Book Title: Yoga aur Ayurved Author(s): Rajkumar Jain Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 3
________________ योग और आयुर्वेद / २२३ धारण करना, पूर्वजन्म में उपाजित और इस जन्म में विहित कर्मों को क्षय करने का उपाय करना, जीवन को कर्महीन बनाना अर्थात् घर या पाश्रम से दूर होकर कर्मफल भोगने के लिए नए कर्म नहीं करना निष्कर्म रहना-अहंकार रहित होना, आत्मा और शरीर का संयोग होने पर अपने को भयभीत बनाना अर्थात यह भय रखना कि कर्मबन्धन के कारण कहीं मुझे पुनर्जन्म न लेना पड़े, मन और बुद्धि को समाधिस्थ करना, अर्थ के तत्त्वों की परीक्षा करने के बाद में उसका ग्रहण करना, ये सभी ठीक-ठीक स्मृतिज्ञान की प्राप्ति से ही प्रवृत्त होते हैं। स्मृतिः सत्सेवनाद्यश्च धत्यन्तैरुपजायते ।। स्मृत्वा स्वभावं भावनां स्मरन् दुःखात् प्रमुच्यते । --चरकसंहिता, शारीरस्थान १११४७ उपर्युक्त मोक्ष के जो साधन बतलाए गए हैं उनमें "सतामुपासनम्" से लेकर "पराधति" तक नियमों का पालन व आचरण करने से "स्मृति" उत्पन्न होती है। संसार में स्थितभाव द्रव्यों के स्वभाव का स्मरण करके तथा स्वभाव को स्मरण करते हुए दुःख से मुक्त हो जाता है । अर्थात् सांसारिक दुःखों से मुक्ति हो जाती है। __ इस प्रकार चरक के अनुसार मोक्ष के साधन में 'स्मृति' विशेष महत्त्वपूर्ण है । सामान्यतः पूर्वापर के विषयों को ध्यान में रखना ही स्मृति है, यथा-"अनुभवजन्यं ज्ञानं स्मृतिः।" अथवा "अनुभूतविषयासम्प्रमोष: स्मृतिः, योगसूत्र १।११।" अर्थात् अनुभव किए हुए विषयों को नहीं भूलना ही स्मृति है। संसार में रज और तम से यूक्त मन के द्वारा जो भी कार्य किये जाते हैं, वे सब दुःखदायी और सांसारिक कष्टों के कारणभूत होते हैं। सतामुपासनम् आदि आचरण करने से स्मृति उत्पन्न होती है और विगत दुःखों के अनुभव का स्मरण करते हुए सभी कार्यों को दुःख रूप मानकर धीरे-धीरे छोड़ देने से सुखोत्पादक ईश्वर की धारणा-ध्यान-समाधि में मन लग जाता है जिससे उसे चिदानन्द रूप परम ब्रह्म की प्राप्ति होती है। अत: स्मृति भी सांसारिक कष्टों से मुक्ति करने का एक साधन है। अष्टांगयोग का सतत अभ्यास करने से अन्ततः मोक्ष की प्राप्ति होती है-ऐसा योगाचार्यों का अभिमत है। आयुर्वेद में भी इसी तथ्य को स्वीकार किया गया है। आयुर्वेद के अनुसार मन और सेन्द्रिय (इन्द्रियों सहित) शरीर ये दोनों सभी प्रकार के कष्टों, दुःखों, रोगों और वेदनाओं का अधिष्ठान हैं। प्रात्मा का निवास भी इन्द्रिय और समनस्क शरीर में होता है। अत: शरीर और मन के द्वारा किये जाने वाले कर्मों का फल भी उसी आत्मा को भोगना पड़ता है । जब तक आत्मा सभी कर्मों से रहित नहीं हो जाती तब तक इस संसार से उसकी मुक्ति संभव नहीं है । मोक्ष होने पर सभी प्रकार के दुखों-रोगों वेदनाओं का प्रभाव हो जाता है । मोक्ष का साधन एकमात्र योग के द्वारा सम्भव है। इसीलिए महर्षि चरक ने योग को मोक्षप्रवर्तक बतलाया है। यथा वेदनानामधिष्ठानं मनो देहश्च सेन्द्रियः। केशलोमनखाग्रान्नलमद्रवगुणबिना। योगे मोक्षे च सर्वासा वेदनानामवर्तनम् । मोक्षे निवृत्तिनि:कषा योगो मोक्षप्रवर्तकः ॥ -चरकसंहिता, शारीरस्थान २।१३६-१३७ आसनस्थ तन आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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