Book Title: Yoga Swarup aur Sadhna Ek Vivechan Author(s): Muktiprabhashreeji Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 1
________________ अर्चनार्चन Jain Education International योग: स्वरूप और साधना : एक विवेचन साध्वी मुक्तिप्रभा, एम. ए, पी-एच. डी. जीवन व्यवहार की अनेक प्रवृत्तियों के बीच रहने वाला साधक अनेक लोगों से संपर्क जोड़ता है और तोड़ता भी है । सम्पर्क -साधना ही हमारी विचारधाराओं को प्रभावित करती है कभी संयोग के रूप में, कभी वियोग के रूप में। जैसे-जैसे विचारों का प्रभाव चित्त पर स्थायी होता है वैसे-वैसे मोह का एक धुंधलासा बादल प्राच्छादित होता है। इस मोह-पटल से परे होने के लिए, सघन विचारधारा के अन्धकार से बचने के लिए कोई उपाय, कोई योजना साधक के जीवन में नितान्त आवश्यक है प्रोर वह है - " स्वरूपानुसंधान रूप योग ।" मनुष्य अपने ही गज से जब अपने आपको नापता है, अपने स्वभाव की तुला से अपने आपको तोलता है और अपने ही कार्यों से जब अपने आपको परखता है तब निश्चय ही वह अज्ञानी अपने आपको ज्ञानी, विवेकी और अनुभवी समझता है । पता नहीं वह कौन से कल्पनालोक में घूमता है, कौन से मानसचित्र को अंकित करता है, कितनी गलत धारणाएँ अबाध गति से धारण करता है और अपने आपका ही द्वेषी, वैरी और घातक बनता है । अपनी योग्यता से अधिक अपने श्रापको समझने वालों, अपने दुर्गुणों को भी गुण समझने वालों को यह चुनौती दी जा रही है । इस मोह का ह्रास करने के लिए ही यौगिक आराधना का आलम्बन रूप हरी झंडी ज्ञानी भगवन्तों ने बतायी है । आचार्य हरिभद्र सूरि ने योगविंशिका नामक ग्रन्थ में " मुक्खेण जोयणाश्रो जोगो" अर्थात् जिन यौगिक प्राराधनाओं के आलंबन से आत्मा की विशुद्धि और उसका मोक्ष के साथ योग होता है, उन सर्व श्रालंबनों को योग कहा है । इसी बात को स्पष्ट करने के लिए आचार्यश्री ने अपने योगदृष्टि - समुच्चय में बताया है कि एक एव तु मार्गोऽपि तेषां शमपरायणः । अवस्था भेदभेदेऽपि जलधौ तीरमार्गवत् ॥ प्रारम्भावस्था में विविध दर्शनानुयायी अनेक रूप से उपासना करते हैं। किसी भी प्रकार की उपासना हमें विकल्पों से मुक्त बनाती है। स्वात्मा में संलीनता लाती है और मोक्षमार्ग में स्थिर करती है । तो जो योगालंबन उपयुक्त है, साधक उसे स्वीकार करे । इन्द्रियविजय एक मार्ग जैनसाधक इन्द्रियविजय की साधना में प्राथमिक भूमिका में विषय से दूर रहने का अभ्यास करता है । कल्पना कीजिए आज किसी का मन टी. वी. में वीडियो केसेट देखने के लिए लालायित है, पर उस समय संकल्प के द्वारा उस ओर दौड़ती हुई हमारी विकृत श्रांखों पर जो नियंत्रण किया जाता है कि 'ग्राज मैं किसी भी हालत में वीडियो नहीं देखूंगा' और वह साधक मन, वचन प्रादि योगों को बहिर्मुखता से मोड़कर अन्तर्मुखता की ओर ले जाता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4