Book Title: Yogdrushti Samucchaya Satiknu Dhayanarham Sanshodhan Sampadan
Author(s): Trailokyamandanvijay
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 3
________________ डिसेम्बर २०१० १५७ पाठनी संगति कोइक रीते करवी शक्य होय त्यारे तो एमांथी बचवं मुश्केल बनी रहे छे. आनुं एक उत्तम उदाहरण श्लोक-१०नी टीकामां जोवा मळ्युं. आमां टीकाकारे सम्यक्त्वनी व्याख्या करतां प्रशमादि सम्यक्त्वनां लिङ्गोनां वर्णन, तत्त्वार्थभाष्यगत वाक्य उद्धृत कर्यु छे. अने पछी स्पष्टता करी छे के प्रशम-संवेग-निर्वेद-ए रीते सम्यक्त्वनां लिङ्गोनुं कथन प्राधान्यनी अपेक्षाए ज छे. लिङ्गोनी प्राप्ति तो आस्तिक्य-अनुकम्पा-निर्वेद-एम पश्चानुपूर्वीए थाय छे. आ माटे वाक्य छे - "यथाप्राधान्यमयमुपन्यासो लाभश्च पश्चानुपूर्व्या". आमां 'ला'ने बदले 'चा' पण वांची शकाय तेम होवाथी अने प्राचीन 'भ' अने आजना 'रु' वच्चे कोइ ज तफावत नहीं होवाथी वांचवामां आव्यु - "चारुश्च पश्चा०' पछी आगळ च होय तो विसर्गनो ओ थवो सम्भवित नहीं होवाथी पाठ सुधारवामां आव्यो- 'न्यासः चारुश्च पश्चा० आ पाठने अनुसारे लखायेला विवेचनोमां आ क्रमनी चारुता अने प्राधान्यापेक्षी क्रमनी अचारुता पण प्रतिपादित करवामां आवी ! संशोधकोए "०न्यास आचारश्च पश्चा०" एवो पाठ पण सूचव्यो !! वात क्यांनी क्यां पहोंचे छ ! घणी वार आपणी आंख अल्पपरिचित शब्दने स्थाने समानता धरावतो अने वाक्यमां संगत थई शके तेवो अतिपरिचित शब्द वांची ले छे. अने जो एq व्यापकपणे बने तो मूळ शब्दनुं स्थान ए हदे जोखमाय छे के काळक्रमे आवो शब्द अहीं होवो जोइए एवी सम्भावना पण कोइने नथी लागती. जेमके श्लोक-४७ नी ३-४ पंक्ति - "चित्रा सतां प्रवृत्तिश्च, साऽशेषा ज्ञायते कथम् ?" आमां 'साऽशेषा'ना स्पष्टीकरण माटे टीका छे – “तदन्यापोहतः". हवे उपरोक्त पंक्तिओनुं विवेचन करवानुं थाय त्यारे 'तदन्यापोहतः' शब्दने नजरअन्दाज करीने अर्थ करवामां आवे छे : 'मुनिओनी चैत्यवन्दनादि विविध प्रवृत्तिओ समग्रपणे कई रीते जाणी शकाय ?" आ अर्थमां बे असंगति छ : १. 'अशेष' नो अर्थ 'साकल्येन' थाय नहीं के 'तदन्यापोहतः' २. तारा जेवी प्रारम्भिक कक्षानी दृष्टिमां समग्र सत्प्रवृत्तिना ज्ञान- प्रयोजन पण नथी. हवे ताडपत्रीय पाठ जुओ – “सा ह्येषा ज्ञायते कथम् ?" आमां 'हि = एव = तदन्यापोहतः' पण संगत थई जाय छे. अने तारादृष्टिने उचित तात्त्विक अर्थघटन पण तारवी शकाय छे के - "मुनिओनी प्रवृत्तिओ चैत्यवन्दनादि

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