Book Title: Yatha Sthiti Aur Darshanik Author(s): Dhirendra Doctor Publisher: Dhirendra Doctor View full book textPage 1
________________ "न्याय मूलक सुखी जीवन की सम्भावना का श्राधार है - कर्मवाद जिसे भारतीय परम्परा में श्रदृष्ट कहा गया है । समाज की दोषपूर्ण अर्थव्यवस्था को, लाखों करोड़ों के कष्टों को यह कह कर उपेक्षित कर देना कि वे उनके प्रदृष्टपिछले जन्मों का दुष्फल हैं और चन्द भ्रष्ट, व कुटिल शोषकों के अन्याय को यह मानकर सहे जाना कि वे किसी पूर्वजन्म में धर्मात्मा रहे होंगे - तर्कशून्य अन्ध परम्परा है।" यथास्थिति और दार्शनिक डॉ० धीरेन्द्र अनेक विद्वानों का मत है कि पूर्वी देश प्रमुखतया भारत के जन-जीवन की ऐतिहासिक . शक्तियां यहां की धार्मिक परम्पराओं के जाल में इस तरह फंसी हैं कि इनके संस्कारों, जातिबन्धनों और रूढ़ियों से निकल कर एक वैज्ञानिक दृष्टि रखने वाले समाज का निर्माण सम्भव नहीं है । विश्व के इतिहास और विज्ञान और तकनीक में बढ़े हुए देशों की स्थिति को देखने पर ऐसा नहीं मालूम देता कि किसी भी देश की रूढ़िवादी परम्पराएं प्रगति और विकास के चक्र को रोक सकेंगी । यथास्थिति और रूढ़िवाद के समर्थक, परिवर्तन और विकास का जितना ही विरोध करते हैं उतना ही विकास की गति को प्रोत्साहन मिलता है। भौतिकवादी वैज्ञानिक विश्लेषण से यह सिद्ध हो जाता है कि भारत का रूढ़िवादी समाज भी धार्मिक संस्कारों और विश्वासों के आधार पर इतिहास के चक्र की गति को अधिक समय तक नहीं रोक सकेगा । किसी भी देश के इतिहास की तरह भारत का अतीत भी ऐसी घटनाओं से भरा है जिन पर हमें गर्व भी हो सकता है और हम लज्जित भी हो सकते हैं। जहां एक ओर सभी जीवों में आत्मा की समता का ऊंचा सिद्धांत मिलता है वहीं पर जाति और कर्म के नाम पर ऐसी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है, जिसमें अन्याय, अत्याचार और अमानवीय व्यवहार को सराहा गया है । हमारे ब्राह्मणवाद ने श्रम-प्रधान जनता के अधिकारों को और उनकी मेहनत से कमाये धन को शहद की मक्खी के छत्तों से जैसे हम शहद लूटते हैं वैसे ही लूटा है । कला और संगीत की सुन्दरताओं को अन्यायपूर्ण सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था के भोंड़ेपन से दूषित किया गया है । लेकिन मानवतावाद के नाम पर देश के अनेक धार्मिक नेताओं और स्वयं महात्मा गांधी और विनोवा भावे सरीखे नेताओं ने यह तर्क किया है कि कर्म सिद्धान्त के आधार पर थोड़े से भाग्यशाली रईसों को राष्ट्र की सम्पति का ट्रस्टी मान लिया जाना चाहिए। वरना करोड़ों लोगों को सभी सुख नहीं दिये जा सकते । इसमें कोई समझदारी नहीं है कि यदि समाज में महामारी फैली हो तो खुद डाक्टर भी उस बीमारी का शिकार हो । ऐसे तर्क आज के वैज्ञानिक और तकनीकी युग में झूठे सिद्ध होते हैं। जबकि हमारे गोदामों में पर्याप्त ऊनी कपड़ा मौजूद हो तो किसी गांधी या विनोबा को बिड़ला भवन बल्कि सच तो यह है कि जिस किया था भारत में गांधीवाद गरीबों की सहानुभूति में नंगे बदन रहने की जरूरत नहीं है। दिन गांधी जी ने भंगी बस्ती छोड़ कर बिड़ला भवन में निवास उसी दिन मर चुका था ।Page Navigation
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