Book Title: Yatishiksha Panchashika Author(s): Shilchandrasuri Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 2
________________ 14 यतिशिक्षापचाशिका ॥ जयइ जिणसासणमिणं अप्पडियथिरपयावदिप्पतं । दूसमकाले वि सया सहावसिद्धं तिहुअणे वि पढमं नमसिअव्वो जिणागमो जस्सं इह पभावाओ । सुहुमाण बायराणं भावाणं नज्जइ सरूवं जह जीवो भमइ भवं किलिट्ठगुरुकम्मबंधणेहिंतो । तन्निज्जरावि [य] जहा, जाइ सिवं संवरगुणड्डो इच्चाइ जओ नज्जइ सवित्थरं तं सरेह सिद्धंतं सविवेसं सरह गुरं(रुं) जस्स पसाया भवे सो वि गुरुसेवा चेव फुडं आयारंगस्स पढमसुत्तम्मि | इअ नाउं निअगुरुसेवणम्मि कह सीअसि सकन्न ! ? ता सोम ! इमं जाणिअ गुरुणो आराहणं अइगरिटुं । इह-परलोअसिरीणं कारणमिणमो विआण तुमं रुटुस्स तिहुअ [ण] स्स वि दुग्गइगमणं न होइ ते जीव ! । तुट्ठे वि तिहु[अ]णे लहसि नेव कइयावि सुगइपहं जते रुट्टो अप्पा तो तं दुग्गइपहं धुवं नेइ । अह तुट्ठो सो कहमवि परमपयं पि हु सुहं नेइ ts तुह गुणरागाउ (ओ) संधुणइ नमसई इहं लोओ ! न य तुज्झणुरागाओ कह तम्मि तुमं वहसि रागं ? जइ वि न कीरइ रोसो कह रागो तत्थ कीरए जीव ! ? । जो लेइ त (तु)ह गुणे पर - गुणिक्कबद्धायरो धिट्ठो Jain Education International जो गिन्ह तुह दोसे दुहजणए दोसगहणतल्लिच्छो । जइ कुणसि नेव रागं कह रोसो जुज्जए तत्थ ? For Private & Personal Use Only 11811 ॥२॥ ॥३॥ 11811 ॥५॥ ॥६॥ 11911 HI ॥९॥ ॥१०॥ ॥ ११ ॥ www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6