Book Title: Vyavaharik Jivan me Nam Rup Sthapana aur Pratik Author(s): Vishwanath Pathak Publisher: USA Federation of JAINA View full book textPage 3
________________ ११८ विश्वनाथ पाठक आकृतियाँ विलीन हो जाती हैं, द्रव्य ही शेष रहता है । यद्यपि मानवकृत नामों और रूपों की पारमार्थिक सत्ता नहीं है, तथापि उनके बिना काम नहीं चल सकता है। तन्तु मांगने पर पट नहीं मिल सकता, यद्यपि तन्तु ही पट है, मृत्तिका माँगने पर घट नहीं मिल सकता, यद्यपि मृत्तिका ही घट है और सुवर्ण मांगने पर आप कुण्डल नहीं पा सकते, यद्यपि सुवर्ण ही कुण्डल है। परन्तु सत्ता द्रव्य की ही होती है मिथ्या आकृतियों और नामों की नहीं, इसे मूर्ख भी जानता है। दीवाली में चीनी के हाथी, घोड़े और ऊँट बिकते हैं, परन्तु बच्चे भी उन्हें हाथी, घोड़े और ऊँट समझ कर नहीं खाते हैं, चीनी समझकर खाते हैं। __द्रव्य की सत्ता पारमार्थिक होने पर भी हमारा प्राप्य द्रव्य ही नहीं है, मिथ्या नाम और रूप भी हैं, क्योंकि उनमें व्यवहार-सम्पादन की विलक्षण क्षमता होती है। कंकण चाहने वाला सुवर्ण पाकर ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता है, और न घट चाहने वाला मृत्तिका से, क्योंकि द्रव्य पर्याय (विकार, रूप) के बिना मूलरूप में अनेक स्थलों पर कार्य-सम्पादन में अक्षय हो जाता है। हम मृत्तिका-पिण्ड में नहीं, घट में ही जल भर सकते हैं, तन्तु से नहीं पट से ही तन ढंकना संभव है। इस प्रकार व्यवहार-क्षेत्र में रूप की अपरिहार्यता निर्विवाद है। मानव द्रव्य के अभाव में भी रूपमात्र से सन्तुष्ट हो जाता है। प्रवासी प्रणयी को व्यापक वियोग के व्यथाकुल क्षणों में प्रेयसी का मनोरम चित्र ही धीरज बंधाता है । काठ का घोड़ा घास नहीं खाता है, सवार को लेकर दौड़ भी नहीं सकता है, फिर भी कोई व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई देता है जिसने उसे मिथ्या समझ कर फेंक दिया हो। द्रव्य के अभाव में रूप का प्रेम विलक्षण है। बुद्ध और महावीर अब नहीं हैं, परन्तु उनकी पाषाण-प्रतिमाएं विद्यमान हैं। उन प्रस्तर-प्रतिमाओं में बुद्ध और महावीर कहाँ हैं ? उन्हें तो निर्वाण और कैवल्य प्राप्त हो गया है। बुद्ध और महावीर तो सावयव थे, निरवयव ईश्वर की भी प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। ताश के पत्ते पर बादशाह के पास फौज नहीं रहती है, बीवी बच्चे नहीं देती और न गुलाम हुक्म ही बजाता है, फिर भी वे बादशाह बीवी और गुलाम हैं। जिसने मानव को पशुत्व से ऊपर उठाकर सभ्य बनाया है, जो आज तक विश्व के कोने-कोने में अखण्ड ज्ञानालोक प्रज्ज्वलित करती आई है, वह भाषा भी कोरे रूप के व्यामोह से मक्त नहीं रह सकी। संसार की समस्त समन्नत भाषालिपियाँ एक स्वर से जीवन में रूप की अनिवार्यता का उद्घोष कर रही हैं । रूपहीन ध्वनियाँ ही अक्षर या वर्ण हैं, परन्तु विभिन्न लिपियों में उन निराकार वर्गों की भी पृथक्-पृथक् कल्पित आकृतियाँ गढ़ ली गई हैं। विभिन्न भाषा-लिपियों में एक ही ध्वनि के पृथक्-पृथक् आकार मानव की कल्पनाप्रियता का परिचय देते हैं :देव नागरी फारसी रोमन तमिल - य तो कुछ उदाहरण हैं। विश्व में बहुत सी भाषाएँ हैं और उनकी अनेक लिपियाँ हैं। ध्वनियो की आकृति के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद सबके मिथ्यात्व का प्रमाण है। परन्तु इन्हीं मिथ्या एवं कल्पित वर्णाकृतियों में वेद, त्रिपिटक, जैनागम, बाइबिल, कुरान प्रभृति प्रमाण ग्रन्थ लिखे गये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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