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धन्त :---
मुनि कान्तिसागर : अजमेर - समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ८४६ नथ गजसुकमाल चरित्र लिप्यते
करसन राज पद भौगव कानुडा देषि देवकी मात रे गिरधारीलाल, मोसम पापिण को नही कानुडा बालक नहि नहि मात रे गिर० ।।
धन-धन नरनारि जिके कानुडा गुण गावय विजयकीति इम उच्चरं भणतां नवनिद्धि
मुनिराय रे । थाय रे ॥ गिर० ॥
उपर्युक्त कृति में कवि ने रचना समय सूचित नहीं किया है, पर इसका प्रतिलिपि काल सं० १८२३ है अतः इतः पूर्व की रचना असंदिग्ध है.
स्फुट पद- दिगम्बर जैन परम्परा में रात्रि के स्वाध्याय के अनन्तर एक पद गाया जाना आवश्यक है. यदि कोई परम स्वाध्यायशील विद्वान् हों तो उनसे अपेक्षा रखी जाती है कि वह नित्य नव्य पद बनाकर स्वाध्याय सभा को अलंकृत करें. विजयकीति की पदसंख्या को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि वह नित्य नवीन पद बनाकर श्रद्धालुओं के सम्यग्दर्शन की पुष्टि में मंगलमय योग देते रहे होंगे. कारण कि इनका पद साहित्य लगभग ५०० तक व्यापक है. भक्ति, नीति, संयम, सदाचार, तीर्थवंदना, गुरुभक्ति आदि अनेक विषयों का इसमें समावेश कर अपनी साधना में औरों को भी सहभागी बनाया है. आश्चर्य इस बात का है कि इतना विराट् जिनका पद साहित्य हो और वह जैनों की दृष्टि से अभी तक ओझल कैसे रहे ? सिद्धान्त और भक्ति के मूल स्वरूपों का सफल प्रतिनिधित्व करनेवाला इनका पदसाहित्य प्रकाश में आना चाहिए.
यहां पर मैं एक बात विशेष रूप से कहना चाहता हूं. वह यह कि जैसे कविवर, विद्वान्, ग्रंथकार और संयमशील वृत्ति के प्रतीक थे वैसे ही भारतीय संगीत के भी परम अनुरागी थे. उनका शायद ही कोई पद ऐसा होगा जो शास्त्रीय राग-रागिनियों में निबद्ध न होगा. पदों का संग्रह इनके शिष्य पांडे दयाचंद ने सं० १८२३ में जिस गुटके में किया है वह विजयकीति का निजी गुटका जान पड़ता है. इसमें रागमाला एवम् संगीत के प्रसिद्ध २४ तालों का विशद चार्ट भी प्रतिलिपित है जो कविवर के संगीत विषयक अनुराग का परिचायक है. कवि ने स्वयं भी एक रागमाला का प्रणयन किया है. उदाहरणों में जिनचरित का समावेश किया गया है. कवि के सांस्कृतिक और आदर्श व्यक्तित्व का आभास इन पदों से मिल जाता है. यदि शोध की जाय तो इनके पद और भी मिल सकते हैं. यदि कहा जाय कि दिगम्बर जैन परम्परा में यही एक ऐसे साहित्यसाधक और रुचिशील व्यक्ति अजमेर में हुए हैं जिनका स्थान बाद में रिक्त हो रहा तो कोई अत्युक्ति न होगी.
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सम्प्रदाय के मुनि भी
जसराज भाट - १८-१९वीं शताब्दी में अजमेर की अपेक्षा किशनगढ़ अधिक समृद्ध था. वहां जैनों का प्राबल्य था. सभी सम्प्रदाय आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से सम्पन्न थे. यहां के लूणिया परिवार ने पालीताना सिद्ध क्षेत्र का विशाल संघ निकाला था. जिसमें उपाध्याय क्षमाकल्याण के अतिरिक्त अन्य सम्मलित थे. राजाराम तिलोक शा संघपति थे जसराज भाट ने संघ का विस्तृत वर्णन अपनी नीसांनी में किया है. इसका रचनासमय ज्ञात नहीं है। पर संघ यात्रा कर वापस किशनगढ़ सं० १८६६ में आ गया था. प्रति का लिपिकाल सं० १८६६ और १८७८ का मध्य काल है.
जसराज भाट के वैयक्तिक जीवन से सम्बद्ध उल्लेख उपलब्ध नहीं हुए. विद्वत्परिचयार्थ नीसानी का विवरण दिया जा रहा है
१. इस गुटके में हर्षकोर्ति सूरि रचित योग चिन्तामणि सटीक (टीकाकार मुनि नरसिंह) प्रतिलिपित है. उन दिनों भट्टारक और इनके शियों पर समाज के स्वास्थ्य और शिक्षा का दायित्व रहता था. अतः आयुर्वेद का ज्ञान उनके लिए नितान्त वांछनीय था.
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