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सुनि कान्तिसागर : अजमेर-समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ८३५
अन्त:
दोहा यह प्रसंग ऐसौ कह्यौ मैं मो मति उपमांन । कृष्ण सुजस कौं कहि सके ऐसौ कौंन सुजान ॥१६६।। तामैं मो मति मंद है अरु अति चित्त अजान ।१७०।। यह विचार कीनों सु मैं गुरु कृपा उर आँन । कृपासिंधु तुम जुगल हो कीजै मो हिय बास । ब्रजदासी बिनती करत यह धरि हिय में आस ॥१७१।। निगमबोद यमुना तटे उत्तर दिसि के ठांहि । यह पोथी कीनी लिखी इन्द्रप्रस्थ के मांहि ।।१७२।। संवत सतरा सै समैं बरस तियास्यो मान । मंगसर वदि एकादशी मास चैत सुभ जान ।।१७३।।
॥ इति श्री सालवजुद्ध सम्पूर्ण ।। इसकी रचना सं० १७८३ में दिल्ली में निगमबोध घाट पर हुई. इस प्रतिलिपि का काल सं० १७८७ है.
आशीष संग्रह : यह नाम मैंने दिया है. वस्तुत: इसका नाम क्या रहा होगा ? नहीं कहा जा सकता, कारण कि कृति अपूर्ण ही उपलब्ध हुई है. इसमें विवाह के प्रसंग पर भिन्न-भिन्न जातियों द्वारा दी जानेवाली आशीर्वादमूलक वचनावलियों का संग्रह है, इसीलिए यह नाम रख लिया गया है. खण्डित प्रति में मालनी, चित्रकार, चितेरी, गंधी, गंधिनी, नायण, दरजण, तंबोलण, ढाढी, ढाढण, ग्वालन, भांडण, रंगरेजन, कुंभारी, मनिहारन और मेहतरानी की आशीषों का संकलन है. कतिपय पद्यों में ब्रजदासी का नाम भी आया है
ब्रजदासि प्रांन किय वारन,
कह जु बजदासियं बसो जु ध्यान वासियं, —मालण की आशीस,
भई वारनै कुवरि पद बार-बार ब्रजदासी, –चतेरा की देवा की आशीष,
दासी निज सुन्दर मन, –ढांढण के देवा की आशीष,
ब्रजदासी पावै यहै जुगल भगति की चाही –ढाढी के पढवा की वंशावली, पाठकों की जानकारी के लिए एक आशीष उद्घ त करना समुचित होगा----
अथ चतेरे की देवाकी श्राशीष
छंद भुजंगी नृपं भांनकै आज उछव अपार भई हैं कुवारं लडेती उदारं । लजें मेघ ऐसे जबे हैं जिसानं तिहु लौक आनन्द छायो अमानं ।। बधाई बधाई बरसांन छाई लली होत सोभा रवि बंस पाई। दए दांन ऐसे महाराज भानं भए हैं कंगालं नृपालं समानं ।।
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