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नमो नमो निम्मलदंसणस्स बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथाय नमः पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरूभ्यो नमः
आगम-३३
वीरस्तव __आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद
अनुवादक एवं सम्पादक
आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी
[ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ]
आगम हिन्दी-अनुवाद-श्रेणी पुष्प-३३
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आगम सूत्र ३३, पयन्नासूत्र-१०, 'वीरस्तव'
आगमसूत्र-३३- 'वीरस्तव' पयन्नासूत्र-१०- हिन्दी अनुवाद
कहां क्या देखे?
क्रम
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श्रमण भगवान महावीर-विशेषणादि । ०५ - २ | विशेषण आश्रित स्तवना
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (वीरस्तव), आगम सूत्र-हिन्दी अनुवादः
मुनि दीपरत्नसागर कृत्-(वीरस्तव)- आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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आगम सूत्र ३३, पयन्नासूत्र-१०, 'वीरस्तव'
४५ आगम वर्गीकरण सूत्र
क्रम
आगम का नाम
सूत्र
क्रम आगम का नाम ०१ आचार ०२ सूत्रकृत्
अंगसूत्र-१
२५ | आतुरप्रत्याख्यान
पयन्नासूत्र-२
अंगसूत्र-२
२६
०३
स्थान
अंगसूत्र-३
२७
| महाप्रत्याख्यान
भक्तपरिज्ञा | तंदुलवैचारिक संस्तारक
पयन्नासूत्र-३ पयन्नासूत्र-४ पयन्नासूत्र-५
०४
समवाय
अंगसूत्र-४
२८
०५
अंगसूत्र-५
२९
पयन्नासूत्र-६
भगवती ज्ञाताधर्मकथा
०६ ।
अंगसूत्र-६
पयन्नासूत्र-७
उपासकदशा
अंगसूत्र-७
पयन्नासूत्र-७
अंतकृत् दशा ०९ अनुत्तरोपपातिकदशा
अंगसूत्र-८ अंगसूत्र-९
३०.१ | गच्छाचार ३०.२ चन्द्रवेध्यक ३१ | गणिविद्या
देवेन्द्रस्तव वीरस्तव
पयन्नासूत्र-८ पयन्नासूत्र-९
३२ ।
१० प्रश्नव्याकरणदशा
अंगसूत्र-१०
३३
अंगसूत्र-११
३४
| निशीथ
११ विपाकश्रुत १२ औपपातिक
पयन्नासूत्र-१० छेदसूत्र-१ छेदसूत्र-२
उपांगसूत्र-१
बृहत्कल्प व्यवहार
राजप्रश्चिय
उपांगसूत्र-२
छेदसूत्र-३
१४ जीवाजीवाभिगम
उपागसूत्र-३
३७
उपांगसूत्र-४ उपांगसूत्र-५ उपांगसूत्र-६
छेदसूत्र-४ छेदसूत्र-५ छेदसूत्र-६
४०
उपांगसूत्र-७
दशाश्रुतस्कन्ध ३८ जीतकल्प ३९ महानिशीथ
आवश्यक ४१.१ ओघनियुक्ति ४१.२ | पिंडनियुक्ति ४२ | दशवैकालिक ४३ उत्तराध्ययन ४४
नन्दी अनुयोगद्वार
मूलसूत्र-१ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-२
१५ प्रज्ञापना १६ सूर्यप्रज्ञप्ति १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति
| जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति १९ निरयावलिका
कल्पवतंसिका २१ | पुष्पिका
| पुष्पचूलिका २३ वृष्णिदशा २४ चतु:शरण
उपागसूत्र-८
उपांगसूत्र-९ उपांगसूत्र-१० उपांगसूत्र-११ उपांगसूत्र-१२ पयन्नासूत्र-१
मूलसूत्र-३ मूलसूत्र-४ चूलिकासूत्र-१ चूलिकासूत्र-२
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आगम सूत्र ३३, पयन्नासूत्र-१०, 'वीरस्तव'
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मुनि दीपरत्नसागरजी प्रकाशित साहित्य आगम साहित्य
आगम साहित्य साहित्य नाम बुक्स क्रम साहित्य नाम
बुक्स मूल आगम साहित्य:1476 आगम अन्य साहित्य:
10 -1- आगमसुत्ताणि-मूलं print [49] | -1-माराम थानुयोग
06 1-2- आगमसुत्ताणि-मूलं Net [45] -2- आगम संबंधी साहित्य
02 | -3- आगममञ्जूषा (मूल प्रत) [53] |-3-ऋषिभाषित सूत्राणि
01 2 | आगम अनुवाद साहित्य:
165 -4- आगमिय सूक्तावली -1- सागमसूत्र गुराती अनुवाद [47] आगम साहित्य- कुल पुस्तक
516 -2- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद Net [47] -3- Aagamsootra English Trans. | [11] -4- सामसूत्र सटी १४सती अनुवाद [48]| -5- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद print
| [12]
अन्य साहित्य:आगम विवेचन साहित्य:
171 તત્ત્વાભ્યાસ સાહિત્ય
13 -1-आगमसूत्र सटीक
[46]| 2 સૂત્રાભ્યાસ સાહિત્ય
06 1-2- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-1 [51]| 3 व्या२। साहित्य-
al
05 -3-आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-2 [09]| 4
વ્યાખ્યાન સાહિત્ય
04 1-4- आगम चूर्णि साहित्य [09] 5 हलत साहित्य
09 --5- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-1 [40] 6 साहित्य|-6- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-2
આરાધના સાહિત્ય -7- सचूर्णिक आगमसुत्ताणि [08]| परियय साहित्यआगम कोष साहित्य:
9 | પૂજન સાહિત્ય-1- आगम सद्दकोसो
[04] 10 तार्थ६२ संक्षिप्त र्शन |-2- आगम कहाकोसो [01] | 11ही साहित्य
05 -3-आगम-सागर-कोष:
[05] 12 | દીપરત્નસાગરના લઘુશોધનિબંધ
05 -4- आगम-शब्दादि-संग्रह (प्रा-सं-गु)
[04]|
આગમ સિવાયનું સાહિત્ય કૂલ પુસ્તક आगम अनुक्रम साहित्य:-1- सागम विषयानुभ- (भूत)
02 | 1-आगम साहित्य (कुल पुस्तक) 516 -2- आगम विषयानुक्रम (सटीक)
| 2-आगमेतर साहित्य (कुल 085 -3-आगम सूत्र-गाथा अनुक्रम
दीपरत्नसागरजी के कुल प्रकाशन | 601 MAR मुनि दीपरत्नसागरनुं साहित्य भुनिटीपरत्नसागरनुं मागम साहित्य [इस पुस्त8 516] तेना इस पाना [98,300]
भुमिहीपरत्नसागरनुं अन्य साहित्य [ पुस्त: 85] तना हुदा पाना [09,270] 3 मुनिहीपरत्नसागर संग्रसित 'तत्त्वार्थसूत्र'नी विशिष्ट DVD तेनाल पाना [27,930]
अभाश प्राशनोहुल 5०१ + विशिष्ट DVD हुल पाना 1,35,500
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आगम सूत्र ३३, पयन्नासूत्र-१०, 'वीरस्तव'
[३३] वीरस्तव पयन्नासूत्र-१०- हिन्दी अनुवाद
सूत्र-१
जगजीव बन्धु, भविजन रूपी कुमुद को विकसानेवाला, पर्वत समान धीर ऐसे वीर जिनेश्वर को नमस्कार करके उन्हें प्रगट नाम के द्वारा मैं स्तवन करूँगा। सूत्र- २-३
अरुह, अरिहंत, अरहंत, देव, जिन, वीर, परम करुणालु, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, समर्थ, त्रिलोक के नाथ वीतराग केवली, त्रिभुवनगुरु, सर्व त्रिभुवन वरिष्ठ भगवन् तीर्थंकर, शक्र द्वारा नमस्व सूत्र-४
वर्धमान, हरि, हर, कमलासन प्रमुख नाम से जड़मति ऐसा मैं सूत्रानुसार यथार्थ गुण द्वारा स्तवन करूँगा। सूत्र-५
भवबीज समान अंकुर से हुए कर्म को ध्यान समान अग्नि द्वारा जलाकर फिर से भव समान गहन वन में न ऊगने देनेवाले हो इसलिए हे नाथ ! तुम 'अरूह' हो । सूत्र-६
तिर्यंच के घोर उपसर्ग, परीषह, कषाय पैदा करनेवाले शत्रु को हे नाथ ! तुमने पूरी तरह से वध कर दिया है इसलिए तुम अरिहंत हो। सूत्र -७
उत्तम ऐसे वंदन, स्तवन, नमस्कार, पूजा, सत्कार और सिद्धि गमन की योग्यता वाले हो जिस कारण से तुम अरहंत' हो। सूत्र-८
देव, मानव, असुर प्रमुख की उत्तम पूजा को तुम योग्य हो, धीरज और मान से छोड़े हुए हो इसलिए हे देव तुम अरहंत हो। सूत्र - ९
रथ-गाड़ी निदर्शित अन्य संग्रह या पर्वत की गुफा आदि तुमसे कुछ दूर नहीं है इसलिए हे जिनेश्वर तुम अरहंत हो। सूत्र-१०
जिसने उत्तम ज्ञान द्वारा संसार मार्ग का अंत करके, मरण को दूर करके निज स्वरूप समान संपत्ति पाई है इसलिए तुम अरहंत हो। सूत्र - ११
मनोहर या अमनोहर शब्द आप से छिपे नहीं हैं और फिर मन और काया के योग के सिद्धांत से रंजित किया है इसलिए तुम अरहंत हो । सूत्र - १२
देवेन्द्र और अनुत्तर देव की समर्थ पूजा आदि के योग्य हो, करोड़ों मर्यादा का अंत करनेवाले को शरण के योग्य हो इसलिए अरहंत हो ।
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आगम सूत्र ३३, पयन्नासूत्र-१०, 'वीरस्तव' सूत्र-१३
सिद्धि के संग से दूसरे मोहशत्रु के विजेता हो, अनन्त सुख, पुण्य परिणति से परिवेष्टित हो इसलिए देव हो सूत्र - १४
राग आदि वैरी को दूर करके, दुःख और क्लेश का समाधान किया है यानि निवारण किया है । गुण आदि से शत्रु को आकर्षित करके जय किया है इसलिए हे जिनेश्वर ! तुम देव हो । सूत्र - १५, १६
दुष्ट ऐसे आठ कर्म की ग्रंथि को प्राप्त धन समूह को दूर किया है उत्तम मल्लसमूह को आकलन करके तप से शुद्ध किया । मतलब तप द्वारा कर्म समान मल्ल को खत्म किया है इसलिए तुम वीर हो ।
प्रथम व्रत ग्रहण के दिन इन्द्र के विनयकरण की ईच्छा का निषेध कर के तुम उत्तम मुनि हुए इसलिए तुम महावीर हो। सूत्र - १७
चल रहे या नहीं चल रहे प्राणी ने आपको दुभाए या भक्ति की, आक्रोश किया या स्तुति की । शत्रु या मित्र बने, तुमने करुणा रस से मन को रंजित किया इसलिए तुम परम कारुणिक (करुणावाले) हो । सूत्र- १८
दूसरों के जो भाव-सद्भाव या भावना जो हए - जो होंगे या होते हैं उस ज्ञान द्वारा तुम जानते हो - कहते हो इसलिए तुम सर्वज्ञ हो। सूत्र-१९
समस्त भुवन में अपने-अपने स्वरूप में रहे सामान्य, बलवान् या कमझोर को (तुम देखते हो) इसलिए तुम सर्वदर्शी हो। सूत्र-२०
कर्म और भव का पार पाया है या श्रुत समान जलधि को जानकर उसका सर्व तरह से पार पाया है इसलिए तुमको पारग कहा है। सूत्र - २१
वर्तमान, भावि और भूतवर्ती जो चीज हो उसको हाथ में रहे आँबला के फल की तरह तुम जानते हो इसलिए त्रिकालविद हो। सूत्र - २२
अनाथ के नाथ हो । भयंकर गहन भवन में रहे हए जीव को उपदेश दान से मार्ग समान नयन देते हो इसलिए तुम नाथ हो। सूत्र - २३
प्राणीओं के चित्त में प्रवेश करनेवाली अच्छी तरह की चीज का राग-रति उस रागरूप को पुनःदोष रूप से समझाया है या विपरीत किया है मतलब कि राग दूर किया है इसलिए वीतराग हो । सूत्र- २४
कमल समान आसन है इसलिए हरि-इन्द्र हो । सूर्य या इन्द्र प्रमुख के मान का खंडन किया है इसलिए शंकर हो । हे जिनेश्वर ! एक समान मुख आश्रय तुमसे मिलते हैं वो भी तुम ही हो । सूत्र-२५
जीव का मर्दन, चूर्णन, विनाश भक्षण, हत्या, हाथ-पाँव का विनाश, नाखून, होठ का विदारण, इस कार्य का जिसका लक्ष्य या आश्रयज्ञान है।
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आगम सूत्र ३३, पयन्नासूत्र-१०, 'वीरस्तव' सूत्र- २६
अन्य कुटिलता, त्रिशुल, जटा, गुरूर, नफरत, मन में असूया गुणाकारी की लघुता ऐसे कईं दोष हो । सूत्र - २७
ऐसे बहुरूप धारी देव तुम्हारे पास बसते हैं तो भी उसे विकार रहित किए, इसलिए तुम वीतराग हो । सूत्र - २८
सर्वद्रव्य के प्रति पर्याय की अनन्त परिणति स्वरूप को एक साथ और त्रिकाल संस्थित रूप से जानते हो इसलिए तुम केवली हो। सूत्र - २९
___ उस विषय से तुम्हारी अप्रतिहत, अनवरत, अविकल शक्ति फैली हुई है । रागद्वेष रहित होकर चीजों को जाना है । इसलिए केवली कहलाते हो । सूत्र-३०
जो संज्ञी पंचेन्द्रिय को त्रिभुवन शब्द द्वारा अर्थ ग्राह्य होने से उनको सद्धर्म में जो जोड़ते हो अर्थात् अपनी वाणी से धर्म में जुड़ते हैं इसलिए तुम त्रिभुवन गुरु हो । सूत्र-३१
प्रत्येक सूक्ष्म जीव को बड़े दुःख से बचानेवाले और सबके हितकारी होने से तुम सम्पूर्ण हो । सूत्र-३२
बल, वीर्य, सत्त्व, सौभाग्य, रूप, विज्ञान, ज्ञान में उत्कृष्ट हो । उत्तम पंकज में निवास करते हो (विचरते हो) इसलिए तुम त्रिभुवनमें श्रेष्ठ हो । सूत्र-३३
प्रतिपूर्ण रूप, धन, कान्ति, धर्म, उद्यम, यशवाले हो, भयसंज्ञा भी तुमसे शिथिल हुई है इसलिए हे नाथ ! तुम भयान्त हो। सूत्र - ३४
यह लोक परलोक आदि सात तरह के भय आपके विनष्ट हुए हैं । इसलिए हे जिनेश ! तुम भयान्त हो । सूत्र-३५
चतुर्विध संघ या प्रथम गणधर समान ऐसे तीर्थ को करने के आचारवाले इसलिए तुम तीर्थंकर हो । सूत्र-३६
इस प्रकार गुण समूह से समर्थ ! तुम्हें शक्र भी अभिनन्दन करे तो इसमें क्या ताज्जुब? इसलिए शक्र से अभिवंदित हे जिनेश्वर ! तुम्हें नमस्कार हो । सूत्र - ३७
मनःपर्यव, अवधि, उपशान्त और क्षय मोह इन तीनों को जिन कहते हैं । उसमें तुम परम ऐश्वर्यवाले इन्द्र समान हो इसलिए तुम्हें जिनेन्द्र कहा है। सूत्र-३८
___ सिद्धार्थनरेश्वर के घरमें धन, कंचन, देश-कोश आदि तुमने वृद्धि की इसलिए हे जिनेश्वर तुम वर्द्धमान हो । सूत्र-३९
कमल का निवास है, हस्त तल में शंख चक्र, सारंग (की निशानी) है । वर्षीदान को दिया है । इसलिए हे जिनवर तुम विष्णु कहलाते हो।
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आगम सूत्र ३३, पयन्नासूत्र-१०, 'वीरस्तव' सूत्र-४०
तुम्हारे पास शिव-आयुध नहीं है और तुम नीलकंठ भी नहीं तो भी जीव की बाह्य-अभ्यंतर (कर्म) रज को तुम हर लेते हो इसलिए तुम हर (शीव) हो । सूत्र - ४१
कमल समान आसन है । चार मुख से चतुर्विध धर्म कहते हैं । हंस अर्थात् ह्रस्वगमन से जानेवाले हो इसीलिए तुम ही ब्रह्मा कहलाते हो । सूत्र - ४२
समान अर्थवाले ऐसे जीव आदि तत्त्व को सबसे ज्यादा जानते हो । उत्तम निर्मल केवल (ज्ञान-दर्शन) पाए हुए हो इसलिए तुम्हें बुद्ध माना है। सूत्र - ४३
श्री वीर जिणंद को इस नामावलि द्वारा मंदपुन्य ऐसे मैंने संस्तव्य किया है । हे जिनवर ! मुज पर करुणा करके हे वीर ! मुजे पवित्र शीवपंथ में स्थिर करो।
३३ वीरस्तव-प्रकिर्णक-१० का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (वीरस्तव) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवादः
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________________ आगम सूत्र 33, पयन्नासूत्र-१०, 'वीरस्तव' नमो नमो निम्मलदंसणस्स પૂજ્યપાદ્ શ્રી આનંદ-ક્ષમા-લલિત-સુશીલ-સુધર્મસાગર ગુરૂભ્યો નમ: 33 वीरस्तव आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद [अनुवादक एवं संपादक आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि] AG 211892:- (1) (2) deepratnasagar.in भेत ड्रेस:- jainmunideepratnasagar@gmail.com भोना 09825967397 मुनि दीपरत्नसागर कृत्-(वीरस्तव)- आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 9