Book Title: Vishwalochana Kosha
Author(s): Nandlal Sharma
Publisher: Balkrishna Ramchandra Gahenakr

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Page 9
________________ प्रस्तावना । पाठक महाशय, एक विद्वान्ने कहा है कि कोशश्चैव महीपानां कोशश्च विदुषामपि । उपयोगो महानेष क्लेशस्तेन विना भवेत् ॥ अर्थात् जिस प्रकार राजाओंके लिये कोश (खजाना) आवश्यक है, उसके विना उनका काम नहीं चल सकता है-उन्हें क्लेश होता है, उसी प्रकारसे विद्वानोंके लिये कोश (शब्दभांडार) आवश्यक है । कोशके विना विद्वानोंका काम नहीं चल सकता है वे अपने हृदयके भाव दूसरोंपर सुचारुरूपसे प्रगट नहीं कर सकते हैं। इससे आप समझ सकते हैं कि, कोशकी कितनी उपयोगता है। संस्कृतका शब्दभांडार यद्यपि अब भी कम नहीं है, तो भी पुरातत्त्वज्ञ विद्वानोंका अनुमान है कि, वह पूर्व समयमें इससे भी बहुत थाअपार था । संस्कृतका प्रचार धीरे २ कम हो जानेसे और विविध विषयके सैकड़ों ग्रन्थोंके लुप्त हो जानेसे वह बहुत मामूली रह गया है। __ इस समय संस्कृतभाषामें जो शब्दसमूह पाया जाता है, उसके रक्षण और पोषणमें कोश ग्रन्थकारोंने प्रधान सहायता पहुंचाई है और आज जब कि संस्कृत बोलचाल की भाषा नहीं है, इन्हीं कोशकारोंकी कृपासे हम संस्कृत ग्रन्थोंका अध्ययन तथा परिशीलन कर सकते हैं। __ संस्कृतमें काव्यसाहित्य अलंकारादि ग्रन्थोंके समान कोश ग्रन्थ भी बहुत हैं। डा० भांडारकर महाशयने अमरकोषकी भूमिकामें कोश ग्रन्थोंकी एक विस्तृत सूची प्रकाशित की है । परन्तु खेद है कि, अभी तक उनमेंसे बहुत ही थोड़े ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। कई वर्ष पहिले बम्बईके निर्णयसागर प्रेससे एक अभिधानसंग्रह नामका सेरीज छपना प्रारंभ हुआ था और उससे आशा हुई थी कि, संस्कृतका कोशसमूह धीरे २ प्रकाशित हो जायगा, परन्तु दुर्भाग्यसे दो ही भाग प्रकाशित हुए, और कोई भाग "Aho Shrutgyanam"

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