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२३६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
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पढे चारणं भाट बाहं उभारं लहै नेग नेगी विना वार पारं । सुनी बात येहं जब नंदराय सबै गोकलं हर्ष बाढ्यौ अथाहं ।। रणंबास जुक्तं बरसांन आए भयौ चित्त चाह्यौ बजे है बधाए । जुथं-जुत्थ गोपी नृपं द्वार आवै करं भेट लीनै महा सोभ पावै ।। चलै धाय धायं सुरंजी लगावै चितं मोद छाई हसँ औ हसावै । मिले नंद भानं भए हैं षसालं मिल्यो मेल चाह्यौ रंगीनं रसालं ।। बरसांन मांनी दुधं मेह वर्षे धन्यं कीत्तिकुषेतिहु लोक हर्षे । दधि दूध को दोम च्यों भान ठाम, रमैंक जमकै करें खेल षामं ।। बड़े भाग नेगी यह द्यौस पायौ लली द्वै कुलं को कलसं चढायौ । भई स्यांम ते है लली की सगाई सुनौं सासरे पीहरं सोभ पाई ।। अब ह विबाहं लली लाल केरो वृषभांनि हों सुकृतं जन्म केरो।
दोहा अब वह दिन कब होय जब महारंग की भीर ।
बैठे दंपति सेज पं देषि रचौं तसबीर ।। स्फुट कविता-सं० १७८७ के गुटके में "बांकी" छाप के कतिपय कवित्त प्रतिलिपित हैं. ये सब बांकांवती के ही जान पड़ते हैं. इनकी संख्या ६ है. आगे स्थान छुटा हुआ है. संभव है प्रतिलिपि करते समय छूट गये हों, एक कवित्त उद्धृत किया जा रहा है
नैन पिया के लगे तित ही उतही अबलं मन आप ढरौंगी। काजर टीकी करौं तिहंकी सषि सौतिन सौं कछु लाजि डरोगी ।। 'बांकी' रहौ सब ही जगसौं लषि प्रीतम कौं नित चित्त ठरौंगी ।
वाहि रची सुरुची हम हूं हौतौ प्यारे की प्यारी सौं प्यार करौंगी। सुदरकुवरी बाई-ये उपर्युक्त बांकावती की पुत्री थी इनका जन्म सं १७६१ कार्तिक शुक्ला ६ को हुआ था. यह भी अपने माता पिता के समान कवित्व-प्रतिभा से मंडित थी. तात्कालिक राजकीय वैषम्य के कारण २१ वर्ष तक अविवाहित रहीं. सं० १८१२ में इनका विवाह रूपनगर के खीचीवंशीय राजकुमार बलवंतसिंह के साथ सम्पन्न हुआ. पर दुर्भाग्य ने इनका साथ नहीं छोड़ा. पितृगृह तो क्लेश का स्थान था ही पर अब तो स्वसुर-गृह भी अशान्ति का केन्द्र बन गया, कारण कि इनके (पति ?) सिंधिया सरदारों द्वारा बन्दी बना लिए थे. बाद में मुक्त करवा दिये गये थे. इनकी प्राप्त समस्त रचनाओं का विवरणात्मक परिचय डा० सावित्री सिन्हा ने अपने 'मध्यकालीन हिन्दी कवयित्रियाँ' नामक शोध प्रंबंध में दिया है. वहाँ ग्रन्थ-रचना काल विषयक कतिपय भ्रांन्तियां हो गई हैं जिनका परिमार्जन प्रसंगवश कर देना आवश्यक जान पड़ता है. इसके पहिले मैं सूचित कर दूं कि सन् १९५४ में जब ग्वालियर में था तब वहाँ के साहित्यानुरागी श्री भालेरावजी के संग्रह में एक बड़ा चौपड़ा देखने में आया था जिसमें सुन्दरकुंवरि बाई के समस्त ग्रंथ प्रतिलिपित थे. मैंने उनका विवरण ले लिया, उसी के आधार पर यहाँ संशोधन प्रस्तुत किया जा रहा है. उपर्यक्त शोध-प्रबन्ध में भावनाप्रकाश का रचनाकाल सं० १८४५ माना गया है जो ठीक नहीं जान पड़ता, ग्वालियर वाली प्रति में प्रणयन समय सं १८४६ बताया गया है
संवत यह नव दनसैं गुणंचास उपरंत । साकै सत्रहसैरु पुनि चउदह लहौ गनंत ॥
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