Book Title: Aagam 19 NIRAYAVALIKA Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९] श्री निरयावलिका (उपांग)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदसणस्स। पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । "निरयावलिका” मूलं एवं वृत्ति: [मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्तिः] [आट्य संपादक: - पूज्य अनुयोगाचार्य श्री दानविजयजी गणि म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) | 15/02/2015, रविवार, २०७१ महा कृष्ण ११ jain_e_library's Net Publications ___ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[१९], उपांग सूत्र-[८] “निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्तिः Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययनं [-]---------- ------- मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: NI + + + 2 WGONAMRSANETSAREISRAEESA 9 + - -+-+- +++ + 16 ETANETSAMHENRNETSAREisaeraEYANERIANETSARESHESARIYANETSARKETINGTON श्रीचन्द्रसूरिविरचितवृत्तियुतं प्रत सूत्राक श्री-निरयावलिकासूत्रम् e eshaweTHERS दीप अनुक्रम 5/3omersnersrespees CANAMIKRAMSAGARMERASन्द B E ग्यायाम्भोनिधिधीमद्विजयानन्दसूरिपुरन्दरशिष्यमहोपाध्यायश्रीमदधीरविजयशिष्य - रत्न-अनुयोगाचार्यश्रीमहान विजयगणिभिः संशोधितम् रु. ५०१) श्रेष्टि हरखचंद सोमचंद ह. नेमचंदभाइ मु० सुरत एतस्य प्राशस्य प्रध्यसाहाय्येन, प्रकाशयित्री श्रीआगमोदयसमितिः इदं पुस्तक अमदाबाद(राजनगर )मध्ये शाह वेणीचंद सूरचंद श्री आगमोदय समिति.सेकटरी इत्यनेन युनियनमीन्टिगप्रेसमध्ये टंकशालायां शाह मोहनलालचीमनलालद्वाराप्रकाशितम्।। बीरसंवत् २४४८, पण्य रु०-१२-० प्रतयः ७२० विक्रम संवत् १९७८. सन १९२२, R MEMOMARIJNAAMINMAMATAARAKHARINARRANAGEMARINNERMISERNMEANEERINARMIRAJNIKAMMRDARom I G - - - - - - --+- + - + SARKESMARTERS निरयावलिका-उपाङ्गसूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका: २० निरयावलिका-उपाङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: २१ मुलांक: अध्ययन पृष्ठांक: मूलांक: अध्ययन पृष्ठांक: | मूलांक: अध्ययनं पृष्ठांक: ००१ [१] काल: ०२० । [२] सुकाल: ०२१ । [३-१०] कृष्ण, सुकृष्ण आदि | ४० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] “निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 2~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [निरयावलिका' - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले "निरयावलिका' के नामसे सन १९२ २ (विक्रम संवत १९७८) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद अनुयोगाचार्य श्री दानविजयजी गणि महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और संपादकपूज्यश्री तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | * हमारा ये प्रयास क्यों? * आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूर्वाचार्य) पूज्य श्री के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन एवं सूत्र चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है | हमने एक अनक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन-भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ....मुनि दीपरत्नसागर..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] “निरयावलिका मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [-]------------ ------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: न्यायाम्भोनिधिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपादपङ्कजेभ्यो नमः प्रत श्रीचन्द्रसूरिविरचितवृत्तियुतं सूत्राक श्रीनिरयावलिकासूत्रम् ॥ दीप अनुक्रम ॐ नमः श्रुतदेवतायै ।। तण काले ण ते णं समए णं रायगिहे नाम नयरे होत्या, रिद्ध, ॐ नमः श्रीशान्तिनाथदेवाय ॥ पार्श्वनाथ नमस्कृत्य, प्रायोऽन्यग्रन्थवीक्षिता । निरयावलिश्रुतस्कन्धे, व्याख्या काचित् प्रकाश्यते ॥१॥ तत्र निरयावलिकास्योपाङ्गग्रन्थस्यार्थती महावीरनिर्गतवचनमभिधित्सुराचार्यः सुधर्मस्वामी सूत्रकारः 'तेणं काले ण' इत्यादिग्रन्थं तावदाह-अत्र 'ण' वाक्यालङ्कारार्थ : । तस्मिन् काले-ऽवसर्पिण्याचतुर्थभागलक्षणे तस्मिन् समये-ततिशेषरूपे यस्मिन् तन्नगरं राजगृहाख्यं राजा च श्रेणिकाख्यः सुधर्म (श्रीवर्धमान)स्वामी च होत्थ' ति अभवत्-आसीदित्यर्थः । अवसर्पिणीत्वात्कालस्य वर्णकन्धवर्णितविभूतियुक्तमिदानीं नास्ति । "रिद्ध' इत्यनेन च नगरवर्णकः सूचितः, सब-"रिशथिमियसमिद्ध" भवनादिभिर्वृद्धिमुपगतं, भयर्जितत्वेन स्थिरं, समृद्ध-धनधान्यादियुक्तं, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः । "पमुइयजणजाणवयं" प्रमुदिताः प्रमोदकारणवस्तूनां सद्भावात् जना-नगरवास्तव्यलोकाः जानपदाच-जनपदभवास्तत्रा Baitaram.org मूलसूत्र-१ ~ 4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययनं [-]------------ ------- मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: (१९) बलिका. प्रत सुत्राक दीप (उत्तरपुरिच्छिमे दिसीभाए) गुणसिलए, चेइए, वन्नउ, असोमवरपायवे पुढविसिलापट्टएं ते णं काले ण ते ण समए ण समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जमुहम्मे नाम अणगारे जातिसंपन्ने जहा केसि जाव याताः सन्तो यस्मिन् तत् प्रमुदितजनजानपदम् | " उत्ताणनयणपेच्छणिज्ज" सौभाग्यातिशयात् उत्तानः अनिमिषैः नयने:लोचनः प्रेक्षणीयं यत्तत्तथा । "पासाइयं चित्तप्रसत्तिकारि। “दरिसणिज्ज" यत् पश्यञ्चक्षुः श्रमं न गच्छति । अभिरूवं' मनोक्षरूपम् । “पडिरूवं" द्रष्टारं द्रष्टार प्रति रूपं यस्य तत्तयेति। तस्मिन् “ उत्तरपुरिच्छिमे दिसीभाए गुणसिलए नाम चेहए होत्था" चैत्य-व्यन्तरायतनम् बन्नओ' ति चैत्यवर्णको वाच्य:-"चिराईए पुचपुरिसपन्नत्ते" चिर:-चिरकाल: आदि:निवेशो यस्य तत् चिरादिकम् अत एव पूर्वपुरुवैः-अतीतनरैः प्राप्तम्-उपादेयतया प्रकाशितं पूर्वपुरुषप्राप्तम् । “सच्छत्ते सज्झए सघंटे सपडागे करवेयहीए" कृतवितर्दिक-रचितवेदिकं "लाउल्लोइयमहिए" लाइयं-यद्भुमेश्छगणादिना उपलेपनम्, उल्लोइयं-कुडघमालानां सेटिकादिभिः संमृष्टीकरण, ततस्ताभ्यां महितमिव महितं पूजितं यत्तत्तथेति । तत्र च गुणशिलकत्ये अशोकवरपादपः समस्ति, “तस्स णं हेट्ठा खंधासने, पत्थ ण मई पगे पुढविसिलापट्टए पन्नत्ते, विक्खंभायामसुप्पमाणे आईणगरूयबूरनवणीयतूलफासे" आजिनक-वर्ममयं यक्ष, कत-प्रतीतं, बूरो-धनस्पतिविशेषः, नवनीत-प्रक्षण, तुलम्-अर्कतूलं, तात् रूपों यस्य स तथा, कोऽर्थः १ कोमलस्पर्शयुक्तः । 'पासाप जाव पडिरूवे' ति | 'ते काले णे' इत्यादि, 'जासंपन्ने' उत्तममातृकपक्षयुक्त इति बोद्धव्यम्, अन्यथा मातृकपक्षसंपन्नत्वं पुरुषमात्रस्यापि स्यात् इति नास्योत्कर्षः कशिदुको भवेत् , उत्कर्षाभिधानार्थ चास्य विशेषणकलापोपादानं चिकीर्षितमिति । पर्व "कुलसपने," नवरं कुलं-पैतृकः पक्षः। "बलसंपन्ने" बल-संहननविशेषसमुत्थः प्राणः । 'जहा केसि' ति केसि (शि) वर्णको वाच्यः, सब “विणयसंपन्ने" लाघवं वाच्यविशेष इति वा पाठः MEAdaalana अनुक्रम मूलसूत्र-२ ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्तिः) अध्ययनं [-]------------ ------- मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: पंचहि अणगारसरहिंसद्धि संपरिबुडे पुवाणुपुबिचरमाणे जेणेव रायगिहे नगरे जाव अहापडिरूवं उमाहं ओगिन्हित्ता संजमेणं जाव प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं भावतो गौरवत्रयत्यागः पभिः संपन्नो यः स तथा| "ओयंसी" ओजी-मानसोऽवष्टम्भः तद्वान् ओजस्थी, तेजः-शरीरप्रभा तमान तेजस्वी, बचो-वचनं सौभाग्याधुपेतं यस्यास्तीति वचस्थी, " जसंसी" यशस्वी-स्यातिमान, इह विशेषणचतुष्टयेऽपि अनुस्वारः प्रात्यात| "जियकोहमाणमायालोमे"नवर कोधादिजयः उदयप्रासकोधादिविफलीकरणतोऽवसेयः । 'जीवियासामरणभयविप्पमुके' जीवितस्थ-प्राणधारणस्य आशा-वाञ्छा मरणाच यदय ताभ्यां विप्रमुक्को जीबिताशामरणभयविनमुकः तदुभयोपेक्षक इत्यर्थः । 'तपप्पहाणे'तपसा प्रधान:-उत्तमः शेषमुनिजनापेक्षया तपोषा प्रधान यस्य स तपःप्रधानः । एवं गुणप्रधानोऽपि, नवरं गुणाः-संयमगुणाः । करणचरणप्पहाणे' चारित्रप्रधानः । 'निग्गहप्पहाणे' निग्रहो-अनाचारप्रवृत्तेनिषेधनम् । 'घोरबंभचेरवासी' घोरं च तत् ब्रह्मचर्य च अल्पसत्वैर्दुःखेन यदनुचर्यते तस्मिन् घोरब्रह्मचर्यवासी । 'उच्छदसरीरे' 'उच्छुळे ति उज्नितमिष उज्झितं शरीरं तत्सत्कार प्रति निःस्पृहत्वात् (येन) स तथा । 'चोहसपुव्वी चउनाणोषगए' चतुर्मानोपयोगत:-केवलवर्जशानयुक्तः । केसि(शि)गणधरी मतिश्रुतावधिज्ञानत्रयोपेत इति दृश्यम् । आचार्यः सुधर्मा पञ्चभिरनगारशतैः सार्ध-सह संपरिवृतः समन्तात्परिकलित: पूर्वानुपया न पश्चानुल्यां चेत्यर्थ: कमेणेति हदयं, चरन-संचरन् । एतदेवाह-"गामाणुगाम दाज्जमाणे " ति प्रामानुप्रामश्च विवक्षितग्रामादनन्तरमामी ग्रा. मानुग्राम तत् द्रवन -गच्छन्-एकस्माद् प्रामादनन्तरग्राममनुलायनित्यर्थः, अनेनाप्रतिबद्ध विहारमाह । तत्राप्यौत्सुक्याभाषमाह-सुहसुहेण विहरमाणे' सुखसुखेन-शरीरखेदाभावेन संयमाऽऽबाधाभावेन च विहरन प्रामादिषु वा तिष्ठन् । 'जेणेव ' ति यस्मिन्नेव देशे राजगृह नगरे यस्मिन्नेव प्रदेशे गुणशिलकं चैत्य तस्मिन्नेव प्रदेशे उपागच्छति, उपागत्य यथाप्रतिरूपं यथोचित मुनिजनस्य अवग्रहम्-आवासम् अवगृह्य-अनुज्ञापनापूर्वक गृहीत्या संयमेन तपसा चात्मानं भा Premummumom wirelaurainrary.org ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [-]------------ ------- मूलं [] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: लिका निरया-N ॥२॥ प्रत सूत्राक दीप विहरति । परिसा निगया। धम्मो कहिओ ।परिसा पडिगया । तेणं काले णं ते णे समए णं अज्जमुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी जंबू णाम अणगारे समचउरंससंठाणसंठिए जाब सखित्तविउलतेयलेस्से अन्जमुहम्मस्स अणगारस्स अदूरसामते उजाणू वयन् विहरति-आस्ते स्म। 'परिसा निग्गय ' ति परिषत्-श्रेणिकराजादिको लोकः निर्गता-निःसृता सुधर्मस्वामिवन्दनार्थम् | धर्मश्रषणानन्तरं “जामेव दिसि पाउम्भूआ तामेव दिसि पडिगय" ति यस्या दिशः सकाशात् प्रादुर्भूता-आगतेत्यर्थः तामेव दिशं प्रतिगता इति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये आर्यसुधर्मणोऽन्तेवासी आर्यजम्बूनामाऽनगारः काश्यपगोत्रेण । सत्तुस्सेहे' सप्तहस्तोच्छ्यः , 'समचउरंससंठाणसंठिए' यावरकरणादिदं दृश्यं वज्जरिसहनारायसंघयणे कणगपुलगनिधसपम्हगोरे' कनकस्य-सुवर्णस्य 'पुलग' ति यः पुट को-लवः तस्य यो निकषः-कषपट्टरेखालक्षणः तथा 'पम्हेति' पद्मगर्भः तत् यो गौरः स तधा, वृद्धव्याख्या तु-कनकस्य न लोहादेयः पुलकः-सारो वर्णातिशयः तत्प्रधानो यो निकपो-रेखा तस्य यत् पक्ष्म-बहलत्वं तद्वयो गौरः स कनकपुल कनिकषपश्मगौरः । तथा 'उम्गतये' उग्रम्-अप्रधृष्यं तपोड स्येति कृत्वा । 'तत्ततवे' तप्तं-तापितं तपो येन स तप्ततपाः पर्व तेन तपस्तप्तं येन कर्माणि संताप्य तेन तपसा स्वात्माऽपि तपोरूपः संतापित इति । तथा दीप्तं तपो यस्य स दीप्ततपाः, दीप्तं तु-हुताशन इव ज्वलत्तेजः कर्मवनदाहकत्वात् ।'उराले' उदार:-प्रधानः । 'घोरे घोर:-निघृणः परीषदेन्द्रियकषायाख्यानां रिपूणां विनाशे कर्तव्ये । तथा 'घोरव्यए' घोराणि-अभ्यर्दुरनुचराणि व्रतानि यस्य स तथा। तथा धोरैस्तपोभिस्तपस्वी घोरतपस्वी । “सखित्तबिउलतेयलेस्से" संक्षिप्ताशरीरान्तनिलीना विपुला-अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्था तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभावा तेजोलेश्या (यस्य सः) एवं गुणविशिष्टो जम्बूस्वामी भगवान्, आर्यसुधर्मणः स्थविरस्य "अदूरसामंते"त्ति दूर-विप्रकर्षः सामन्तसमीपम, उभयोरभावोऽदरसामन्तं (तस्मिन) नातिरे नातिसमीपे उचिते देशे स्थित इत्यर्थः । कथं ? 'उड्डेजाणू IMI||२ अनुक्रम (३) FaPranaumyamwom anditurary.org मूलसूत्र-३ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [-]------------ ------- मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप जाब विहरति लिए णं से भगवं जंबू जातसडे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासि-उबंगाणं भंते ! समणे ण जाव संपत्तेणं के अटे पणत्ते! एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेण एवं उबंगाणं पंच वम्गा पन्नता, तं जहाशुद्धपृथिव्यासनवर्जनात् औपग्रहिकनिषद्याभावाच उत्कटुकासनः संन्नपदिश्यते ऊ जानुनी यस्य स ऊर्ध्वजानुः, अधःशिराः अधोमुखः नोर्व तिर्यग्या निक्षिप्तदृष्टिः, किंतु नियतभूभागनियमितरष्टिरिति भावना। यावत्करणात् 'माणकोट्ठोषगए' ध्यानमेव कोष्ठो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतो ध्यानकोष्ठोपगतः, यथाहि-कोष्ठ के धान्य प्रक्षिप्तमविप्रकीर्ण भवति एवं स भगवान् धर्मध्यानकोष्ठमनुप्रविश्य इन्द्रियमनांस्यधिकृत्य संवृतात्मा भवतीति भावः । संयमेन-संवरेण तपसा ध्यानेन आत्मानं भावयन-वासयन् विहरति-तिष्ठति । 'लए ण से' इत्यादि, तत इत्यानन्तयें तस्मादू ध्यानादनन्तरं, णं इति वाक्यालबारे, स आर्यजम्बूनामा उत्तिनुतीति संबन्धः, किम्भूतः सन्नित्याह-'जायसड्ढे' इत्यादि आता-प्रवृत्ता श्रद्धा-नच्छा यस्य प्रष्टुं स जातथखः, यहा जाता श्रद्धा-इच्छा वक्ष्यमाणवस्तुतवपरिज्ञानं प्रति यस्य स जातबद्धः। तथा जातः संशयोऽस्येति जातसंशयः, तथा जातकुतूहल:-जातौत्सुक्य इत्यर्थः विश्वस्यापि वस्तुव्यतिकरस्यानेषु भणनादुपाङ्गेषु कोऽन्योऽर्थों भगवताऽभिहितो भविष्यति? कथं च तमहमवभोत्स्ये? इति 'उहाए उडेइ' उत्थानमुत्था-ऊध्वं वर्तनं तया उत्तिष्ठति, उत्थाय च 'अजसुहम्मं थेरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेर ति त्रिः कृत्वः-श्रीन वारान् आदक्षिणप्रदक्षिणां-दक्षिणपार्धादारभ्य परिभ्रमणतः (पुनः) दक्षिणपार्श्वप्राप्तिः आदक्षिणप्रदक्षिणा तां करोति-विदधाति, कृत्वा च वन्दते-वाचा स्तौति, नमस्यति-कायेन प्रणमति, 'नयासने नाइरे' उचिते देशे इत्यर्थः। 'सुस्ससमाणे ' श्रोतुमिच्छन् । 'नमंसमाणे ' नमस्यन-प्रण मन । अभिमुखं 'पंजलिउडे' कृतप्राञ्जलिः। विनयेन उक्तलक्षणेत पज्जुवासमाणे' पर्युपासनां विदधान एवं इति वक्ष्यमाणMI प्रकारं वदासि त्ति अवादीत्-भगवता उपाङ्गाना पश्च वर्गाः प्रज्ञापाः, गोंऽध्ययनसमुदायः, तथेत्यादिना पञ्च वर्गान दर्शयति FarPrammarvam umom अनुक्रम E Turmurary.org मूलसूत्र-४ ...अत्र निरयावलिका-आदि पञ्च उपांगानि पञ्च वर्गा: रुपेण आख्याता: [ निरयावलिका आदि जो पांच उपांग है, उन पांचो को यहां सूत्रकारश्री ने पांच 'वर्ग रूपसे दिखाया है, इन पांचो कि वृत्ति एवं हस्तप्रत, सभी संप्रदायकी मुद्रित प्रते वगैरेह भी एक साथ प्राप्त होती है, इससे ये दुविधा रहेति है कि ये पांचो आगम भिन्न है या एक हि उपांग के पांच वर्ग है। ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [-]----------- ------- मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: निरया वलिका. निरयावलियाओ १ कप्पवडिसियाओ २ पुफियाओ ३ पुष्पचूलियाओ ४ वण्हिदसाओ ५। जहण भते ! समणेण जाव संपत्तेणं उबंगाणं पंच वग्गा पन्नत्ता त जहा-निरयावलियाओ जाव वण्हिदसाओ पढमस्स णं भंते वग्गस्स उबंगाणं निरयावलियाण समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कइ अज्झयणा पन्नचा? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं उर्वगाणं पढमस्स वग्गस्स निरयावलियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, ते जहा-काले १ मुकाले २ महाकाले ३ कण्हे ४ सुकण्हे ५ तहा महाकण्हे ६ वीरकण्हे ७ य बोद्धव्वे रामकण्हे ८ तहेब य पिउसेणकण्हे ९ नवमे दसमे महासेणकण्हे १० जण भंते ! समणेणं जावसंपत्तेणं उबंगाणं पढमस्स० निरयावलियाणं दस अज्झयणा पनत्ता, पढमस्स ण भंते ! अज्झयणस्स निरयावलियाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पन्नत्ते ! एवं खलु जंबू । ते णं काले ण ते णं समए णं इहेब जंबुद्दीवे दीवे अनुक्रम "निरयापलियाओ कप्पडिसयाओ पुफियाओ पुप्फलियाओषण्हिदसाओ"त्ति प्रथमवर्गों दशाध्ययनात्मकः प्राप्तः। अध्ययनदशकमेवाह-'काले सुकाले' इत्यादिना, मातृनामभिस्तदपत्यानां पुत्राणां नामानि, यथा काल्या अयमिति कालः कुमारः, एवं सुकाल्याः माहाकाल्याः कृष्णायाः सुकुष्णायाः महाकृष्णायाः धीरकृष्णायाः रामकृष्णायाः पितृसेनकृष्णायाः महासेनकृष्णायाः अयमित्येवं पुत्रनाम वाच्यम् । इह काल्या अपत्यमित्याच प्रत्ययो नोत्पाद्यः, काल्यादिशब्देष्वपत्येऽर्थे एयण प्राप्त्या कालसुकालादिनामसिद्धः, एवं चायः कालः १, तदनु सुकालः २, महाकालः ३, कृष्णः ४, सुकृष्णः ५, महाकृष्णः ६, वीरकृष्ण:७, रामकृष्णः८, पितृसेनकृष्णः९,महासेनकृष्णः१० दशमः । इत्येवं दशाध्ययनानि निरयावलिकानामके प्रथमवर्गे इति। 'एवं खलु जंबू ते ण काले ण' मित्यादि, 'इहेध' त्ति इहैव देशतः प्रत्यक्षासने न पुनरसह्येयत्वाजम्बूद्वीपानामग्य चेति SAREncould मूलसूत्र-५, ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] ------------ ------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: (१९) प्रत सूत्राक दीप भारहे वासे चंपा नाम नपरी होत्या, रिद्ध, पुन्नभई चेहए, तत्थ ण चपाए नयरीए सेणियस्स रो पुत्ते चेलणाए देवीभत्तए कूणिए नाम राया होत्या, महता, तस्स ग कूणियस्स स्नो पउमावई नाम देवी होत्या, सोमाल जाव विहरइ । भावः । भारते घर्ष-क्षेत्रे चम्पा पषा नगरी अभूत् । रिद्धत्यनेन 'रिस्थिमियसमिद्धे 'त्यादि रश्य, व्याख्या तु प्राग्वत् । तत्रोत्तरपुर्वदिग्भागे पूर्णभद्रनामकं चैत्यं ध्यन्तरायतनम् । 'कुणिए नाम राय' ति कणिकनामा श्रेणिकराजपुत्रो राजा होत्थ' त्ति अभवत् । तद्वर्णको “महयाहिमवंतमहतमलयमंदरमहिंदसारेत्यादि पसंतडिंबडमर र पसाहेमाणे विहरह" इत्येतदन्तः, तत्र महाहिमपानिय महान, शेषराजापेक्षया, तथा मलयः-पर्वतविशेषो, मन्दरो-मेकः, महेन्द्रः-शकादिदेवराजः, तइत्सार:-प्रधानो यः स तथा। तथा प्रशान्तानि डिम्बानि-विना डमराणि च-राजकुमारादिकृता विवरा यस्मिंस्तत्तथा (राज्य) प्रसाधयन-पालयन विहरति-आस्ते स्म । कणिकदेव्याः पद्मावतीनाम्न्या वर्णको यथा-'सोमाल जाब विहर' यावत्करणादेवं रश्यम् “सुकुमालपाणिपाया अहीणपंचिंदियसरीरा" अहीनानि-अन्यूनानि लक्षणतः स्वरूपतो वा पञ्चापीस्त्रियाणि यस्मिस्तत् तथाविधं शरीरं यस्याः सा तथा । “लक्खणवंजणगुणोववेया लक्षणानि स्वस्तिकचकादीनि व्यानानि-मीतिलकादीनि तेषां यो गुणः-प्रशस्तता तेन उपपेता-युक्ता या सा तथा, उप अप इता इतिशब्दत्रयस्य स्थाने शकवादिदर्शनात् उपपेतेति स्यात् । “माणुभ्माणप्पमाणपडिपुनसुजायसम्धंगसुंदरंगी" तत्र मान-जलद्रोणप्रमाणता, कथं । जलस्यातिभृते कुण्डे पुरुषे निवेशिते यजलं निःसरति तद्यदि द्रोणमानं भवति तदा स पुरुषो मानप्राप्त उच्यते, तथा उन्मानम्-अर्धभारप्रमाणता, कथं ! तुलारोपितः पुरुषो यपर्धभारं तुलयति तदा स उग्मानप्राप्त उच्यते, प्रमाणं तु स्थाङ्कलेनाष्टोत्तरशतीच्छ्रायिता, ततभ मानोन्मानप्रमाणः प्रतिपूर्णानि-अन्यूनानि सुजातानि सर्वाणि अङ्गानि-शिरःप्रभृतीनि यस्मिस्तत् तथाषिधं सुन्दरम् अङ्ग-शरीरं यस्याः सा तथा । “ससिसोमाकारकतपियदसणा" शशिवत्सौम्याकारं कान्त च-कमनीयम् अत पर प्रियं द्रष्णां दर्शन-रूप यस्याः सा तथा । अत एव सुरूपा स्वरूपतः सा पद्मावती देवी 'कुणिएण सद्धि उरालाई FaPranaamvam ucom अनुक्रम SAREaa n d . अथ कालकुमारस्य कथा आरभ्यते ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्तिः) अध्ययनं [१] ------------ ------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: निरयारिया- ॥४॥ तत्थ ण चपाए नयरीए सेणियस्स रनो भज्जा कूणियस्स स्त्रो चुल्लमाउया काली नामं देवी होत्था, सोमाल जाव मुख्यातीसे णं कालीए देवीए पुचे काले नाम कुमारे होत्था, सोमाल जाव मुरूवे । भोगभोगाई भुंजमाणी विहरइ' भोगभोगान्-अतिशयवद्धोमान् । 'तस्थ णं' इत्यादि । 'सोमालपाणिपाया' इत्यादि पूर्वधवाच्यम्। अन्यच "कोमुहरयणियरविमलपडिपुन्नसोमवयणा" कौमुदीरजनीकरवत्-कार्तिकीचन्द्र इव विमलं प्रतिपूर्ण सौम्यं च वदन यस्याः सा तथा । 'कुंडलुल्लिहियगंडले हा कुण्डलाभ्यामुल्लिखिता-धृष्टा गण्डलेखा-कपोलविरचितमृगमदादिरेखा यस्याः सा तथा। 'सिंगारागारचारवेसा' शृङ्गारस्य-रसविशेषस्य अगारमिष अगारं तथा चारः वेषो-नेपथ्यं यस्याः सा तथा ततः कर्मधारयः। काली नाम देवी' श्रेणिकस्य भार्या कणिकस्य राज्ञञ्चल्लजननी-लघुमाताऽभवत् । सा च काली “सेणियस्स रनो इटा" बालभा कान्ता काम्यत्वात् 'पिया' सदा प्रेमविषयत्वात् , ' मणुना' सुन्दरत्वात् 'नामधिजा' प्रशस्तनामधेयवतीत्यर्थः नाम वा धार्य-दृदि धरणीय यस्याः सा तथा, "सासिया' विश्वसनीयत्वात् , ' सम्मया' तत्कृतकार्यस्य संमतत्वात् ‘बहुमता' बहुशो बहुभ्यो वाऽन्येभ्यः सकाशात् बहुमता बहुमानपात्र वा, 'अणुमया' विप्रियकरणस्यापि पश्चात्मताऽनुमता । भंडकरंडकसमाणा' आभरणकरण्डकसमाना उपादेयत्वात् सुरक्षितत्वाश्च । 'तेल्लु केला इव सुसंगोषिया' तलकेला सौराष्ट्रप्रसिद्धो मृन्मयस्तैलस्य भाजनविशेषः, स च भङ्गभयात् लोचनभयाच सुष्टु सङ्गोप्यते, एवं साऽपि तथोक्यते। 'चेलापेडा इव सुसंपरिग्गहिया वसमाषेवेत्यर्थः । 'सा काली देवी सेणियण रत्ना सद्धिं बिउलाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरह। कालनामा च तत्पुत्रः 'सोमालपाणिपाए' इत्यादि प्रागुक्तवर्णकोपेतो वाच्यः, यावत् 'पासाइए दरिणिजे अभिरूवे पडिलवे' इति पर्यन्तः। सेणियस्स रजे दुवे रयणा अट्ठारसबंको हारो १ सेयणगे हस्थीए । तत्थ किर सेणियस्स रन्नो जावइयं रजस्स मुलं तावइयं देवदिनहारस्स सेयणगस्स य गंधहत्थिस्स | तत्व हारस्स उत्पत्ती पत्यावे कहिजिस्सइ । कृणियस्स य पत्थेव उप्पत्ती बित्थरेण भणिस्सा, तत्कार्यण कालादीनां मरणसंभवात् आरम्भसयामतो नरकयोग्यकर्मोपचयविधानात् । Pranaamaan unsony अनुक्रम REATIRana मूलसूत्र-६ ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] ------------ ------- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप नवरं कृणिकस्तदा कालादिवशकुमाराषितसम्पायां राज्यं चकार, सर्वेऽपि च ते दोगुन्दुगदेषा व कामभोगपरायणाचपखिशाख्या देवाः फुट्ठमाणेहिं मुइंगमत्थपहिं बरतरूणिसप्पिणिहिएहि बत्तीसपत्तनिबद्धेहि नाडपहिं उपगिज़माणा भोगभोगाई भुंजमाणा विहरति । बल्लपिहल्लनामाणो कूणियस्स चिलणादेवीगजाया दो भायरा अन्नेऽषि अस्थि । अहुणा हारस्स उत्पत्ती भन्ना-दत्य सक्को सेणियस्स भगवंतं पर निचलभत्तिस्स पसंसं करेइ । तओ सेडुयस्स जीषदेषो तम्भत्तिरंजिओ सेणियस्स तुट्ठो संतो अट्ठारसर्वक हारं देह, दोन्नि य वट्ठगोल के देह । सैणिएणं सो हारो चेल्लणाए दिनो पिय त्ति काउं, बट्टदुर्ग सुनंदाए अभयमंतिजणणीए । ताए रुटाए कि अहं चेडरूवं ति काऊण अच्छोडिया भग्गा, तत्थ पगम्मि कुंडलजुयलं पगम्मि पत्यजुयल तुट्ठाए गहियाणि। अन्नया अभओ सामि पुच्छर-को अपच्छिमो रायरिसि' ति। सामिणा उहायिणो वागरिओ, अओ परं बद्धमउडान पब्वयंति। ताहे अभएण रजं दिज्जमाणं न इच्छिय ति पच्छा सेणिओ चिंतेइ 'कोणियस्स दिजिहित्ति हल्लस्स इत्थी दिनो सेयणगो विहल्लस्स देवदिन्नो हारो, अभएण वि पय्वयं तेण सुनंदाए खोमजुयलं कुंडलजुयलं चहलपिहालाणं दिनाणि । महया विहवेण अभओ नियजणणीसमेओ पवाओ। सेणियस्स चेलणादेवीअंगसमुन्भूया तिन्नि पुत्ता कृणिओ हल्लविहल्ला य । कृणियस्स उत्पत्ती पत्थेव भणिस्सह । कालीमहाकालीपमुहदेवीणं अन्नासि तणया सेणियस्स बहवे पुत्ता कालपमुद्दा संति । अभयम्मि गहियब्बए अन्नया कोणिओ कालाई हि दसहि कुमारेहि समं मंतेह-'सेणिय सेच्छाविग्धकारयं बंधित्ता पक्कारसभाए रज करेमो ति, तेहि पडिस्सुयं, सेणिओ बद्धो, पुष्यन्हे अपरनी य कससयं दवावेड सेणियस्स कूणिओ पुन्वभवे वैरियतणेण चेल्लणाए कयाइ भोयं न देह भत्तं धारियं पाणियं न देह । ताहे चेलणा कहऽवि कुम्मासे वाले हिं बंधित्ति समारंवसुरं पवेसेइ । सा किर धोव्वर सयबारे सुरा पाणिय सन्वं होह, तीए पहावेण सो वेयणं न वेपइ । अन्नया तस्स पउमावईदेवीए पुत्तो एवं पिओ अत्थि, मायाए सो भणिओ 'होय' प्रत्यन्तरे. अनुक्रम ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] --------- ------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: निरया बलिका प्रत सुत्राक "दुरात्मन् ! तव अंगुली किमिए वमती पिया मुहे काऊण अधियाओ, इयरहा तुम रोवतो व चिट्ठसु"। ताहे चित्त मणागुषसंत जायं मैए पिया एवं बसणं पाविओ, तस्स अधिई - जाया, भुंजतओ चैव उट्ठाय परसुहत्थगओ, अन्ने भणति लोहदंड गहाय, 'नियलाणि भजामि' ति पहाविओ। रक्खवालगो नेहेण भणइ-एमो सो पावो लोहदंड परसुं वा गहाय एइ' ति । सेणिपण चिंतियं-'न नजइ केण कुमारेण मारेहि?'। तउ तालपुडगं विसं खइयं । जाव पड़ ताव मओ। सुट्ठयरं अधिई जाया । ताहे मयकिच्चं काऊण घरमागओ रजधुरामुक्कतत्तीओ तं चैव चिंततो अच्छा । एवं कालेण विसोगो जाओ। पुणरवि सयणआसणाईए पिइसतिए दट्ठण अधिई होह । तउ रायगिहाओ निग्गंतु चपं रायहाणि करे।। एवं चंपाए कृणिओ राया रजं करेइ नियगभायपमुहसणसंजोगओ। इह निरयावलियासुयखंधे कृणिकवक्तव्यता आदावुत्क्षिप्ता | तत्साहाय्यकरणप्रवृत्तानां कालादीनां कुमाराणां दशानामपि सङ्गामे रथमुशलारुये प्रभूतजनक्षयकरणेन नरकयोग्यकर्मोपार्जनसंपादनान्नरकुगामितया 'निरयाउ' त्ति प्रथमाध्यगनस्य कालादिकुमारवक्तव्यताप्रतिवद्धस्य एतनाम । अथ रथमुशलाख्यसयामस्योत्पत्तौ कि निबन्धनम् । अत्रोच्यते-एवं केिलायं सयामः संजातः-चम्पायां कूणिको राजा राज्यं चकार । तस्य चानुजौ हल्लविहल्लाभिधानौ भ्रातरौ पितृदत्तसेचनकाभिधाने गन्धहस्तिनि समारूढौ दिव्यकुण्डलदिब्यबसनदिव्यहारविभूषितौ विलसन्तौ दृष्ट्वा पद्मावत्यभिधाना कुणिकराजस्य भार्या कदाचिद्दन्तिनोऽपहाराय तं कणिकराजं प्रेरितवती- कर्णविषलग्नकृतोऽतोऽयमेव कुमारो राजा तवतः, न त्वं, यस्येशा विलासाः"। प्रज्ञाप्यमानाऽपि सा न कथञ्चिदस्यार्थस्योपरमति, तत्प्रेरितकूणिकराजेन तौ याचितौ। तौ च तदयावशाल्यां नगया स्वकीयमातामहस्य चेटकाभिधानस्य राज्ञोऽन्तिके सहस्तिको सान्तःपुरपरिघारितौ गतवन्तौ । कूणिकेन च दूतप्रेषणेन तौ याचित्तौ । न च तेन प्रेषितौ, कुणिकस्य तयोश्च तुल्यमातृकत्वात् । ततः कुणिकेन भणित- यदि न प्रेषसि तदा युद्धसज्जो भव' । तेनापि तो तुमए ' प्रत्यन्तरे. दीप अनुक्रम Bitana ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] ------------ ------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप तते णं से काले कुमारे अन्नया कयाइ तिहिं देतीसहस्सेहिं तिहिं रहसहस्सेहिं तिहिं आससहस्सेहिं लिहिं मणुयकोडीहि गरुलचूहे। एकारसमेणं खंडेणं कूणिएणं भणितम-एप सोऽस्मि । ततः कृणिकेन सह कालादयो दश स्वीया भिन्नमातृका भ्रातरो राजानोटकेन सह सहयामाय ,याताः । तत्रैकैकस्य त्रीणि त्रीणि हस्तिनां सहस्राणि, एवं रथानामश्वानां च, मनुष्याणां च प्रत्येकं तिस्रस्तिस्रः कोटयः । कृणिकस्याप्येवमेव । तत्र एकादशभागीकृतराज्यस्य कूणिकस्य कालादिभिः सह निजेन एकादशांशेन समामे काल उपगतः। एतमर्थ वक्तुमाह-तए ण से काले' इत्यादिना । एनं च व्यतिकरं ज्ञात्वा चेटकेनाप्यष्टादश गणराजानी मेलिताः, तेषां चेटकस्य च प्रत्येकमेवमेव हस्त्यादिबलपरिमाण, ततो युद्धं संप्रलसम् । चेटकराजस्य तु प्रतिपन्नग्रतत्वेन दिनमध्ये एकमेव शरं मुञ्चति अमोबवाणश्च सः। तत्र च कूणिकसैन्ये गरुडव्यूहः पेटकसैन्ये (च) सागरव्यूही विरचितः। TAN कणिकस्य कालो दण्डनायको निजयलाग्धिती युध्यमानस्तावद्गतो याचकचेटकः, ततस्तेन एकशरनिर्घातेनासौ निपातितःश भग्नं च कणिकबलम, गते चहे अपि बले निजं निजमाधासस्थानम् । द्वितीयेऽहि सकालो नाम दण्डनायको निजबलान्धिती युध्यमानस्ताबद्गती यावच्चेटकः, एवं सोऽप्येकारेण निपातितः २। एवं तृतीयेऽदि महाकालः, सोऽप्येचम्३. चतुर्थेऽहि कृष्णकुमारस्तथैव ४ पञ्च मे सुकृष्णः ५, पष्ठे महाकृष्णः ६, सप्तमे धीरकृष्णः ७, अष्टमे रामकृष्णः ८, नयमे पितृसेज कृष्णः ९दशमे पितृमहासनकृष्णः १० चेटकेनककशरेण निपातिताः। एवं दशसु दिबसेषु पेटकेन पिनाशिता दशापि कालादयः। पकादशे तु दिवसे चेटकजयार्थ देवताराधनाय कूणिकोऽष्टमभक्तं प्रजग्राह| ततः शकचमराभागातीतः शाको बभाषे- चेटकः श्रावक त्यहं न तं प्रति प्रहरामि, नवरं भवन्तं संरक्षामि"। ततोऽसौ तद्रक्षार्थ धनप्रतिरूपकमभेषकवचं कृतवान् । चमरस्तु द्वौ सशामौ विकुर्वितधान् महाशिलाकण्टकं रथमुशलं चेति । तत्र महाशि FaPaumyam umony अनुक्रम murary ou ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] ------------ ------ मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: निरखा-N ॥६॥ । प्रत रखा सद्धिं रहमुसलं संगाम ओयाए । ततेणं तीसे कालीए देवीए अन्नदा कदाइ कुटुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूपे MAP अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्या-एवं खल्लु मम पुत्ते कालकुमारे तिहिं देतिसहस्सेहिं जाव ओयाए। से मन्ने कि जतिस्सति? नो जतिस्सति ! जीविस्सइ ! नो जीविस्सति ? पराजिणिस्सइ ? णो पराजिणिस्सइ ? काले ण कुमारे ण अई जीवमाणं पासिज्जा ! ओहयमण जाव झियाइ । तेणं काले ण ते णं समए णं समणे भगवं महावीरे समोसरिते । परिसा निमाया। तते ण तीसे कालीए देवीए इमीसे कहाए लहाए समाणीए अयमेतारूवे अज्झस्थिए जाव समुपज्जित्या सूत्राक दीप अनुक्रम (७) लेव कण्टको जीवितभेवकत्यान्महाशिलाकण्टकः । ततश्च यत्र तृणशूकादिनाऽप्यभिहतस्याश्वहस्त्यादेमहाशिलाकण्टकेनेवास्याहतस्य वेदना जायते, स सलामो महाशिलाकण्टक एवोच्यते । 'रहमुसले ति यत्र रथी मुशलेन युक्तः परिधान महाजमक्षयं कृतवान् अतो रथमुशलः । 'ओयाप' त्ति उपयातः-संप्राप्तः । 'किं जास्सइ' त्ति जयश्लाघां प्राप्स्यति । परा जेच्यते- अभिभविष्यति परसैन्य परानभिभविष्यति उत नेति कालनामानं पुत्र जीवन्तं द्रक्ष्याम्यहं न बेत्येवम् उपहतो मनःसंकल्पो युक्तायुक्तविवेचनं यस्याः सा उपहतमनःसंकल्पा । यावत्करणात् “करयलपल्हस्थियमुशी अट्ठन्माणोषगया ओमंथियवयणनयणकमला" ओमंधिय- अधोमुखीकृतं वदनं च नयनकमले च यया सा तथा । 'दीणविषन्नषयणा' दीनस्येव विवर्ण वदनं यस्याः सा तथा । 'झियाइ ति आर्तध्यान ध्यायति, 'मणोमाणसिपण दुक्वेणं अभिभूया' मनसि जातं मानसिकं मनस्येव यवर्तते मानसिकं दुःखं वचनेनाप्रकाशितत्वात् तन्मनोमानसिक तेन अबहिर्वतिनाऽभिभूता । 'ते ण काले ण' इत्यादि । 'अयमेयारूवे' ति अयमेतवपो वक्ष्यमाणरूपः 'अज्झथिए' ति आध्यात्मिकः-आत्मविषयः चिन्तितः स्मरणरूपः, प्रार्थितः-लब्धुमाशंसितः, मनोगतः-मनस्येव वर्तते यो न बहिः प्रकाशितः, संकल्पो-विकल्पः, समुत्पन्नः-प्रादुर्भूतः। तमेवाह - 112 मुलसुत्र-७ ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] ------------ ------ मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप एवं खलु समणे भगवं० पुवाणुपुचि इहमागते जाव विहरति । तं महाफलं खलु तहाख्वाणं जाव विउलस्स अट्ठस्स गहणताए, तं गच्छामिण समणं जाव पज्जुवासायि । इमं च णे एयाख्वं वागरण पुच्छिस्सामि तिकट्ट एवं संपेहेइ 'एयमित्यादि । यावत्करणात् " पुन्वाणुपुब्धि चरमाणे गामाणुगाम दुइमाणे इहमागए इह संपत्ते इह समोसड़े, बहेव चपाए नयरीए पुन्नभद्दे चेइए अहापडिरूर्व उग्गहं उग्गिण्डित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरह"। 'तं महाफलं खलु' भो देवाणुप्पिया! 'तहारूवाण' अरहताणं, भगवंताणं, नामगोयस्स वि सवणयाप, किमंग पुण अमिगमणदणनमसणपडिपुच्छणपज्जुधासणाप ! एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स वयणस्स सबणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए गच्छामि गं' अहं समर्ण' भगवं महावीरं वदामि नमसामि सक्कारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगल देवयं चैहय 'पज्जुवासामि,' एवं नो पेश्वभवे हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सह 'इम च गं एयारूर्व वागरणं पुच्छिस्सामि तिकट्ट एवं संपेहेति' संप्रेक्षते-पर्यालोचयति, सुगमम् , नवरं 'इहमागए' ति चम्पायां, इह संपत्ते' त्ति पूर्णभन्ने चैत्ये, 'इह समोसदे' त्ति साधूचितावग्रह, एतदेवाह-हेव चंपार इत्यादि । 'अहापडिरूवं' ति यथाप्रतिरूपम् उचितमित्यर्थः । 'ते' इति तस्मात, 'महाफलं' ति महत्फलमायत्यां भवतीति गम्यं, तहारूवाण' ति तत्प्रकारस्थभावाना-महाफलजननस्वभावानामित्यर्थः । 'नामगोयस्त' ति नानो-यादृच्छिकस्याभिधानस्य, गोत्रस्य-गुणनिरूपन्नस्य 'सवणयाए ' ति श्रवणेन, किमंग पुण' ति किंपुनरिति पूर्वोक्तार्थस्य विशेषद्योतनार्थम् अङ्गेत्यामन्त्रणे, यता परिपूर्ण पयार्य शब्दो विशेषणार्थः, अभिगमन, बन्दनं-स्तुतिः, नमन-प्रणमनं, प्रतिपृच्छनं-शरीरादिवार्ताप्रश्र, पर्युपासनं-सेवा, तद्भाषस्तत्ता तया, एकस्यापि आर्यस्य आर्यप्रणेतृकत्वात्, धार्मिकस्य धर्मप्रतिबद्धत्वात्, बन्दामि-बन्दे, स्तौमि, नमस्यामि-प्रणमामि, सत्कारयामि-आदरं करोमि बनापर्चनं षा, सन्मानयामि उचितप्रतिपत्येति । कल्याण-कल्याणहेतु, MERana FaPaumaan unconm अनुक्रम (७) Ajunaturamom ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [७] “निरयावलिका” - उपांगसूत्र-८ (मूलं+ वृत्ति:) अध्ययनं [१] मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... ..आगमसूत्र [१९], उपांग सूत्र [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि - विरचिता वृत्तिः * 本亭 : 辛 众中营非佘辛 निरया- संहिता को बिय पुरिसे सहावेति २ ता एवं वदासि खिप्पामेव भी देवाणुप्पिया ! धम्मियं जाणप्पवरं जुतमेव उवेह, ववित्ता जाव पञ्च पिणंति । तते णं सा काली देवी व्हाया कयवलिकम्मा जाव अप्पमहन्याभरणालंकियसरीरा वहूहिं खुजाहिं जाव महत्तरगविंदपरिक्खित्ता अंतेउराओ निम्गच्छ, निम्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया मङ्गलं दुरितोपशमनहेतुं देवं चेत्यमिव चैत्यं पर्युपास्यामि सेवे, पतत्, नोऽस्माकं प्रेत्यभवे-जन्मान्तरे, हिताय पथ्यान्नभूत्, सुखाय शर्मणे, क्षमाय-सङ्गतत्वाय निःश्रेयसाय मोक्षाय, अनुगामिकस्थाय भवपरम्परासु सानुबन्धसुखाय, भविष्यति, इति कृत्वा इति हेतोः, संपेक्षते पर्यालोचयति, संप्रेश्य चैवमवादीत् शीघ्रमेव भो देवाणुप्पिया ! धर्माय नियुक्त धार्मिक, यानप्रवरं, 'चाउर्ट आसरहं' ति चतस्रो घण्टाः पृष्ठतोऽग्रतः पार्श्वतञ्च लम्बमाना यस्य स चतुर्घण्टः, अश्वयुक्तो रथोऽश्वरः थस्तमश्वरथं युक्तमेवाश्वादिभिः, उपस्थापयत प्रगुणीकुरुत, प्रगुणीकृत्य मम समर्पयत व्हाय'त्ति कृतमज्जना, स्नानानन्तरं • कवलिकम्मत्ति स्वगृहे देवतानां कृतवलिकर्मा, कयकीय मंगलपायच्छित्त' ति कृतानि कौतुकमङ्गखान्येव प्रायश्चितानीव दुःस्वप्नादिव्यपोहायावश्यकर्तव्यत्वात् प्रायश्चितानि यया सा तथा । तत्र कौतुकानि मषीपुण्ड्रादीनि मङ्गलादीनिसिद्धार्थध्यक्ष दूरादीनि, 'सुद्धप्पावेस्साई बत्थाई परिहिया' 'अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा' (इति) सुगमम्, 'बहूह्नि जाहिं जायेत्यादि तत्र कुब्जिकाभिः- वकजङ्घाभिः, बिलातीभिः - अनार्यदेशोत्यन्नाभिः, वामनाभिः-हस्वशरीराभिः घटभाभि:- मडकोशाभिः, बर्बरीभिः - बर्बरदेशसंभवाभिः, बकुशिकाभिः यौनकाभिः पण्डकाभिः इसिनिकाभिः वासिनिकाभिः लासिकाभिः लकुसिकाभिः द्रविडीभिः सिंहलीभिः आरबीभिः पक्वणीभिः बहुलीभिः मुसण्डीभिः शवरीभिः पारसीभिः नानादेशाभिः - बहुविधानार्यदेशोत्पन्नाभिरित्यर्थः विदेशस्तदीयदेशापेक्षया चम्पानगरी विदेशः तस्य परिमण्डिकाभिः, 'इंगियचितियन्धिवियाणियाहि' तंत्र इङ्गितेन नयनादिचेष्टाविशेषेण चिन्तितं च परेण हृदि स्थापितं प्रार्थितं च-अभिल For Penal Lise Only ~ 17~ 8-169) *46) 60 (69) बलिका. ॥७॥ diary.org Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] ------------ ------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: (१९) प्रत सूत्राक दीप उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिर जाणपवरे तेणेव उवागच्छड, धम्मियं जाणपवरं दुरुहति २ नियगपरियालसं परिवुडा चंप नयरी मझ मझेण निग्गच्छति२ जेणेव पुनभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ २ छ तादीए जावि धम्मियं जागबरं ठवेति २ धम्मियायो जागणवराओ पञ्चोरुहति २ बहूहिं जाव खुजाहि विपरिक्खिता जेगेसमणे भगवं [महावीरे] तेणेव उवागच्छति २ समण भगवं [महावीर] तिखुत्तो बंदति ७ डिया चेव सपरिवारा सुस्मूसमाणा नमसमागा अभिमुहा विगएण पंजलि उढा पज्जुवासति। तते णं समणे भगवं जाव कालीए देवीए तीसे य महतिमहालियाए धम्मकहा भाणियच्या जाव समगोवासए वा समणोवासिता वा विहरमागा आगाए आराहए भवति । तते णं सा कालो देवो समणस्स भावओ अंतिय धम्म सोचा निसम्म जाब हियया सभणं भगवं तिखुत्तो जाव एवं वदासि-एवं खल भंते मम पुत्ते काले कुपारे तिहिं दतिसहस्सेहि जाव रहमसलसंगाम ओयाते। सेणं भंते कि जास्सति ? नो जडस्सति जाब काले ण कुपारे अहं जीवमाण पासिज्जा ? कालीति समणे भगवै कालि देवि एवं क्या सी-एवं खलु काली ! तव पुत्ते काले कुमारे तिहिं दतिसहस्सेहिं जाप कणिएणं रचा सद्धि पितं च विजानन्ति याम्नास्तथा ताभिः. स्वस्वदेशे यनेपथ्यं परिधानादिरचना तहगृहीतो वेषो यकाभिस्तास्तथा ताभिः, निपुणनामधेयकशला यास्तास्तथा हाभिः, अत एव बिनीताभिः युक्तेति गम्यते, तथा चेटिकाचक्रयालेन अर्थात् स्वदेशसंभवेन वृन्दन परिक्षिापायाला तथा। उबट्ठाणसाला' उपवेशनमण्डपः। 'दुरूहा' आरोहति । यत्रव श्रमणो भगवान तत्रैवोपागता-संपाता. तदनु महावीरं त्रिःकरचो चन्दते स्तुत्या, नमस्य ति-प्रणमति, स्थिता चैव ऊवस्थानेन, कृताअटिपुटा अभिसंमुखा सती पर्युपासते। धर्मकथाश्रयणानन्तरं त्रिः कृत्वो वन्दयित्वा (वन्दित्वा) एवमवादीत्-एवं खलु भंते ' इत्यादि सुगमम् । अत्र कालीदेव्याः पुत्रः कालनामा कुमारो हमिलनुरगरथ पदातिरूपनि जसैन्यपरिवृतः कूणिकरा जनियुक्तधेटकराजेन सह अनुक्रम (७) Aduniorary.om ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] ------------ ------ मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: निरया ॥८॥ प्रत सूत्राक रहसुसलं संगाम संगामेमाणे हयमहियपवरवीरघातितनिवडितचिंधज्झयपडागे निरालोयातो दिसातो करेमाणे चेडगस्स रनो सपक्वं सपडिदिसि रहेणं पडिरह हव्वमागते। ततेणे से चेदए राया काल कुमारं एज्जमाणं पासति, काल एजमाणं पासित्ता आमुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे धणु परामुसति २ उसे परामुसइ २ वइसाई ठगणं ढाति २ आययकण्णायतं उसे करेति २ कालं कुमारं एगाइचं कूडाहच्च जीवियाओ ववरोवेति । ते कालगते ण काली ! काले कुमारे नो चेव णं तुर्म काल कुमारं जीवमाणं रथमुशल समामयन् सुभटेश्चेटकसत्कर्यदस्य कृतं तदाह- इयमहियपवरथीर घाइयनिवडियचिंधझयपडागे' (हतः) सैन्यस्य हतत्वात्, मथितो मानस्य मन्धनात्, प्रबरवीरा:-सुभटा घातिताः-विनाशिता यस्य, तथा निपातिताविध्वजाः-गरुडादिचिह्नयुक्ताः केतवः पताकाच यस्य स तथा, ततः पदचतुष्टयस्य कर्मधारयः । अत एव 'निरालोयाओ दिसाओ करेमाणे' त्ति निर्गतालोका दिशः कुर्वन् चेटकराजः (स्य) 'सपक्खं सपडिदिसिं' ति सपक्ष-समानपार्श्व समानवामेतरपार्श्वतया, सप्रतिदिक-समानप्रतिवितयाऽत्यर्थमभिमुख इत्यर्थः, अभिमुखागमने हि परस्परस्य समाधिय दक्षिणवामपानौं भवतः, एवं विदि शावपीति । इत्येवं स कालः चेटकराजस्य रथेन प्रतिरथं 'हवं' शीघ्रम् आसन-संमुखीनम् आगच्छन्तं दृष्ट्वा चेटकराजः तं प्रति 'आसुरुत्ते' रुढे कुविप चंडिक्किए 'मिसिमिसेमाणे' ति, तत्र आशु-शीनं रुष्टः-क्रोधेन विमोहितो यः स आशुरुष्टः, आसुरं वा-असुरसत्कं कोपेन दारुणत्वात् उक्त-भणितं यस्य स आसुरोक्तः, कष्टो-रोषधान ' कुविए' ति मनसा कोपवान् , चाण्डिक्यितो-दारुणीभूतः 'मिसिमिसेमाणे ' ति क्रोधवालया ज्वलन, 'तिपलिय भिउडि निडाले साहट्ट 'त्ति त्रिवलिकां भृकुटिं-लोचनविकारविशेष ललाटे सहत्य-विधाय, धनुः परामृशति, वाणं परामृशति, विशाखस्थानेन तिष्ठति, 'आययकपणायते' ति आकर्णान्तं बाणमाकृष्य पगाह' ति पकयवाहत्या आहननं प्रहारी यत्र जीवितव्यपरोपणे तदेकाहत्यं यथा भवति एवं, कथमित्याह-'कूडाहश्च' कूटस्येव-पाषाणमयमहामारणयन्त्रस्येव आहत्या आहननं यत्र तत्कटाहत्य, भगवतोक्तेयं दीप अनुक्रम [७] ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] ------------ ------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप पासिहिसि। तते णं सा काली देवी समेणस्स भगवओ अंतियं एयमह सोचा निसम्म महया पुत्तसोएणं अप्फुमा समाणी परसुनियत्ताविव चंपगलता धस त्ति धरणीतलंसि सब्बंगेहिं संनिवडिया। तते णं सा काली देवी मुहुर्ततरेणं आसत्या समाणी उढाए उद्वेति उद्वित्ता समणं भगवं [महावीरें] बंदइ नमसइ २ एवं क्यासी-एवमेयं भते! तहमेय भते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेय भंते ! सचेण एसमटे से जहेतं तुम्मे बदह त्तिक? समणं भगवं वंदइ नमैसइ २, तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरुहतिर जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगताभिते ति भगवं गोयमे जाव वंदति नमसति २ एवं क्यासी-कालेण भंते ! कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाब रहमुसलं संगाम संगामेमाणे चेहएणं रम्ना पगाह कूडाइच जीवियाओ ववरोविते समाणे कालमासे कालं किच्चा कहिं गते ? कहिं उववन्ने ! गोयमाति समणे भगवं गोयम एवं वदासि-एवं खलु गोयमा! काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहि जाब जीवियाओ ववरोविते समाणे कालमासे कालं किचा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेमामे नरगे दससागरोचमठिइएमु नेरइएसु नेरइयत्ताए उबरन्नों कालेणं मते ! कुमारे केरिसरहिं आरंभेहिं कैरिसरहिं (समारंभेहि केरिसरहि) आरंभसमारंभेहि केरिसरहिं भोगेहि केरिसएहि संभोगेहि केरिसरहिं भागसंभोगेहि केरिसेण वा असुभकडकम्मपन्भारेणं कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए जाब नेरइयचाए उवदन्ने ? एवं खलु गोयमा! ते णं कालेणं ते णं समएणं रायगिहे नाम नयरे होत्था, रिद्धत्यिमियसमिद्धा । तत्थ णं रायगिहे नयरे सेणिए नाम राया होत्या, महया। तस्स णं सेणियरस स्मो नंदा नाम देवी होत्या, सोमाला जाव विहरति । तस्स णं सेणिव्याख्या, "अप्फुण्णा समाणी' व्याप्ता सती। शेष सुगम यावत् अनुक्रम न (७) REaadalona For P O murary.org मूलसूत्र-८,९ ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [s] निरया-॥९॥ “निरयावलिका” 50% 14990-46-480940 - अध्ययनं [१] मूलं [९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१९] उपांग सूत्र [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्तिः उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) यस्स रन्नो नंदाए देवीए अत्तर अभए नाम कुमारे होत्या, सोमाले जाव सुरूवे साम० दंडे जहा चित्तो जाव रज्जधुराए चिंतए या होत्या । तस्स णं सेणियस्स रनो चेल्लणा नाम देवी होत्या, सोमाले जाव विहरणं सा चिल्लणा देवी अन्नया काई तंसि तारिससि वासघरंसि जाव सीहं सुमिणे पासित्ता णं परिबुद्धा, जहा पभावती, जात्र सुमिणपाडगा पडिवि सज्जिता, जात्र चिलणा से वयणं पडिच्छित्ता जेणेत्र सए भवणे तेणेव अणुपविट्ठा। तते णं तोसे चेल्लणाए देवीए अन्नया कमाई ति मासाणं बहुप डिपुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउन्भूए-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव जम्मजोवियफले जाओ of सेणियस्स रनो उदरवलीमंसेहिं सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जितेहि य सुरं च जाव पसन्नं च आसाएमाणीओ जाव परिभाएमाणीओ दोहलं पविर्णेति । तते णं सा चेल्लणा देवी तंसि दोहलसि अविणिज्जमानंसि सुका मुक्खा निम्मंसा ओलुग्गा ओलुगासरीरा नित्तेया दीणविमणवयणा पंडुइतमुही ओमंथियनयणवयणकमला जहोचियं पुप्फवत्थगंधमलालंकारं अपरिजमाण करतलमलियन्व कमलमाला ओहतमणसंकप्पा जाव झियायति । तते णं तीसे चेल्लणार देवीए अंगपडिया 'सोल्लेहि य' त्ति पक्वैः 'तलिपहि' त्ति स्नेहेन पक्वैः, 'भजिपछि' अष्ट्रेः ' पसनं च शक्षादिद्रव्यजन्यो मनःप्रसत्तिहेतुः 'आसापमाणीओ' त्ति ईषत्स्वादयन्त्यो बहु च त्यजन्त्य इखण्डादेरिव, 'परिभापमाणीओ' सर्वमुपभुञ्जानाः ( परस्परं ददन्त्यः ) ' सुक्क' त्ति शुष्केव शुष्काभा रुधिरक्षयात्, 'भुक्ख' त्ति भोजनाकरणतो बुभुक्षितेव, 'निम्मंसा ' मांसोपचयाभावतः, 'ओलुग्ग' त्ति अवरुग्णा-भन्न मनोवृत्तिः, 'ओलुग्गसरीरा' भन्नदेहा, निस्तेजा गतकान्तिः दीना-विमनोवदना, पाण्डु कितमुखी - पाण्डुरीभूतवदना, 'ओमंथिय' त्ति अधोमुखीकृतं, उपहतमनःसङ्कल्पा- गतयुक्तायुक्तविवेचना, For Parts Only मूलसूत्र १० •••चेल्लणापुत्र कोणिकस्य गर्भावस्था, जन्म एवं राज्ञ-अवस्थायाः वृत्तान्तः ~ 21~ 2560%- 469) 9305469) *500*%* 459) 80% बलिका, ॥ ९ ॥ rary or Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] --------- ------ मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप रियातो पेलणं देविं सुक्क भुक्खं जाव झियायमाणी पासंति, पासित्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छति, २ करतलपरिगहियं सिरसावत्तं मत्यए अंजलि कड्ड सेणियं रायं एवं बयासी-एवं खलु सामी ! चेष्ठणा देवी न याणामो केणइ कारणेणं मुक्का भुक्खा जाब झियायति । तते णं से सेणिए राया तासि अंगपडियारियाणं अंतिए एयमद्वं सोचा निसम्म तहेव संभते समाणे जेणेव चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ २ चिल्लणं देवि मुक भुक्खं जाव झियायमाणि पासित्ता एवं वयासी-किन तुम देवाणुप्पिए ! सुका भुक्खा जाब झियायसि ? तते ण सा चेलणा देवी सेणियस्स रण्णो एयम₹ णो आढाति णो परिजाणाति तुसिणीया संचिद्दति। तते णं से सेणिए राया चिल्लणं देवि दोचं पि सञ्चं पि एवं वयासी-किंणं अहं देवाणुप्पिए ! एयमट्ठस्स नो अरिहे सवणयाए जण तुर्म एयमई रहस्सीकरेसि ? तते णे सा चेल्लणा देवी सेणिएणं रना दोचं पि तचं पि एवं वुत्ता समाणी सेणिय राय एवं वयासी-पत्थि ण सामी ! से केति अढे जस्स गं तुम्मे अगरिहा सवणयाए, नो चेवणं इमस्स अटुस्स सवणयाए, एवं खलु सामी! मम तस्स ओरालस्स जाव महासुमिणस्स तिण्ई मासाणे बहुपडिपुषणाणं अयमेयारूपे दोहले पाउन्भूए धमातो गं तातो अम्मयाओ जाओणं तुम्भ उदरवलिमसेहि सोल्लेएहि य जाव दोहलं विणेति । तते णं अहं सामी ! तैसि दोहलंसि अविणिजमाणी मुक्का भुक्खा जाव झियायामि। तते णं से 'करयल० कट्ट' ति करयलपरिग्गहिये दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट सेणिय राय पवं बयासी' स्पष्टम् । पनमय नाद्रियते-अत्रायें आदरं न कुरुते, न परिजानीते-माभ्युपगच्छति, कृतमौना तिष्ठति । धन्नाओ णं कयलक्खणाओणे सुलखे णं तासि जम्मजीवियफले' अषिणिज्जमाणसि' ति अपूर्यमाणे MERamund अनुक्रम [१०] For ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] --------- ------ मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: निरया-AN प्रत सुत्राक दीप सेणिए राया चेल्लणं देवि एवं वदासि-मा गं तुम देवाणुप्पिए ! ओहय० जाब झियायहि, अहं गं तहा जत्तिहामि जहाण तव दोहलस्स संपत्ती भविस्सतीविकटु चिल्लणं देवं ताहि इटाहि कताहिं पियार्हि मणुचाहि मणामाहिं ओरालाहिं कल्लागाहिं सिवाहिं धनाहिं मंगल्लाहिं मियमधुरसस्सिरीयाहिं वगृहि समासासेति, चिल्लणाए देवीए अंतियातो पढिनिक्खमति २ जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उधागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुहे निसीयति, तस्स दोहलस्स संपत्तिनिमित्तं बरहि आएहि उवाएहि य उप्पत्तियाए य वेणइयाए य कम्मियाहि यपारिणामियाहि य परिणामेमाणे २ तस्स दोद्दलस्स आय वा उवायं वा ठिई वा अविंदमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायति । इमं च णं अभए कुमारे हाए जाव सरीरे, सयाओं गिहाओ पडिनिक्खमति २ जेणेव बाहिरिया उचहाणसाला जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छति, सेणिय रायं ओहय० जाव झियायमाणं पासति २ एवं यदासी-अबयाणे तातो! तुमे ममं पासिचा हट्ठ जाव दियया भवह, किन्नं तातो ! अन्न तुब्भे ओहय० जाव झियायह ? तं जइ णं अहं तातो! एयमहरस अरिहे सचणयाए तो णं तुम्भे मम एयमढें जहाभूतमवित्तहं असंदिदं परिकहेह, जाणं अहं तस्स अट्टरस अंतगमणं करेमि । तते णं से सेणिए राया अभय कुमारं एवं वदासि-णत्थि णं पुना! से केइ अढे जस्सण तुमं अणरिहे सवणयाए, एवं खलु पुत्ता ! तब चुलिमाउयाए चेलणाए देवीए तस्स ओरालस्स जाच महामुमिणस्स तिहं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं जाव जाओ णे मम उदरवलीमसेहिं सोल्लेहि 'जत्तिदामि' ति यतिष्ये, 'इट्ठाहिं' इट्ठाहीत्यादीनां व्याख्या प्रागिहियोक्ता। 'उषट्ठाणसाला' आस्थानमण्डपः । ठिा वा' स्थानं ' अविंदमाणे ' अलभमानः । अंतगमनं-पारगमनं तसंपादनेन। अनुक्रम [१०] LI||२०॥ For ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] --------- ------ मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक TI. जाब दोहलं विर्णेति । तते णं सा चिलणा देवी तंसि दोहसि अविणिज्जमाणंसि सुका जाव झियाति । तते णं अहं पुत्ता! तस्स दोहलस्स संपत्तिनिमित्त बहूहि आएहि य जाव ठिति वा अविंदमाणे ओहय० जाव झियामि । नए णं से अभए कुमारे सेणिय राय एवं वदासि-माण तातो ! तुम्भे ओहय० जाव झियाह, अहं तह जत्तिहामि, जहाणं मम चुल्ठमाउयाए चिलणाए देवीए तस्स दोहलस्स संपत्ती भविस्सतीतिकटु सेणिवं रायं ताहि इटाहिं जाव कम्यूहि समासासेति २ जेणेव सए मिहे तेणेव उवागन्छइ २ अभितरए रहस्सितए गणिज्जे पुरिसे सद्दावेति २ एवं क्यासी-गच्छह गं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सूणातो अल्लं मंसं रुहिरं बत्थिपुडगं च गिव्हह । तते णं ते ठाणिज्जा पुरिसा अभएण कुमारेणं एवं बुत्ता समाणा हट्ठा करतल. जाव पडिसुणेत्ता अभयस्स कुमारस्स अंतियाओ पडिनिवखमंति २ जेणेव मूणा तेणेव उवागच्छइ, अल्लं मंसं रुहिरं बत्यिपुडगं च गिण्हंति २ जेणेव अभए कुमारे तेणेव उवा०२ करतल. अल मंसं रुहिरं बस्थिपुडगं च उवणेति । तते गं से अभए कुमारे तं अल्लं मंसं रुहिर कप्पणिकप्पिय (अप्पकप्पियं) करेति २ जेणेव सेणिए राया तेणेव उवा०२ सेणियं रायं रहस्सिगयं सणिजंसि उत्ताणयं निवजावेति २ सेणियरस उदरबलीसुतं अल्लं मंसं रुहिरै विरवेनि २ बत्धिपुढएण वैदेतिर सर्वतीकरणेणं करेति २ चेल्लणं देवि उप्पि पासादे अंबलोयणवरगय ठवावेनि २ चेलणाए देवीए अहे सपक्वं सपडिदिसि सेणियं रायं सयणिज्जसि उत्ताणगं निवज्जावेति, सेणियस्स रन्नो उदरवलिसाई कप्पणिकप्पियाई करेति र से य भायणसि 'सूणाओ' घातस्थानात् । 'बत्यिपुडग' उदरान्तर्वर्ती प्रदेशः । अप्पकप्पियं आत्मसमीपस्थम्। सपक्ष-समानपाव समवामेतरपार्श्वतया । सप्रतिदिक-समानप्रतिदिक्तया अत्यर्थमभिमुख इत्यर्थः, अभिमुखावस्थानेन हि परस्परस्य समावेष दीप अनुक्रम [१०] SAREma ina R murary ou E ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययनं [१] --------- ------ मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: वलिका. निरया॥१२॥ पक्खिवति । तते ण से सेणिए राया अलियमुच्छियं करेति २ मुहुर्ततरेण अनमनेणं सदि संलबमाणे चिट्ठति । तते णं से अभयकुमारे सेणियस्स रनो उदरवलिमसाई गिण्हेति २ जेणेव चिल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ २.चेलणाए देवीए उवणेति । तते ण सा चिल्लणा सेणियस्स रखो तेहिं उदरबलिमंसेहिं सोल्लेहिं जाव दाहल विणेति । तते ण सा चिल्लणा देवी संपुण्णदोहला एवं समाणियदोहला विच्छिन्नदोहला तं गन्भं मुइंसुहेणं परिवहति । ततेणं तीसे चेल्लणाए देवीए अन्नया कयाइ पुग्वरत्तावरत्तकालसमयसि अयमेयारूवे जाव समुपज्जित्था जइ ताव इमेणं दारएणं गन्भगएणं चेव पिउणो उदरबलिमंसाणि खाइपाणि तं सेयं खलु पए एवं गन्भं साहित्तए वा पाडिसए वा गालित्तए वा विद्धसित्तए वा एवं संपेहेति २तं गर्भ बहुहिं गम्भसाडणेहि य गम्भपाडणेहि य गभगालणेहि य गन्भविद्धंसणेहि य इच्छति साडितए वा पाढित्तए वा गालिचए वा विदंसित्तए वा, नो चेवणं से गन्मे सडति या पडति वा गलति वा विद्धंसति वा। तते णं सा चिालणा देवी ते गम्भं जाहे नो संचाएति बहहिं गन्भसाडएहि य जाव गम्भपाड(विशंस)णेहि य साडित्तए वा जाब विचसित्तए वा, ताहे संता संता परितंता निम्विना समाणा अकामिया अवसवसा अट्टवसदृदुइट्टा तं गम्भं परिवहति । तते ण सा चिल्लणा देवी दक्षिणवामपाचे भवतः, एवं विदिशावपि । 'अयमेयारूवे' अब्भथिए चिंतिए पत्थिर मणोगए संकप्पै समुप्पजित्वा । सातनं पातनं गालन विध्वंसनमिति कर्तुं संपधारयति, उपरान्तर्वर्तिनः ओषधैः सातनम्-उदरावाहिःकरणं, पातनं-गालनं रुधिरादितया कृत्या, विध्वंसनं सर्वगर्भपरिशाटनेन, न च शाटनायवस्था अस्य भवन्ति । 'संता तंता परितता' इत्येकार्थाः खेदवाचका पते ध्वनयः । 'अट्टयसदृदुहट्टा' (आर्तवर्श--आर्तध्यानवशतामृता-गता दुःखार्ता च या सा) उच्चाभिराकोशनाभिः अनुक्रम [१०] ॥११॥ JMERuratioil . मूलसूत्र-११,१२ ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] --------- ------ मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप नवण्हं मासाणं बहुपडि पुग्णाणं जाव सोमाल सुरूष दारय पयाया। ततेणे तीसे चेल्लणाए देवीए इमे एतारूपे जाव समुप्पजित्या-जन ताव इमेणं दारएण गभगएणं चेव पिउणो उदरवलिमसाई खाइयाई,तं न नज्जइ ण एस दारए संवट्टमाणे अम्हं कुलस्स अंतकरे भविस्सति, त सेयं खलु अम्हं एवं दारगं एगते उकुरुडियाए उज्झावित्तए एवं संपेहेति २ दासचेटिं सद्दावेति २एवं क्यासी-गच्छह ण तुमं देवाणुप्पिए एवं दारगं एगते उकुरुडियाए उज्झाहि। तते ण सा दासचेडी चेल्लणाए देवीए एवं वुत्ता समाणी करतल जाव कटु चिल्लणाए देवीए एतमट्ट विणएणं पडिसुणेति २ ते दारगं करतलपुडेणं गिण्डति, जेणेव असोगवणिया तेणेव उवा०२ तं दारगं एगते उकुरुडियाए उज्झाति । तते ण वेणं दारएणं एगते उकुरुडियाए उज्झितेणं समाणेण सा असोगवणिया उज्जोविता याचि होत्था । तते ण से सेणिए राया इमीसे कहाए लद्धढे समाणे जेणेव असोगवणिया तेणेव उवा०२ दारगं पगते उकुरुडियाए उज्झियं पासेति २ आमुरुते जाव मिसिमिसेमाणे तं दारगं करतलपडेणे गिण्हति २ जेणे चिल्लणा देवी तेणेव उवा०२ चेल्लणं देविं उच्चावयाहि आओसणाहिं आओसति २ उच्चावयाहिं निभच्छणार्हि निभच्छेति २एवं उसणाहिं उबंसेति २ एवं वयासी-किस्स ग तुमं मम पुत्तं एगते उकुरुडियाए उज्झायेसि चिकह चेल्लणं देविं उच्चावयसवहसावितं करेति २ एवं वयासी-तुम ण देवाणुप्पिए! एवं दारगं अणुपुव्वेण सारक्खमाणी संगोवेमाणी संवदेहि। तते ण सा चेलणा देवी सेणिएण रथा एवं बुत्ता समाणी लज्जिया विलिया विडा करतलपरिग्गहियं सेणियस्स रनो विणएणं एयम ? पडिसुणेति २ तं दारगं अणुपुत्रेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संवडेति तिते णं तस्स दारगस्स एगते * आक्रोशो निर्भर्त्सना उशूर्पणा ( पते समानार्थाः) । लजिया बिलिया विट्टा! (पतेऽपि समानार्थाः)। अनुक्रम [१२] SAREaadla FOrPraBEINUTOnly muraryom मूलसूत्र-१३ ~ 26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [१३] अध्ययनं [१] मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१९] उपांग सूत्र [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्तिः वछिका निरया - ॥१२॥ “निरयावलिका” - उपांगसूत्र-८ (मूलं+ वृत्ति:) मूलसूत्र - १४ कुरूढियार उज्झिमाणस्स अगंगुलियाए कुक्कुडपिच्छरणं दूमिया यावि होत्या, अभिक्खणं अभिक्खणं पूयं च सोणियं च अभिनिस्सषेति । तते णं से दारए वेदणाभिभूए समाणे महता महता सद्देणं आरसति । ततेणं सेणिए राया तस्स दारगस्स आरसितसई सोच्चा निसम्म जेणेव से दारए तेणेव उबा० २ तं दार करतलपुढेणं गिण्हइ २ तं अगंगुलिये आसयंमि पक्क्वति २ पूई च सोणियं च आसरणं आमुसति । तते णं से दारए निव्वुर निव्वेदणे तुसिणीए संचिह्न, जाहे वि य णं सेदार वेदणार अभिभूते समाणे महता महता सद्देणं आरसति ताहे वि य णं सेणिए राया जेणेव से दारए तेणेव उवा० २ तं दार करतलपुर्ण गिण्हति तं चैव जाव निव्वेयणे तुसिणीए संचिट्ठर । तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो ततिए दिवसे चंदरसणियं करेति जाव संपत्ते वारसाहे दिवसे अयमेयारूवं गुणनिष्पन्नं नामधिज्वं करेति, जहा णं अहं इमस्स दारगस्स एगते उक्कुरुडियाए उज्झिज्जमाणस्स अंगुलिया कुक्कड पिच्छरणं दूमिया, तं होउ णं अम्हें इमस्स दारगस्स नामभेज्जं कूणिए । तवेणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधिज्जं करेंति कूणिय चि । तते णं तस्स कृणियस्स आणुपुव्वेणं ठितिवडियं जहा मेहस्स जाव उप्पि पासायवरगए विहरति । अट्टओ दाओ तते णं तस्स कूणियस्स कुमाररस अन्नदा पुनरा जाव समुपज्जित्था एवं खलु अहं सेणियस्स रनो वाघारणं नो संचाएमि सयमेव रज्जसिरिं करेमाणे पालेमाणे विहरिए, सेयं मम खलु सेणियं रायं नियलवंधण करेत्ता अप्पाणं महता महता रायाभिसेरणं अभिसिंचावित्तर चिक एवं संपेहेति २ सेणियस्स रनो अंतराणि य छिट्टाणि य विरहाणि य पढिजागरमाणे विहरति । तते णं से कूणिए कुमारे सेणियस्त रमो स्थितिपतितां कुलकमायातं पुत्रजन्मानुष्ठानम् । 'अंतराणि य' अवसरान्, छिद्राणि अल्पपरिवारादीनि, विरहो-विजनत्वम् । For Para Use Only ~27~ | ॥१२॥ Many org Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययनं [१] ---------- ------ मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत - सूत्राक दीप अंतरं वा जाव मम्मे वा अलभमाणे अन्नदा कयाइ कालादीए दस कुमारे नियघरे सद्दावेति २ एवं वदासि-एवं खल्लु देवाणुप्पिया ! अम्हे सेणियस्स रनो वाघाएणं नो संचाएमो सयमेव रजसिरिं करेमाणा पालेमाणा विहरिचए, त सेयं देवाणुप्पिया ! अम्हं सेणिय राय नियलबंधण करेता रज्जं च रटुं च बलं च वाहणं च कोसं च कोट्ठागारं च जणवयं च एकारसभाए विरिचिचा सयमेव रज्जसिरि करेमाणाणं पालेमाणाणं जाब बिहरित्तए । तते ण ते कालादीया दस कुमारा कृणियस्स कुमारस्स एयम? विणएणं पडिसणेति । तते णं से कूणिए कुमारे अन्नदा कदाइ सेणियस्स रनो अंतरं जाणति २ सेणिय राय नियलबंधणं करेति २ अप्पाणं महता महता रायाभिसेएणे अभिसिंचावेति । तते णं से कूणिए कुमारे राजा जाते महता महता० । तते ण से कृणिए राया अन्नदा कदाइ न्हाए जाव सबालंकारविभसिप चेलणाए देवीए पायदए इवमागच्छति तते णं से कूणिए राया चेल्लणं देवि ओझ्य० जाव झियायमाणि पासति २ चेल्लणाए देवीए पायग्गहणं करेति २ चेल्लणे देवि एवं वदासि-किंणे अम्मो ! तुम्हें न तुट्ठी वा न ऊसए वा न हरिसे वा नाणंदे वा ? ज णं अहं सयमेव रज्जसिरिं जाव विहरामि । तते णं सा चेल्लणा देवी कूणियं रायं एवं बयासि-कइणं पुत्ता ! ममै तुट्टी वा उस्सए वा इरिसे वा आणंदे वा भविस्सति ? जे नै तुम सेणियं राय पिय देवयं गुरुजणगं अश्चंतनेहाणुरागरत्तं नियलबंधणं करित्ता अप्पाणं महता रायाभिसेएण अभिसिंचावेसि । तते णं से कूणिए राया चिल्लणं देवि एवं वदासि-पाते उकामे णं अ-- म्मो ! मम सेणिए राया, एवं मारे बंषितुं निच्छुभिउकामर णं अम्मो ! मर्म सेणिए राया, तं कहने अम्मो ममै सेणिए तुष्टिः उत्सवः वर्षः आनन्दः प्रमोदार्था पते शब्दाः । 'मम घातेउकामे ण' घातयितुकामः णं वाक्यालकारे मां श्रेणि को राजा 'धातनं मारण बन्धनं निच्छुभ' पते परामवसूचका वनयः । MEAadhana अनुक्रम [१४] untiarary.org मूलसूत्र-१५ ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] ---------- ------ मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: निरया ॥२॥ प्रत सूत्राक राया अचंतनेहाणुरागरते ? तते ण सा चेल्छणा देवी कूणियं कुमार एवं बदासि-एवं खलु पुत्ता ! तुमंसि ममं गन्भे आभृते समाणे तिण्हं मासाणं बहुपडिपुत्राणं ममं अयमेयारूवे दोहले पाउन्भूत-धन्नातो ग तातो अम्मयातो जाव अंगपडिचारियाओ निरवसेसं भाणियवं जाव जाहे वि य णं सुमं वेयणाए अभिभूते महता जाव तुसिणीए संचिट्ठसि, एवं खलु तव पुत्ता ! सेणिए राया अच्चतनेहाणुरागरत्ते । वते णं से कूणिए राया चेल्लणाए देवीए अंतिए एयमई सोच्चा निसम्म चिल्लणं देवि एवं वदासि-दुहण अम्मो ! मए कर्य, सेणियं राय पियं देवयं गुरुजणगं अञ्चंतनेहाणुरागरतं नियलबंधणं करतेणं, ते गच्छामि गं सेणियस्स रन्नो सयमेव नियलानि छिंदामि तिकट्ठ परसुहत्यगते जेणेव चारगसाला तेणेव पहारित्यगमणाए । तते णं सेणिए राया कूणियं कुमारं परमुहत्यगय एज्जमाणं पासति २ एवं बयासि-एस णं कणिए कुमारे अपत्यियपत्थिए जाव सिरिहिरिपरिवज्जिए परसुहत्यगए इह इन्चमागच्छति, तं न नज्जइ णं मम केणइ कुमारेणं मारिस्सतीतिकहु भीए जाव संजायभए तालपुडग विसं आसगंसि पक्खिवइ । तते ण से सेणिए राया तालपुडगविसं आसगंसि पक्खित्ते समाणे मुहुर्ततरेण परिणाममाणंसि निष्पाणे निश्चिष्टे जीवविप्पजहे ओइन्ने । तते णं से कूणिए कुमारे जेणेब चारगसाला तेणेव उवागए २ सेणियं रायं निष्पाणं निच्चि₹ जीवविप्पजदं ओइग्नं पासति २ महता पितिसोएणं अप्फुण्णे समाणे परमुनियते चित्र चपगवरपादवे घस चि धरणीतलंसि सवंगेहिं संनिवडिए । तते णं से कूणिए कुमारे मुहुर्ततरेणं निष्पाणः-निर्गतप्राणः, निश्चेष्टः जीवितविप्रजदः प्राणापहारसूचकाः एते । अवती-भूमौ पतितः । अप्फुणे' व्याप्तः सन् । 4042040पहON दीप अनुक्रम [१५] 8047- 4 Mana ~ 29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] --------- ------ मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक आसत्थे समाणे रोयमाणे, कंदमाणे, सोयमाणे, विलबमाणे एवं वदासि-अहो णं मए अधन्नेणं अपुन्नेणे अकयपुग्नेणे दुइकर्य सेणियं राय पियं देवयं अच्चंतनेहाणुरागरत्तं नियलबंधणं करतेणं मम मूलागं चेव णे सेणिए राया कालगते ति कटु ईसरतलवर जाव संधिवालसद्धि संपरिबुडे रोयमाणे ३ महया इडिसक्कारसमुदएणं सेणियस्स रन्नो नीहरणं करेति, बहूई लोइयाई मयकिच्चाई करेति । तते णं से कूणिए कुमारे एतेणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूते समाणे अन्नदा कदाइ अंदेउरपरियालसंपरिचुड़े सभंडमचोवकरणमाताए रायगिहातो पडिनिक्खमति, जेणेव चंपा नगरी तेणेव उवागच्छइ, तत्थ विणं विपुलभोगसमितिसमन्नागए, कालेणं अपसोए जाए याचि होत्या तते णं से कूणिए राया अन्नया कयाइ कालादीए दस कुमारे सद्दावेति २ रज्वं च जाच जणवयं च एकारसभाए विरिंचति २ सयमेव रज्जसिरिं करेमाणे पालेमाणे विहरति । तत्थ ण चंपाए नगरीए सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए कूणियस्स रन्नो सहोयरे कणीयसे भाया वेहल्ले नाम कुमार होत्या सोमाले जाव सुरूवे । तते णं तस्स बेहल्लस्स कुमारस्स सेणिएणं रन्ना जीवंतएणं चेव सेयणए गंधहत्थी अट्ठारसर्वके हारे पुवदिन्ने । तए णं से वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहस्थिणा अंतेउरपरियालसंपरिबुडे चंपं नगरि मज्झं मझेणं निग्गच्छइ २ अभिक्खणं २ गंग महानई मज्जणय ओयरइ । तते ण सेयणए गंधहत्थी देवीओ ‘रोयमाणे त्ति' रुदन् 'कंदमाणे' वैक्लवं कुर्वन् 'सोयमाणे ' शोकं कुर्वन् ‘विलवमाणे ' विलापान कुर्वन् । नीहरण ति परोक्षस्य यनिर्गमादि कार्यम् । 'मणोमाणसिएणं' ति मनसि जातं मानसिकं मनस्येव यवर्तते वचनेनाप्रकाशितत्वात् तत् मनीमानसिकं तेन अवहिर्वतिना अभिभूतः। 'अंतेउरपरियालसपरिवुडे ।'च नगरि मज्झं मझेणं' इत्यादि वाच्यम् । दीप अनुक्रम [१५] . मूलसूत्र-१६,१७ ... कोणिक-राज्ञ: कथा-मध्ये वेहल्लकमारस्य कथा ~ 30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययनं [१] ---------- ------ मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: (१९) निरया वलिका. प्रत सूत्राक सोंडाए गिण्हति २ अप्पेगइयाओ पुढे ठवेति, अप्पेगइयाओ खंधे ठवेति, एवं अप्पे० कुंभे ठवेति, अप्पे० सीसे ठवेति, अप्पे० दंतमुसले ठवेति, अप्पे० सोडाए गहाय उई वेहासं उबिहइ, अपे० सोंडागयाओ अंदोलावेति, अप्पेगइया दंतंवरेसु नीति, अप्पे० सीभरेणं प्हाणेति, अप्पेगइयाओ अणेगेहिं कीलावणेहि कीलावेति । तते गं चपाए नयरीए सिंघाडगतिगचउकचचरमहापहपहेसु बहुजगो अकमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परुवेति-एवं खलु देवाणुप्पिया ! वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा अंतेउरं तं चेव जाव णेगेहिं कीलावणएहिं कीलावेति, तं एसणं वेहल्ले कुमारे रज्जसिरिफलं पञ्चणुब्भवमाणे विहरति, नो कूणिए राया । तते णे तीसे पउमावईए देवीए इमीसे कहाए लट्ठाए समाणीते अयमेयारूपे जाप समुप्पवित्था, एवं खलु वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्यिणा जाव अणेगेहिं कोलावणएहिं कीलावेति, तं एस ण चेहल्ले कुमारे रज्जसिरिफल पञ्चणुभवमाणे विहरति, नो कोणिए राया, तं किं अम्हें रज्जेण वा जाव जणवएण वा जहणं अम्हं सेयणगे गंधहत्थी नत्यि १ ते सेयं खलु ममं कूणिय रायं एयमहूँ विनवित्तए त्तिकटु एवं संपेहेति २ जेणेव कूणिए राया तेणेव उवा०२ करतल जाव एवं बयासि-एवं खलु सामी वेहल्ले कुमार सेयणएण गंधहत्थिणा जाव अणेगेहिं कीलावणाहिं कीलावेति, तं किण्हं सामी अम्हं रज्जेण वा जाव जणवएण वा अति णे अम्हं सेयणए गंधहत्थी नत्थि ? तएणं से कूणिए राया पउमावईए देवीए एयम8 नो आदाति नो परिजाणति तुसिणीए संचि ट्ठति । तते णं सा पउमाबई देवी अभिक्खणं २ कूणियं रायं एयम? विन्नवेइ । तते गं से कूणिए राया पउमावईए देवीए | अभिक्खण २ एयम? विन्नविजमाणे अन्नया कयाइ वेहल्लं कुमारं सहायेति २ सेयणगं गंधहत्यि अवारसर्वक च हारं दीप अनुक्रम [१७] AII१४॥ FarPranaamsamucom ~31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्तिः) अध्ययनं [१] ---------- ------ मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: (१९) प्रत सूत्राक दीप जायति । तते ण से वेहल्ले कुमारे कूणिय रायं एवं वयासि-एवं खलु सामी सेणिएणं रन्ना जीवनेणं चेव सेयणए गंधहत्थी अट्ठारसर्वक य हारे दिन्ने, तं जइणं सामी ! तुम्भे ममं रज्जरस य (जणवयस्स य) अद्धं दलह तो णे अई तुम्भ सेयणयं गंघहत्यिं अट्ठारसर्वकं च हार दलयामि । तते णं से कूणिए राया बेहल्लस्स कुमारस्स एयम8 नो आढाति नो परिजाणइ अभिक्खण २ सेयणगं गंधहत्यि अट्ठारसर्वक च हारं जायति । तए णं तस्स वेहल्लस्स कुमारस्स कणिएण रग्ना अभिक्खण २ सेयणगं गंधहत्यिं अट्ठारसर्वकं च हारं एवं अक्खिविउकामेणं गिहिउकामेणे उद्दालेउकामेणं ममं कूगिए राया सेयणगं गंधहत्यि अट्ठारसर्वक च हारं ते जाव ताव ममं कूणिए राया सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसर्वकं च हार गहाय अंतेउरपरियालसंपरिखुटस्स सभंडमचोवकरणमाताए चंपातो नयरीतो पडिनिकखमित्ता वेसालीए नयरीए अजग चेडयं रायं उपसंपजित्ताणं विहरित्तए, एवं संपेहेति २ कूणियस्स रन्नो अंतराणि जाव पडिजागरमाणे २ विहरति । तते ण से चेहल्ले कुमारे अन्नदा कदाइ कूणियस्स रन्नो अंतरं जाणति सेयणगं गंधहत्थिं अहारसर्वकं च हारं गहाय अंते उरपरियालसंपरिखुडे सभंडमत्तोवकरणमायाए चंपाओ नयरीतो पडिनिक्खमति २ जेणेव वेसाली नगरी तेणेव उवागच्छति, वेसालीए नगरीए अजगं चेडयं उपसंपज्जित्ता णं विहरति । तते णं से कूणिए राया इमीसे कहाए लद्धढे समाणे एवं खलु वेहल्ले कुमारे मर्म 'अक्खिविउकामेणं' ति स्वीकतुकामेन, पतदेव स्पष्टयति-गिहिउकामेणं' इत्यादिना । 'तं जाव ताव न उद्दालेह ताव मम कृणिए राया' इत्यादि सुगमम् । 'अर्ग' ति मातामहम् । 'संपेहेति' पर्यालोचयति । ' अंतराणि ' छिद्राणि प्रति जाप्रत्-परिभावयन पिचरति-आस्ते | अंतर' प्रविरलमनुष्यादिकम् । REALKanand अनुक्रम [१७] g iranam ~ 32 ~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [१७] अध्ययनं [१] मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१९] उपांग सूत्र [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्तिः निरया॥१५॥ “निरयावलिका” - उपांगसूत्र-८ (मूलं+ वृत्ति:) 40169) ***-169046 संविदिते सेयण गंधहत्यि अट्ठारसर्वकं च हारं गहाय अंतेउरपरियालपरिबुडे जाव अज्जयं चेडयं रायं उवसंपजित्ताणं विहरति सेयं खलु ममं सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसर्वकं च हारं दूतं पेसित्तए, एवं संपेहेति २ दूतं सद्दावेति २ एवं क्यासि गच्छ णं तुमं देवाशुप्पिया ! बेसालि नगरिं तत्य णं तुमं ममं अजं चेडगं रायं करतल० बद्धावेत्ता एवं क्यासि एवं खलु सामी ! कूणिए राया चिन्नवेति, एस णं वेहल्ले कुमारे कूणियास रन्नो असंविदितेणं सेयणगं अट्ठारसर्वकं हारं (च) गहाय हवमागते, तर णं तुभे सामी ! कृणियं रायं अणुगिण्हमाणा सेअणगं अट्ठारसर्वकं च हारं कूणियस्स रन्नो पञ्चपिणह, वेहल्ल कुमारं (च) पेसेह । तते णं से दूए कूणिए० करतल० जाव पडिसृणित्ता जेणेव सते गिहे तेणेव उवा० २ जहा चित्तो जाव बद्धावित्त एवं वयासि एवं खलु सामी ! कूणिए राया विन्नवेइ एस णं वेहल्ले कुमारे तहेव भाणियवं जाव बेहल्लं कुमारं पेसेह । तते से चेडए राया तं दूयं एवं क्यासि-जह चैत्र णं देवाशुप्पिया ! कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेहणाए देवी अत्तर मन तव णं वेहल्ले वि कुमारे सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तर मम नत्तुर, सेणिणं रन्ना जीवणं चैव वेल्लरस कुमारस्स सेयणगे गंधहत्थी अट्ठारसर्वके हारे पुत्रविदिने, तं जइ णं कूणिए राया बेहल्लस्स रज्जरस य जणवयस् य अर्द्ध दलयति तो णं सेयणगं अट्ठारसर्वकं हारं च कृणियस्स रनो पञ्चप्पणामि, वे च कुमारं असंविदितेणं' ति असंप्रति (असंविदितेन ) । हव्यं ति शीघ्रम् । जहा चित्तोति राजप्रनीये द्वितीयोपाने यथा श्वेतम्बीनगर्यावित्री नाम दूतः प्रदेशिराजप्रेषितः आवस्त्यां नगयी जितशत्रुसमीपे स्वगृहान्निर्गत्य गतः तथाऽयमपि कोणिकनामा राजा यथा एवं बिलकुमारोऽपि । For Parts Only ~33~ *#469) ***-169) **0049449) ***** 449) 480 वलिका. | ॥१५॥ wary.org Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] --------- ------ मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप पेसेमि। ते यं सकारेति संमाणेति पडिविसनेति । तते णं से दूते चेडएणं रन्ना पडिविसज्जिए समाणे जेणेव चाउग्धंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ २ चाउग्ट आसरहे दुरुहति, वेसालि नगरि मज्झ मज्झेणं निग्गच्छइ २ सुमेहिं बसहीहिं पायरासेहि जाव बद्धावित्ता एवं वदासि-(एवं खलु सामी!) चेडए राया आणवेति-जह चेव ण कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तर मम नत्तुए तं चेव भाणिया जाव वेहालं च कुमार पेसेमि, ते न देति ण सामी ! चेडए राया सेयणगं अट्ठारसर्वक हारं (च), बेहालं (च) नो पेसेति । तते णं से कूणिए राया दुषं पि यं सद्दाबित्ता एवं वयासी-गच्छह गं तुम देवाणु० ! येसालि नगरिं, तत्य ण तुम मम अजगं चेडगं राय जाव एवं वयासि-एवं खलु सामी ! कूणिए राया विनवेइजाणि काणि रयणागि समुप्पज्जति सदाणि ताणि रायकुलगामीणि, सेणियस्स रन्नो रज्वसिरिं करेमाणस्स पालेमाणस्स दुवे रयणा समुप्पन्ना, ते जहा-सेयणए गंधहत्थी, अट्ठारसर्वके हारे, तन्नं तुम्मे सामी ! रायकुलपरंपरागय दिइय अलोवेमाणा सेयणगं गंधहत्यि अट्ठारसर्वक च हार कूणियस्स रनो पञ्चप्पिणह वेहल्लं कुमार पेसेह । तते ण से दते कूणियस्स रनो तहेब जाव बद्धावित्ता एवं बयासि-एवं खलु सामी ! काणए राया विनवेइ-जाणि काणि त्ति जाच वेहल्लं कुमारं पेसेह । तते ण से चेटए राया तं दुर्य एवं वयासि-जह चेव गं देवाणुपिया ! कूणिए राया सेणियस्स रनो पुत्ते चिल्लणाए देवीए अत्तए 'चाउग्घंट' ति चतस्रो घण्टाश्चतसृष्वपि दिक्षु अवलम्बिता यस्य स चतुर्धण्टो रथः। 'सुभेहिं बसहीहिं पायरासेहि ति प्रातराशः आदित्योदयादापाचप्रहरन्यसमयवर्ती-भोजनकालः निवासच-निवसनभूभागः तौ द्वावपि सुसहेतुको न पीडाकारिणौ ताभ्यां संप्राप्तो नगयों दृष्टश्चेटक(कोणिक)राजः 'जयविजएणं बद्धावित्ता एवं' दुतो यदवादीत्तदर्शयतिएवं खलु सामी'त्यादिना । 'अलोवेमाण' त्ति एवं परंपरागतां प्रीतिमलोपयग्तः। अनुक्रम [१७] SARE E Harana anditurary.com ~34 ~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] ---------- ------ मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: लिका निरयान ॥१६॥ प्रत सूत्राक जहा पढम जाव येहल्लं च कुमारं पेसेमित दूतं सकारेति संमाणेति पडिविसज्जेति । तते णं से दते जाब कृणियस्स रनो बहाविता एवं बयासि-चेढए राया आणवेति-जह चेव णं देवाणुप्पिया! कूणिए राया सेणियस्स रनो पुत्ते चिल्लणाए देवीए अत्तए जाव वेहालं कुमारं पेसेमि, तं न देति णं सामी ! चेडए राया सेयणगे गंधहत्यि अट्ठारसर्वकं च हारं, वेहलं कुमार नो पेसेति । तते ण से कूणिए राया तस्स यस्स अंतिए एयम8 सोचा निसम्म आसुरुचे २ जाव मिसिमिसेमाणे तचे दूतं सहावेति २एवं वयासि-गच्छह ण तुमं देवाणुप्पिया ! येसालीए नयरीए चेडगस्स रनो बामेण पादेणं पायपीढं अकमाहि अक्कमित्ता कुंतग्गेण लेहं पणावेहि २ आसुरुचे जाव मिसिमिसेमाणे विवलियं भिड निढाले साइङ चेडगं राय एवं वयासि-ह भो चेडगराया! अपत्थियपत्थिया ! दुरंत जाव परिवजिना एस णं कूणिए राया आणवेइ-पञ्चप्पिणाहिणं कूणियस्स रन्नो सेयणगं अट्ठारसर्वकं च हार वेहल्लं च कुमारं पेसेहि, अहव जुद्धसज्जो चिहाहि, एस ण कूणिए राया सबले सवाहणे सखंधाबारे ण जुद्धसज्जे इह हबमागच्छति । तते णं से दूते करतल० तहेब जाव जेणेव चेडए राया तेणेव उवा० २ करतल० जाव बद्धा० २एवं वयासि-एस णं सामी! ममं विणयपडिवत्ती, इयाणि कुणियरस रनो आणत्ति चेडगस्स रनोवामेणं पारण पादपीई दीप अनुक्रम [१७] 'जहा पढर्म' ति रजस्स य जणवयस्स य अद्धं कोणियराया जइ वेहल्लस्स दे तोऽहं सेयणगं अट्ठारसर्वकं च दारं कृणियस्स पञ्चप्पिणामि, बेहलं च कुमार पेसेमि, न अन्नहा । तदनु द्वितीयदृतस्य समीपे एनमर्थ श्रुत्वा कोणिकराज 'आसुरुत्ते' इत्येतावनूप(ताकोप)वशसंपन्नः । यदसौ तृतीयदूतप्रेषणेन कारयति भाणयति च तदाह-एवं बयासी'त्यादिना इस्तिहारसमर्पणकुमारप्रेषणस्वरूपं यदि न करोषि तदा जुद्धसजो भवेति दूतः माह | इमेणं कारणेणं ति तुल्यताऽत्र कसंबन्धेन(१)। For P em ॥१६॥ REnicademana prasurary on ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्तिः) अध्ययनं [१] ---------- ------ मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: (१९) प्रत सूत्राक दीप अकमति २ आसुरुचे कुंतग्गेण लेह पणावेति तं चेव सबलखंधावारे णं इह हदमागच्छति । तते णं से चेदए राया तस्स यस्स अंतिए एयमई सोचा निसम्म आमुरुत्ते जाव साहटु एवं वयासि-न अप्पिणा मणं कुणियस्स रन्नो सेयणगं अट्ठारसर्वक हार, वेहल्लं च कुमारं नो पेसेमि, एस णं जुद्धसज्जे चिहामि। ते यं असकारिय असंमाणितं अवद्दारेणं निच्छुहावेइ। लते ण से कृणिए राया तस्स दूतस्स अंविए एयम सोचा णिसम्म आसुरुत्ते कालादीए दस कुमारे सद्दावेइ २ एवं क्यासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! वेहल्ले कुमारे मर्म असावदितेणं सेयणगं गंधहत्यि अट्ठारसर्वक अंतेउरं सभंडं च गहाय चंपातो निक्खमति २ वेसालि अजग जाव उपसंपज्जित्ताणं विहरति । तते गं मए सेयणगस्स गंधहत्यिस्स अट्ठारसर्वकअट्टाए द्या पेसिया, ते य चेटएण रण्णा इमेणं कारणेणं पडिसेहिचा अदुत्तरं च णं ममं तच्चे दूते असकारिते अवदारेण निच्छुहावेति तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं चेडगस्स रन्नो जुत्तं गिणिहत्तए । तए ण कालाईया दस कुमारा कुणियस्त रन्नो एयम? विणएणं पढिसुर्णेति । तते ण से कूणिए राया कालादीने दस कुमारे एवं चयासि-गच्छह ण तुमे देवाणुप्पिया ! सएम सएसु रज्जेसु पत्तेयं पत्तेयं पहाया जाव पायच्छित्ता हस्थिबंधवरगया पत्तेयं पचेयं तिहिं दंतिसहस्सेहिं एवं तिहि रहसहस्सेहिं तिहिं आससहस्सेहि तिहि मणुस्सकोडीहिं सद्धिं संपरिबुडा सविडीए जाव घेणं सतेहिश्तो नगरेहिती पडिनिक्खमह २ मर्म अंतिय पाउम्भवह । तते णं ते कालाईया दस कुमारा कोणियस्स रन्नो एयमहूँ सोच्चा सरसु सएसु रजेसु दतवयं कोणिकराजप्रेषितं निषेधितं, तृतीयदुतस्तु असत्कारितोऽपद्वारेण निष्कासित्तः । तती यात्रा सङ्घामयात्रां गृहीतुमुद्यता वयमिति । 'तते णं से कुणिए राया कालादीन प्रति भणितवान् । तेऽपि च दशापि तद्वचो चिनयेन प्रतिशृण्वन्ति । 'पर्व षयासि' ति एवमवावीत्तान्पति-गच्छत यूर्य स्वराज्येषु निजनिजसामथ्या संना समागन्तव्यं मम समीपे । nand अनुक्रम [१७] REA मूलसूत्र-१८ ...काल-आदि कुमारैः सह मिलित्वा कोणिकेन राजा चेटक सार्धं कृत-रथमूसलसंग्राम: ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [१८] “निरयावलिका” - उपांगसूत्र-८ (मूलं+ वृत्ति:) अध्ययनं [१] मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्तिः निरया - ॥१७॥ | पत्तेयं २ व्हाया जाव तिर्हि मणुस्सकोडीहिं सद्धिं संपरिवुडा सविडीए जाव रखेणं सरहिं २ तो नगरेहिंतो पडिनिक्खमंति, जेणेव अंगा जगवए जेणेव चंपा नगरी जेणेव कूणिए राया तेणेव उवागता करतल० जाव वद्धार्वेति । तते णं से. कूणि राया कोटुंबियरिसे सहावेति २ एवं क्यासि - खिप्पामेव भो देवाशुप्पिया ! आभिसेक हस्थिरयणं पढिकप्पेह इयगयरचातुरंगिण सेणं संनाह, ममं एयमाणत्तियं पञ्चष्पिणह, जाव पञ्चष्पिणंति । तते णं से कूणिए राया जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छर जाव पडिनिग्ाच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उवद्वाणसाला जाव नरवई दुरूढे । तते णं से कूणिए या तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव रखेणं चर्षं नगरि मज्झं मज्झेणं निम्गच्छति २ जेणेव कालादीया दस कुमारा तेणेव उवागच्छ २ का लाइएहिं दसहिं कुमारेहिं सद्धिं एगतो मेलायति । तते णं से कूणिए राया तेत्तीसाए दंतिसहस्सेहिं तेतीसाए आससहस्सेहिं तेत्तीसाए रहसहस्सेहिं तेतीसाए मणुस्सकोडीहिं सद्धि संपरिबुडे सबिट्टीए जाव रखेणं सुमेहिं वसहीपायरासेहिं नातिविगिट्ठेहिं अंतरावासेहिं वसमाणे २ अंगजणवयस्स मज्झ मज्झेणं जेणेव विदिहे जणवते जेणेव वेसाली नगरी तेणेव पारित्यगमणाते । तते णं से चेडए राया इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे नवमल्लई नवलेच्छई कासीकोसलका अट्ठारस वि गणरायाण सहावेति २ एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! वेहल्ले कुमारे कूणियस्स रनो असंविदितेणं सेयणगं अट्ठारसर्वक चहारं हाय इहं हवमागते, ते णं कूणिएणं सेयणगस्स अट्ठारसर्वकस्स य अट्ठाए तओ या पेसिया, ते य मए इमेणं तदनुकूणिकोऽभिषेका हस्तिरत्नं निजमनुष्यैरुपस्थापयति-प्रगुणीकारयति, प्रतिकल्पयतेति पाठे सन्नाहवन्तं कुरुतेत्याज्ञां प्रयच्छति । 'तओ दूय 'ति त्रयो दूताः कोणिकेन प्रेषिताः । For Paren ~37~ 本辛 * 众辛 * 本亭亭众产品 बलिका. ॥१७॥ unibrary o Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [१८] “निरयावलिका” - उपांगसूत्र-८ (मूलं+ वृत्ति:) अध्ययनं [१] मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१९] उपांग सूत्र [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्तिः कारण पडिसेहिया । ततेणं से कूणिए ममं एयम अपडिसृणमाणे चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे जुज्झसज्जे इदं मागच्छति, तं किन्तु देवाणुप्पिया ! सेयणगं अट्ठारसर्वकं (य) कूणियस्स रनो पञ्चप्पिणामो १ बेहलं कुमारं पेसेमो ? उदा जुज्झित्था ! तते नवमल्लई नवलेच्छती कासीको सलगा अट्ठारस वि गणरायाणो वेडगं राय एवं वदासिन एवं सामी ! जुतं वा पतंवा रायसरिसं वा जन्न सेयणगं अट्ठारसर्वकं कुणियस्स रनो पञ्चप्पिणिज्जति, चेहल्ले य कुमारे सरणागते पेसिज्जति, तं जड़ णं कृमिए राया चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिवुडे जुज्झसज्जे इहें हवमागच्छति, तते णं अम्हे कुणि रण्णा सद्धिं जुज्झामो । तते णं से चेडए राया ते नवमल्लई नवलेच्छई कासीकोसलगा अट्ठारस वि गणरायाण एवं बदासी-जइ णं देवाशुप्पिया । तुम्मे कूणिएणं रन्ना सद्धिं जुज्झह, तं गच्छह णं देवाणुप्पिया ! सतेसु २ रज्जेसु हाया जहा कालादीया जाव जएणं विजएणं वद्धावेति । तते णं से चेडए राया कोहुंबिय पुरिसे सहावेति सद्दावित्ता एवं वयासि - अभिसेक जहा कृणिए जाव दुरूटे । तते णं से चेडए राया विहिं दंतिसहस्सेहिं जहा कूणिए जाव वेसालिं नगरिं मज्झमणं निगच्छति २ जेणेव ते नवमल्लई नवलेच्छती कासीकोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो तेणेव उवागच्छति । तते से चेडए राया सचावन्नाए दंतिसहस्सेहिं सत्तावन्नाए आससहस्सेहिं सत्तावन्नाए रहसहस्सेहिं सचावन्नाए मणुस्सकोडीहिं सद्धि संपरिवुडे सविडीए जाव रखेणं सुमेहिं बसहीहिं पातरासेहिं नातिविगिट्ठेहिं अंतरेहिं बसमाणे २ विदेहं जणवयं मज्झ मज्झेण जेणेव देसते तेणेव उवा० २ धावारनिवेसणं करेति २ कूणियं रायं पडिवालेमाणे जुज्झसज्जे चिट्ठा। तते सेकणिए राया सविडीए जाव खेणं जेणेव देसर्पते तेणेव उवा० पेढयस्स रन्नो जोयणंतरियं खंधावारनिवेस करेति । तते णं से For Penal Use Ont ~38~ 1449) **००*७-459) 45049-15040-450** Incurary.org Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१९) “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] --------- ------ मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: निरया प्रत सूत्राक दोन्नि वि रायाणो रणभूमि सज्जावेंति २ रणभूमि जयति । तते णं से कूणिए तेत्तोसाए दंतिसहस्सेहि जाव मणुस्सकोडीहि I बकिका. गरुलवूह रएइ, रइना गरुलचूहेण रहमुसलं संगाम उवाया। । तते णं से चेडए राया सत्तावनाए दंतिसहस्सेहिं जाव सत्तावनाए मणुस्सकोडीहिं सगडबूह रएइ, रइचा सगडवूहेणं रहमुसलं संगाम उवायावे। तते णवे दोण्डि वि राईणं अणीया सन्नद जाव गहियाउहपहरणा मंगतितेहि फलनेहि निकट्टाहिं असीहि अंसागरहिं तोणेहि सजीवेहि घणूहि समुक्खित्तेहिं सरेहिं समुल्लालिताहि डावाहिं ओसारियाहिं उरूघंटाहिं छिप्पत्तरेणं वज्जमाणेणं महया उकिट्टसोहनायबोलकलकलरवेणं समुद्दरवभूयं पिव करेमाणा सचिडीए जाव रवेणं हयगया हयगएहिं गयगया गयमतेहिं रहगयारहगतेहिं पायत्तिया पायत्तिएहिं अन्नमन्नेहिं सद्धि संपलग्गा याविहोत्या । तते णं ते दोण्ह वि रायाण अणिया णियगसामीसासणाणुरत्ता महता जणस्वयं जणबई जणप्यमई जणसंवट्टकप्प नच्चतकर्वधवारभीम रुहिरकद्दमे करेमाणा अनमनेणं सद्धि जुझंति। तते ण सेकाले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहि जाव मणूसकोडीहिं गरुलबूहेणं एकारसमेणं खंघेणं कूणिएणं रण्णा सद्धिं रहमुसले संगाम संगामेमाणे हयमहित जहा भगवता कालीए देवीए परिकहियं जाव जीवियाओ क्वरोवेति । तं एवं खल्ल गोक्मा ! काले कुमारे एरिसरहिं आरंभेहिं जाव एरिसएगं असुभकडकम्मपन्भारेण कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पंकष्पभाए पुढवीए हेमा नरए नेरइयत्ताए उवबन्ने । काले णं भंते ! कुमारे चउत्थीए पुढर्व ए अणतरं उपट्टिचा कहिं गच्छहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे 'मंगतिपहित्ति हस्तपाशितैः फलकादिभिः, तोणेहिं 'ति इषुधिभिः, 'सजीवेडिं' ति सप्रत्यञ्चः धनुभिः, नृत्यद्भिः कबन्धैः वारश्च इस्तच्युतः भीम-रौद्रम् । शेष सर्व सुगमम् ॥२॥ दीप अनुक्रम [१८] Panditurary.org .मूलसूत्र-१९ ... कालकुमारस्य नरकगमनं, तदनन्तरम् महाविदेहे मोक्षप्राप्ति: ~39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “निरयावलिका" - उपांगसूत्र-८ (मूलं+वृत्तिः) अध्ययनं [१] --------- ------ मूलं [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र - [०८] "निरयावलिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: (१९) प्रत सूत्राक वासे जाई कुलाई भवति अट्टाई जहा दढप्पइयो जाब सिज्झिहिति बुझिहिति भाव अंतं काहिति । ते एवं खलु अंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेण निरयावलियाण पदमरस अज्झयणस्स अयमहे पन्नते ॥ ॥ पढम अज्झयणं सम्मतं ॥१॥ जइ ण भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं निरयावलियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नचे, दोबस्स णं भैते अन्झयणस्स निरयावलियाण समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अटे पन्नते? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेण समएणं चंपा नामै नगरी होत्या । पुनभद्दे चेइए । कोणिए राया । पउमावई देवी । तस्य ण चंपाए नयरीए सेणियस्स रमो भज्जा कोणियस्स रनो चुल्लमाउया सुकाली नाम देवी होत्या, मुकुमाला । तोसे णं सुकालीए देवीए पुत्ते सुकाले नाम कुमारे होत्या, सुकुमाले । तते णं से मुकाले कुमारे अन्नया कयाति तिहिं दंतिसहस्सेहिं जहा कालो कुमारो निरवसेसं तं चेव जाव महाविदेहे वासे अंतं काहिति ॥२॥ . एवं सेसा वि अट्ट अज्झयणा नेयहा पढमसरिसा, णवरं मायातो सरिसणामाओ॥१०॥ । निरयावलियातो सम्मत्तातो । निक्खेवो सबेसि भाणियतो तहा ॥ ॥ पढमो वग्गो सम्मत्तो॥ दीप अनुक्रम [१९] ॥ इति निरयावलिकाख्योपाङ्गब्याख्या ।। मूलसूत्र-२०,२१ DIPIABPNaDROIN मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र १९) "निरयावलिका" परिसमाप्त: ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः 19 पूज्य अन्योगाचार्य श्रीदानविजयजी गणि संशोधित: संपादितश्चा “निरयावलिका-उपाङ्गसूत्र” [मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्तिः] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "निरयावलिका" मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्त: Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~41~