Book Title: Aagam 31 GANIVIDHYAA Moolam evam Chhaayaa
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१] श्री गणिविया (प्रकीर्णक)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । "गणिविद्या” मूलं एवं छाया [मूलं एवं संस्कृतछाया] [आदय संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा.।। (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) | 15/01/2015, गुरुवार, २०७१ पौष कृष्ण १० jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[३१], प्रकीर्णकसूत्र-[८] "गणिविया' मूलं एवं संस्कृतछाया ___ ~ ~ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३१) प्रत सूत्रांक [ दीप अनुक्रम [-] “गणिविद्या” - प्रकीर्णकसूत्र - ८ ( मूलं + संस्कृतछाया) - मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [३१] प्रकीर्णकसूत्र [०८] "गणिविद्या" मूलं एवं संस्कृतछाया 'गणिविद्या' प्रकीर्णक (८) श्रीआगमोदयसमितिग्रन्थोद्धारे, पूर्वमुद्रितग्रन्थाङ्कः-४५, अयं ग्रन्थाङ्कः-४६. श्रुतस्थविरसूत्रितं । चतुःशरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं (छायायुतम् ) प्रकाशकः - श्री आगमोदयसमितेः कार्यवाहकः शवेरी वेणीचंद सूरचंद इदं पुस्तकं मोहमय्यां निर्णयसागरमुद्रणालये कोलभावीयां-२६-२८ तमे गृहे रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रापयित्वा प्रकाशितम् । वीर [सं० २४५३. गणिविद्या प्रकीर्णकसूत्रस्य मूल “टाइटल पेज” विक्रम सं० १९८३. ~1~ सन १९२७ [ वेतन रु. २-०-० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका: ८२ 'गणिविद्या' प्रकीर्णकसूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: ८२ मलाक: | गाथा: । पृष्ठांक: मूलांक: गाथा: । पृष्ठांक: | मूलांक: गाथा: पृष्ठांक: ००४ । ००१ । ०४१ । ०५६ | प्रथम दिवस-दवारम् । ००४ चतुर्थ करण-द्वारम् ००९ सप्तमं शकुनबलं-द्वारम् । ०११ । द्वितियं तिथि-द्वारम् पंचमं ग्रह-द्वारम् अष्टमं लग्न-द्वारम् । ००४ ०१० । ०१२ ०११ । ०४८ । ०६९ | तृतीयं नक्षत्र-द्वारम् । ००५ षष्ठं मुहूर्त-द्वारम् नवमं निमित्तबलं-द्वारम् | ०१३ ०६१ | मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३१], प्रकीर्णकसूत्र - [८] "गणिविद्या" मूलं एवं संस्कृतछाया Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['गणिविद्या' - मूलं एवं संस्कृतछाया| इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “चतु:शरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं नामसे सन १९२७ (विक्रम संवत १९८३) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इस प्रतमे १० प्रकीर्णक थे. इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और संपादकपूज्यश्री तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र या गाथा के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र या गाथा चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन-भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३१], प्रकीर्णकसूत्र - [०८] "गणिविद्या" मूलं एवं संस्कृतछाया । ~ 3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३१) “गणिविद्या” - प्रकीर्णकसूत्र-८ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [१]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३१], प्रकीर्णकसूत्र - [०८] "गणिविद्या" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत १० प्रकी दिवसबकेषु लादि गणिवि ॥ अह गणिविजापइण्णयं ॥८॥ द्यायां बुच्छं बलाबलविहिं नववलविहिमुत्तमं विउपसत्थं । जिणवयणभासियमिण पवयणसस्थम्मि जह दिल wani ॥१॥८४७॥ दिवस १ तिही २ नक्खत्ता ३ करण ४ ग्गहदिवसया ५ मुहत्तं च ६। सउणपलं ७ लग्गवलं 41 Kा निमित्तपल ९ मुत्समवावि ॥२॥८४८॥ होरायलिआ दिवसा जुण्हा पुण दुबला उभयपक्खे । विवरीयं|81 दोराईसु य बलाबलविहिं बियाणाहि ॥३॥८४९॥ दारं ॥ पाडियए पडिवत्ती नत्थि विवत्ती भणति बीआए। तइयाए अत्यसिद्धी विजयग्गा पंचमी भणिया ॥ ४॥ ८५०॥ जा एस सत्तमी सा उ बहुगुणा इस्थ संसओ SURGEONSE सूत्रांक ||१|| दीप अनुक्रम अथ गाणे विद्याप्रकीर्णकम् ॥ ८॥ वक्ष्ये बलाबलविधि नववलविध्युत्तमं विद्वत्प्रशस्तं । जिनवचनभाषितमिमं प्रवचनशाने यथा | दृष्टम् ॥ १॥ दिवसाः १ तिथयो २ नक्षत्राणि ३ करणानि ४ प्रहदिवसाः ५ मुहूर्त च । ६ शकुनवलं ७ लपवलं ८ निमित्तबल PIS मुत्तममपि च ॥ २॥ होराबलिका दिवसा ज्योत्स्ना पुनर्दुर्वला उभयपक्षयोः । विपरीतं रात्रिषु च बलाबलविधि विज्ञानीहि ॥ ३॥ 11॥ ७० ॥ प्रतिपदि प्रतिपत्तिालि द्वितीयायां विपत्ति भणन्ति । नृतीयायामर्थसिद्धिं विजयामा पठामी भणिता ॥ ४ ॥ येषा सप्तमी सा तु बहु JANGatihani अथ दिवस एवं तिथि-द्वारम् वर्णयेते ~ 4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३१) “गणिविद्या” - प्रकीर्णकसूत्र-८ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [५]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३१], प्रकीर्णकसूत्र - [०८] “गणिविद्या" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत RA-SM सुत्राक ||५| नधि । दसमीइ पत्थियाणं भवति निकंटया पंथा ॥५॥ ८५१ ॥ आरुग्गमविग्घं खेमियं च इकारसिं वियाणादि । जेऽवि ह हंति अमित्ता ते तेरसि पिट्टओ जिणइ ॥६॥ ८५२॥ चाउद्दर्सि पन्नरसिं वजिजा अट्ठमि | |च नवमि च । छढि चउत्थि वारसिं च दुहपि पक्खाणं ॥ ७॥ ८५३ ॥ पढमीपंचमि दसमी पनरसिकारसी|विय तहेव । एएसु य दिवसेसुं सेहे निक्खमणं करे ॥ ८॥ ८५४ ॥ नंदा भद्दा विजया उच्छा पुन्ना य पंचमी होइ । मासेण य छवारे इशिकायत्तए नियए ॥९॥८५५ ॥ नंदे जए य पुन्ने, सेहनिक्खमणं करे । नंदे भरे सुभदाचे, पुन्ने अणसणं करे ॥१०॥ दारं ॥८५६ ॥ पुस्सऽस्सिणिमिगसिररेवई य हत्थो तहेव चित्ता य। अणुराहजिट्ठमूला नव नक्खत्ता गमणसिद्धा ।। ११ ।। ८५७॥ मिगसिर महा य मूलो विसाहा तहेव हो |अणुराहा । हत्थुत्तररेवहअस्सिणी य सवणे य नक्खत्ते ॥ १२ ॥ ८५८॥ एएसु य अद्धाणं परवाणं ठाणयं | गुणाऽत्र संशयो नास्ति । दशम्या प्रस्थितानां भवन्ति निष्कण्टकाः पन्थानः ॥ ५॥ आरोग्यमविघ्नं क्षेमं चैकादश्यां विजानीहि । यान्यपि | च भवन्त्यमित्राणि तानि त्रयोदश्यां पृष्ठतो जयति (प्रस्थाता) ॥ ६ ॥ चतुर्दशी पूर्णिमा वर्जयेदष्टमी च नवी च । पष्ठी चतुर्थी द्वादशी | च द्वयोरपि पक्षयोः ।। ७ ॥ प्रतिपत् पञ्चमी दशमी पूर्णिमैकादृश्यपि च तथैव । एतेषु च दिवसेषु शिष्यो निष्क्रमणं कुर्यात् ॥ ८॥ नन्दा भद्रा विजया तुच्छा पूर्णा च पञ्चमी भवति । मासेन च पड़वारा एकैकाऽऽवर्तते नियताः ॥ ९॥ नन्दायां जयायां पूर्णायां च | शैक्षस्य निष्कमणं कुर्यात् । नन्दायां भद्रायां च मण्डयेत् पूर्णायां चानशनं कुर्यात् ॥ १०॥ पुष्योऽश्विनी भृगशिरो रेषती प हस्तस्तथैव चित्रा च । अनुराधा ज्येष्ठा मूलं नव नक्षत्राणि गमनसिद्धानि ॥ ११ ॥ मृगशिरो मघा च मूलं विशाखा तथैव भवत्यनुराधा । हतो । दीप अनुक्रम 6-* Interstinaamanand wjaratiharan अथ नक्षत्र-द्वारम् वर्णयते ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३१) प्रत सूत्रांक ||93|| दीप अनुक्रम [१३] "गणिविद्या" प्रकीर्णकसूत्र-८ (मूलं संस्कृतछाया) मूलं [१३]---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ३९ ], प्रकीर्णकसूत्र - [०८] "गणिविद्या" मूलं एवं संस्कृतछाया १० प्रकी र्णकेषु ८ गणिवि द्यायां ॥ ७१ ॥ Estam ....... च कायवं । जइ य गहुत्थं न चिट्ठ संझामुकं च जइ होइ ।। १३ ।। ८५९ ।। उप्पन्न भन्तपाणो अद्धाणम्मि सया उ जो होइ । फलपुष्फोवगवेओ गभषि खेमेण सो एइ || १४ || ८६० || संज्ञागयं रविगयं विरं | सग्गहं विलंबिं च । राहुगयं गहभिन्नं च वज्जए सनक्खते ।। १५ ।। ८६१ ।। अत्थमणे संज्ञागप रविगय जहियं ठिओ उ आइचो । विरमवहारिय सग्गह करग्गहठियं तु ॥ १६ ॥ ८६२ ॥ आइपिओ से विलंबि राहूह जहिं गहणं । मज्झेण गहो जस्स उ गच्छ तं होइ गभिन्नं ॥ १७ ॥। ८६३ ॥ संागपम्मि कलहो होइ विवाओ विलंबिनक्खत्ते। विदुरे परविजओ आइचगए अनिवाणी ॥ १८ ॥ ८६४ ॥ जं सग्गहम्मि कीरह नक्खसे तत्थ निग्गहो होई। राहुहयम्मि य मरणं गहभिने सोणिग्गाले ॥ १९ ॥। ८६५ ॥ संज्ञायं तरा रेवती अश्विनी च श्रवणं च नक्षत्राणि ॥ १२ ॥ एतेषु चाध्या प्रस्थानं स्थानं च कर्त्तव्यम् । यदि च ग्रहणमत्र न तिष्ठति सन्ध्यामुक्तं च यदि भवति ॥ १३ ॥ उत्पन्नभक्तपानोऽध्वनि सदा तु यो भवति । फलपुष्पोपगोपेतः फलपुष्पाणि गौरिव ) गतोऽपि क्षेमेण स एति ॥ १४ ॥ सन्ध्यागतं रविगतं विड्वेरं समहं विलम्बि च राहुगतं महमिन्नं वर्जयेत्सर्वनक्षत्रेषु ॥ १५ ॥ अस्तमयेन सन्ध्यागतं यत्र तु आदित्यः स्थितस्तद्रविगतम् । अवदीर्णे विड्वेरं क्रूरमहस्थितिमत् सग्रहम् ॥ १६ ॥ आदित्यपृष्ठतः यत् सद्विलम्बि यत्र प्रहणं तद्रादुहतम् । यस्य मध्येन महो गच्छति तद्भवति प्रभिन्नम् ॥ १७ ॥ सन्ध्यागते कलहः भवति विवादो विलम्बिनक्षत्रे । बिडेरे पर - विजय: आदित्यगते अनिर्वाणी ( परमदुःखम् ) ॥ १८ ॥ यत् समद्दे क्रियते नक्षत्रे तत्र निप्रहो भवति । राहुहते च मरणं प्रभिन्ने शोणितोद्वारः ॥ १९ ॥ सन्ध्यागतं राहुगतमादित्यगतं च दुर्बलमृक्षम् । सन्ध्यादिचतुर्विमुक्तं महमुक्तं चैव बलिष्ठानि ॥ २० ॥ Rate the Oy ~6~ तिथिनक्षत्रमले ॥ ७१ ॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३१) “गणिविद्या” - प्रकीर्णकसूत्र-८ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [२०]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३१], प्रकीर्णकसूत्र - [०८] "गणिविद्या" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२०|| 18 राहुगयं आश्चगयं च दुन्यलं रिक्खं । संझाइचउविमुकं गहमुक्कं चेव बलियाई ॥२०॥८६६ ॥ पुस्सो हत्थो अभीई य, अस्सिणी भरणी तहा । एएसु य रिक्वेसुं, पाओवगमणं करे ॥ २१ ॥ ८६७ ॥ सवणेण धणिहाइ पुणवसू नवि करिव निक्खमणं । सयभिसयपूसर्थभे (हत्ये) विजारंभे पवित्तिजा ॥२शा८३८॥ मिगसिर अहा। पुस्सो तिन्नि धणिट्ठा पुणबसू रोहिणी । पुस्सो (१)॥ २३ ॥ ८६९॥ पुणवसूणा पुस्सेण, सवणेण धणिट्ठया । एएहिं चउरिक्खेहि, लोयकम्माणि कारए ॥ २४ ॥ ८७० ॥ कित्तियाहि चिसाहाहिं, मघाहिं भरणीहि य । एएहिं चउरिक्खेहि, लोयकम्माणि वजए ॥ २५ ॥ ८७१ ॥ तिहिं उत्तराहिं। रोहिणीहिं कुजा उ सेहनिक्खमणं । सेहोवट्ठावणं कुज्जा, अणुन्ना गणिवायए ॥ २६ ॥ ८७२ ॥ गणसंगहणं है कुज्जा, गणहरं चेव ठावए । उग्गहं वसहिं ठाणं, थावराणि पवत्तए ॥२७॥ ८७३ ॥ पुस्सो हस्थो अभिहत पुप्यो हस्तोऽमिजिदश्विनी भरणी तथा । एतेषु प नक्षत्रेषु पादपोपगमनं कुर्यात् ॥२५॥ अवणे धनिष्ठायां पुनर्वसौ नैव कुर्यान्निष्कमणम् ।। शतभिषक्ष्य हस्तेषु विद्यारम्भं प्रवर्तयेत् ॥ २२ ॥ (मिगसिर अद्दा पुस्सो तिन्नि य पुब्बाइ मूलमस्सेसा । हत्यो चित्ता य तहा दस | बुड़िकराई नाणस्स ) मृगशिर आर्द्रा पुष्यं तिस्रश्च पूर्वाः मूलमश्लेषा । हस्तश्चित्रा च तथा दश घृद्धिकराणि शानस्य ।। | ॥२३ ॥ पुनर्वसौ पुष्ये श्रवणे घनिष्टायाम् । एतेषु चतुर्यु नक्षत्रेषु लोचकर्म कारयेत् ।। २४ ॥ कृत्तिकायां विशाथायां मपायां || भरणौ च । एतेषु चतुर्प नक्षत्रेषु लोचकर्म वर्जयेत् ॥ २५ ॥ त्रिपूत्तरासु रोहिण्यां च कुर्यात् शैक्षस्य निष्क्रमणम् । शैक्षोपखापनं कुर्यात् | अनुज्ञां गणिवाचकयोः ॥ २६ ॥ गणसंग्रहं कुर्यात् गणधरं चैव खापयेत् । अवपई वसति स्थानं च स्थावराणि प्रवर्तयेत् ॥ २७ ॥ पुष्यो त दीप अनुक्रम [२०] 445637 Janthaatibiminati l Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३१) “गणिविद्या” - प्रकीर्णकसूत्र-८ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [२८]----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३१], प्रकीर्णकसूत्र - [०८] "गणिविद्या" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२८|| १० प्रकी-1 अस्सिणी य तहेव य । चत्तारि क्खिप्पकारीणी, कजारंभ सोहणा ॥ २८॥ ८७४ ॥ विजाणं धारणं कुमानक्षत्रवलं र्णकेषु भजोगे य साहए । समायं च अणुम्नं च, उसे प समुदिसे ॥ २९ ॥ ८७५ ॥ अणुराहा रेवई चेव, चित्ता ८गणिवि-मिगसिरं तहा । मिऊनियापि चत्तारि, मिउकम्मं तेसु कारए ॥ ३०॥ ८७६ ॥ भिक्खाचरणमसाणं, कुलाते द्यायां गहणधारणं । संगहोवग्गहं चेत्र, पालवुहाण कारए ॥ ३१ ॥ ८७७ ॥ अद्दा अस्सेस जिट्ठा य, मूलो चेव चउ-10 दास्थओ । गुरूणो कारए पडिम, तबोकम्मं च कारए ॥ ३२॥ ८७८॥ दिषमाणुसतेरिच्छे, उबसग्गाहियासए । गुरू सुचरणकरणो, जग्गहोवम्गहं करे ।। ३३ ।। ८७९॥ महा भरणिपुवाणि, तिति उग्गा विवाहिया। एएस तवं कुज्जा, सम्भितरवाहिरं च ॥ ३४ ॥ ८८० ॥ तिन्नि सयाणि सट्टाणि, तपोकम्माणि आहिया । पग-| नक्खसजोएसुं, तेसुमन्नंतरे करे ॥ ३५ ॥ ८८१ ॥ कित्तिया य विसाहा प, उम्हा एयाणि दुन्नि उ । लिंपणं हस्तोऽभिजित् अश्विनी च तथैव च । चत्वारि क्षिप्रकणि कार्यारम्भेषु शोभनानि ॥ २८ ॥ विद्यानां धारणं कुर्यात् ब्रह्मयोगांश्च है साधयेत् । स्वाध्यायं चानुज्ञां च उद्देशं च समुदेशम् ।। २९ ।। अनुराधा रेवती चैव चित्रा मृगशिरस्तथा । मृदून्येतानि चत्वारि मृदुकर्म तेषु कारयेत् ॥ ३०॥ मिक्षाचरणमार्शनां कुर्याद् महणधारणम् । सद्दादोषप्रहं चैव बालवृद्धानां कुर्यात् ॥ ३१ ॥ आऽश्लेषा ज्येष्ठा द्र मूलं चैव चतुर्थम् । गुरोः कारयेत् प्राधिमा तपःकर्म च कारयेत् ।। ३२ ॥ दिव्यमानुष्यतैरश्वान् उपसर्गानण्यासीत । गुरुः चरणसुकरणयोरुगृहोपप्रहं कुर्यात् ॥ ३३ ॥ मघा भरणी पूर्वाणि श्रीणि उमाणि व्याख्यातानि । एतेषु तपः कुर्यात् साभ्यन्तरवाह्यम् ॥३४॥ त्रीणि ॥७२॥ शतानि षष्टानि तपःकर्माण्याख्यातानि । उपनक्षत्रयोगेषु तेषामन्यतरत् कुर्यात् ।। ३५ ॥ कृत्तिका विशाखा व उष्णे एते द्वे तु । लेपनं दीप अनुक्रम [२८] JIMERustiniamasantNeil ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३१) प्रत सूत्रांक ||३६|| दीप अनुक्रम [36] "गणिविद्या" प्रकीर्णकसूत्र-८ (मूलं संस्कृतछाया) मूलं [३६])]---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ३९ ], प्रकीर्णकसूत्र - [०८] "गणिविद्या” मूलं एवं संस्कृतछाया च. स. १३ Estim सीवर्ण कुजा, संधारुग्गहधारणं ॥ ३६ ॥ ८८२ ॥ उवकरण भंडमाईणं, विवायं चीवराणि य । उवगरणं विभागं च आयरियाणं तु कारए || ३७ ॥ ८८३ || धणिट्टा सयभिसा साई, सवणो य पुण्वसू । एएस गुरुसुस्मृसं, चेइयाणं च पूयणं ॥ ३८ ॥ ८८४ ॥ सज्झायकरणं कुज्जा, विजार (विरहूं च कारए । वओवद्वावणं कुना, अणुनं गणिवायए ॥ ३९ ॥ ८८५ || गणसंग्रहणं कुजा, सेहनिक्खमणं करे । संगहोवराहं कुवा, गणावच्छेइयं तहा ॥ ४० ॥ दारं || ३ || ८८६ ॥ बब १ वालवं च २ तह कोलवं च ३ धीलोयणं ४ गराई च ५। वणियं ६ विट्टी य तह ७ सुद्धपडिवए निसाईया ॥ ४१ ॥ ८८७ || सउणि चउप्पय नागं किंथुग्धं च करणा धुवा हुंति । किण्हचउदसरति सउणी पडिवज्जए करणं ॥ ४२ ॥ ८८८ || काऊण तिहिं विकणं जुण्हगे सोहए न पुण काले। सप्तहिं हरिज भागं सेसं जं तं भवे करणं ॥ ४३ ॥ ८८९ ॥ यये य बालवे चैव, कोलवे सीवनं कुर्यात्संस्तारो पद्दधारणम् ।। ३६ ।। उपकरणभाण्डादीनां विवादं चीवराणि च उपकरणं विभागं च आचार्यैः कारयेत् ||३७|| धनिष्ठा शतभिषक् स्वातिः श्रवणं पुनर्वसुः । एतेषु गुरुशुश्रूषां चैत्यानां च पूजनम् ॥ ३८ ॥ स्वाध्यायकरणं कुर्यात् विद्यां विरतिं च कारयेत्। प्रतोपस्थापनं कुर्यात् अनुज्ञां गणिवाचकयोः ॥ ३९ ॥ गणसंग्रहणं कुर्यात् शैक्षनिष्क्रमणं कुर्यात्। सङ्घदोपग्रहं कुर्याद् गणावच्छेदिकां तथा ||४०|| ववं वालवं च तथा कोलवं च स्त्रीलोचनं गरादि च । वणिक् विष्टिश्व तथा प्रतिपन्निशादिकानि ॥४१॥ शकुनिचतुष्पदं नागं किंस्तु च करणानि ध्रुवाणि भवन्ति । कृष्ण चतुर्दशीरात्रौ शकुनिः प्रतिपद्यते करणम् ।। ४२ ।। कृत्वा तिथिं द्विगुणां ज्योत्स्ने शोधयेत् न पुनः कृष्ये । सप्तभिर्हरेद् भागं शेषं यत्तद् भवेत्करणम् ॥ ४३ ॥ यवे च बालवे चैव कौलवे वणिजि तथा । नागे चतुष्पदे चापि शैवनि I अथ करण द्वारम् वर्णयते Fate Use Oy ~9~ jaiting Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३१) “गणिविद्या” - प्रकीर्णकसूत्र-८ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [४४]------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३१], प्रकीर्णकसूत्र - [०८] "गणिविद्या" मूलं एवं संस्कृतछाया घायां प्रत सूत्रांक ||४४|| विवणिए तहा। नागे चउप्पए यावि, सेहनिक्खमणं करे ॥ ४४ ॥ ८९० ॥ यवे ज्वट्ठावणं कुज्जा, अणुन्नं गणि-12 नक्षत्रकरकेषु तषायए । सउणीमि य विट्ठीए, अणसणं तस्थ कारए ॥ ४५ ॥ दारं ॥ ४ ॥ ८९१ ॥ गुरुमुक्कसोमदिवसे, सेह- णमुहूर्ताः ८ गाणवि निक्खमण करे । पोषट्ठावर्ण कुखा, अणुनं गणिवायए ॥ ४६॥ ८९२॥ (र)विभोमकोण(ड)दिवसे, चर-1 अणकरणाणि कारए । तवोकम्माणि कारिजा, पाओवगमणाणि य॥४७॥ दारं ॥५॥ ८९३ ॥ रुदो उ मुहु॥७३॥ साणं आई एसयाअंगुलच्छाओ। सेओख हवइ सही पारसमित्तो वह जुत्तो॥४८॥ ८९४ ॥ छच्चेव य आरभडो सोमित्तो पंचअंगुलो होइ । चत्सारि य वइरिजो दुश्चेव य सावसू होह ।। ४९ ॥ ८९५ ॥ परिमंडलो समुहत्तो असीवि ममंतिते ठिए होइ । दोहोइ रोहणो पुणबलो य चउरंगुलो होइ ॥५०॥ ८९६ ॥ विजउ शुपंचंगुलिओ छच्चेव य नेरिओ हवइ जुत्तो। वरुणो य हवइ बारस अजमदीवा हवह सट्ठी ।। ५१ ॥ ८९७ ॥ दिकमणं कुर्यात् ॥४४॥ बवे प्रतोपस्थापनं कुर्याद् अनुज्ञां गणिवाचकयोः । शकुनौ च विष्टौ अनशनं तत्र कारयेत् ॥ ४५ ॥ गुरुशुक्सोम-16 दिवसेपु शैक्षनिष्कमणं कुर्यात् । प्रसोपस्थापनं कुर्याद् अनुज्ञां गणिव चकयोः ॥ ४६॥ रविभीमकौर(शनि )विवसे घरणकरणानि कुर्यात् । तपःकर्माणि कारयेत् पादपोपगमनानि च ॥ १७ ॥ रुद्रस्तु मुहूर्सानामादिः षण्णवत्यलच्छायः । श्रेयांस्तु भवति षष्टिादश मित्रो भवति युक्तः ॥ ४८ ॥ षट् चैवारभA: सौमित्रः पञ्चाङ्गुलो भवति । चत्वारि च वैरेयः (वायव्यः) द्वावेव च सर्वसुः (सुप्रतीतः) भवति ।। ४९ ॥ परिमण्डलो मुहूर्तोऽसिरपि मध्याहे स्थिते भवति । द्वौ भवति रोहणः पुनर्बली चतुरङ्लो भवति ॥ ५० ॥ विजयः ॥ ७३ ।। दीपश्चाङ्गलिकः पद चैव नैऋतो भवति युक्तः । वरुणश्च भवति द्वादश अर्यमद्वीपो भवतः षष्टिः ॥५१॥ षण्णवतिरकुलानि, पते दिवस-15 दीप अनुक्रम [४४] JAMERananathaiana अथ ग्रह एवं मुहूर्त-वारम् वर्णयेते ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३१) “गणिविद्या” - प्रकीर्णकसूत्र-८ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [५२]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३१], प्रकीर्णकसूत्र - [०८] "गणिविद्या" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||५२|| छन्नउइ अंगुलाई । एसा (ए) दिवसमुहुत्ता रत्तिमुटुत्ता वियाहिया। दिवसमुहुत्तगईए छायामाणं मुणेयर्छ ॥५२॥ ॥८९८ ॥ मित्ते नंदे तह सुटिए य, अभिई चंदे तहेब या । वकणग्गिवेसईसाणे आणंदे विजए इय ॥५३॥ 31॥८९९ ॥ एएस मुहुत्तजोएसु, सेहनिक्खमणं करे । बउवट्ठावणाई च, अणुना गणिवापए ॥५४॥९००॥18 पंभे वलए चाउम्मि उसमे वरुण तहा । अणसणपाउवगमणं, उत्तमटुंच कारए ॥५५॥ दारं ॥ ६ ॥९०१॥ |पुन्नामधिजसउणेसु, सेहनिक्खमणं करे । पीनामेसु सउणेसु, समाहिं कारए विऊ ।। ५६ ॥ ९०२॥ नपुंस[एसु सउणेसु, सबकम्माणि वजए । वामिस्सेसु निमित्तेसु, समारंभाणि बजए ॥ ५७॥९०३ ॥ तिरियं वाह-18 रंतेसु, अदाणागमणं करे । पुफियफलिए वच्छे, सज्झायं करणं करे ।। ५८ ॥९०४ ॥ दुमखंधे पाहरतेसुद सेहुवट्ठावणं करे । गयणे वाहरतेसु, उत्तमहं तु कारए ॥ ५९॥९०५॥ विलमूले वाहरंतेसु, ठाणं तु परिगि-12 मुहूर्ता रात्रिमुहूर्ताच व्याख्यानाः । दिवसमुहूर्त्तगया छायामानं ज्ञातव्यम् ॥ ५२ ॥ मित्रे (३) नन्दे (१६) तथा सुस्थिते (५) च अमि| जिति (७) चन्द्रे (4) । वारुणा (१५) भिवेश्ययोः (२२) ईशाने (११) आनन्दे (१६) विजये (१७) इति ।। ५३ ॥ एतेषु मुहूर्तयोगेषु | शैक्षनिष्क्रमणं कुर्यात् । व्रतोपस्थापनानि च अनुज्ञा गणिवाचकयोः ।। ५४ ॥ ब्रह्मणि (९) बलये (८) वायौ (३) वृषभे (२८) वरुणे (१५) तथा । अनशनपादोपगमने उत्तमार्थ च कारयेत् ।। ५५ ॥ पुंनामधेयशकुनेषु शैक्षनिष्कमणं कुर्यात् । स्त्रीनामसु शकुनेषु समाधि | कारयेद् विद्वान् ॥ ५६ ।। नपुंसकेषु शकुनेषु सर्वकर्माणि वर्जयेत् । व्यामिश्रेषु निमितेषु सर्वारम्भान वर्जयेत् ॥ ५७ ॥ तिर्यगू व्याहरत्सु अध्वगमनं कुर्यात् । पुष्पितफलिते वृक्षे स्वाध्यायं कियां च कुर्यात् ।। ५८ ॥ ठुमस्कन्धेषु व्याहरत्सु शैक्षोपरखापनं कुर्यात् । गगने म्याह-10 A दीप अनुक्रम [१२] G JIMEReatinaatmasata अथ शकुन-द्वारम् वर्णयते ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३१) “गणिविद्या” - प्रकीर्णकसूत्र-८ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [६०]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३१], प्रकीर्णकसूत्र - [८] "गणिविद्या" मूलं एवं संस्कृतछाया *** प्रत सूत्रांक ||६०|| * ५० प्रका- हए । उपायम्मि वयंतेसु, सउणेसु मरणं भवे ॥६०॥९०६॥ पक्षमतेसु सउणेसु, हरिसं तुहि च वागरे । दारं शकुनाः र्णकेषु चल्लरासिविलग्गेसु, सेहनिक्खमणं करे ॥ ११॥९०७ ॥ धिररासिविलग्गेसु, वओवट्ठावणं करे । सुप-1 ८गणिवि-18 खंघाणुनाओ, उदिसे य समुदिसे ॥ ६२॥९०८ ॥ यिसरीरविलग्गेसु, सज्झायकरणं करे । रविहोराबिलद्यायां दिग्गेस. सेहनिक्खमणं करे ।। ६३ ॥९०९॥ चंदहोराविलग्गेसु, सेहीणं संगई करे । सुम्मदिकोणलग्गेसु, चर-13 कणकरणं तु कारए ॥ ६४ ॥ ९१० ॥ कूणदिकोणलग्गेसु, उत्तमझु तु कारए । एवं लग्गाणि जाणिज्ज, दिकोणेसु| ॥ ७४॥ ४ीण संसओ॥ १५ ॥ ९११ ॥ सोमग्गहंबिलग्गेसु, सेहनिक्खमणं करे। कूरग्गहविलग्गेसु, उत्तमहूँ तु कारए। ॥६६॥ ९१२ ॥ राहुकेउविलग्गेसु सबकम्माणि वजए। विलग्गेसु पसत्सु, पसत्याणि उ आरभे ॥ ६७॥ ॥९१३।। अप्पसत्सु लग्गेसु, सबकम्माणि वज्जए। विलग्गाणि जाणिज्जा, गहाण जिणभासिए ॥६८।९१४॥ रत्सु उत्तमायं तु कारयेत् ॥ ५९॥ विलमूले व्याहरत्सु स्थानं तु परिगृहीयान् । उत्पाते बजत्सु शकुनेषु मरणं भवेत् ॥ ६० ॥ प्रकाम्यत्सु शकुनेषु हर्ष तुष्टिं च व्याकुर्यात् । चलराशिविलमेषु शैक्षनिष्क्रमणं कुर्यात् ।। ६१ ॥ स्थिरराशिविलमेषु प्रतोपस्थापनं कुर्यात् ।। श्रुतस्कन्धानुज्ञा उद्देशांभू समुरेशान ।। ६२ ॥ द्विशरीरविलगेषु स्वाध्यायकरणं कुर्यात् । रविहोराविलग्नेषु शैक्षनिष्क्रमणं कुर्यात् ।। ६३ ।। पन्द्रदोराविलमेषु शैक्षीणां सहं कुर्यात् । सौम्यदिकोणलमेषु चरणकरणं तु कारयेत् ॥ ६४ ॥ कूणदिकोणलग्नेषु खत्तमार्थे तु कारयेत् । एवं लपानि जानीयात् दिकोणेषु न संशयः ।। ६५ ।। सोमप्रहविलगेषु शैक्षनिष्कमणं कुर्यात् । फरमहविलगेषु उत्तमार्थ तु काणि ||७४ ॥ येत् ॥ ६६ ॥ राहु केतुविलनेषु सर्वकर्माणि वर्जयेत् । विलमेषु प्रशस्तेषु प्रशस्तानि तु आरभेत् ।। ६७ ।। अप्रशस्तेषु लगेषु सर्वकर्मार * दीप * * अनुक्रम [६०] * अथ लग्न-द्वारम् वर्णयते ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३१) “गणिविद्या” - प्रकीर्णकसूत्र-८ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [६९]------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३१], प्रकीर्णकसूत्र - [०८] "गणिविद्या" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||६९|| दारं ८।न निमित्ता विवजंति, न मिच्छा रिसिभासियं । दुद्दिष्टेणं निमित्तेणं, आदेसो उ विणस्सइ ।। ६९ ॥ ला॥९१५ ।। सुदिटेण निमित्तेणं, आदेसो न विणस्सइ । जाय उपाइया भासा, जं च जपंति थालया ॥ ७० ॥ ॥९१६।। जं वित्धीओ पभासंति, नस्थि तस्स वइक्कमो । तजाएण य तजायं, तन्निभेण य तन्निभं ॥७॥९१७॥ तारूवेण य तारूवं, सरिसं सरिसेण निदिसे । थीपुरिसनिमित्तेसु, सेहनिक्खमणं करे ।। ७२ ॥ ९१८॥ हैनपुंसकनिमित्तेसु, सबकजाणि वजए । वामिस्सेसु निमित्तेसु, सबारंभे विवजए ॥७३॥ ९१९ ॥ निमित्त कित्तिमे नस्थि, निमित्ते भावि सुज्झए । जेण सिद्धा वियाणंति, निमिनुप्पापलक्खणं ॥ ७४ ॥ ९२०॥ निमि-10 तेसु पसत्थेसु, दढेसु बलिएमु य । सेहनिक्खमण कुजा, वउवट्ठावणाणि य ।। ७५ ॥ ९२१ ॥ गणसंगहणं| दीप 45EX अनुक्रम [६९] वर्जयेत् । विलग्नानि जानीयाद् प्रहाणां जिनभाषिते ॥ ६८ ॥ न निमित्ताद् विपद्यन्ते न मिथ्या ऋषिभाषितम् । दुर्दिष्टेन निमित्तेन , आदेशस्तु विनश्यति । सुरष्टेन निमित्तेनादेशो न विनश्यति ।। ६९ ॥ या चोत्पातिकी भाषा यच्च जल्पन्ति बालकाः ॥ ७० ॥ यथापि स्त्रियः प्रभाषन्ते नास्ति तस्य व्यतिक्रमः । तज्जातेन च तज्जातं तन्निभेन च तन्निभम् ॥ ७१ ॥ ताप्येण च ताप्यं सदृशं सदृशेन निर्दि-| शेत् । स्त्रीपुरुषनिमित्तेषु शैक्षनिष्क्रमणं कुर्यात् ।। ७२ ॥ नपुंसकनिमित्तेषु सर्वकार्याणि वर्जयेत् । च्यामिश्रेषु निमित्तेषु सर्वारम्भान् विवजयेत् ।। ७३ ॥ निमित्ते कृत्रिमता नास्ति निमित्तं भावि दर्शयेत् । येन सिद्धा विजानन्ति निमित्तोत्पातलक्षणम् ।। ७४ । निमितेषु प्रशस्तेपु रढेषु बलि केषु च । शैक्षनिष्कमणं कुर्यादू व्रतोपस्थापनानि च ॥ ४५ ॥ गणसङ्घदणं कुर्यात् गणधरोऽत्र वा प्रजेत् । (तस्कन्धा JAMERananathaian अथ निमित्तबलं-द्वारम् वर्णयते ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३१) “गणिविद्या” - प्रकीर्णकसूत्र-८ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [७६]------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३१], प्रकीर्णकसूत्र - [०८] "गणिविद्या" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||७६|| ५० प्रकी- जा, गणहरे हत्थ वा बए। सुयक्संधाणुशाओ अणुमा गणिवायए॥७६ ॥ ९२२॥ निमिसेसुऽपसत्स. निमित्ता केषु ||सिविलेसुऽबलेसु य । सबकजाणि पजिजा, अप्पसाहरणं करे ।। ७७ ॥ ९२३ ॥ पसस्थेसु निमिसेसु, पस-1 विषुवला८ गणिवि-स्थाणि सपारमे । अप्पसस्थनिमित्सु, सबकवाणि वजए॥७८॥ ९२४ ॥ दिवसाओ तिही बलिओ तिहीउ बलता चायां बलियं तु सुपई रिक्खं । नक्खसा करणमाइंसु करणाउ गइदिणा पलिणो॥७९॥९२५॥ गहविणा मुहसा, मुहता सउणो बली। सउणाओ बलवं लग्गं, तो निमित्तं पहाणं तु ॥८॥९२६ ॥ बिलग्गाओ निमि-४ ॥७५॥ साओ, निमित्तवलमुत्सम । न तं संविजए लोए, निमित्ता जे पलं भवे ॥ ८१॥९२७॥ एसो पलाबलविही है समासओ कित्तिओ सुविहिएहिं । अणुओगनाणगझो नापको अप्पमत्तेहिं ॥ ८२॥ ९२८ ।। गणिविजापडण्णं सम्मतं ॥८॥ + दीप अनुक्रम [७६] मुलामनुज्ञां गणिवाचकयोः ॥ ७६ ॥ निमित्तेवप्रशस्तेषु नयेष्ववलेषु च । सर्वकार्याणि वर्जयेत् आत्मसंधारणं कुर्यात् ॥ ७७ ।। प्रश-11 |स्तेषु निमित्तेषु प्रशस्तानि सदाऽऽरभेत् । अप्रशस्तनिमित्तेषु सर्वकार्याणि वर्जयेत् ।। ७८ ।। दिवसातिथिलीयान् तिथेलीयस्तु श्रूयते | ऋक्षम् । नक्षत्रात्करणमाङः करणाद् प्रहदिना बलिनः ।।०९।। प्रहविनेभ्यो मुहू) मुहूर्ताच्छकुनो वली । शकुनाडूलवलमं ततो निमित्तं प्रधान तु ॥ ८० ॥ विलनानिमित्तानिमित्तवलमुत्तमम् । न तद्विद्यते लोके निमित्ताद् यदलवद् भवेत् ॥ ८१॥ एष बळावलविधिः समासतः | W कीर्तितः मुविहितैः । अनुयोगज्ञानप्राशो ज्ञातव्योऽप्रमत्तैः ।। ८२ ॥ इति गणिविद्याप्रकीर्णकम् ॥८॥ ॥ ५॥ JAHEduadihemindian मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र ३१) “गणिविद्या” परिसमाप्त: ~14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 31 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। ' “गणिविद्या-प्रकीर्णकसूत्र” [मूलं एवं छायाः] (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “गणिविद्या” मूलं एवं संस्कृतछाया:” नामेण परिसमाप्त: - 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