं० १९४५-४६ लगभग है. ये परम कृष्ण भक्त राजवी थे. इनकी तीन रचनाएं-'रस तरंग' 'नखशिख-शिखनख' और 'जल्वये शहनशाह इश्क' VOJAN ARE GNATAARAMINATA LACE INNINANINNARENENIबारवNINNINNINE Jain Education Interational www.jamendrary.org Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 Jain मुनि कान्तिसागर : अजमेर - समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ८३६ मौलिक और एक संग्रहात्मक'मार संग्रह इन पंक्तियों के लेखक के संग्रह में सुरक्षित है. रचनाओं में कवि ने अपनी छाप 'नगधर' या 'नगधरदास' रखी है.' कविवर जवांनसिंहजी का अध्ययन अत्यन्त विशाल और तलस्पर्शी था. जयलाल या जयकवि इनके मित्र और साहित्यिक सहयोगी थे. यह स्वाभाविक ही है जब दो सहृदय कवि एकत्र होकर सारस्वतोपासना करने लगें तो उत्तम फल प्राप्त होते ही हैं. सचमुच उन दिनों किशनगढ़ का साहित्यिक वातावरण कितना परिष्कृत और प्रेरणादायक रहा होगा ? रसतरंग — जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है इस में कृष्ण भक्तिमूलक रस की आध्यात्मिक तरंगों का बाहुल्य है. कवि हृदय की मार्मिक अनुभूतियों का सुंदर और सहज परिपाक सूचित रचना में हुआ है. कवि ने आत्म निवेदन में जिन भावों की सफल सृष्टि की है, वह अनुपम आनन्द का अनुभव कराती है, ऐसा प्रतीत होता है मानो अनन्त मानवों का स्वर एक कण्ठ से ध्वनित हो रहा हो. शान्त, भक्ति और वात्सल्य रसों की धारा पूरे वेग से प्रवाहित हो रही है. भक्तिरस है या नहीं ? इसकी विवेचना यहां अप्रस्तुत है, पर इतना कहना पड़ेगा कि कृष्णभक्ति के मधुरोपासक कवियों ने इसे रस के रूप में प्रतिष्ठित अवश्य किया है. कोई भी भाव - चाहे स्थायी हो या व्यभिचारी - प्ररूढ़ अथवा प्रवृद्ध होने पर रस की कोटि में आ जाता है. भगवान् के गुणों का सततचिन्तन, श्रवण एवम् मनन करते रहने से आत्मा स्वाभाविक रूप से अन्तर्मुखी आनन्द का अनुभव करता है और इसका चारित्र के साथ संबंध प्रवृद्ध होने पर तो तदाकार भी हो जाता है. आलोच्य कृतिकार चाहे संत या भक्त कोटि में न आते हों, पर उनकी अभिव्यक्ति भक्त की पूर्वपीठिका के सर्वथा अनुकूल है. प्रेमभक्ति का प्रवाह रसतरंग की अपनी निजी विशेषता है. ग्रंथ के अंतःपरीक्षण से विदित होता है कि कवि ने केवल अपने सहज स्फुरित भावों को ही लिपिबद्ध नहीं किया, अपितु एतद्विषयक आवश्यक अध्ययन के अनन्तर शास्त्रीय परम्परा को ध्यान में रखते हुए भावभूमि का सृजन किया है. तभी तो वह इष्टदेव के प्रति पूर्ण समर्पण कर सका है. प्रस्तुत रसतरंग को अध्ययन की सुविधा के लिये तीन भागों में विभाजित करना होगा. प्रथम भाग में बधाइयां जिनका संबंध कृष्णचरित से है, द्वितीय भाग में वे बधाइयां आती हैं जो वल्लभाचार्य और उनके वंशजों से सम्बद्ध है. इसमें वल्लभाचार्य स्वयं, विट्ठलनाथजी, ( कोटावाले) गोपीनाथजी दीक्षित, तीसरे गिरधरलालजी आदि आचार्यों का समावेश होता है. तीसरे भाग में कवि ने दीपावली, चीरहरण, होली आदि प्रसंगों को लेकर भगवान् कृष्ण की जीवन १. इस की स्पष्टता कवि ने अन्यत्र कई स्थानों पर को ही है, पर इनकी रचना 'जल्वये शहनशाह इश्क' की टीका में वृन्द के वंशज कविवर जयलाल ने भी इस पर इस प्रकार प्रकाश डाला है कवि मनभाव वर्णन नगर लखि चित अटक के पर्यो गिरयो मधि फन्द | ज्यौं बालक लड वावरो चहत खिलौना चन्द ||३६|| टीका नगर इति -- या मैं कवि मन भाव वर्नन हैं, 'नग' जो गिरराज जिनके धारण करनेवाले जो प्रभू जिनको लखि देखिकै में बोच फंदा के पड गयौ, अर्थात् मेरो चित्त हैं सो पभून मैं आसक्त हुयो सो प्रभू जगदीश अचिन्त्यानंद ब्रह्मा शिवादिक कौं ध्यानागम्य ऐसे प्रभू कहां, तहां पर दृष्टांत जैसें जो बालक चंद्रमा को खिलौना करके मांगें, यह कहें जू यह खिलौनां माकौं लाय दो, वह खिलौनां कैसे आवें, कहां तो बालक अरू कहां वह चन्द्रमा ऐसे जांनी अरु यहां 'नगधर' पद हैं सो कवि को काव्य रचना को नांम भी है. दृष्टांत अलंकार है. भाषा भूषन जहां विंव प्रतिबिंव सौं दुहू वाक्य दृष्टान्त । इति, यहां उपमेय वात्रय कवि मन फंद में पडनौं प्रतिविंव अरु उपमा वाक्य बालक को चन्द्रमा खिलौनां मांगनों बिंब है ||३६|| जल्वये शहनशाह इश्क की टीका की निज संग्रहस्थ प्रति से उद्धृत पत्र १२३-४, www SANENEMASEINE282122NNAINONENTINENANANA rary.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय घटनाओं पर प्रकाश डाला है. षट् ऋतुओं के साथ भगवान् की तुलना करके कविने जो प्राकृतिक शोभा का वर्णन प्रस्तुत किया है वह तो कवि हृदय की चरम परिणति है. कवि विचारों में उदार प्रतीत होता है, वह परम कृष्णोपासक होते हुए भी उसने बड़ी ही श्रद्धा से मर्यादा पुरुषोत्तम राम की भी एक बधाई लिखी है. कहीं-कहीं स्वमतपोषणार्थ महाराजा नागरीदास, स्वामी हरिदास आदि संत प्रवरों के पद उद्धृत किये हैं. भाषाभूषण और किशनगढ़ प्रवासी कवि हरिचरणदास कृत सभाप्रकाश का उपयोग किया है. पूरा ग्रंथ राग-रागनियों में ही नहीं है, कवित्त, सवैया, दोहा आदि भी प्रयुक्त हुए हैं. इन रचनाओं में जहां कहीं काठिन्य है उन स्थानों की कवि ने टीका भी साथ ही साथ समाविष्ट कर कृति का गौरव द्विगुणित कर दिया है. जैसा कि ऊपर सूचित किया जा चुका है कि जवानसिंह-नगधर का अध्ययन बहुमुखी था, विषय प्रतिपादन में वह दक्ष हैं तो अनेकार्थ साहित्य के प्रति भी उदासीन नहीं. एक उदाहरण दिया जाना उपयुक्त जान पड़ता है.--- हरित कदंब भूमि हरियारी हरी' अमावस हरयो समाज । हरी सवारी साज चल्यो है हरी' गाज सवहि न मन राज ।। हरि तनया प्रफुलित हरि गुंजत हरि सोभा सुख धाम । हरित लतनि में हरित हिंडौरा हरि संग भूलत हरिमुख° वाम ।। हरि" कुंज गहर१२ हरियारी हरि सोभा बरनी नहीं जात । हरे रतन तन वसन हरे रंग हरीय पहुपमाला५ सरसात ।। हरी१६ हरी पर सोभित अद्भुत, हरि वरसत हरि लायो । हरी'६ राग गावत मुरली में मधुरं मन२० हरि२१ भायौ ।। हरिवरनी २२ हरिगमिनी२३ री तूं हरिलोचनि२४ मदमाती । हरिकटि२५ लचकत संग झूलन में हरिबैनी२६ उछराती ।। हरखि-हरखि२७ गावत मधुरै सुर भई हरी रंग राती ॥ 'नगधर'२८ हरि हरख ६ हरियारै हरी हरी३° सवहिन मन भाती ।। कवि ने रसतरंग में जहां एक ओर ब्रज भाषा का उपयोग किया है वहीं दूसरी ओर अपनी मातृभाषा ढुंढाडी को विस्मृत नहीं किया है. रचनाकाल कवि ने नहीं दिया है, पर प्रतिलिपि काल और कवि की अन्य कृतियों से सिद्ध है कि सं० १९४५ के लगभग रसतरंग रचा गया है. जल्वये शहनशाहे इश्क-३६ पद्यात्मक यह लघुतम रचना साहित्यिक सौंदर्य का भव्य प्रतीक है. कवि ने इसमें आत्मस्थ सौंदर्य को साकार कर अपनी काव्यकला का उल्लेखनीय परिचय दिया है. सम्पूर्ण रचना प्रतीकात्मक है. भगवान् कृष्ण को शहनशाह मानकर उसकी सृष्टि का एक राज्य के रूप में वर्णन किया है. शहनशाह, रानी, मंत्री, नगर, दुर्ग, सिंहासन, न्यायालय और उसके अध्यक्ष, जल्लाद, छत्र, चंवर, धनुष-बाण, ध्वजा नौबत, मुसद्दी, कोतवाल, सेना, विषयक उपकरण, शस्त्रास्त्र कोश, खेमा, नौबत आदि का विशद् परिचय देते हुए भाट का स्थान नागरीदास के यहां जो टिप्पण दिये गये हैं वे सब कवि के ही हैं १. हरियारी अमावस, २. प्रसन्न सषी गनादिक, ३. काम की सवारी, ४. इन्द्र को गाज. ५. जमुनाजी, ६. प्रफुल्ल, ७. गुज हे भ्रमर, ८. हरिवल्लरी, ६. श्रीकृष्ण, १०. चंद्रवदनी, ११. सवज कुज हैं, १२. गहवर हैं, १३. वन, १४. पन्ना, १५. कमल पुष्प की माला, १६. इंद्र धनुष, १७. आकाश पर, १८. जल वरसे है, १६. पवन चल्यो हैं, २०. मन को २१. हरिक, २२. कनकवरनी, २३. गजगमनी, २४. मृगनैनी, २५. सिंहसी, कटि, २६. सर्पसो बैनी, २७. प्रसन्न भई, २८. राजा, नगर कवि कौ नान, हरी राजा, २६. हरि की प्रीत, ३०. हरी-हरी यह पूर्वोक्त जमक शब्द की उक्ति सर्व के मन भावती हुई है। VAL Jain Education Intemat S .ainelibrap.org Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि कान्तिसागर : अजमेर-समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ८४१ wwwwwwwwwwwww के लिये सुरक्षित रख लिया जान पड़ता है. राजस्थान में भाट का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता रहा है. भगवान् के भाट नागरीदासजी-सांवतसिंह हैं जिसने उनका यश चतुर्दिक फैलाया. कवि के ही शब्दों में पढ़िए--- भाट वर्णन भाट नागरीदास नृप इशक शानशा हेत । सब जग मय जाहिर किया इश्कचिमन रस केत ॥२२॥ भाट इति—यामैं भाट को वर्णन हैं. इश्क जो शहनशाह राजाधिराज हैं ताके हेत कहिये, सिंह के कारण नागरीदास नृप जो कृष्णगण के महाराज सांवतसिंहजी द्वितीय हरि संबंध नाम नागरीदासजी सो भाट है, सो यह महाराज बड़े महानुभाव परम भगवत् भक्त सो इनकी महिमा तो लघु पुस्तक में लघु बुद्धि सौं कहां तक वर्नन करै, अरू आपके कवित्वछंदादि तो बहुत हैं परन्तु तिन में दोय प्राचीन छप्पय लिखते हैं सुत कौं दै युवराज आप दृदावन आये। रूपनगर पतिभक्त वृन्द बहु लाड लडाये ।। सर धीर गंभीर रसिक रिझवार अमानी । संत चरनामृत नेम उदधि लौं गावत वानी ।। नागरीदास जग विदित सो कृपाठार नागर ढरिस । सांवंतसिंह नृप कलि विष सत त्रैता विधि आचरिय' ।।१।। पुनः रंग महल की टहल करत निज करन सुधर वर । जुगल रूप अवलोक मुदित आनंद हिौं भर ।। ललितादिक जिहिं समैं रहत हाजर सुखरासी । तहाँ नागरीदास जुगल की करत खवासी ।। श्रीलाड लडैती करि कृपा परिकर अपनौं जाँन किय । शक्रादि ईशहूकौं अगम सो दृदावन वास दिय ॥२॥ कृष्ण कृपा गुन जात न गायो मनहु न परस करि सकै सो सुख इन ही दृगनि दिखायो । गृह ब्यौहार भुरट २ को भारो शिर पर तै उतरायो ।। नागरिया कौं श्रीबदाबन भक्त तख्त बैठायो ।। ऐसे महाराज नागरीदासजी इश्क महाराज को सुयश बहुत बनन कियो हैं. सोई उत्तरार्द्ध में कह हैं. सब जगमय कहिये सर्व संसार में "इश्कचिमन" नाम ग्रंथ "रस केत" कहिये रस की ध्वजा जैसो जाहिर किया कहिये प्रगट कियो हैं. इश्क महाराज को सुयश वर्णन कियो या ते भाट कहैं. "भा" नाम सोभा ताके अर्थ "अट" कहिये फिर ताको नाम भाट हैं. अरु भाट सौं जाति की उत्तमता अरु उत्पत्ति की शुद्धता जगत मैं जानी जाय हैं, तैसें "इश्कचिमन" सौं इश्क की उत्तमता, अरु इश्क को शुद्ध स्वरूप जान्यौं जाय हैं तातै भाट कहैं ....... १. कहा जाता है कि नागरीदास का जो स्मारक वृदावन में बना है उस पर यह पद्य अंकित है. २. राजस्थान के रेतीले प्रदेश में "भूरट" नामक काटेवाला खाद्य पदार्थ होता है. Perso MINiprary.org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সমরথর সমরমরথথথরথ ८४२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति - प्रन्थ : चतुर्थ अध्याय प्रस्तुत कृति कवि ने सं० १९४५ चैत्र में तैयार की और उसी वर्ष वृंद के वंशज कविवर जयलाल ने विस्तृत टीका"इश्क प्रकाशिका" रची. यहां इतना स्पष्टीकरण कर देना चाहिए कि कतिपय पद्यों की — जैसे अन्न संबंधी — टीका स्वयं जवानसिंहजी ने की है. एक पद्य की उद्धृत टीका से ही इसकी उपादेयता समझ में आ सकती है. टीका में स्वमतपोषणार्थ- गीतगोविंद, भानुदत्त रचित रसतरंगिणी, वात्स्यायन सूत्र की जयमंगला टीका, बिहारी सतसई, नागरीदास का समस्त साहित्य, हरिचरणदास का सभाप्रकाश, उज्ज्वल नीलमणि, गोवर्द्धन कृत सप्तशती, सूरसागर, परमानन्दसागर, भागवत, रसप्रबोध, विद्वन्मंडन, अमरकोश, ८४ वस्णवन की वार्ता, भाषाभूषण, सुबोधिनी और मनुस्मृति आदि अनेक प्रामाणिक ग्रंथों से उद्धरण देकर कृति के सौंदर्य को निखार दिया है. ऐसी मूल्यवान् रचना का प्रकाशन नितान्त वांछनीय है. इसका विवरण इस प्रकार है : अन्त भाग :— सोरठा ब्रज जन जीवन प्रांन हैं इलाहि महवुव नित । कृष्ण करें जिहि ध्यान है अधीन जिनके सदा ||१|| हरि राधा हित रीत मैं विप्रयोग रस सार । तहां प्रीत सोइ प्रेम हैं सोइ इश्क निर्धार ॥२॥ पैंतालीस - उगनीस सें प्रथम चैत्र कजवार । ऋतु वसंत पून्यौं सु तिथि, कीनों ग्रंथ उचार ||३७|| इति श्रीमहाराज जवानसिंहजी कृत जलवय शहनशाह इश्क संपूर्ण ॥ नखशिख-शिखनख - हिन्दी साहित्य में कई कवियों ने नखशिख का भव्य वर्णन प्रस्तुत किया है. जवानसिंह ने भी इस विषय के ग्रंथों में अभिवृद्धि की है. १०४ पद्यों की कृति में भगवान् कृष्ण और उनके समीप रहनेवाले उपकरणों का विशद वर्णन भावपूर्ण भाषा में किया गया है. इस रचना का महत्त्वपूर्ण अंश है - हरिभक्त नाम माला - इस में बैष्णव सम्प्रदाय के सभी कृष्णभक्तों का नामोल्लेख है. अन्वेषकों की सुविधा के लिए नामावली प्रस्तुत की जा रही है : सूरदास, परमानन्ददास, कृष्णदास, कुंभनदास, गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी, नन्ददास, चतुर्भुजदास, गदाधर, हरिदास, हरिवंश, बिहारिनदास, श्रीभट्ट, माधौदास, वृंदावनदास, गोपालदास, रामराय, रामदास, जनरि, घनश्याम, राघौदास, किशोरीदास, विष्णुदास, रघुनाथदास, विठ्ठल, सूरकिशोर, हरिवल्लभ, हृषिकेश, मानचन्द, सूरदास, मदनमोहन, तुलसीदास, कल्यानदास, कृष्णजीवन लच्छीराम, तानसेन, गोविन्ददास, विठ्ठलदास, जन कृष्ण, ठाकुरदास, जन तिलोक, चन्द्रसषी, शिरोमणि चतुरबिहारी, बाल, हरनारायन, स्वामीदास, सगुणदास, ब्रजपति, जननाथ कविराय, दामोदरदास, गरीबदास, धीरजप्रभु, व्यास, अग्रस्वामी, हरिजस्वन, मुकुंद प्रभु चरनदास, राजाराज बल्लभदास, सुंदरवन रघुवीर, लघु गोपाल वल्लभरसिक, आसकरन, ताजखान, धाँधी, रूपसिंह (किशनगड नरेश) बजदासी (किशनगढ़ नरेश राजसिंह की रानी) सांवतसिंह नागरीदास, आनन्दघन, जंगतराय, सुधरराय, जगजोउ, मुरारि घासीराम, पॅम रसिक, जुगलदास, कवि किशोर, अभिलाषी, हित अनूप, विजयसषी, बरसांनिया नागरीदास, दयासषी, नरहरिदास, रसिक सषी, आदि. नखशिख का विवरण इस प्रकार है : नृत्यगोपाल जयति अथ नखशिख - शिखनख महाराजा श्री जवांनसिंहजी कृत लिष्यते Jain Education rational val & Personal Only www.elibrary.org Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त भाग : मुनि कान्तिसागर : अजमेर-समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार ८४३ दोहा जय जय मोहन मुरलिका अधर सुधाकर दान | नखशिख कौं वनर्न करौं धरिकै तेरो ध्यांन ॥ ग्रंथ प्रशस्ति वर्णनम् नगधर कवि बरनन कियो नखशिख-शिखनख लाग । प्रति भूषन बरनन कियो मानहुं उपमा बाग ।। १०३ ।। दिपाली उगनीस से संवत आश्विन तिथि पून्यौं वनर्न कियो यह शृंगार सुरास || १०४ | मास । इति श्रीमन्महाराजाधिराज श्री पृथ्वीसिहजी उद्वितीय पुत्र महाराजा श्रीजवाहिनी कृत नखशिल शिलनल वर्णन संपूर्णम्. संवत १९४६ का पीस मासे शुभे शुक्लपक्षे तिथी ६ वासरे लिखितं ब्राह्मण मथुरादासेन कृष्णगड मध्ये श्रीरस्तु धमार संग्रह — प्रस्तुत कृति का संकलन जवानसिंह ने किया है. इस में निम्न कवियों की १०० धमारें संकलित हैं : "कृष्णजीवन, गोकुलचन्द, चतुर्भुजदास, गोविन्दस्वामी, माधौदास, जगन्नाथ कविराज, सुमति, गदाधर भट्ट, जनकृष्ण, आसकरन, शिरोमणि परमानन्द, सूरदास, जनतिलोक, गोपालदास, छीतस्थामी, विठ्ठल, मुरारिदास, जन रसिकदास, कृष्णदास, राघौदास,. जिस प्रकार जैनाचार्यों की पद्यमय पट्टावलियाँ पाई जाती हैं ठीक उसी प्रकार इनमें से कतिपय धमारों में वल्लभ कुल की पट्टावली दी गई है. इन में से कतिपय तो वल्लभ कुल के क्रमिक इतिहास पर प्रकाश डालती हैं." यज्ञनारायण सिंह जी [राज्य काल सं० १९८३.६५] - ये किशनगढ की सांस्कृतिक परम्परा के अंतिम महाराजा थे. इनके बाद राजवंश में कवित्व प्रतिभा का अन्त सा हो गया. ये स्वयं बड़े अच्छे कवि और प्रतिभावान् व्यक्ति थे. इनने कई स्फुट पद, रसिया और सर्वया आदि लिखे हैं. इनकी कृतियों में केवल भक्तिपक्ष प्रधान नहीं है, साथ ही सैद्धांतिक भावभूमि भी बहुत ही पुष्ट रही है. शावली इनकी सुन्दर और ज्ञातव्यपूर्ण कविता है, मुना गया इनके समय में उत्सवादि खूब हुआ करते थे, बाहर से भी कलाप्रेमियों को अपने यहां आमन्त्रित कर उनका समुचित आदर करते थे. संगीत और साहित्य में इनकी विशेष अभिरुचि रहा करती थी. इनके दो रसिया इस प्रकार हैं : डफ काहे को बजावै छैला घर नेरो जब हौं मिलौंगी रसिया मोहि लरेगी कलह करेगी बहुतेरो । सास ननद सुन लख पावेगी छैला भरम धरेगी ॥ मिलन में बहुत परेगो उरमेरो || यज्ञ पुरुष प्रभु तिहारी नेरो मोहि राख पलंगवारे आव जो पोढो मैं पांव पलोटों विधना ढोरूं रतना रे । अपने हाथन तुमहि जिमाऊं बीच झपट ले नन्दवारे || यज्ञ पुरुष वल्लभ यही सुख दे और लगत फीके सारे । नार्निंग - इनका परिचय प्राप्त नहीं है. केवल अनुमान लगाया जा सकता है कि ये किशनगढ के आश्रित या निवासी रहे होंगे. क्योंकि इनने सं० १७८७ में किशनगढ़ नरेश राजसिंह कृत [?] "राजा पंचानक कथा" की प्रतिलिपि की थी wwwww wwww ww Dainelibrary.org Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www wwww wwwww : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय और उनकी कृति का सम्बन्ध भी अंशतः किशनगढ से जान पड़ता है. नाम के आगे श्वेताम्बर शब्द का प्रयोग भी इन्हें इसी भूखण्ड का प्रमाणित करता है. आगामी पंक्तियों में देखेंगे कि परवर्ती कवि पंचायण ने भी इस शब्द का उपयोग आत्माभिधान के आगे किया है. पर वह जैन धर्मावलंबी प्रतीत नहीं होते जैसा कि ग्रंथों की प्रशस्तियों से सिद्ध है. कवि नानिंग की अज्ञात रचना है 'मजलिस शिक्षा' सभा समितियों का व्यावहारिक ज्ञान इम में संचित है. किस प्रकार की सभा में कैसे लोगों का प्रवेश होना चाहिए और जैसी मंजलिस हो वैसा अपने को बनाने का प्रयत्न करने की ओर कवि का संकेत है. सभाओं के नियमों से अनभिज्ञ एक मोहणोत परिवार का सदस्य देवीदास [जो सम्भवतः किशनगढ का ही निवासी हो ] कवि के साथ ढाका की एक महफ़िल में सम्मिलित हुआ और बेअदबी से लातों का शिकार हो गया. इस प्रसंग पर कवि ने अपने बंगाल के अनुभवों का रोचक वर्णन किया है. बंगाल की सामाजिक स्थिति का सुन्दर चित्र उपस्थित किया है बताया गया हैं बंगाल देश के ढाका नाम के नगर में एक सुन्दर उपवन हैं जिसके मध्य में विशाल सरोवर है, आलीशान मकान बने हुए हैं जिन पर चित्रों का काम राजस्थान के भवनों की चित्रकला का स्मरण कराते हैं. मजलिस शिक्षा के अन्तः परीक्षण से पता चलता है कि संभवतः कवि का वृंद से या उनके पुत्र से अवश्य ही सम्बन्ध रहा होगा, असंभव नहीं उन्हीं के साथ ढाका गया हो, कारण कि वृदने अपनी सतसई वहाँ ही सं० १७६० में समाप्त की. उन दिनों इनका पुत्र वल्लभ भी ढाका में ही था जैसा कि मेरे संग्रहस्थ एक उन्हीं के हाथ से प्रतिलिपित गुटके से प्रमाणित है. मोहोणोत परिवारीय व्यक्ति की चर्चा नानिंग ने की है, किशनगढ में उन दिनों यह परिवार उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित था जैसा कि सं० १७८६ के जैन विज्ञप्ति पत्र से सिद्ध है. किशनगढ के राजकीय सरस्वती ज्ञान भण्डार में इनके हाथ से लिखे ग्रंथों की संख्या पर्याप्त है. इनकी रचना का विवरण इस प्रकार है : Jain Education in ८४४ अन्तः भाग गणेशाय नमः अथ मजलस सिछा लिष्यते दोहा जै जै श्रीब्रजराज जै जै जै नन्दकुमार । जै जै श्रीराधारवन जै जै मदन मुरार ॥१॥ जै जै श्रीगनपति सदा जं जे सरस्वति बांनि । जै जै श्रीगुरुदेव मम जै जै कवि जग आंनि ||२|| सभा सिछा की बारता हौं कछु कहत जताय । *** बुरौ न मांनहिं सुघर नर, समझत भलै बताय || ३ || कवि नानिंग ऐसे कहैं श्रोता सुनहु सुजान । बुरी जु मानौं बात सौं वे मूरष अज्ञांन ||४|| संवत सतरासे निवै भादव मास पुनीत । तिथि चवदसि ससिबार कौं, रच्यौं ग्रंथ जुत नीत ॥१६८॥ इति श्रीमजलस सिछा कवि नानिंग कृत संपूर्ण || शुभं भवतु ।। सं० १७६० में कवि ने कृति समाप्त की. पंचायण- ये अजमेर के निवासी जान पड़ते हैं. इनकी अज्ञात कृति मिली है “मुहूर्त्त कोश" इस लघुतम रचना में सामान्य मुहूर्त्तो का परिचय दिया गया है. कृति हिन्दी कविता में निबद्ध है. प्राचीन कई ऐसी रचनाएं मिल जाती हैं उनका सम्बन्ध तो अपने-अपने विषय से रहता है, पर कभी-कभी उनकी अन्त्य प्रशस्तियों में ऐतिहासिक संकेत बड़े काम के मिल जाते हैं. मुहूर्त्त कोश यद्यपि ज्योतिष से संबद्ध है, पर इसमें अन्त ** *** *** *** 2 www.agelibrary.org Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि कान्तिसागर : अजमेर-समीपवर्ती-क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ८४५ Www भाग में कवि ने अजमेर के निकटवर्ती स्थानों का अच्छा परिचय दे दिया है. वहाँ की प्राकृतिक सुषमा और प्रेक्षणीय स्थानों के अतिरिक्त तत्रस्थ पुरातन जल व्यवस्था पर भी संकेत किया है. तारागढ़ के ऊपर जो पानी पहुंचाने की व्यवस्था थी, उसका कविताबद्धसजीव और सांगोपांग वर्णन इस रचना को छोड़ अन्य कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हुआ. अतः प्रशस्ति का भाग पूरा उद्ध त कर दिया है. कृति का पूरा विवरण इस प्रकार है : मुहूर्त कोश आदि भाग श्रीगणेशाग नमः दोहा विधन विडारन सुषकरन सेवित सकल जिनेस । रिध सिध बर दे रिधु गवरीय नन्द गणेस ॥१।। गुरु सारद नारद समर सिध सनकादि सहाय । सह गण पंडित पय प्रणव मो द्यौ उकत उपाय ।।२।। छंद भंग दीरघ लघु न धरो मो पर रोस । कवि इणसुं लघुता करै करिहूं महूरत कोस ॥३॥ लगन वार ग्रह सात है रिष हैं अठावीस । तिनके नाम जू फेरव तौ हू म करौ रोस ॥४॥ अन्त अथ ग्रन्थ अोपमा कथन सवईया गिरह मैं मेर जैसे ग्रहां पजयर जैसे नागन मैं सै जैसे दनन मैं क्रीता हैं । देवन में इन्द्र जैसे नाषित मैं चन्द्र जैसे जतियन मैं हन जैसे सतीनमैं सीता हैं ।। रूप मैं राम जैसे करतामैं ब्रह्म जैसें ध्याननमै ईस जैसे ज्ञाननमें गीता है । तीरथमैं गंग जैसै सासत्तमैं जैस---------त वदीता है ।।१४।। बाल बुद्धि पिंगल जू लाड रिष तामें रिषनाम हूँ तें देख डरा धरो है । वसन जू वर्ण च्यार पवन अठार दूने में जतना कोय आंकों पोरस में भरा है।। रावत सवाई आंन प्रत अपंड भान सूरन सुभट थाट धनी जिनवरी है ।। कोट गढ नांहि षाई बेरी सब त्रास जाई ऐसौं जू नगर यारौ अंबर अरो है ।। चली नगर अजमेर हू तें पति मिलन चली नाल षाल पूत लेके चली एह लूनी है। षोह द्रह नीर वलें चालत जू वेग चल रूष न उबेरे मूल मारे धर धूंनी है ।। सागी फुनि सूकरी जू दोहू सोक आय दिली रोस जब धर्यो ताम भई रेल दूनी है। नदी के जू एक पार सिवको सुथान सोहै बैठे जडधार संभू देवल पताल जू । वडे वन वाडी बाग धुनि होत जा ल्यावत अनेक लोक फूलन की माला जू ।। आठौं गिन आठौं यांम सेवित सकल ताम देवन को देव एह प्रणमें भूपाल जू । गोरी पुंनि गंग सीस चांद पर चढ्यौ ईस मेटत अनंद अंग टलहें जवाल जू ।।१७।। नगर सौं पच्छिम नौं वनको सघन थांन मारन अढार वृच्छ बड़ी राजधानी है। वनकै जू मध्य ठौर षल नाल ताल भरै झील नर नारी जू जिहां विमल पांनी है। * Son * * * * * a * * was aire * * * Jain EdurenTTI . .. iiiiiiiiiii .... .... . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .. . . . . . . . . . OPIGBAR . . . . . . . . . . . . .10 . . . . . . .1 . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .. . . . . . . . . . . . . . . . . . .. . dy.org . . . . . . ... . . . . . . ... T . . . . . . . Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwww ८४६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय तिनके जू तीर परें सोहत सुभग घोरै चढ़ता जू नांहि सोरे ट्रॅक असमांनी है। धूरको पहार एहमांनौं गिरमें रनसौं ताहिक जू सीस पर षीमज भवानी हैं ||१८|| अचल सोभ दर्षे अबर जू सत र आगम के भेद अर्षे जे कीरत सरजू जू । साष जस कीरत जू बावन ही वीर साध आंनत मिठाई वेग टाल दुष दूर जू ।। कीरत करमचन्द पण्डित जू गोवर्द्धन सीस भए राज मांनी साधु गुन पूर जू । दोनू सीस दोय पंच जू अनोपचन्द राम ही गोपाल भ्रात वाधे नित नूर जू ॥६६॥ ब्रह्मा के वंशमांहि बडे रिष भारद्वाज ताहू के प्रवर तीन माधन की साष है । पढे हैं जजूरवेद तिनके जू गोत पुनि राघव से भट भए वेद मुष आंष है ।। तास सुत नरबद जू सिवकी जू बांचहू तें रहें जाय काशीमें पढ़ें गुन लाष है।। गोविंद सुत चलो जू जोसी जगरूप सुत हरदत्त हीर वीर जोतष को ऑष है ॥२००।। गन बांन ससि नाग ससि संवत १८१५ श्रावन जू सेत पष बीज सनीवार है। मघा वरीयांन जोग बालव करन मांहि सूरज उदै काल घर ही अठार है ।। पत्र पल उपर जू ताहि ससे लग्न अली कुर्कट संक्रान्त गत रुद्र पुनि वार है। पूरन प्रमान कीयौ पंडित जू देष दीयौ मौरत को कौस एक मौरत अपार है ।।२०१॥ दोहा सेतांबर पंचाइणे जोए सगलै जोस । वीरचंद रै वासत कीयौ मौरत कोस ।। २०२।। -इति श्री भाषा मोहरत कोस कवि पंचायण कृत समाप्त. विजयकीर्ति - इस नाम के दिगम्बर जैन-परम्परा में अनेक विद्वान् हुए हैं. उदाहरणार्थ एक तो 'सरस्वती कल्प' के प्रणेता मलयकीत्ति के गुरु. इनका अनुमित समय १४ वीं शताब्दी में है.' 'शृंगारार्णव चन्द्रिका' के रचयिता विजय वर्णी के गुरु जिनका समय संदिग्ध है. तीसरे राजस्थान के ही सुप्रसिद्ध कवि कामराज द्वारा 'जयकुमार आख्यान' में स्मृत. इस प्रकार और भी विद्वानों का पता 'जैन सिद्धान्त भवन, आरा (बिहार) से प्रकाशित 'प्रशस्ति संग्रह' से चलता है. परन्तु यहाँ जिन विजयकत्ति का उल्लेख किया जा रहा है. वह सूचित सभी विद्वानों से भिन्न हैं. इनका संबन्ध स्वर्ण गिरि की भट्टारक परम्परा से रहा है. भट्टारक मुनीन्द्रभूषण के ये ब्रजलाल नामक शिष्य थे. स्वर्णगिरि का संबन्ध ग्वालियर की गद्दी से रहा है. दीक्षित होने पर ब्रजलाल विजयकीत्ति नाम से अभिहित किये गये. इनके वैयक्तिक जीवनपट को आलोकित करनेवाले प्रमाणभूत साधन अनुपलब्ध हैं. कवि ने भी अपनी रचनाओं में स्व-परिचय के प्रति उपेक्षा भाव ही रखा है. इनके शिष्य दयाचन्द और गोकल मुनि ने अपने गुरु की प्रशंसा में एक-एक गीत लिखा है जिससे केवल १. प्रशस्ति संग्रह, संपा० भुजवलीजी शास्त्री, प्रकाशक जैन सिद्धान्त भवन, आरा. २. स्वर्ण गिरि विषयक स्पष्टता अपेक्षित है कारण कि राजस्थान में जालोर का नाम भी वर्णगिरि रहा है, पर सचित स्थान मध्यप्रदेश में अवस्थित है. सोनागिरि के नाम से प्रसिद्ध है. यह सिद्धक्षेत्र है. नंग अनंगकुमारों का निर्वाण स्थान यही है. प्राचीन दिगम्बर जैन साहित्य में इस क्षेत्र की महिमा गाई गई है, विजयकीर्ति के शिष्य पं० भागीरथ मिश्र ने इस तीर्थ की प्राकृतिक छवि और उसके धार्मिक महत्त्व को प्रकाशित करनेवाली 'सोनागिरि पच्च सी' का सं० १८ में प्रणयन किया था. एक समय यह बुदेलखंड का सर्वजनमान्य तीर्थ था. महाराजा छत्रशाल का भी यह श्रद्धाकेन्द्र रहा है. ३. गीत इस प्रकार है अथ जखडी लिप्यते श्रीजी सारद मात मनावरयां कांई लागू गणधर पाय सहेली माहारी हो । गुण गावु श्री गुरु तणां विजयकोत्ति रिखराय सहेली माहारी हो। आजि मेंह सद्गुरु वांदस्यां ।। Jain Education Intemational For private & Personal use only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwww मुनि कान्तिसागर : अजमेर-समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ८४७ इतना ही पता चलता है कि ये मूलतः ग्वालियर मंडलान्तर्गत स्यौपुर के निवासी छावड़ा गोत्रीय सा० हेमराज के पुत्र थे. इनकी माता का नाम वेणी बाई था. गीतकार के कथनानुसार इनने विधिवत् लोचकर मुनि दीक्षा अंगीकार की थी. पांडे दयाचन्द ने प्रस्तुत स्तुति सं० १८२४ में रची। इस समय में विजयकीत्ति का यश:सूर्य मध्याह्न में था. अब तक इनने कई कृतियों का सृजन कर लिया था. २०० से अधिक स्फुट पद लिख चुके थे. कई शिष्यों के गुरुत्व के सौभाग्य से मण्डित हो गये थे. इनके एक शिष्य देवेन्द्रभूषण भी थे जिनके बनाये स्तवन मिलते हैं. कहीं-कहीं गुरुजी का भी स्वल्प उल्लेख कवि ने कर दिया है. दो सूचन महत्त्व के मालूम दिये. एक तो यह कि विजयकीत्तिजी ने सं० १८२१ में वडवाई के निकट बावनगजाजी की और मुक्तागिरि की यात्रा की थी, उस समय देवेन्द्रभूषण इनके साथ थे. दोनों तीर्थों के तात्कालिक वर्णन उस समय की स्थिति का सुन्दर चित्रण समुपस्थित करते हैं. इनके इतने विद्वान् शिष्यों के रहते हुए भी किसी ने सही जानकारी नहीं दी कि ये भट्टारक और बाद में मुनि कब बने ? और अजमेर की गद्दी पर कब आरूढ़ हुए ? इन पंक्तियों के लेखक के संग्रह में वृत्तरत्नाकर की एक हस्तलिखित प्रति है जो सं० १८१६ में विजयकीत्ति के शिष्य सदाराम द्वारा किशनगढ़ के समीप रूपनगर में प्रतिलिपित है, इसकी लेखनपुष्पिका से इतना तो तय है कि सं० १८१६ से पूर्व ग्वालियर से अजमेर पधार गये थे, और इनका धार्मिक शासन अजमेर प्रदेश में भली प्रकार जम चुका था. विजयकीत्ति अजमेर और नागौर से संबद्ध थे. ये परम सारस्वतोपासक रहे जान पड़ता है. परिणामस्वरूप जहां कहीं भी ये स्वयं या उनका शिष्य परिवार पहुंचता वहां ज्ञान भंडार की स्थापना अवश्य ही हो जाती थी. कारण कि शिष्य वर्ग भी सुलेखक और परिश्रमी था. अजमेर का जो दिगम्बर जैन भण्डार है, असंभव नहीं वह विजयकीति की सारस्वतोपासना का परिणाम हो, कारण कि अधिकतर प्रतियों का लेखन दयाराम, भागीरथ, सदाराम और गोकल मुनि द्वारा हुआ है जो सभी विजयकीर्ति के ही शिष्य थे. प्रशस्तियों में विजयकीति का भी उल्लेख प्रमुख ज्ञानागारों के संस्थापकों के रूप में किया है. रूपनगर, भिणाय, मसूदा और चित्तौड़ में ज्ञान-भण्डार स्थापित किये थे. अद्यावधि विजयकीत्ति प्रणीत इन कृतियों का पता लगा है श्रीजी स्यौपुर शोभतो साह हेमराज सुत सार | सहे. लोच करायो जुगत सुश्रीजी छावड़ा वंश वर्माण सहे० ।।२।। श्रीजी मंडल विध पूजा रची रहा हेमराज सुत सार । सहे. कर पहरावणी गुरु तणी फुनि देय भली जमणार सहे०||३|| कर वहण भगवंती को कई माल लई तिण वर सहे० । सां साहि मूलसंग शोभतो काई पूज्यां जिनअवतार सहे० ||४|| श्रीजी लाहण दीन्ही भावसं बाई वेणि कर अधकार सहे। छावडा कुल मैं अपनी कांई काला घरवर नारी सहे. ।।५।। श्रीजी संवत अठारासै चौबीसमें काई जेष्ठ वदि आठसार | सहे। पंडित दयाचन्द इम बीनवै कांई संघ सदा जयकार ।। सहे. ||६|| निज संग्रहस्थ गुटके से उद्धृत. ४. स्यौपुर एक समय जैन संस्कृति का और विशेषकर दिगम्बर-परम्परा का सुप्रसिद्ध केन्द्र था. वहाँ के निवासी रचिशील जैनों ने जैन साहित्य के निर्माण में उल्लेखनीय योग दिया है. यद्यपि वहाँ की साहित्यिक एवम् सांस्कृतिक प्रगति का मूल्यांकन समुचित रूपेण नहीं हो पाया है, पर जो भी वहाँ की रचनाएं प्राप्त हुई है उनसे हिन्दी जैन साहित्य पर नूतन प्रकाश पड़ा है. ग्वालियरी भाषा का साहित्य अधिकतर यहाँ पर ही लिखा गया है. स्यौपुर के गोलापूरब राजनंद के पुत्र धनराज या धनदास ने सं० २६१४ में भक्तामरस्त्रोत का पद्यात्मक हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया था और इसका चित्रण सं० १६१५ में करवाया गया था. जैन स्तोत्र साहित्य में सचित्र कृति यही एक मात्र मानी जाती है. इस कृति का जितना धार्मिक दृष्टि से महत्त्व है उससे भी कहीं तात्कालिक लोककला की दृष्टि से अनुपमेय है. MRID OF ANGO COM JainEduce ww.jamanorary.org Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwww wwww ८४८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय १. चित्र (रचनाकाल सं० १८२७) १५२६) २. कर्णामृतपुराण 33 ३. चंपकश्रेष्ठि व्रतोद्यापन 31 ४. सरस्वती कल्प ५. नेमिचन्द जीवन मेरी साहित्य - शोध - यात्रा में निम्न कृतियां उपलब्ध हुई हैं जो अद्यावधि अज्ञात थीं. भरत बाहुबली संवाद - वस्तुतः यह विजयकीत्ति की मौलिक रचना नहीं हैं. सं० १७०४ भादों सुदि १३ भुसावर ( राजस्थान) में विश्वभूषण मुनि द्वारा रचित "भरत बाहूबली रायोका सुसंस्कृत रूप है जैसा कि वह स्वयं ही इन शब्दों में स्वीकार करते हैं Jain Educatoremations ए संवाद सुधारि लिष्यी है श्रीमुनिराई । विजयकीर्त्ति भट्टारक नागौर सवाई || गढ़ अजमेर सुपाट थाट रचना इह कीनी । विश्वभूषण गति जुनति विरता करि सहि ॥ भरणे भणावे भवि सुण श्रीआदीश्वर भांण । भरथ अवर बाहुबली हो कडखौ सुणत कल्याण ||४४ || गजसुकमाल चरित्र - यह विजयकीर्तिजी की दूसरी मौलिक रचना है. इसमें गजसुकगाल मुनि का आदर्श चरित्र वर्णित है. भले ही यह एक व्यक्ति का चरित्र हो, पर मानवता को कवि ने साक्षात् खड़ा कर दिया है. आत्मौपम्य की प्रशस्त ओर औदार्य भावनाओं का जो चित्रण एक सर्वजनकल्याणकामी संत के माध्यम से समुपस्थित किया गया है, वह आज भी अनुकरणीय अभिनन्दनीय है. आध्यात्मिक साधना में अनुरक्त साधक को कितनी यातनाओं का सामना करना पड़ता है ? पर अन्तर्मुखी जीवन व्यतीत करनेवालों पर बाह्य उत्पीडन का क्या प्रभाव पड़ सकता है ? जीवन में अहिंसा और सत्य की पूर्ण प्रतिष्ठा होने पर संसार की भौतिक शक्ति ऐसी नहीं जो स्व मार्ग से विचलित करा सके. गजसुकमाल महामुनि इसकी प्रतिमूर्ति थे. अहिंसा— उनके जीवन में साकार थी. तभी तो मस्तक पर आग रखे जाने पर भी मुनिवर ने उफ तक न किया, ऐसी थी उनकी आत्मलक्षी तपश्चर्या. कविवर विजयकीत्तिजी ने आध्यात्मिक और भौतिक द्वन्दों का सामयिक परिस्थितियों के प्रकाश में जो विश्लेषण प्रस्तुत किया है वह एक शब्दशिल्पी की स्मृति दिलाता है. कृति का विवरण इस प्रकार है १. विश्वभूषण मुनि प्रणीत अज्ञात रास का अंतिम भाग इस प्रकार है सहर भुसावर मधि राजु जाफरषां सोहै । सोहि काम सौ प्रीति राह रांनां मन मोहे || ता मंत्री भगवानदास सबके सुषदाई | न्याइ नीति वर नृपन जैणसासन अधिकाई || वसै महाजन लोग जी दान मान सनमान एक एक ते आगले राषै सबकौ मांन ||३७|| मूलसंग कुल प्रगट गच्छ सारद मैं राजे । जगतभूषण मुनिराज वाद विद्यापति छाजै || तापट कही सुजान विश्वभूषन मुनिराई । तिन यह रच्यो प्रबन्ध भवि सुनियो मनु लाई || सत्रैहरु चिडोत्तरा भादौ सुदि सुभवार । सुकल पच्छ तेरसि भली गायौ मंगलवार || -निज संग्रहस्थ हस्तलिखित गुटके से उद्धत । विश्वभूषणजी अपने समय के विद्वान् ग्रंथकार थे. इनका विशेष परिचय मैंने अपने "राजस्थान का अज्ञात साहित्य वैभव" नामक ग्रंथ में दिया है. 1 www.janmaniban.org Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्त :--- मुनि कान्तिसागर : अजमेर - समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ८४६ नथ गजसुकमाल चरित्र लिप्यते करसन राज पद भौगव कानुडा देषि देवकी मात रे गिरधारीलाल, मोसम पापिण को नही कानुडा बालक नहि नहि मात रे गिर० ।। धन-धन नरनारि जिके कानुडा गुण गावय विजयकीति इम उच्चरं भणतां नवनिद्धि मुनिराय रे । थाय रे ॥ गिर० ॥ उपर्युक्त कृति में कवि ने रचना समय सूचित नहीं किया है, पर इसका प्रतिलिपि काल सं० १८२३ है अतः इतः पूर्व की रचना असंदिग्ध है. स्फुट पद- दिगम्बर जैन परम्परा में रात्रि के स्वाध्याय के अनन्तर एक पद गाया जाना आवश्यक है. यदि कोई परम स्वाध्यायशील विद्वान् हों तो उनसे अपेक्षा रखी जाती है कि वह नित्य नव्य पद बनाकर स्वाध्याय सभा को अलंकृत करें. विजयकीति की पदसंख्या को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि वह नित्य नवीन पद बनाकर श्रद्धालुओं के सम्यग्दर्शन की पुष्टि में मंगलमय योग देते रहे होंगे. कारण कि इनका पद साहित्य लगभग ५०० तक व्यापक है. भक्ति, नीति, संयम, सदाचार, तीर्थवंदना, गुरुभक्ति आदि अनेक विषयों का इसमें समावेश कर अपनी साधना में औरों को भी सहभागी बनाया है. आश्चर्य इस बात का है कि इतना विराट् जिनका पद साहित्य हो और वह जैनों की दृष्टि से अभी तक ओझल कैसे रहे ? सिद्धान्त और भक्ति के मूल स्वरूपों का सफल प्रतिनिधित्व करनेवाला इनका पदसाहित्य प्रकाश में आना चाहिए. यहां पर मैं एक बात विशेष रूप से कहना चाहता हूं. वह यह कि जैसे कविवर, विद्वान्, ग्रंथकार और संयमशील वृत्ति के प्रतीक थे वैसे ही भारतीय संगीत के भी परम अनुरागी थे. उनका शायद ही कोई पद ऐसा होगा जो शास्त्रीय राग-रागिनियों में निबद्ध न होगा. पदों का संग्रह इनके शिष्य पांडे दयाचंद ने सं० १८२३ में जिस गुटके में किया है वह विजयकीति का निजी गुटका जान पड़ता है. इसमें रागमाला एवम् संगीत के प्रसिद्ध २४ तालों का विशद चार्ट भी प्रतिलिपित है जो कविवर के संगीत विषयक अनुराग का परिचायक है. कवि ने स्वयं भी एक रागमाला का प्रणयन किया है. उदाहरणों में जिनचरित का समावेश किया गया है. कवि के सांस्कृतिक और आदर्श व्यक्तित्व का आभास इन पदों से मिल जाता है. यदि शोध की जाय तो इनके पद और भी मिल सकते हैं. यदि कहा जाय कि दिगम्बर जैन परम्परा में यही एक ऐसे साहित्यसाधक और रुचिशील व्यक्ति अजमेर में हुए हैं जिनका स्थान बाद में रिक्त हो रहा तो कोई अत्युक्ति न होगी. Jai Erucation item o सम्प्रदाय के मुनि भी जसराज भाट - १८-१९वीं शताब्दी में अजमेर की अपेक्षा किशनगढ़ अधिक समृद्ध था. वहां जैनों का प्राबल्य था. सभी सम्प्रदाय आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से सम्पन्न थे. यहां के लूणिया परिवार ने पालीताना सिद्ध क्षेत्र का विशाल संघ निकाला था. जिसमें उपाध्याय क्षमाकल्याण के अतिरिक्त अन्य सम्मलित थे. राजाराम तिलोक शा संघपति थे जसराज भाट ने संघ का विस्तृत वर्णन अपनी नीसांनी में किया है. इसका रचनासमय ज्ञात नहीं है। पर संघ यात्रा कर वापस किशनगढ़ सं० १८६६ में आ गया था. प्रति का लिपिकाल सं० १८६६ और १८७८ का मध्य काल है. जसराज भाट के वैयक्तिक जीवन से सम्बद्ध उल्लेख उपलब्ध नहीं हुए. विद्वत्परिचयार्थ नीसानी का विवरण दिया जा रहा है १. इस गुटके में हर्षकोर्ति सूरि रचित योग चिन्तामणि सटीक (टीकाकार मुनि नरसिंह) प्रतिलिपित है. उन दिनों भट्टारक और इनके शियों पर समाज के स्वास्थ्य और शिक्षा का दायित्व रहता था. अतः आयुर्वेद का ज्ञान उनके लिए नितान्त वांछनीय था. wwww~~~~n Privats & Personal Use Only: Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय राजाराम तिलोकसा लुणिया संघ वर्णन आदि भाग प्रथम पत्र विलुप्त हैचढ़त प्रणांमि संघमैं आये षिमाकल्याण । मुख मंगल अमृत वचन गीतारथ गुणवंत ।। सूत्रसिद्धांत जांण सकल, भाष्या ज्यं भगवंत । वाचक तषत विराजिया, श्रावक था सो आया । वाणी अमृत स्रवनी जलधर बरसाया ।। चाल गजलनी प्ररूप्यो धर्म श्रीजिन भांण विधस होत है व्याख्यान । भरम हर खरतरा भरपूर कीन्हैं कर्म आळु दूर ।। सागरचन्द विध मैं सार भव्यकू करत है उपगार । ज्ञानी बहोत है गम्भीर निरमल जैम गंगा नीर ।। पायचन्दगच्छ रो परमारण राखे जेम राजा राण। चरच्या कारण में लखधीर जैसे बोलिया महावीर ।। अन्त आयां घरो अति नीकौ तपै ओसवंश में टीको । फिरूं किशनगढ़ आया के गुणीयण बहोत गुण गया । छासठ वरस चइत्तर मास आणंद भयौ पूगी आस । आय संघपति घर आय जपता जिनेश्वर को जाप ।। धरमी धरम का धोरी के जैसे गुण तणीयोरी के । जैपूर कपूरचन्द आया के परमानंद सुख पाया के । सिंघवी आदि दै सव संघ आयां घरां उछरंग । सीधां सबी वछति काज जप एम कवि जसराज ॥ कलश सकल काज भए सिद्ध रिद्ध वृद्धि घर आया । राजाराम तिलोकसी संघपति पद पाया ।। पर्चे द्रव्य सिद्धषेत्र लाहो जगत में लिखो। जगडु भाम तेजपाल जैम दान सुपात्रे दिद्धो । नण वषतमल सरूप तणां केतां दांन पूरब कीयो । तीर्थकर पचीसमो रघु नाम अवि अविचल रह्यो । इति श्री रामराज तिलोक सा लूणिया रा संघरी नीसांणी क्रत भाट जसराज की काजीस ।। संवत १८७८ मगसीर वदि ११ लषतुं जसराज अजमेर मध्ये ।। निज संग्रहस्थ गुटके से उद्धृत * * * * * * * salee 3000 OMMONOMela . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . Jain Educa!!! . . . . . . . . . . " . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ... . . . . . . .. . . . । . . . . . . . ....... . . . . . . . . . . Indilv.org . . . . . . . . . . Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि कान्तिसागर अजमेर-समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार १ प्रेम-प्रेमसुख परमसुखराय एक ही व्यक्ति के विभिन्न नाम हैं जैसा कि कृति के अन्तः परीक्षण से विदित है. परमसुखराय तो रचना के प्रारम्भ में, कृति के अंतिम भाग में प्रेमसुख और मध्य में प्रेम' नाम से कवि ने नामाभिव्यक्ति की है. Jain Education m : ये सटोरा निवासी कायस्थ माथुर धगरोटिया किसुनचन्द के पुत्र थे. कायस्थ होने के नाते इन्हें अरबी और फारसी भाषा का पारम्परिक ज्ञान था, विशिष्ट साहित्यिक रुचि के कारण सूचित भाषाओं के गम्भीर ग्रंथों का भी पारायण किया करते थे. राज-कर्म में प्रवीण होने के कारण अजमेर में रहकर कम्पनी सरकार में वकालत का पेशा करते थे. कवि ने आत्मवृत्त देते हुए यह स्वीकार किया है कि बड़े अड़े अंग्रेज इनके बौद्धिक कौशल का लोहा मानते थे. तात्कालिक वरिष्ठ मुकदमों में इनकी उपयोगिता समझी जाती थी. अजमेर में रीयांवाले सेठ के किसी गुमाश्ते ने प्रपंच रचकर सेठ पर २ लाख रुपयों का दावा दायर किया जिसमें ग्रंथकार ने वकालत कर यशोपार्जन किया था. हातमचरित्र की आदिम कुछ पक्तियों में कवि ने अंग्रेज सरकार की— कंपनी - राज की बहुत प्रशंसा की है और अजमेर में उन दिनों लौकिक त्यौहारों पर निकलनेवाली शोभायात्राओं को भी खूब सराहा है. अजमेर की मस्जिदें, मंदिर समीपस्य पुष्करराज तीर्थ सरोवर और कृपादि का भव्य वर्णन प्रस्तुत कर तात्कालिक अजमेर की सामाजिक, 3 धार्मिक एवम् राजनैतिक परिस्थितियों का चित्रण किया है. सूचित " हातमचरित्र" और भागवत - "दशमस्कंध " अनुवाद परमसुखराय की दो अज्ञात रचनाएं हैं जिनका परिचय सर्व प्रथम इस प्रबंध में कराया जा रहा है. कवि ने हातमचरित्र में सूचित किया है कि उनके किसी मित्र ने आग्रह १. बूटी विटपादिधनें फल-फूल लगे सबके मन भाए । वर्षेति भेव सुगर्ज प्रसंन चराचर जोवन के हित आए । पान अनेक सुवस्तु भरें धरनी दधि रत्न सुमुक्ति सुहाए ! प्रेम कहें सत्पुरुषनि को धन इसो हुवे सब ही सुप पाए || २. इस नगर को अवस्थिति का ठीक-ठीक पता नहीं चला है, पर १७-१८ वीं शती के हस्तलिखित ग्रन्थों की पुष्पिकाओं में 'स टोरा' का नाम अवश्य आता है. स्थानकवासी सम्प्रदाय के मुनियों की अधिकतर रचनाओं का सम्बन्ध इस नगर से रहा है. सम्भावना तो यही की जा सकती है उदयपुर और कोटा मंडल में ही इसका अस्तित्व हो. ३. अच्छा होता यदि कवि ने सेठ का नाम भी अंकित किया होता, यांवाले सेठ का सम्बन्ध स्थानकवासी परम्परा से रहा है. मुन्शी देवीप्रसादजी ने अपने 'संवत् १६६८ के दौरे में रीयांवाले सेठों का उल्लेख इस प्रकार किया है. 'पीपाड से एक कोस पर खालसे का एक वड़ा गाँव रीयां नामक है. इसको सेठों को रीयां भी बोलते हैं क्योंकि यहाँ के सेठ पहले बहुत धनवान् थे. कहते हैं कि एक बार महाराजा मानसिंह जी से किसी अंग्रेज ने पूछा था कि मारवाड़ में कितने घर हैं तो महाराज ने कहा था कि ढाई घर हैं. एक घर तो यां के सेठों का है, दूसरा सबलाडे के दीवाना का है और आधे घर में सारा मारवाड़. ये सेठ मोहोत जाति के ओसवाल थे. इनमें पहले रेखाजी बड़ा सेठ था, उसके पीछे जीवनदास हुआ, उसके पास लाखों ही रुपये सैंकड़ों हजारों सिक्के थे. महाराजा विजयसिंहजी ने उसको नगरसेठ का खिताब और एक महीने तक किसी आदमी को कैद कर रखने का अधिकार भी दिया था. जीवनदास के बेटे हरजीमल हुए, हरजोमल के रामदास, रामदास के हमीरमल और हमीरमल्ल के बेटे सेठ चाँदमल अजमेर में हैं. ** *** जीवनदास के दूसरे बेटे गोरवनदास के सोभागमल, सोभागमल के बेटे धनरूपमल कुचामण में थे. जिनकी गोद में अब सेठ चांदमल का बेटा है. सेठ जीवनदास की छत्री गांव के बाहर पूरब को तरफ पोपाड के रास्ते पर बहुत अच्छी बनी है। यह १६ खम्भों की है. शिखर के नीचे चारों तरफ़ एक लेख खुदा है जिस का सारांश यह है सेठ जीवनदास मोहोत के ऊपर छत्री सुत गोरधनदास हरजीमल कराई नींव संवत १८४१ फागुन सुदि १ को दिलाई. कलस माह सुदि १५ सं० १८४४ गुरुवार को चढाया. नागरी प्रचारिणी पत्रिका सं० २६७७, पृष्ठ १६७-८ इनके वहाँ पर एक प्रतापजी नामक कवि के रहने का उल्लेख भी किया गया है. ** ** * wwwww ~ ~ ~ ~ ~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय किया कि कोई कृति की रचना करो जिससे आपका यश स्थायी हो जाय. इतने में हातिमताई की पुस्तक कवि के हाथ लग गई और "हातमचरित्र" नाम से अनुवाद प्रस्तुत कर डाला. कृष्णचरित्र-भागवत के दशमस्कंध के अनुवाद के लिये कोई ऐसी बात नहीं कही, संभव है यह कवि की स्वान्तःसुखाय प्रवृत्ति का परिणाम हो. हातमचरित्र के आदि भाग के आठवें पद्य में परमसुख राय ने बीकानेर के ओसवाल कुलावतंस मेहता मूलचंदजी के पुत्र हिन्दूमल का न केवल उल्लेख ही किया है, अपितु उनके प्रति हार्दिक सद्भाव भी व्यक्त किया है. इनके पूर्वज राजकीय कार्य में परम निपुण थे. हिन्दूमलजी स्वयं कुशल प्रशासक और प्रतिभाशाली वकील थे. सं० १८८४ में बीकानेर राज्य की ओर से वकील के रूप में दिल्ली में रहा करते थे. इनकी बुद्धिमत्ता से न केवल बीकानेर नरेश ही प्रभावित थे, अपितु आंग्ल शासक भी अपने प्रिय और विश्वस्त व्यक्तियों में इन्हें मानते थे. अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि हातमचरित्र और दशमस्कंध के अनुवाद का काल क्या हो सकता है ? कवि पर भी थोड़ा आश्चर्य होता है कि जब उसने ग्रंथानुवाद की पीठिका में ५० से अधिक छंद लिखे हैं, वर्णन भी विस्तार से किया है तो रचनाकाल पर मौन कैसे धारण कर लिया ? पर प्रति में प्रतिलिपिकाल विद्यमान है जिससे रचना समयपरक किंचित् अनुमान को अवकाश है. इसका प्रतिलिपिकाल सं० १८९३ है. कवि की हिन्दूमल से कब और कहाँ भेट हुई यह तथ्य तिमिरातृत है. दोनों समानधर्मा व्यवसायी थे अतः अनुमित है कि अजमेर में ही परिचय हुआ हो और यह घटना सं० १८६३ से पूर्व में घटित हुई है. अन्यान्य ऐतिहासिक साधनों से प्रमाणित है कि उदयपुर के महाराणा ने बीकानेर नरेश रत्नसिंहजी (राज्य काल सं० १८८५-१९०८) से विशिष्ट कार्यवश हिन्दूमलजी को वि० सं० १८६६ में मांगा था, पर परमसुखराय का परिचय इतः पूर्व घनिष्ठ हो चूका था जैसा कि हातमचरित्र से स्पष्ट है. हिन्दूमल द्वारा नांवासर में एकलक्ष मुद्रा व्यय कर मंदिर और दुर्ग निर्माण करवाने का उल्लेख हातमचरित्र में ही मिलता है. कृष्णचरित्र और हातमचरित्र का रचनाकाल सं०१८६३ से पूर्व का है. आगामी पंक्तियों में दोनों कृतियों का विवरण दिया जा रहा है : हातमचरित्र दोहा श्रीगणपति सिधि करन हें विघ्न हरन सुषदाय । तिनके चरन निवाइ सिर कहत परमसुषराय ॥१॥ पुन पद सरसिज सारदा बंदौं प्रीत समेत । कहौं रुचिर पद हित सरस पर उपकारिनि केत ।।२।। सवैया लोचन लोलसुज्योत करहि रसना रस स्वाद रचय सवइ । पुन ज्ञान दोयें हरि रूप लर्षे पद-पंकज बंद अनंदमइ ।। श्रव जीव तवे चुन आदि क्यिो कुचि-क्षीर भरे जब पेट भई । असिस भ्यर्थनाथको नाम लिये मुद मंगल होत जिन्हें नितई । चौपाई मालम यह मुलक सकल सुषरासी, नयर सटोरा के हम वासी। कायथ माथुर जात हमारी धगरोटीया अल्ल अति प्यारी ।। SANpal T imro Jain Ede A Ubrary.org Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि कान्तिसागर : अजमेर-समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ८५३ किसुनचंद पितु धर्म धुरंधर सदावर्त्त हरि-भजन दयाकर । अति सुसील बुधिवंत घनेरा हीराचंद भ्रात वड मेरा ।। अमिल रत्न जिमि अर गुनसागर जगत विदित जस कीति उजागर । महमदसाहि नवाब सु लषकर कंपू सात सवारा बहादर ।। पोतदार तो कते भए मारवार दुढारहि गएं। अह मेवाड़हु देस विसेसा जानत सकल सेठ भा ऐसा ।। अति हुसयार सुबुद्ध प्रवीनां स्यामलाल सुत भगवती दीन्हौं । बीकानेर सुराज सुहायो हिन्दमल वकील मन भायो ।। करे नौकरी तिनकी मनसे रष न और वासता किन सै। मन वच कर्म काज कर सोई स्वामि धर्म ऐसा नहि कोई ।। नांवासेर मंदिर करबायो एकलाष मैं किला वणायो । दुजा गढ टोंक सु तामें सवालाष लग रूपा सुवामें ।। सांभर मैं तीरथ दै दांनी तहाँ मंदर द्विजराज भवानी । सत्य सिधु मन कपट न ताके देई न सक.... . . . . . . .।। दोहा सुषद भ्रात मंझले सरस मानकचन्द सुनाम । घरको कारज ते करे सब सिधि रसप तमाम ।। चौपाई में पढ़ हिन्दी और फारसी सेर कवित मिली आरसी। सव कामिन मैं सजी त्यारी ज्वाब स्वाल में अति हुस्यारी ।। वडनांमी असि सेठ रीयांके वस अजमेर सुवास ह्यांके । राज कंपनी सव सुषदारी अजा-सिंघ जल पिय इक ठाई ।। दोईलाषका दावा तिन पृर कीयौ गुमास्ता जाल वणांकर । ता कारण हमकों बुलवाये भयो निसाफ सेठ सुष पाये ।। लापनिकेर मुकदमा कीनां रहें अदालति मैं जस लीनां । साहिब लोग रहें नित राजी जे इन्साफ मार्ग सुष साजी ।। हातम की किताब हम पाई लिषी फारसी बात सुहाई। करों हिन्दवी यों मन आवा चरित नीर जिमि होइ तलावा ।। अन्त भाग पर हित आपन दुष सहै करे और को काज । ताको साषीं ग्रंथ यही कहा वनौं तिहि राज ।। वरनहुं कहा तिहि राजकों साषी सु सव यह ग्रंथ हैं । जो सुनहीं पर हित नां कर पाषांन ऊर मतिमंद हैं ।। कह प्रैम जगमैं सार दोईक नाम हरि ऊपगार हैं । इक व जीभ से इक सक्तिसों जानै न मुसकल भार हैं ।। सोरठा लेवे तो लेहु राम नाम सोदा सरस । देत वने तो देहु दान मांन उपिगार ।। इति श्रीहातमचरित्र प्रेमसुषकृते सप्तम सवाल. मिति भाद्रवमासे सुक्लपक्षे दोज सोमवासरे संवत १८६३ सम्पूर्ण। (OM Jain Ed Kahilary.org Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educ www www nu nu ८५४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय भागवत दशमस्कंध कृष्णचरित्र आदि अन्त भाग छंद गणपति जु सिद्धिकर रिद्धि सुष नवनिध्य मंगलदायकं । जिहिके सुमिर काज सुभ असि देव हेव सव लायकं ॥ पद कंज बंद अनंद मनकहूं कृष्णचरित्र मनोहरं । भवसिंधू तारन करन पावन देत सों सदगति परं ॥ दोहा सरस्वति चरननि नाइ सिर मांगों बुद्ध रसु सुद्ध । कहाँ चरित श्रीकृष्ण के नवरस सरस प्रसिद्ध || सर्वा पर्वत नील सकल कर कज्जल सिंधुनिकी दावात बनावे | देव विरक्षनि डारनि लेषिनि भूमि सुपत्र विशालउ जावे ।। सारद तास लिषे हिनिसिवासर तो पि न ताको पार न आवे । नेति कहे ते वेद पुरान सु वस्नचरित्र परमसुष पावे || दोहा देषी महिमा प्रथम जो सुमिर सु वार वार । उठ द्रग षोले देष तब, श्रीमुकुंद करतार ॥ सोरठा पुन- पुन माथ नवाइ हाथ जोड़ गदगद गिरा । प्रेम मगन मन भाइ लागै अस्तुति किरन कौ ॥ इति श्री भागवतमहापुराने दशमस्कंधे परमहंस संहितायां वत्सांहरणौ नाम त्रयोदसौध्याय. उपसंहार जैसा कि इस निबंध के प्रारम्भिक अंश में कहा जा चुका है कि विज्ञप्ति और आदेश पत्रों को स्वतन्त्र रचना के रूप में स्थान नहीं दिया है. किशनगढ़ मसूदा और रूपनगर जैन-संस्कृति के केन्द्र रहे हैं. जो भी विद्वान् मुनिराज के सूचित स्थानों में चातुर्मास होते थे वे अपने पूज्य गुरुवर्यों को अपनी ओरसे या श्रीसंघ की ओरसे विस्तृत आमंत्रण-पत्र भिजवाते थे. ये पत्र भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि हैं. आज तो पत्र भी साहित्य की व्याख्या में समाविष्ट हैं, पर उन दिनों के पत्र तो साहित्य, संस्कृति और कला के अन्यतम प्रतीक समझे जाते थे. तात्कालिक महत्त्वपूर्ण राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक बातों का प्रामाणिक उल्लेख ऐसे पत्रों में मिलता है. कतिपय पत्र तो महाकाव्य की संज्ञा से अभिहित किये जा सकते हैं. अजमेर समीपवर्ती क्षेत्र से संबद्ध ऐसे दो पत्रों का उल्लेख करना आवश्यक जान पड़ता है. प्रथम पत्र महोपाध्याय श्री मेघविजयजी का है जिनके जीवन का बहुमूल्य भाग किशनगढ़ में ही व्यतीत हुआ था. इनने कुमारसंभव की पूर्ति स्वरूप एक पाण्डित्यपूर्ण विज्ञप्ति पत्र संस्कृत भाषा में अपने आचार्य के पास सं० १७५६ में भेजा था, F Salsal elalsas SPIES 7Th 1dy.org Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि कान्तिसागर : अजमेर-समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : 855 इसकी एकमात्र प्रति मेरे संग्रह में सुरक्षित है. इसका आजतक कहीं उल्लेख नहीं हुआ है. पत्र स्वलिखित है, इससे इसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है. दूसरा पत्र है कल्याणमंदिर समस्यापूर्ति स्वरूप. यह भी विज्ञप्ति पत्र है जो मसूदा से सं० 1778 में आचार्य श्री क्षमाभद्रसूरि की सेवा में अजबसागर, ईश्वरसागर, अनूपसागर, तथा गोकल, गोदा और वषता की ओर से भेजा गया है. उपर्युक्त मुनिवर अधिकतर सथाणा और मसूदा में रहे हैं. इनकी लिखी और रची कृतियां उपलब्ध हैं. सथाणा से भी अजबसागर ने सं० 1777 में एक संस्कृत भाषा में रचित वार्षिक पत्र प्रेषित किया था, जो मेरे संग्रह में है. रूपनगर के बीसों आदेश पत्र तथा उदयपुर के यतियों पर समय-समय पर वहां के रहनेवाले यतियों द्वारा लिखित पत्रों की संख्या कम नहीं है. ये पत्र उस समय की परिस्थिति के अच्छे निदर्शन तो हैं ही, साथ ही भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से भी उपादेय है. उपर्युक्त पंक्तियों में यथाशक्य जो कुछ भी अज्ञात साहित्यकार और उनकी रचनाओं पर प्रकाश डाला गया है, मेरा विश्वास है कि हिन्दी भाषा की व्यापकता को देखते हुए यदि शोध की जाय तो और भी प्रचुर और नव्य साहित्यिक सामग्री मिलने की पूर्ण संभावना है. विज्ञों से निवेदन है कि वे स्वक्षेत्र के उपेक्षित साहित्यिकों पर अनुसंधान कर नूतन आलोक से सारस्वतों की उज्ज्वल कीत्ति को प्रशस्त बनावें. निबंध में उल्लिखित कवि और उनकी रचनाएं जिनरंगसूरिजी धर्मदत्त चतुःपदी रचनाकाल सं० 1737, किशनगढ़ मेघविजयजी गणि मेघीयपद्धति मानसिंहजी स्फुट-पद राज्यकाल सं० 1700-1763 राजसिंहजी ब्रजविलास रचनाकाल सं० 1788 राजा पंचक कथा रचनाकाल सं० 1787 के पूर्व स्फुट-पद, स्फुट कवित्त ब्रजदासी-बांकावती सालवजुद्ध, आशीष संग्रह रचनाकाल सं० 1783 स्फुट कवित्तादि बिड़दसिंहजी गीतिगोविंद टीका राज्यकाल सं० 1838-1845 कल्याणसिंहजी स्फुट-पद राज्यकाल 1854-98 पृथ्वीसिंहजी " 1897-1936 जवानसिंहजी रसतरंग जल्वये शहनशाह इश्क रचनाकाल सं० 1945 नखशिख-शिखनख "सं० 1946 धमार शतक (संकलन) यज्ञनारायणसिंहजी स्फुट पद, रसिया राज्यकाल सं० 1983-65 नानिंग मजलिस शिक्षा रचनाकाल सं० 1760 पंचायण मुहूर्त कोश रचनाकाल सं० 1815, अजमेर विजयकीत्तिजी भरत बाहुबली संवाद रचनाकाल सं० 1823 के पूर्व अजमेर गज सुकमाल चरित्र जसराज भाट राजाराम तिलोकसी संघ नीसानी रचनाकाल सं० 1878 के पूर्व निबंध में प्रयुक्त सभी हस्तलिखित ग्रन्थों को प्रतियां लेखक के निजी संग्रह की हैं. 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