Book Title: Vishnusahastra nam aur Jisahastra Nam
Author(s): Lakshmichandra Saroj
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf

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Page 3
________________ पर भक्तोंमें भावनात्मक एकताकी अभिवृद्धिकी बात भी देश और कालको दृष्टिमें रखते हुये निस्संकोच कही जा सकती है। (१) स्वयम्भू शम्भुरादित्यः पुष्पकराक्षो महास्वनः । श्रीमान् स्वयम्भू वृषभूः सम्भवः शम्भुरात्मनः ॥ (२) अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः । स्तवनारे हृषीकेशो जितेन्द्रियः कृतक्रियः ।। ( ३ ) अनिविण्णः स्थविष्ठोऽमूर्धमयूपो महामखः । धर्मयूपो दयारागो धर्मनेमिर्मुनीश्वरः ।। ( ४ ) अनन्तगुणोऽनन्तश्रीजितमन्युर्भयापहः जितक्रोधो जितामित्रो जितक्लेशो जितान्तकः । मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुविदारणः ( ५ ) श्रीदः शीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः । श्रीनिवासश्चतुर्वक्त्रः चतुरास्यः चतुर्मखः ।। प्रबुद्ध पाठक देखेगें कि पांचवें उदाहरणकी प्रथम पंक्ति और चतुर्थ उदाहरणकी द्वितीय पंक्ति पढ़ते हुये लगता है कि एक ही पोशाकमें सड़क पर दो विद्यालयोंके विद्यार्थी जा रहे है और साहित्यकी दृष्टिसे अनुप्रास अलङ्कार तो सुस्पष्ट है ही। विष्णुसहस्रनामकी नामावलीमें विभाजन नहीं है, पर जिनसहस्रनामकी नामावली दस विभागोंमें विभाजित है। विष्णुसहस्रनामकारने शायद इसलिये विभाजन नहीं किया कि विष्णुके सभी नाम पृथक पृथक हैं ही, परन्तु जिन सहस्रनामकारने शायद इसलिये सौ-सौ नामोंका विभाजन कर दिया कि जिससे श्लोक पाठसे थकी जनताको जिह्वाको, वाणीको कुछ विश्राम मिले और अर्घ्य चढ़ानेमें भी यत्किंचित् सुखानुभूति हो। हिन्दू धर्मकी एक प्रमुख विशेषता समाहार शक्ति भी है। उसमें एक ईश्वरके तीन रूप-ब्रह्मा, विष्णु, महेशकी शक्तियोंमें हैं और विष्णु भगवान्के चौबीस अवतार भी हैं। इनमें ऋषभदेव और बुद्ध भी हैं । इसी उदात्त भावनाका सूचक विष्णुसहस्रनामका निम्नलिखित श्लोक है जिसमें अनेक लोगोंका एकत्रीकरण या पुण्यस्मरण किया गया है : . चतुर्मूतिश्चतुर्बाहुश्चतुव्यूहश्चतुर्गतिः । चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदः विवेकवान् ॥ इस श्लोकमें राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्धको जहाँ स्मरण किया, वहाँ सालोक, सामीप्य, सायुज्य, सारूप्य गतिके साथ मन, बुद्धि अहँकार और चित्तको भी दृष्टिमें रखा तथा धर्म, अर्थ काम और मोक्ष पुरुषार्थोके साथ ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेदको भी नहीं भुलाया । यह श्लोक अनुप्रास अलंकारका भी ज्वलन्त निदर्शन है। अणु बृहत्कृशः स्थूलो गुणभृन्निगुणो महान् । अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ।। अणु, बृहत्, कृशः, स्थूल, गुणभृत, निर्गुण, अधृत, स्वधृत जैसे विरोधी सार्थक शब्दोंको अपनेमें समेटे हुये यह श्लोक विरोधाभास अलंकार प्रस्तुत कर रहा है, यह कौन नहीं कहेगा ? विष्णु सहस्रनाममें - १४९ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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