Book Title: Yuvako se Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf View full book textPage 5
________________ युवकोंसे १४७ न होकर समूहगामी सुन्दर उपयोग होगा और प्रवृत्ति करनेवाला इतने अंशमें वैयक्तिक तृष्णासे मुक्त होकर निवृत्तिका पालन कर सकेगा। निर्मोह कर्मयोग दूसरा लक्षण वस्तुतः प्रथम लक्षणका ही रूप है। पहले ऐहिक और परलौकिक इच्छाओंकी तृप्ति के लिए यज्ञयागादि क्रियाकाण्ड बहुत होता था । धार्मिक समझा जानेवाला यह क्रियाकाण्ड वस्तुतः तृष्णाजनित होनेके कारण धर्म नहीं है, ऐसी दूसरे पक्षकी सत्य और प्रबल मान्यता थी । गीता-धर्म-प्रवर्तक जैसे दीर्घदर्शी विचारकोंको कर्म-प्रवृत्तिरहित जीवन-तंत्र असंभव जान पड़ा, फिर चाहे वह व्यक्तिका हो या समूहका । उन्हें यह भी प्रतीत हुआ कि कर्म-प्रवृत्तिकी प्रेरक तृण्णा ही सारी विडम्बनाओंका मूल है। इन दोनों दोषोंसे मुक्त होनेके लिए उन्होंने अनासक्त कर्मयोगका स्पष्ट रूपसे उपदेश दिया । यद्यपि जन-परम्पराका लक्ष्य निर्मोहत्त्व है, तो भी सम्पूर्ण समाजके रूपमें हम प्रवृत्तिके बिना नहीं रह सकते और न कभी रहे हैं। ऐसी स्थितिमें हमारे विचारक-वर्गको निर्मोह या अनासक्त भावसे कर्मयोगका मार्ग ही स्वीकार करना चाहिए । अन्य परम्पराओं को अगर हमने कुछ दिया है, तो उनसे लेने में भी कोई हीनता नहीं है । और अनासक कर्मयोगके विचारोंका अभाव हमारे शास्त्रोंमें हो, ऐसी बात भी नहीं है। इसलिए मेरा मान्यता है कि प्रत्येक जैन इस मार्गके स्वरूपको समझे और उसे जीवन में उतारनेके लिए दृढ निश्चयी बने । विवेकी क्रिया-शीलता अब हम तीसरे लक्षणका विचार करते हैं। हमारे इस छोटेसे समाजमें आपसमें लड़नेवाले और बिना विचारे घोष-प्रतिघोष करनेवाले दो एकान्तिक पक्ष हैं । एक पक्ष कहता है कि साधु-संस्था अब कामकी नहीं है, इसे हटा देना चाहिए। शास्त्रों और आगमोंके उस समयके बंधन इस समय व्यर्थ हैंतीर्थ और मंदिरोंका भार भी अनावश्यक है । दूसरा पक्ष इससे विपरीत कहता है। उसकी मान्यता है कि जैन-परम्पराका सर्वस्व साधु-संस्था है। उसमें अगर किसी प्रकार की कमी या दोष हो तो उसे देखने और करनेकी वह मनाई करता है। शास्त्र नामकी सभी पुस्तकोंका एक एक अक्षर ग्राह्य है और तीर्थों और मंदिरोंकी वर्तमान स्थितिमें किसी प्रकारके सुधारकी आवश्यकता नहीं है। मेरी समझमें अगर ये दोनों एकान्तिक विरोधी पक्ष विवेक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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