Book Title: Yatha Sthiti Aur Darshanik
Author(s): Dhirendra Doctor
Publisher: Dhirendra Doctor

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Page 4
________________ 26 फिलासफी एण्ड सोशल एक्शन स्थिति को बदलने की चाहना है क्या वे क्रान्तिकारी परिवर्तन के साथ-साथ क्रान्तिकारी पद्धति भी स्वीकार करते हैं या नहीं । और शायद यह अतिप्रसंग न हो कि हम क्रान्ति शब्द के साथ जुड़ी अनेक भ्रान्तियों पर विचार करें। सुधार और क्रान्ति के अन्तर और इन पद्धतियों के विभेद को भी समझना होगा । समाज व राजनीति शास्त्र से सम्बन्धित संज्ञाएं - सुधार, परिवर्तन, क्रान्तिकारी परिवर्तन, रक्त क्रान्ति आदि ऐसे शब्द हैं जो हमारी संस्कारजन्य धारणाओं को अभिव्यक्ति देते हैं । उदाहरण के लिए गांधी जी की नीतियों को सद्भावना और आदर के साथ शान्तिवादी और क्रान्तिकारी दोनों ही तरह के विशेषणों से सम्बोधित किया जाता था । इसी तरह वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र में सभी लोग क्रान्तिकारी विकास की बात करते हैं । किन्तु राजनीतिक व आर्थिक ढांचे को प्रगतिशील बनाने की जब बात की जाती है तो हमारे समाज के बहुसंख्यक लोगों को क्रान्तिकारी पद्धति का प्रयोग नकारात्मक मालूम देता है । वे लोग जो विज्ञान और तकनीकी में क्रान्तिकारी पद्धति का स्वागत करते हैं, आर्थिक व राजनयिक मामलों में क्रान्ति के स्थान पर सुधारात्मक पद्धति की वकालत करते हैं । यथास्थिति को हटा देने के लिए केवल सरकार को उखाड़ फेंकना ही काफी नहीं होता । केवल सरकार बदलने से ही सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन नहीं हो जाते । १६४७ में ब्रिटिश साम्राज्य के हट जाने से निस्सन्देह भारत में राजनीतिक सत्ता का परिवर्तन हुआ, लेकिन इतने बड़े परिवर्तन के बावजूद मौलिक परिवर्तन नहीं हो पाये क्योंकि सरकारी व्यवस्था गोरे लोगों के हाथों से हट कर काले बाबूओं के हाथों में तो आई पर कानूनी व आर्थिक व्यवस्था और उससे भी अधिक देश व समाज के नियमों और मानदण्डों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ । सरकार की भाषा, सरकार के कानून और सरकारी व्यवस्था ज्यों की त्यों बनी रही। अब प्रश्न यह है कि देश में सामाजिक व आर्थिक यथास्थिति को खत्म करने के लिए क्या सुधारवादी पद्धति से काम लिया जा सकता है, या कि क्रान्ति ही एक मात्र उपाय है ? जहां तक कि सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तनों का सवाल है उन्हें शान्ति पूर्ण तरीकों से प्राप्त करना तर्क संगत तो है । लेकिन है वह सर्वथा असम्भव । उदाहरण के लिए स्वयं गांधीजी ने देश के विड़लाओं को राष्ट्र की सम्पत्ति का संरक्षक (ट्रस्टी) कहा था । लेकिन पिछले तीस वर्षों में ट्रस्टी की सम्पति बढ़ती गई और देश गरीब होता गया । कल्पना कीजिए कि किसी देवी चमत्कार के कारण एक दिन देश के सभी नेताओं को अपने कर्तव्य का भान हो जाये और वे यह प्रतिज्ञा करलें कि अपने निहित स्वार्थी को छोड़कर राष्ट्र के निर्माण में लग जायेंगे । उनके आदर्श पर सरकारी बाबू, ठेकेदार, रईस, जमाखोर, मुनाफाखोर सभी यह प्रतिज्ञा ले लें कि वे राष्ट्र का हित सर्वोपरि मानेंगे । फलस्वरूप देश में सतयुग आ जाता है और न्याय पूर्ण आर्थिक व्यवस्था कायम हो जाती है। लोकसभा एकमत से निजी सम्पति और और औद्योगिक उत्पादन के साधनों का राष्ट्रीयकरण कर डालती हैं । सारे राष्ट्र में हर्ष व उल्लास छा जाता है । अब बसें नियम से चल रही हैं, खाने पीने की चीजों में मिलावट बन्द हो गई है और अस्पतालों में दवाईयां मिलने लग गई हैं और बिना जाति या धर्म भेद के शिक्षा नौकरियां और मकान मुहैया होने लगे हैं । ऐसे परिवर्तन को हम शान्तिपूर्ण तरीके से किया गया क्रान्तिकारी परिवर्तन कह सकते हैं । निस्सन्देह इसे असम्भव तो नहीं कहा जा सकता लेकिन इसकी वास्तविकता केवल कल्पना जन्य है । यदि ऐसा सम्भव होता तो विश्व में I 'बुद्ध, ईसा और गान्धी के बाद मार्क्सवादी क्रान्ति की आवश्यकता न होती । और महाभारत युद्ध में

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