Book Title: Yoga Swarup aur Sadhna Ek Vivechan
Author(s): Muktiprabhashreeji
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ योग : स्वरूप और साधना : एक विवेचन / 165 षड्यंत्र रच रहा है / अत: साधक प्रात्मश्रद्धा और आत्मविश्वास बढ़ावे तो ही वह संशय के विकारों से मुक्त हो सकता है। इस प्रकार के जय से योगी अपने आपमें रही हयी-विकृतियों से पर हो सकता है। जिस प्रकार शरीर के रोग से शरीर दुर्बल होता है, उसी प्रकार मन के विकार मन को दुर्बल करते हैं। साधक को इन विकारों से पर होने के लिए योगाभ्यास का सहारा लेना ही चाहिए। आज का युग साधकों से अपेक्षा रखता है कि अब हम सामाजिक प्राडम्बरों में, पदार्थों के प्रलोभन में तथा सत्ता, अधिकार और सन्मान में जो घसीट के ले जाने वाली प्रवृत्तियाँ हैं उनसे पर होकर शान्त चित्त से योगाभ्यास में अपने आपको केन्द्रित करें। ऐसा करने पर ही क्रमशः साधक भोगविलास, ऐश्वर्य, पद प्रतिष्ठा, कीर्ति इत्यादि बहिर्मखता से अन्तर्मख होने का अलभ्य लाभ प्राप्त करेगा। आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4