Book Title: Vishvatomukhi Mangal Deep Anekant Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 4
________________ 'पिताजी ।' दूसरी ओर से एक बूढ़ा आया। उसने कहा -' 'पुत्र !' तीसरी ओर से एक समवयस्क व्यक्ति आया । उसने कहा- 'भाई !' चौथी ओर से एक और लड़का आया । उसने कहा- 'मास्टरजी !' इसी प्रकार विभिन्न रूपों में उसी आदमी को कोई चाचा कहता है, कोई ताऊ कहता है, कोई मामा कहता है, कोई भानजा भी कहता है । अपनेअपने पक्ष के लिए सब झगड़ते हैं - यह तो पिता ही है, पुत्र ही है, भाई ही है, मास्टर ही है, और चाचा, ताऊ, मामा या भानजा ही है । अब बताइए, निर्णय कैसे हो ? उनका यह संघर्ष कैसे मिटे ? वास्तव में वह आदमी है क्या ? यहाँ पर अनेकान्त मूलक स्याद्वाद को न्यायाधीश बनाना पड़ेगा । स्याद्वाद पहले लड़के से कहता है- हाँ, यह पिता भी है । तुम्हारे लिए तो पिता है, चूंकि तुम इसके पुत्र हो । और अन्य लोगों का तो पिता नहीं है। बूढ़े से कहता है- हाँ, यह पुत्र भी है। तुम्हारी अपनी अपेक्षा से ही यह पुत्र है, सब लोगों की अपेक्षा से तो नहीं। क्या यह सारी दुनिया का पुत्र है ? मतलब यह है कि 'वह आदमी अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता है, अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र है, अपने भाई की अपेक्षा से भाई है, अपने विद्यार्थी की अपेक्षा से मास्टर है । इसी प्रकार अपनी-अपनी अपेक्षा से चाचा, ताऊ, मामा, भानजा पति, मित्र सब है। एक ही आदमी में अनेक धर्म हैं, परन्तु भिन्न-भिन्न अपेक्षा से । यह नहीं कि उसी पुत्र की अपेक्षा पिता, उसी की अपेक्षा पुत्र, उसी की अपेक्षा भाइ, मास्टर, चाचा, ताऊ, माना, और भानजा हो। ऐसा नहीं हो सकता । यह पदार्थ-विज्ञान के नियमों के विरूद्ध है । स्याद्वाद को समझने के लिए इन उदाहरणों पर और ध्यान दीजिए - एक आदमी art ऊँचा है, इसलिए कहता हूँ कि मैं बड़ा है। हम पूछते हैं- 'क्या आप पहाड़ से भी बड़े हैं ?' वह झट कहता है— नहीं साहब, पहाड़ से तो मैं छोटा हूँ ।' मैं तो अपने साथ के इन नटे आदमियों की अपेक्षा से कह रहा था कि 'मैं बड़ा हूँ ।' अब एक दूसरा आदमी है । वह अपने साथियों से नाटा है, इसलिए कहता है कि 'मैं छोटा हूँ ।' हम पूछते ह-'क्या आप चींटी से भी छोटे हैं ?' वह झट उत्तर देता है--'नहीं, चींटी से तो मैं बहुत बड़ा हूँ।' मैं तो अपने इन कद्दावर साथियों की अपेक्षा से कह रहा था कि 'मैं छोटा हूँ ।' इस से अनेकान्त की मूल भावना स्पष्ट हो जाती है कि हर वस्तु बड़ी भी है और छोटी भी है। वह अपने से बड़ी चीज की अपेक्षा से छोटी है, तो छोटी चीजों की अपेक्षा बड़ी है । इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु के विभिन्न पहलू होते ह और उन्हें समझने के लिए अपेक्षावाद का सिद्धान्त वस्तु के एक केन्द्र में ही निर्णायक होता है। दर्शन की भाषा में इसी बहु आयामी विचार को अनेकान्तवाद कहते हैं और उक्त विचार के प्रतिपादन को स्याद्वाद । हाथी का नैकान्तिक-दर्शन : अनेकान्तवाद को समझने के लिए प्राचीन आचार्यों ने हाथी का उदाहरण दिया है । एक गाँव में जन्म के अन्धे छह मित्र रहते थे। संयोग से एक दिन वहाँ एक हाथी श्रा गया। गाँववालों ने कभी हाथी देखा नहीं था, धूम मच गई। अन्धों ने हाथी का आना सुना, तो वे भी देखने दौड़ पड़े । अन्धे तो थे ही देखते क्या ? हर एक ने हाथ से टटोलना शुरू किया। किसी ने पूंछ पकड़ी, तो किसी ने सूंड़, किसी ने कान पकड़ा, तो किसी ने दाँत, किसी ने पैर पकड़ा, तो किसी ने पेट। एक-एक अंग को पकड़ कर हर एक ने समझ लिया कि मैंने हाथी देख लिया है। इसके बाद जब वे अपने स्थान पर ग्राए, तो हाथी के सम्बन्ध में चर्चा छिड़ी । प्रथम पूंछ पकड़नेवाले ने कहा- "भाई, हाथी तो मैंने देख लिया, बिल्कुल मोटे रस्से- जैसा था ।" सूंड़ पकड़नेवाले दूसरे अन्ध ने कहा- "झूठ, बिल्कुल झूठ ! हाथी कहीं रस्सेजैसा होता है । रे, हाथी तो मूसल जैसा था ।" १०० Jain Education International For Private & Personal Use Only पन्ना समिक्ख धम्मं www.jainelibrary.org.Page Navigation
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