Book Title: Yog aur Man
Author(s): Sureshmuni Shastri
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ योग और मन ४१ . . ध्यानयोग : मनोरोध का प्रबलतम कारण मनोरोध योग का एक विशिष्ट अंग है। जब तक मन का निरोध नहीं होता, तब तक साधक को आनन्द उपलब्ध नहीं हो सकता। ध्यान मनोरोध का प्रबलतम एवं उत्कृष्टतम साधन है। ध्यान-साधना की अन्तर्यात्रा पर चलने वाले साधक को जब अन्तर से अलोक मिलता है, तभी ध्यान का आविर्भाव होता है । ध्यान का जन्म ज्ञान से होता है। ध्यान का अभिप्राय है-साधक का चिन्तन को छोड़कर चेतना में प्रतिष्ठित होना । चिन्तन 'पर' है और चेतना 'स्व' है। चिन्तन से निवृत्त होकर चेतना में स्थिर होना ही समस्त साधनाओं का प्रमुख ध्येय है। जिससे चिन्तन किया जाय, वह मन है।४२ मनुष्य के मन का चिन्तन अनेक विषयों की ओर चलता है। मन के चिन्तन का प्रवाह बहुमुखी है । इस बहुमुखी चिन्तन के कारण ही मनुष्य का मन एकरूप नहीं रह पाता । वह अनेक रूप धारण कर लेता है । इसीलिए तीर्थंकर महावीर ने आज से पच्चीस सौ वर्ष पहले कहा था : मनुष्य अनेकचित्त है। वह एकचित्त नहीं है। उसके भीतर बहुत चित्त हैं । और, जिसके भीतर बहुत चित्त हैं, वह कभी स्थिर एवं शांत नहीं हो सकता। एक चित्त कुछ कहता है तो दूसरा चित्त कुछ और चाहता है और तीसरा चित्त कुछ और ही कल्पना करता है। अनेकचित्तता का अर्थ है कि मनुष्य के मन में वृत्तियों, विचारों, कामनाओं, वासनाओं, कल्पनाओं और स्मृतियों का एक बहुत बड़ा जमघट है। इसलिए मनुष्य का मन खण्ड-खण्ड तथा बिखरा-बिखरा रहता है। इस अनेकचित्तता के कारण ही मनुष्य का मन चंचल, अस्थिर, अशांत एवं व्यग्र रहता है। अनेकचित्तता मन को चंचल करती है-अस्थिरता की ओर ले जाती है। ध्यान मनुष्य को एकचित्त बनाता है । ध्यान का अर्थ है एकचित्तता । अनेकचित्तता के कारण ही मन के चिन्तन का प्रवाह बहुमुखी होता है । ध्यान मन के इस बहुमुखी चिन्तन को एकमुखी करता है । ध्यान मन की बहुमुखी चिन्तनधारा को एक दिशा की ओर मोड़ देता है। मन के चिन्तन को एक आलम्बन पर केन्द्रित करना ध्यान है।४४ मन के चिन्तन का एक ही वस्तु पर अवस्थान या ठहराव ध्यान कहलाता है। एक ही ध्येय में एकतानता-चित्तवृत्ति का एकरूप तथा एकरस बने रहना ध्यान का स्वरूप है। एक विषय पर मन की अवस्थिति एवं एकाग्रता ही समाधि है।४० मन के इस एकाग्र-सन्निवेशन से निरोध फलित होता है।४४ वस्तुतः ध्यान की साधना मन को धीरे-धीरे वृत्तियों और विषयों से शून्य एवं रिक्त करने की एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। ज्यों-ज्यों साधक एक आलंबन पर चित्त-वृत्ति को स्थिर करने के लिए ध्यान का अभ्यास करता है, त्यों-त्यों मन के पटल से अन्य वृत्तियाँ विजित होने लगती हैं। मनोरोध के लिए मन का वृत्तियों और विषयों से मुक्त एवं रिक्त होना आवश्यक ही नहीं, अत्यन्त अनिवार्य एवं अपरिहार्य है। मन को वृत्तियों और विषयों से शून्य करना ध्यान-साधना का चरम बिन्दु है । निविषय मन ध्यान की परम स्थिति है। वृत्ति-शून्य होने पर मन का निरोध हो जाता है। मनोरोध की फलश्रुति : आत्मस्वरूप की उपलब्धि आत्मस्वरूप की उपलब्धि ही योग का चरम लक्ष्य है । मनुष्य की चित्त-वृत्तियाँ ही बाह्य जगत की वस्तुओं को ग्रहण करने वाली और उनमें लिप्त होने वाली होती हैं । योग-साधना से ज्यों-ज्यों मन की वृत्तियाँ बहिर्मुख से अन्तर्मुख होती हैं और क्रमशः उनका निरोध होता है, त्यों-त्यों मनुष्य बाहर से सिमट कर अन्तर्जगत् में प्रविष्ट होने लगता है और धीरे-धीरे वह आत्म-स्वरूप के निकट-निकटतर पहुंचता जाता है। वृत्ति-शून्य मन ब्रह्माकारता की स्थिति को प्राप्त कर लेता है, यही असंप्रज्ञात समाधि है। योग-दर्शन के भाष्यकार महर्षि व्यास ने समाधि को ही योग कहा है। समाधि की अवस्था में पहुंचकर ही चित्त-वृत्तियों के पूर्णत: निरोध और परमात्मा से तादात्म्य की स्थिति प्राप्त हो सकती है। वृत्ति-शून्य एवं स्थिर मन में आत्मस्वरूप को आवृत करने की क्षमता ही नहीं रह जाती। स्थिर तथा निर्मल मनरूपी जल में आत्म-दर्शन होता है।" वृत्तियों के निवृत्त होने पर उपराग शांत हो जाता है और आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है।५२ चित्त के वृत्तिशून्य होते ही आत्मा स्वयं प्रकाशित हो उठती है। चित्त-वृत्ति का निरोध होने पर द्रष्टा-आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। योग के अभ्यास से वश में किया हुआ चित्त जब आत्मा में स्थित हो जाता है, तभी वह सब कामनाओं से निःस्पृह पुरुष योगयुक्त ध्यानयोगी कहलाता है। जीवन की यह वह सर्वोच्च स्थिति है, जहाँ पहुँचकर, योग के अभ्यास द्वारा, चित्त निरुद्ध और उपराम को पा लेता है और जहाँ आत्मा के द्वारा ही आत्मा स्वयं परमात्मस्वरूप आत्मा को पहचानकर अपने आप में सन्तुष्ट रहता है ।५६ योग के द्वारा आत्म-साक्षात्कार करना परम धर्म है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8