Book Title: Aagam 25 AATUR PRATYAKHYAN Moolam evam Chaayaa
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' [२५] श्री आतुरप्रत्याख्यान (प्रकीर्णक)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । "आतुरप्रत्याख्यान” मूलं एवं छाया [मूलं एवं संस्कृतछाया] [आदय संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ।। (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) | 15/01/2015, गुरुवार, २०७१ पौष कृष्ण १० jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२५], प्रकीर्णकसूत्र-[२] “आतुरप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२५) “आतुरप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-२ (मूलं+संस्कृतछाया) .....................------- मूलं [-]----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२५], प्रकीर्णकसूत्र - [०२] “आतुरप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया 'आतुरप्रत्याख्यान प्रकीर्णक(२) श्रीआगमोदयसमितिग्रन्थोद्धारे, पूर्वमुद्रितग्रन्थाङ्कः-४५, अयं-ग्रन्थाङ्कः-४६. श्रुतस्थविरसूत्रितं। चतुःशरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं (छायायुतम्)। प्रकाशक:-श्रीआगमोदयसमितेः कार्यवाहकः झवेरी-वेणीचंद सरचंद । इदं पुस्तकं मोहमय्यां निर्णयसागरमुद्रणालये कोलभाटवीध्या-२६-२८ तमे गृहे रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रापयित्वा प्रकाशितम्। चीर सं० २५५३. विक्रम सं० १९८३ सन १९२७. बेसने रू.२-०-०. आतुरप्रत्याख्यान-प्रकीर्णकसूत्रस्य मूल "टाइटल पेज" ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: १+७० 'आतुरप्रत्याख्यान प्रकीर्णकसूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: ७१ मूलांक: गाथा | पृष्ठांक: | | मूलांक: । गाथा पृष्ठांक: | मूलांक: गाथा पृष्ठांक: ०१० ००१ । ०३७ | प्रथमा प्ररुपणा असमाधिमरणं । । ००४ ०१० । ०११ । प्रतिक्रमणादि आलोचना ००६ ०४६ | पंडितमरण एवं आराधनादि | ०१२ | ०३४ | आलोचनादायक व ग्राहक __०० उपसंहारः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२५], प्रकीर्णकसूत्र - [२] "आतुरप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया ~ 2~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['आतुरप्रत्याख्यान' - मूलं एवं संस्कृतछाया] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “चतु:शरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं” नामसे सन १९२७ (विक्रम संवत १९८३) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इस प्रतमे १० प्रकीर्णक थे. इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और संपादकपूज्यश्री तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र या गाथा के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र या गाथा चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन-भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२५], प्रकीर्णक सूत्र - [२] "आत्रप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२५) “आतुरप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-२ (मूलं+संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१] ---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [२५], प्रकीर्णक सूत्र - [२] “आतुरप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१|| अथातुरप्रत्याख्यानप्रकीर्णकम् ॥ २॥ देसिपदेसविरओ सम्मदिट्टी मरिज जो जीवो। तं होइ वालपंडियमरणं जिणसासणे भणियं ॥१॥३४॥ पंच य अणुवयाई सत्त उ सिक्खा उ देसजइधम्मो । सवेण व देसेण व तेण जुओ होइ देसजई ॥ २ ॥ ६५ ।। दीप PRECAXCNXXCCCX ॐॐॐॐ अनुक्रम अधातुरप्रत्याख्यानम् ।।२।। देशैकदेशविरतः सम्पन्दृष्टिर्मियते यो जीवः । तद् भवति वालपण्डितमरणं जिनशासने भणितम् ॥११॥ पश्च FairnetPwastmON Jinternaniminarian IXI SamjanvairuryaRE | देशयतिधर्मस्य व्याख्या एवं १२ व्रत-नामानि ~4 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२५) “आतुरप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-२ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------ मूलं [३] ---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२५], प्रकीर्णक सूत्र - [२] "आतुरप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया २ आउर- पच्च० प्रत ॥५॥ सूत्रांक ||३|| पाणिवहमुसायाए अदसपरदारनियमणेहिं च । अपरिमिइच्छाओऽवि य अणुवयाई विरमणाई ॥३॥६६॥ बालादिजं च दिसावेरमणं अणस्थदंडाउ जं च वेरमणं । देसावगासियंपिय गुणवयाई भवे ताई ॥४॥६७॥ भो- मरणानि गाणं परिसंखा सामाइयअतिहिसंविभागो य । पोसहविही य सद्यो चरो सिक्खाउ वुत्ताओ॥५॥ ८॥ प्रतानि आसुकारे मरणे अच्छिन्नाए य जीवियासाए । नाएहि वा अमुको पकिछमसलेहणमकिचा ॥ ६ ॥ ६९॥ गा.१० आलोइय निस्सल्लो सघरे चेवारुहितु संथारं । जइ मरद देसविरओ तं वृत्तं यालपंडिययं ॥ ७ ॥ ७० ।। जो भत्तपरिन्नाए उवकमो विवरण निदिटो । सो व पालपंडियमरणे नेओ जहाजुग्गं ॥८॥७१॥ वेमाणि-2 एसु कप्पोवगेमु नियमेण तस्स उववाओ। नियमा सिज्झइ उकोसरण सो सत्तमंमि भवे ॥९॥७२॥ इय| बालपंडियं होइ मरणमरिहंतसासणे दिड (भणियं] । इत्तो पंडियपंडियमरणं बुच्छ समासेणं ॥१०॥ ७३ ॥18 | चानुप्रतानि सौव शिक्षा देशयतिधर्मः । सर्वेग वा देशेन वा तेन युतो भवति देशयतिः ॥ २ ॥ प्राणिवधमृपावादादत्तपरदारनियमन अपरिमितेच्छातोऽपि च विरमणान्यनुनतानि ॥ ३॥ यत्र दिग्विरमणं अनर्थदण्डात् यच विरमणम् । देशायकाशिकमपि च गुणवतानि | भवेयुस्तानि ॥४॥ भोगानां परिसल्या सामायिकमतिथिसंविभागश्च । पौषधविधिस्तु सर्वः चलनः शिक्षा उक्ताः ।।५।। आशुकारे मरणे|| अभिछन्नायां च जीविताशायाम् । जातिभिर्वाऽमुक्तः पश्चिमसंलेखनां वाऽकृत्या ।। आलोच्य निःशल्यः खगृह एवारुह्य संस्तारकम् । यदि सम्रियते देशविरतसादुक्तं वालपण्डितम् ॥ ६॥ ७ ॥ यो भक्तपरिज्ञायामुपक्रमो विस्तरेण निर्दिष्टः । स एव थालपण्डितमरणे शेयो यथायोग्यः ।। ८॥ वैमानिकेषु कल्पोपगेषु नियमेन तस्योपपातः । नियमात्सिङ्ख्यत्युत्कृष्टतः स सप्तमे भवे ॥ ९ ॥ इति वालपण्डितं भवति । दीप अनुक्रम -62-8 JanEsxsimimminew क: 'बालपंडितमरणं? तत् निर्दिश्यते ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२५) “आतुरप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-२ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [सू०१] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [२१], प्रकीर्णक सूत्र - [२] "आतुरप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक CARRC इच्छामि भंते ! उत्तमट्ठ पडिकमामि अईयं पडिक्कमामि अणागयं पडिकमामि पञ्चुप्पन्नं पडिकमामि कयं । पडिकमामि कारियं पडिकमामि अणुमोइयं पडिफमामि मिच्छतं पडिकमामि असंजमं पडिकमामि कसायं पडिकमामि पावप्पओगं पडिक्कमामि, मिच्छादसणपरिणामेसु वा इहलोगेसु वा परलोगेसु वा सच्चित्तेसु वा : अचित्तेसु वा पंचसु इंदिपत्थेसु वा, अन्नाणंझाणे अणायारंझाणे कुंदसणंझाणे कोहंझाणे माणंझाणे मायं-18 झाणे लोभंझाणे रागंझाणे दोसंझाणे मोहंझाणे इच्छंझाणे मिच्छंझाणे मुच्छंझाणे संकंझाणे कंखंझाणे गेहिशाणे आसंझाणे तण्हंझाणे छुहं झाणे पंधं झाणे पंथाणंझाणे निझाणे नियाणंझाणे नेहं झाणे कामंझाणे कलुसंझाणे कलहंशाणे जुझंझाणे निजुझंझाणे संगंझाणे संगहंझाणे ववहारंझाणे कयविक्कयं झाणे अणत्यदंडंझाणे आभोगंझाणे अणाभोगंझाणे अणाइल्लंझाणं वरंझाणे वियफंझाणे हिंसंझाणे हासंझाणे पहासंझाणे | |मरणमईच्छासने दृष्टम् ( भणितं ) । इतः पण्डितपण्डितमरणं वक्ष्ये समासेन ॥ १० ॥ इच्छामि भदन्त ! उत्तमार्य प्रतिकमामि अतीतं | प्र० अनागतं प्र० प्रत्युत्पन्न प्र. कृतं प्र० कारितं प्र० अनुमोदितं प्र० मिध्यावं प्र० असंयम प्र. कषायं प्र० पापप्रयोग प्र० ११, मिध्यादर्शनपरिणामेषु वा इहलोकेषु वा परलोकेषु वा सचित्तेषु वा अचित्तेषु वा पञ्चखिन्द्रियार्थेषु वा ६ ( तस्य मिथ्यादुष्कृतम्) अज्ञानभ्याने अनाचारध्याने कुदर्शनध्याने क्रोधध्याने मानध्याने मायाध्याने लोभध्याने रागध्याने द्वेषण्याने मोहध्याने इच्छाध्याने मिथ्याध्याने मूर्छाध्याने शङ्काध्याने कामाभ्याने गृद्धिध्याने आशाध्याने तृष्णाच्याने क्षुद्ध्याने पविभ्याने प्रस्थानध्याने निद्राध्याने निदानध्याने स्नेहध्याने 8 हे कामध्याने कलुपध्याने कलहण्याने युद्धभ्याने नियुद्धध्याने संगध्याने संग्रहध्याने व्यवहारथ्याने क्रयविक्रयध्याने अनर्थदण्डध्याने आभो दीप अनुक्रम [११]] 22%26-05 -RS १- | विविध-प्रतिक्रमणानि (कषाय-दुर्ध्यान-मिथ्यादर्शन आदीनाम् प्रायश्चित् रूप प्रतिक्रमणं) ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२५) “आतुरप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-२ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [सू०१] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [२१], प्रकीर्णक सूत्र - [२] "आतुरप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत ध्यानानि सूत्रांक २ आउर- पओसंझाणे फरुमंशाणे भयंझाणे रूवंशाणे अप्पपसंसंझाणे परनिंदंशाणे परगरिहंझाणे परिग्गहंझाणे परप-४ प्रतिक्रमपञ्चक | रिवार्यशाणे परदूसणंझाणे आरंभंझाणे संरभंझाणे पावाणुमोअणंझाणे अहिगरणंझाणे असमाहिमरणंमाणेणीयाः ६३ कम्मोदयपचयंशाणे इहिगारवंझाणे रसगारवंझाणे मायागारवंझाणे अयेरमणंशाणे अमुत्तिमरणंमाणे, पसुत्तस्स वा परिवुद्धस्स वा जो में कोई देवसिओराइओ उत्तमढे अइफमो वइफमो अईयारो अणायारो तस्स गा. १३ |मिच्छामिदुकटं (मत्रं १) एस करेमि पणामं जिणवरवसहस्स बद्धमाणस्स । सेसाणं च जिणाणं सगणहराणं चा सू०१ एससि ॥ ११ ॥ ७४ ॥ सर्व पाणारंभं पञ्चक्वामित्ति अलियवयणं च । सबमदिन्नादाणं मेहणपरिग्गडं घेव|| ॥ १२॥७॥ सम्म मे सबभासु, धेरै मज्झ न केणई । आसाउ ओसिरिताणं, समाहिमणुपालए ॥१३॥७६॥1 गध्याने अनाभोगल्याने परणाविलध्यान रथ्याने वितव्याने हिंमाध्याने हासध्याने प्रहामध्याने प्रद्वेष यान परुपध्याने भयध्याने स्प-11 ध्याने आत्मप्रशंसाध्याने परनिन्दाभ्याने परगाथ्याने परिग्रह याने परपरिवादध्याने परदपणाध्याने आरम्भन्याने संरम्भध्याने पापानुमोदनध्याने अधिकरणध्याने असमाधिमरणयाने कर्मोदयप्रत्यय याने पद्धिगौरवध्याने रसगौरवध्याने सातगौरवल्याने अविरमणध्याने अमुक्ति-14 गरणध्याने ६३ । प्रसुत्रस्य या प्रतिबुद्धम्य वा यो मया कधिदैवसिको रात्रिक उत्तमार्थोऽतिकमो व्यतिक्रमोऽतिचारोऽनाचारतस्य मिथ्या मे। दुष्कृतम् । एष करोमि प्रणामं जिनवरवृपभाय पर्वमानाय। शेषेभ्यश्च जिनेभ्यः सगणधरेभ्यश्च सर्वेभ्यः ।।११।। सर्व प्राणारम्भं प्रत्याख्या-2॥६॥ सम्पलीकवचनं च । सर्वमदत्तादानं मैथुनं परिप्रहं चैव ॥१२॥ साम्यं मे सर्वभूतेषु वैरै गम न केनचिन्। आशा व्युत्सृज्य (तोऽपमृत्य) समाधि दीप अनुक्रम [११] AMMrmanc८ | जिन-वन्दन, प्राणारम्भ आदि प्रत्याख्यान एवं विविध-आलोचना Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आतुरप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-२ (मूलं+संस्कृतछाया) - मूलं [१४] - (२५) 4 प्रत सूत्रांक ||१४|| सर्व चाहारविहिं सन्नाओ गारवे कसाए य। सर्व चेव ममत्तं चएमि सवं खमावेमि ॥१४॥७७॥ हुज्जा इमंमि[81 समए उवक्कमो जीवियस्स जइ मज्म । एवं पञ्चक्खाणं विउला आराहणा होउ ॥ १५ ॥ ७८ ॥ सबदुक्खपहीगाणं, सिद्धाणं अरहो नमो । सद्दहे जिणपन्नत्तं, पञ्चक्खामि य पावगं ॥१६॥७९॥ नमुत्थु धुयपावाणं, सिद्धाणं । च महेसिणं । संधारं पडिवजामि, जहा केवलिदेसियं ॥ १७ ॥ ८॥ किंचिवि दुचरियं तं सत्वं वोसिरामि तिविहेणं । सामाइयं च तिविहं करेमि सवं निरागारं ॥१८॥८१॥ बझं अभितरं उवहि, सरीराइ सभोयणं ।। मणसावयकाएहि, सवभावेण वोसिरे ॥ १९ ॥ ८२॥ सर्व पाणारंभं० ॥ २० ॥ ८३ ॥ सम्मं मे सधभूएम० ॥२१॥८४॥ राग पंधं पओसंच, हरिसं दीणभावयं। उस्सुगत्तं भयं सोगं, रई अरहं च बोसिरे ॥ २२ ॥८६॥ ममतं परिववामि, निम्ममतं उवढिओ । आलंवणं च मे आया, अबसेसं च बोसिरे ॥२३ ॥ ८६ ॥ मनुपालयामि ॥१३॥ सर्वमाहारविधि च सद्भा गौरवाणि कषायांश्च । सर्वमेव ममत्वं त्यजामि सर्व क्षमयामि ॥ १४ ॥ भवेदस्मिन् समये | उपक्रमो जीवितस्य यदि मम । एतत्प्रत्याख्यानं विपुलाऽऽराधना भवतु ॥१५।। प्रक्षीणसर्वदुःखेभ्यः सिद्धेभ्योऽई न्यो नमः । श्रदधे जिनप्रज्ञप्तं र प्रत्याख्यामि च पापकम् ॥ १६॥ नमोऽस्तु धूतपापेभ्यः सिद्धेभ्यश्च महर्षिभ्यः। संस्तारं प्रतिपद्ये यथा केवलिदेशिवम् ॥ १७ ॥ यत्। किश्चिदपि दुश्चरितं तत्सर्व व्युत्सृजामि त्रिविधेन । सामायिकं च त्रिविधं करोमि सर्व निराकारम् ॥ १८॥ बाह्यमभ्यन्तरमुपधि शरीरादि। 5सभोजनम् । मनोवाकायैः सर्वभावेन व्युत्सृजामि ॥ १९॥ सर्व प्राणारम्भ ॥२०॥ साम्यं मे सर्वभूतेषु० ॥२१।। रागं वन्धं प्रद्वेषं च | हर्ष दीनभावताम् । उत्सुकत्वं भयं शोकं रतिमरतिं च व्युत्सृजामि ॥ २२ ॥ ममत्वं परिवर्जयामि निर्ममत्वमुपस्थिवः । आलम्बनं च मे % दीप + अनुक्रम [१५] -kc- 453 च. स. JimEluidanitoindians Name बाह्याभ्यंतर उपधि, ममत्व, आत्मबाह्य पदार्था: आदि-विविध व्युत्सर्जन(परित्यागः) ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२५) “आतुरप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-२ (मूलं+संस्कृतछाया) ..........................---- मूलं [२४] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२५], प्रकीर्णक सूत्र - [२] "आतुरप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया २आतुरप- त्याख्याने ॥७॥ प्रत सूत्रांक ||२४|| आया हु महं नाणे आया मे दंसणे चरित्ते य । आया पञ्चक्खाणे आया मे संजमे जोगे॥२४॥८॥ एगो ममत्वत्यावाह जीवो, एगो चेवुववजई । एगस्स चेव मरणं, एगो सिजमा नीरओ ॥२५॥८॥ एगो मे सासओ अप्पा, गादि नाणदंसणसंजुओ। सेसा मे बाहिरा भावा, सधे संजोगलक्खणा ॥ २६ ॥ ८९॥ संजोगमूला जीवेणं, पत्तात दुक्खपरंपरा । तम्हा संजोगसंबंध, सवभावेण (सर्व तिविहेण) वोसिरे ॥२७॥९॥ मूलगुणे उत्तरगुणे जे मे नाराहिया पमाएणं । तमहं सवं निंदे पडिकमे आगमिस्साणं ॥ २८॥९१ ॥ सत्त भए अट्ठमए सन्ना चसारि गारवे तिन्नि । आसायण तेसीसं राग दोसं च गरिहामि ॥ २९॥९२॥ अस्संजममन्नाणं मिच्छता सबमेव य ममतं । जीवेसु अजीवेसु य तं निदे तं च गरिहामि ॥ ३० ॥९॥ निंदामि निंदणिजं गरि-12 दीप अनुक्रम [२५] |आत्मा अवशेषं च व्युत्सृजामि ॥२३।। आत्मैव मम शानं आत्मा मे दर्शनं चरित्रं च । आत्मा प्रत्याख्यानं आत्मा मे संयमो योगः ॥२४॥ एको प्रजति जीवः एकश्चैवोत्पद्यते । एकस्य चैव मरणं एकः सिध्यति नीरजस्कः ॥२५।। एको मे शाश्वत आत्मा ज्ञानदर्शनसंयुतः । शेषा | मे बाधा भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥ २६ ॥ संयोगमूला जीवेन प्राप्ता दुःखपरम्परा । तस्मात्संयोगसंबन्धं सर्वभावेन (सर्व त्रिविधेन) व्युत्सृजामि ॥ २७ ॥ मूलगुणा उत्तरगुणा ये मया नाऽऽराधिताः प्रमादेन । नदहं सर्व निन्दामि प्रतिफमाम्यागमिष्यतः ।। २८ ।। सप्त भयानि अष्ट मदान् चतस्रः सज्ञाः गौरवाणि त्रीणि । आशातनामयस्त्रिंशतं राग द्वेषं च गहें ॥ २९ ॥ असंयममज्ञानं मिध्यात्वं सर्वमेव च ममत्वम् । जीवेष्वजीवेषु च तन्निन्दामि तच्च गर्दै ॥ ३० ॥ निन्दामि निन्दनीयं गहें च यश्च मे गईणीयम् । आलोचयामि च सर्व ॥७॥ Jantastimanmadine विविध वस्तूनां निन्दा-गर्दा आदि ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२५) “आतुरप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-२ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [३१] ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२५], प्रकीर्णक सूत्र - [२] "आतुरप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||३१|| हामि य जं च मे गरहणिज्जं । आलोएमि य सघं सम्भितरवाहिरं उवहिं ॥ ३१ ॥ ९४ ॥ जह बालो जपतो कज्जमकनं च उज्जु भणइ । तं तह आलोइला मायामोसं (मायामद) पमुत्तूणं ।। ३२ ॥ ९५ ॥ नाणंमि दसणंमि य सवे चरित्ते य चउमुवि अकंपो । धीरो आगमकुसलो अपरिस्सावी रहस्साणं ॥ ३३ ॥ ९६ ।। रागेण व दोसेण व जंभे अकयन्नुया पमाएणं । जो मे किंचिवि भणिओ तमहं तिविहेण खामेमि ॥ ३४ ॥ ॥९७॥ तिविहं भणंति मरणं पालाणं वालपंडियाणं च । तइयं पंडितमरणं जं केवलिणो अणुमरंति ॥ ३५॥ ॥९८॥जे पुण अट्टमईया पयलियसन्ना य वकभावा य । असमाहिणा मरंति न हु ते आराहगा भणिया ॥३६ ॥ ९९ ।। मरणे विराहिए देवदुग्गई दुल्लहा य किर पोही। संसारो य अणंतो होइ पुणो आगमिस्साणं ॥३७॥१००॥ का देवदुग्गई का अघोहि केणेव बुज्नई मरणं । केण अर्णतमपारं संसारे हिंडई जीवो दीप अनुक्रम [३२] 26-09 नभ्यन्तरं बाह्यमुपधिम् ॥३१॥ यथा वालो जल्पन कार्यमकार्य च ऋजुकं भणति। तथा तदालोचयेत् मायामृषा(मायामदौ)प्रमुच्य ॥३२॥ ज्ञाने दर्शने च तपसि चारित्रे च चतुर्वप्यकम्पः । धीर आगमकुशलोऽपरिभावी रहस्थानाम् ॥ ३३ ॥ रागेण वा द्वेषेण वा या भक्तामकृतज्ञता प्रमादेन । यन्मया किश्चिदपि भणितं तदहं त्रिविधेन शाम्यामि ॥ ३४ ॥ त्रिविधं भणन्ति मरणं बालानां बालपण्डितानां च। तृतीयं पण्डितमरणं यत्केवलिनोऽनुम्रियन्ते ॥ ३५ ॥ ये पुनरष्टमदिकाः प्रचलितबुद्धयो वक्रभावान । असमाधिना म्रियन्ते नैव ते आराधका भणिताः॥३६॥ मरणे विराद्धे देवदुर्गतिः दुर्लभश्च किल बोधिः। संसारश्चानन्तो भवति पुनरागमिष्यति ॥३७॥ का देवदुर्गतिः ? Jamthuntinematiane अनंत-अपार संसारे हिण्डनस्य कारणानि ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२५) “आतुरप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-२ (मूलं+संस्कृतछाया) ......................---- मूलं [३९] ---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२५], प्रकीर्णक सूत्र - [२] "आतुरप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया २ आतुरप्र त्याख्याने प्रत सूत्रांक ||३९|| 44ॐ5%% ॥ ३८ ॥ १०१ ॥ कंदप्पदेवकिब्धिसअभिओगा आसुरी य संमोहा। ता देवदुग्गईओ मरणमि विराहिए हुंति आलोच॥ ३९॥ १०२॥ मिच्छईसणरत्ता सनियाणा कण्हलेसमोगादा । इय जे मरंति जीवा तसिं दुलहा भवे नादि घोही ॥ ४० ॥ १०३ ॥ सम्मईसणरत्ता अनियाणा सुक्कलेसमोगादा । इय जे मरंति जीवा तेसिं सुलहा भवे| बोही॥ ४१ ॥ १०४ ॥ जे पुण गुरुपहिणीया बहुमोहा ससबला कुसीला य। असमाहिणा मरंति ते हंति|| अणंतसंसारी ॥ ४२ ॥ १०५ ॥ जिणवयणे अणुरत्ता गुरुवयणं जे करति भावणं । असयल असंकिलिट्ठा से हुंति परित्तसंसारी ॥ ४३ ॥ १०६॥ पालमरणाणि बहुसो पहुयाणि अकामगाणि मरणाणि । मरिहंति ते वराया जे जिणवयणं न पाणंति ॥ ४४ ॥ १०७॥ सत्यग्रहणं विसभक्खणं च जलणं च जलपषेसोय। * दीप अनुक्रम [४०] | कोऽबोधिः केनवोहते मरणम् । केनानन्तमपारं संसारं हिण्डति जीवः ॥ ३८ ॥ कन्दर्पदेवकिल्पिपाभियोग्यासुरीसंमोहाः । दताः देदुर्गगयो मरणे विराद्धे भवन्ति ॥ ३९ ॥ मिध्यादर्शनरताः सनिदानाः कृष्णलेश्यामवगादाः । इद वे प्रियन्ते जीवास्तेषां | दुर्लभो भवेद्बोधिः ।। १० ।। सम्यग्दर्शनरत्ता अनिदानाः शुद्धलेश्यामवगाढाः । इह ये नियन्ते जीवास्तेषां सुलभो भवेदोधिः ।। ४१॥121 ये पुनर्गुरुप्रत्यनीका बहुमोहाः सशयलाः फुशीलाश्च । असमाधिना प्रियन्ते ते भवन्त्यनन्तसंसारिणः ।।४२।। जिनवचनेऽनुरक्ता गुरुवचनं |8| ये कुर्वन्ति भावेन । अशधला असक्छिष्टास्ते भवन्ति परीत्तसंसारिणः ॥ ४३ ॥ बालमरणानि बहुशो बहुकानि च अकामानि मरणानि । नियन्ते ते बराका ये जिनवचनं न जानन्ति ॥४४॥ शस्त्रग्रहणं विषभक्षणं च ज्वलना जलप्रवेश । अनाचारभाण्डसेवी(वा)12 Jantrisanmanasana ~114 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२५) प्रत सूत्रांक ||४५|| दीप अनुक्रम [४६] प्रकीर्णकसूत्र-२ (मूलं+संस्कृतछाया) मूलं [४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [२५] प्रकीर्णक सूत्र [२] "आतुरप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया En man अथ पंडितमरणं वर्ण्यते “आतुरप्रत्याख्यान” - अणयारभंडसेवी जम्मणमरणानुबंधीणि ॥ ४५ ॥ १०८ ॥ उमदे तिरियमिवि मयाणि जीवेण बालमरणाणि । दंसणनाणसहगओ पंडिअमरणं अणुमरिस्सं ॥ ४६ ॥ १०९ ॥ उधेयणयं जाई मरणं नरपसु वेषणाओ य एयाणि संभरंतो पंडियमरणं मरसु इहि ॥ ४७ ॥ ११० ॥ जह उत्पन्न दुक्खं तो दट्ठवो सहावओ नवरं । किं किं मए न पत्तं संसारे संसरणं ॥ ४८ ॥ १११ ॥ संसारचकवालमि सवेऽविय पुग्गला मए बहुसो । आहारिया य परिणामिया य नाहं गओ तित्तिं ॥ ४९ ॥ ११२ ॥ तणकट्ठेहि व अग्गी लवणजलो वा नईसहस्सेहिं । न इमो जीवो सको तिप्पेडं कामभोगेहिं ॥ ५० ॥ ११३ ॥ आहारनिमित्तेनं मच्छा गच्छति सत्तमं पुढविं । सचित्तो आहारो न खमो मणसावि पत्थे ॥ ५१ ॥ ११४ ॥ पुद्धिं कयपरिकम्मो अनिपाणो ऊहिऊण महबुद्धी । पच्छा मलियकसाओ सखो मरणं पडिच्छामि ॥ ५२ ॥ ११५ ॥ अकंडेऽचिर( एतानि) जन्ममरणानुबन्धीनि ॥ ४५ ॥ ऊर्द्धमधस्तियपि मृतानि जीवन बालमरणानि । दर्शनज्ञान सहगतः पण्डितमरणमनुमरिष्ये ।। ४६ ।। उद्वेजनकं जातिर्मरणं नरकेषु वेदनाश्च । एतानि स्मरन् पण्डितमरणं प्रियस्वेदानीम् ॥ ४७ ॥ यदि उत्पद्यते दुःखं तर्हि द्रष्टव्यः स्वभावः परम् । किं किं मया न प्राप्तं संसारे संसरता ॥ ४८ ॥ संसारचक्रवाले सर्वेऽपि च पुला मया बहुशः आहारिताश्च परिणामिताच न चाहं गतस्तृप्तिम् ।। ४९ ।। तृणकाद्वैरभिरिव नदीसह सैर्लबणोद इव । नायं जीवः कामभोगैस्तर्पितुं शक्यः ॥ ५० ॥ आहारनिमित्तेन मत्स्या गच्छन्ति सप्तमीं पृथिवीम् । सचित्त आहारो न क्षमो मनसाऽपि प्रार्थयितुम् ॥ ५१ ॥ पूर्व कृतपरिकर्मा अनिदान ऊहित्वा मतिबुद्धी पश्चात् मर्दितकषायः सद्यो मरणं प्रतीच्छामि ।। ५२ ।। अकाण्डेऽचिरभावितास्ते पुरुषाः कृतपूर्वकर्म परिभावनया पश्चात् F&Pathe Drily ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२५) “आतुरप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-२ (मूलं+संस्कृतछाया) ...................---- मूलं [५३] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२१], प्रकीर्णक सूत्र - [२] "आतुरप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक २ आतुरप- भाषिय ते पुरिसा मरणदेसकालम्मि । पुवकयकम्मपरिभावणाएँ पच्छा परिवडंति ॥ ५३ ॥ ११६ ॥ तम्हा, पंडितमरत्याख्याने चंदगविज्झं सकारणं उल्लुएण पुरिसेणं । जीवो अविरहियगुणो कायवो मुक्खमग्गंमि ॥५४॥ ११७ ।। बाहि-12 णादि प दरजोगविरहिओ अम्भितरमाणजोगमल्लीणो। जह तंमि देसकाले अमूदसम्रो चयह देहं ॥५५॥ ११८॥ हंतूण रागदोसं छिसूण य अट्टकम्मसंघायं । जम्मणमरणरह मिसूण भवा विमुचिहिसि ॥५६॥११९॥ एयं सखुवएसं जिणदिटुं सरहामि तिविहेणं । तसथावरखेमकरं पारं निशाणमग्गस्स ॥ ५७ ॥१२० ॥ नहु तम्मि देसकाले सको पारसविहो सुपक्खंघो । सबो अणुचिंते धणियपि समत्थचित्रोणं ॥५८॥१२१ ॥ एमिवि जम्मि पए संवेगं बीयरायमगंमि । गच्छह नरो अभिक्खं तं मरणं तेण मरिया ॥ ५९॥ १२२॥ ता एगपि सिलोगं जो पुरिसो मरणदेसकालम्मि । आराहणोवउत्तो चिंतंतो राहगो होई ॥६० ॥१२३ ॥ ||५३|| दीप अनुक्रम [१४] मरणदेशकाले परिपतन्ति ॥ ५३ ।। तस्माचन्द्र कवेध्यं सकारणं (पति) उद्युक्तेन (ऋजुकेन)पुरुषेण जीवोऽविराधितगुणः कर्त्तव्यो मोक्षमार्गे ॥ ५४ ॥ बाहायोगविरहितोऽभ्यन्तरध्यानयोगमाभितः (कर्त्तव्यः) । यथा तस्मिन्देशकालेऽमूढसञ्जस्त्यजति देहम् ।। ५५ ॥ हत्वा रागद्वेषो | छित्ता पाकर्मसपातम् । जन्ममरणारहट्टु भित्त्वा भवाद् विमोक्ष्यसे ।। ५६ ॥ एतं सर्वोपदेशं जिनदृष्टं भरघे त्रिविधेन । प्रसस्थावरक्षेमकरं पारं निर्वाणमार्गस्य ।। ५७ ॥ नैव तस्मिन् देशकाले शक्यो द्वादशविधः श्रुतस्कन्धः । सर्वोऽनुचिन्तयितुं बाढमपि समर्थचित्तेन ॥ ५८ ॥ एकस्मिन्नपि यस्मिन् पदे संवेग वीतरागमागें। गच्छति नरोऽभीक्ष्णं तन्मरणं तेन मर्त्तव्यम् ।। ५९ ।। तदेकमपि श्लोकं यः पुरुषो mm ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२५) प्रत सूत्रांक ||&?|| दीप अनुक्रम [६२] “आतुरप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र - २ ( मूलं + संस्कृतछाया) मूलं [६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [२५], प्रकीर्णक सूत्र [२] "आतुरप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया Jaaneman आराहणोचउत्तो कालं काऊण सुविहिओ सम्मं । उक्कोसं तिनि भवे गंतूणं लहह निवाणं ॥ ६१ ॥ १२४ ॥ समणोत्ति अहं पदमं घीयं सवत्थ संजओमिति । सवं च वोसिरामि एवं भणियं समासेणं ।। ६२ ।। १२५ ।। लद्धं अलद्वपुषं जिणवयण सुभासियं अमियभूयं । गहिओ सुग्गहमग्गो नाहं मरणस्स बीहेमि ॥ ६३ ॥ ॥ १२६ ॥ धीरेणवि मरियवं काउरिसेवि अवस्स मरियवं । दुण्डंपि हु मरियवे वरं खु धीरसणे मरिडं | ॥ ६४ ॥ १२७ ॥ सीलेणवि मरियवं निस्सीलेणवि अवस्स मरियई । दुण्हंपि हु मरियछे वरं खु सीलसणे | मरिजं ।। ६५ ।। १२८ ॥ नाणस्स दंसणस्स य सम्मत्तस्स य चरितजुत्तस्स । जो काही उवओगं संसारा सो विमुचिहिसि ॥ ६६ ॥ १२९ ॥ चिरउसियबंभयारी पकोडेऊण सेसयं कम्मं । अणुपुबीह विसुद्धो गच्छछ सिद्धिं धुयकिलेसो ॥ ६७ ॥ १३० ॥ निकसायरस दंतस्स, सूरस्स ववसाइणो । संसारपरिभीयरस, पञ्चमरणदेशकाले। आराधनोपयुक्तश्चिन्तयन् (भवति सः) आराधको भवति ॥ ६०॥ आराधनोपयुक्तः कालं कृत्वा सुविद्दितः सम्यक् । उत्कृष्टत स्त्रीन भवान् गत्वा लभते निर्वाणम् ||६ २ || अहं भ्रमण इति प्रथमं द्वितीयं सर्वत्र संयतोऽस्मीति । सर्व च व्युत्सृजानि एतद्भणितं समासेन ॥ ६२ ॥ लब्धमलब्धपूर्व जिनवचनं सुभाषितममृतभूतम् । गृहीतः सुगतिमार्गे नाहं मरणाद्विभेमि || ६३|| धीरेणापि मर्त्तव्यं कापुरुषेणाप्यवश्यं मर्त्तव्यम् द्वयोरपि मर्त्तव्ये वरमेक धीरत्वेन मर्तुम् ॥ ६४॥ शीलवताऽपि मर्त्तव्यं निःशीलेनाप्यवश्यं मर्त्तव्यम् । द्वयोरपि मध्ये वरमेव शीलवता मर्त्तुम् ||६५ || ज्ञानस्य दर्शनस्य च सम्यक्त्वस्य च चारित्रयुक्तस्य । यः करिष्यत्युपयोगं संसारात्स विमोक्ष्यते ॥ ६६ ॥ चिरोषितत्रह्मचारी प्रस्फोथ्य शेषकं कर्म आनुपूर्व्या विशुद्ध गच्छति सिद्धिं घुडेशः || ६ ७ || निष्कपायस्य दान्तस्य शूरस्य व्यवसायिनः । संसारपरिभी तस्व Far Pal Use Only ~14~ www.ebay. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२५) “आतुरप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-२ (मूलं+संस्कृतछाया) ....................---- मूलं [६८] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२५], प्रकीर्णक सूत्र - [२] "आतुरप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया ३ महाप्र- क्खाणं मुहं भवे ।। ६८ ॥ १३१॥ एवं पञ्चक्खाणं जो काही मरणदेसकालम्मि । धीरो अमृहसनो सो ग-IA मंगलादि त्याख्यानं छह सासयं ठाणं ॥ ६१॥१३२ ॥ धीरो जरमरणविऊ वीरो विनाणनाणसंपनो। लोगस्सुजोयगरो दिसउ खियं सघदुक्खाणं ।। ७० ॥ १३३ ॥ इति आतुरप्रत्याख्यानम् ॥२॥ प्रत सूत्रांक ||६८|| a दीप अनुक्रम [६९] प्रत्याख्यानं शुभं भवेत् ।। ६८॥ एतत्प्रत्याख्यानं यः करिष्यति मरणदेशकाले। धीरोऽमृदसज्ञः स गच्छति शाश्वतं स्थानम् ॥६९॥ धीरो जरामरणविन वीरो विज्ञानज्ञानसंपन्नः । लोकस्योद्योतकरो दिशतु क्षयं सर्वदुःखानाम् ॥ ७० ॥ इति आतुरप्रत्याख्यानम् ॥ २॥ GADC ॥१०॥ 4-46 JHEtuatinatimemix मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र २५) "आतरप्रत्याख्यान" परिसमाप्त: ~15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः [25] पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। “आतुरप्रत्याख्यान-प्रकीर्णकसूत्र” [मूलं एवं छायाः] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "आतुरप्रत्याख्यान” मूलं एवं संस्कृतछाया:” नामेण / परिसमाप्त: - Remember it's a Net Publications of jain_e_library's' ~164