Book Title: Yogashwittavruttinirodha ki Jain Darshan Sammat Vyakhya
Author(s): Rajkumari Singhvi
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

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Page 2
________________ साध्वी रत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ निरोध ही योग है । चित्त की प्रत्येक भूमिगत वृत्तिनिरोध नहीं । निरुद्ध भूमिगत वृत्तिनिरोध वृत्तियों का पूर्ण निरोध होने से एवं असम्प्रज्ञात समाधि का साक्षात साधन होने से योग ही है । तथापि एकाग्र भूमिगत वृत्तिनिरोध की कारणता को स्पष्ट करते हुए व्यास लिखते हैं- यह चित्त में सद्भूत पदार्थ ( अर्थात् ध्येय) को प्रद्योतित करने से, क्लेशों को क्षीण करने से, कर्मों के बन्धन अर्थात् कर्माशय को शिथिल करने से तथा असम्प्रज्ञात समाधि में भी सहायक बनने से सम्प्रज्ञात योग कहा जा सकता है । " वाचस्पतिमिश्र योग के विरोधी तत्त्वों - क्लेश, कर्म एवं विपाकाशय को उत्पन्न करने वाली चित्तवृत्तियों के निरोध को योग मानते हैं ।" ऐसा मानने से सम्प्रज्ञात तथा असम्प्रज्ञात दोनों समाधि योग शब्द में परिगणित होते हैं । भोजदेव ने अपनी वृत्ति राजमार्तण्ड में चित्त की एकाग्र अवस्था में बहिर्वृत्तिनिरोध होने से योग माना है तथा निरुद्धभूमि में सर्ववृत्तियों और संस्कारों का लय होने से योग की सम्भावना व्यक्त की है 110 दोनों ही भूमियों में चित्त का एकाग्रता रूप परिणाम रहता है । विज्ञानभिक्षु योग लक्षण के इस सूत्र के अग्रिम सूत्र को सम्मिलित कर अर्थ करते हैं । उनके अनुसार चित्त की वृत्तियों का निरोध जो कि द्रष्टा को वास्तविक स्वरूप में अवस्थित कराने का हेतु हो वही योग कहा जा सकता है अन्य नहीं"। इस प्रकार सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात दोनों समाधियों का अन्तर्भाव सूत्रगत योग शब्द में हो जाता है । यशोविजय के अनुसार योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:' इस सूत्र में सर्व शब्द का अध्याहार करने अथवा न करने दोनों पक्षों में सूत्रकार पतञ्जलि के सूत्र का आशय स्पष्ट नहीं होता और लक्षण अपूर्ण रहता है क्योंकि सर्व पद का अध्याहार न करने पर लक्षण सम्प्रज्ञात योग में तो व्याप्त हो जायेगा किन्तु इससे कतिपय चित्तवृत्तियों के निरोध की विक्षिप्त अवस्था में भी लक्षण की अतिव्याप्ति होने का दोष आ पड़ेगा जो सूत्रकार को कदापि इष्ट नहीं है । सर्व शब्द ग्रहण न करने भी अर्थतः प्राप्ति होने से उक्त अतिव्याप्ति निराकरणार्थ यदि सर्व पद का अध्याहार न किया जाय तो सम्प्रज्ञात में लक्षण की अव्याप्ति होगी क्योंकि सम्प्रज्ञात में सर्व चित्तवृत्ति निरोध नहीं होता । इस प्रकार स्पष्ट है कि सर्व पद को ग्रहण न करने विषयक व्यासभाष्य तथा तत्व वैशारदी में निरूपित समाधान से यशोविजय सन्तुष्ट नहीं है और इसीलिए कतिपय योग सूत्रों के जैन वृत्तिकार यशोविजय ने “क्लिष्ट चित्तवृत्तिनिरोधो योगः " कहकर लक्षण का परिष्कार किया है। इस परिष्कार से भी सम्प्रज्ञात योग का ग्रहण सम्भव है । जैनदर्शन सम्मत व्याख्या प्रस्तुत करते हुए यशोविजय का कहना है "समितिगुप्ति साधारणं धर्म व्यापारस्वमेवयोगत्वम् " अर्थात् पंत्र समिति ईर्ष्या, भाषा, एषणा, भण्डोपकरण, आदान-निक्षेपण और त्रिगुप्ति (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, काय गुप्ति) से संबलित धर्मक्रिया योग है । धर्मव्यापारत्व कहने से सम्प्रज्ञात योग का भी समावेश सम्भव है । ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय यह त्रिपुटी व्यापार में शक्य है । हरिभद्रसूरि के योग विंशिका से उद्धृत लक्षण में— "मोक्खेण जोयणाओ जोगो सच्चो वि धम्मवावारो । परिसुद्धो विघ्नओ ठाणाइगओ विसेसेणं । " ३६४ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग www.jaineliby

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