Book Title: Yoga aur Ayurved Author(s): Rajkumar Jain Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 9
________________ योग और आयुर्वेद / 229 गुल्मप्लीहोदरं चापि वातपित्तकफोद्भवाः / बस्तिकर्मप्रमावेण क्षीयण्ते सकलामयाः॥ -हठयोग प्रदीपिका 2-27 -बस्तिकर्म के प्रभाव से गुल्म, प्लीहा सम्बन्धी रोग, उदर रोग तथा वात, पित्त, कफसे उत्पन्न होने वाले सभी रोग नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रकार त्राटककर्म के अभ्यास से सभी प्रकार के नेत्ररोग निर्मल होकर नेत्रों की ज्योति बढ़ती है। नौतिक्रिया के अभ्यास से अग्नि विकृति दूर होकर पाचनक्रिया एवं पाचन संस्थान सुव्यवस्थित रहता है। इससे होने वाले लाभों का वर्णन निम्न प्रकार से किया गया है। मन्दाग्निसंदीनपाचनादिसंधापिकानन्दकरी सदैव / अशेषदोषामयशोषिणी च हठक्रियामौलिरियं च नौलिः // हठयोग प्रदीपिका 2-34 -हठक्रिया में शिरोमणि यह नौलि क्रिया मन्दाग्नि को दूर कर जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाली, पाचनादि क्रियाओं को ठीक रखने वाली, सदा आनन्द देने वाली, सभी दोषों और रोगों को दूर करने वाली है। कपालभांति कर्म के द्वारा सिर, पार्श्व और वक्ष प्रदेश में संचित श्लेष्मा का क्षय या निर्गम होता है / इस प्रकार ये षटकर्म मल और दोषों को बाहर निकाल कर शरीर का शोधन कर रोगों का नाश करने वाले होते हैं / यह सम्पूर्ण विषय आयुर्वेदीय चिकित्साशास्त्र से सम्बन्धित हैं। प्रतः निस्सन्देह रूप से यह कहा जा सकता है कि योगशास्त्र बहुत कुछ रूप में प्रायूर्वेद का पुरक होने के कारण उसके अत्यन्त निकट है। योगशास्त्र में प्रतिपादित स्वास्थ्यरक्षा और रोगनाशक सम्बन्धी सिद्धान्त पूर्णतः वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित तथा आयुर्वेदीय दृष्टिकोण के सर्वथा अनुकल हैं। यौगिक षटकर्म तथा अन्य यौगिक क्रियाओं का प्रभाव सम्पूर्ण शरीर, मन और प्रात्मा पर पड़ता है। आयुर्वेदीय स्वस्थवृत्त, सदवृत्त एवं चिकित्सा भी शरीर, मन और आत्मा को पूर्णत: प्रभावित करते हैं। आपाततः दोनों का अन्तिम लक्ष्य भी लगभग समान ही है। अतः दोनों शास्त्र भिन्न होते हुए भी एक दूसरे के अत्यन्त निकट हैं। भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद् १ई/६, स्वामी रामतीर्थनगर, नई दिल्ली-११००५५ 00 आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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