Book Title: Vyakti Aur Samaj
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ साधना भी संघीय धरातल पर ही पल्लवित - पुष्पित हुई है । जैन परम्परा का साधक अकेला नहीं चला है, बल्कि समूह के रूप में साधना का विकास करता चला है। व्यक्तिगत हितों से भी सर्वोपरि संघ के हितों का महत्त्व मानकर चला है। जिनकल्पी जैसा साधक कुछ दूर केला चलकर भी अन्ततोगत्वा संघीय जीवन में ही अन्तिम समाधान कर पाया है । जीवन में जब संघीय चेतना का विकास होता है, तो निजी स्वार्थी और व्यक्तिगत हितों का बलिदान करना पड़ता है। मन के वासना-केन्द्रों को समाप्त करना होता है। एकता और संघ की पृष्ठभूमि त्याग पर ही खड़ी होती है । अपने हित, अपने स्वार्थ, अपने सुख से ऊपर संघ के स्वार्थ और सामूहिक हित को प्रधानता दी जाती है । संघीय जीवन में साधक अकेला नहीं रह सकता, सब के साथ चलता है। एक-दूसरे के हितों को समझकर अपने व्यवहार पर संयम रखकर चलता है। परस्पर एक-दूसरे के कार्य में सहयोगी बनना, एकदूसरे के दुःखों और पीड़ाओं में यथोचित साहस और धैर्य बंधाना, उनके प्रतिकार में यथोचित भाग लेना, यही संघीय जीवन की प्रथम भूमिका होती है। जीवन में जब अन्तर्द्वन्द्व खड़े हो जाएँ और व्यक्ति अकेला स्वयं उनका समाधान न कर सके, तो उस स्थिति में दूसरे साथी का कर्तव्य है, कि वह उसके अन्तर्द्वन्द्वों को सुलझाने में सस्नेह सहयोगी बने, अँधेरे में प्रकाश दिखाये और पराभव के क्षणों में विजय की ओर उसे अग्रसर करे । सामूहिक साधना की यह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है कि वहाँ किसी भी क्षण व्यक्ति अपने को एकाकी या असहाय अनुभव नहीं करता है, एक के लिए अनेक सहयोगी वहाँ उपस्थित रहते हैं। एक के सुख व हित के लिए, अनेक अपने सुख व हित का उत्सर्ग करने को प्रस्तुत रहते हैं । जैसा कि मैंने बताया, बहुत पुराने युग में, व्यक्ति अपने को तथा दूसरों को अलगअलग एक इकाई के रूप में सोचता रहा था, पर जब समूह और समाज का महत्त्व उसने समझा, संघ के रूप में ही उसे जीवन की अनेक समस्याएँ सही रूप में सुलझती हुई लगीं, तो सामाजिकता में, संघीय भावना में उसकी निष्ठा बढ़ती गई और जीवन में संघ और समाज का महत्त्व बढ़ता गया । साधना के क्षेत्र में भी साधक व्यक्तिगत साधना से निकल कर सामूहिक साधना की ओर आता गया । जीवन की उन्नति र समृद्धि के लिए संघ का आरम्भ से ही अपना विशिष्ट महत्व है । इसीलिए व्यक्ति से अधिक संघ को महत्त्व दिया गया है। साधना के क्षेत्र में यदि आप देखेंगे तो हमने साधना के कुछ अंगों को व्यक्तिगत रूप में उतना महत्त्व नहीं दिया है, जितना समूह के साथ चलने वाली साधना को दिया है। जीवन में संघ का क्या महत्त्व है ? इसे समझने के लिए यही एक बहुत बड़ा उदाहरण हमारे सामने है कि 'जिन कल्पी' साधक से भी अधिक 'स्थविर-कल्पी' साधक का हमारी परम्परा में महत्त्व रहा है । साधना के क्षेत्र में जिन कल्पी मुनि साधना की कठोर और उस भूमिका पर चलता है । आगम ग्रन्थों में जब हम 'जिन कल्पी' साधना का वर्णन पढ़ते हैं तो आश्चर्य चकित रह जाते हैं- कितनी उग्र, कितनी कठोर साधना है ! हृदय कंपा देने वाली उसकी मर्यादाएँ हैं ! 'जिन - कल्पी ' चला जा रहा है, सामने सिंह आ गया, तो वह नहीं हटेगा, सिंह भले ही हट जाए, न हटे तो उसका ग्रास भले बन जाए, पर जिन कल्पी मुनि अपना मार्ग छोड़कर इधर-उधर नहीं जाएगा। मौत को सामने देखकर भी उसकी प्रात्मा भयभीत नहीं होती, निर्भयता की कितनी कठोर साधना है ! चम्पा के द्वार खोलने वाली सती सुभद्रा की कहानी आपने सुनी होगी। मुनि चले जा रहे हैं, मार्ग में कांटेदार झाड़ी का भार सिर पर लिए एक व्यक्ति जा रहा है और झाड़ी का एक काँटा मुनि की आँख में लग जाता है। प्रांख बिन्ध गई और खून आने लग गया । कल्पना कीजिए, आँख में एक मिट्टी का कण भी गिर जाने पर कितनी वेदना होती है, प्राण तड़पने लग जाते हैं और यहाँ काँटा प्रांख में चुभ गया, खून बहने लगा, आँख सूर्ख हो गई, पर वह कठोर साधक बिलकुल बेपरवाह हुआ चला जा रहा है, उसने काँटा हाथ से निकाल कर फेंका भी नहीं । सुभद्रा के घर पर जब मुनि भिक्षा के लिए जाते हैं और सुभद्रा ने मुनि ३४४ पन्ना समिक्ar धम्मं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7