Book Title: Vividh Kavi Kruti Tran Gey Rachnao
Author(s): Samaypragnashreeji
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 3
________________ जून २००९ ० ||६|| सुमति कहैं याकौ सु धाषनु, समझ परैगी यौकी, यह देहैं डारि जेल मनमथकी, यह हैं अपनी गोंकी; अपनौं कियौं आपही पय हौ, हूं का कौं रोकौं, तबहीं समुझि परैंगी चैतन जब छांडौगे मोकौं. पिय याकै डर पायें तुम मति डरपो ( यो ? ) तुम सिर छत्र फिराउं, या तै रूप अधिक की विनता ते तुमकौं आंनि मिलाउं, बिलीसौ भौग संक मति मानौ, हौं तुमकौं समुझायुं, आपौ राज तौहिहि मंडलकुं, तो हूं कुमति कहाउं, या कुजात केते घर घाले, या पैं कौं इन वंच्यौ, ब्रह्माकै जुं पांच मुख कीनां, शिव त्रिया आगै नांच्यौ, हरिहरादिक रावण बालि कीच थाहाके रंग राचे या तें हो डर पति हो चेतन तुम हौ जिय के काचे चे० ॥८॥ इन सुजाति कार्कों घर राख्यो, जैन पुराण मैं गाए, श्री ऋषभ आदि चोवीस एते लै गिरिशिखर चढाए, पाष मास दै रुखौ भोजुन, है कर केश लुचाए, काया गारि दीए शिवपुर मैं वैहुं रिन कलिमैं आए. चे० ||९|| जे चेतन जग भटक्यौ चाहो, तो य सीख सुनिजै, नही तो दुविधा पद मेटो, प्रीति एकसौ कीजै; जाकी प्रीति परमपद उपजै दुख - जल जल दीजै, आवागमन मेटि त्रिभुवनकौं शिवकै सुख लीजै. जब चेतन समुझे कुछ मनमैं, प्रीति सुमतिसौ ठानी, यहं कुजाति दुरमति बेढंगी नीं के करिकै जब जांनि, दई निकारि कुमति घरि सेती, करीय सुमति पटराणी, सुनहु भविक जिन लाल विनोदी गावै. इति सुमति - कुमति वादगीतम् ॥ Jain Education International चे० ||७|| For Private & Personal Use Only ५३ चे० ॥१०॥ च चे० ॥११॥ www.jainelibrary.org

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